अयोध्या में राम मंदिर कब बन पायेगा-हिन्दी हास्य कविता (ayodhya mein ram mandir kab ban paeyga-hindi hasya kavita)


एक राम भक्त ने दूसरे से कहा
‘वैसे तो राम सभी जगह हैं,
हमारे अध्यात्मिक ज्ञान की बड़ी वजह हैं,
घर घर में बसे हैं,
घट घट में इष्ट की तरह श्रीराम सजे हैं श्रीराम
पर फिर भी जिज्ञासावश
अयोध्या के राम मंदिर का ख्याल आता है,
चलो किसी समाज सेवक से चलकर
पूछ लेते हैं कि
वह कब तक बन पाता है।’

सुनकर दूसरे राम भक्त ने कहा
‘भला तुमको भी समाजसेवकों की तरह
अपनी आस्था की परीक्षा क्या ख्याल क्यों आता है,
अरे, अयोध्या के मंदिर का मामला
बड़े लोगों का है
यह पता नहीं उनका वास्तव में
राम भक्ति से कितना नाता है,
अलबत्ता चाहो तो किसी सट्टेबाज या
बाज़ार के सौदागरों से पूछ लेते हैं,
चाहे जो भी जनचर्चा को विषय हो
उसमें अपने भगवान पैसे को पूज लेते हैं,
प्रचारक अब क्रिकेट जैसे खेल में भी
भगवान का स्वरूप गढ़ने लगे हैं
शिकायत भी वही करते हैं कि
अंधविश्वासी लोग बढ़ने लगे हैं,
चुनाव हो या क्रिकेट
जीत हार फिक्स कर लेते हैं,
सौदा और सट्टा मिक्स कर लेते हैं,
समाज सेवा में भी उनके दलाल पलने लगे हैं,
धर्म कर्म भी उनके इशारे पर चलने लगे हैं,
सट्टेबाज़ जिज्ञासाओं और आशाओं की आड़ में कमाते हैं
इसलिये इंसानों को उसमें फंसाते हैं
हम तो बरसों से सुनते हुए राम मंदिर प्रसंग भुला बैठे,
पर बड़े लोग इसे चाहे जब झुला बैठे,
इसलिये सौदागरों से यह पूछना होगा कि
कब राम मंदिर पर उनका दिल आयेगा,
सट्टेबाजों से पूछना होगा
उनका आंकड़ा कब हिल पायेगा,
अपुन ठहरे आम भक्त,
अंदर से पुख्ता, बाहर अशक्त,
अपने राम तो मन में बसे रहेंगे,
एक जगह न ठहर सभी जगह
कल्याण करते बहेंगे,
कण कण में देखते रूप उनका
काम नहीं करती अक्ल इस पर कि
अयोध्या में राम मंदिर कब बन पायेगा।’’
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हादसे और सर्वशक्तिमान का दरब़ार-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (hadsa aur darbar-hindi vyangya kavitaen)


अब तो हादसों के इतिहास पर भी
सर्वशक्तिमान के दरबार बनते हैं,
जिनके पास नहीं रही देह
उन मृतकों के दर्द को लेकर
जिंदगी के गुढ़ रहस्य को जो नहीं जानते
वही उफनते हैं,
जज़्बातों के सौदागरों ने पहन लिया
सर्वशक्तिमान के दूत का लबादा,
भस्म हो चुके इंसानों के घावों की
गाथा सुना सुनाकर
करते हैं आम इंसानों से दर्द का व्यापार
क्योंकि उनके महल ऐसे ही तनते हैं।
————
इंसानों को दर्द से जड़ने का जज़्बा
भला वह अक्लमंद क्या सिखायेंगे,
जो हादसों में मरों के लिये झूठे आंसु बहाकर,
सर्वशक्तिमान के दरबार सजाकर
लोगों का अपना दर्द दिखायेंगे,
यह अलग बात है कि उनके भौंपू
उनका नाम इतिहास में
सर्वशक्तिमान के दूत की तरह लिखायेंगे।
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खुल गयी प्यार की पोल-हिन्दी हास्य कविता(khul gayi pyar ki pol-hindi haysa kavita)


आशिक ने कहा माशुका से
‘‘मुझसे पहले भी बहुत से आशिकों ने
अपनी माशुकाओं के चेहरे की तुलना
चांद से की होगी,
मगर वह सब झूठे थे
सच मैं बोल रहा हूं
तुम्हारा चेहरा वाकई चांद की तरह है खूबसूरत और गोल।’’

सुनकर माशुका बोली
‘‘आ गये अपनी औकात पर
जो मेरी झूठी प्रशंसा कर डाली,
यकीनन तुम्हारी नीयत भी है काली,
चांद को न आंखें हैं न नाक
न उसके सिर पर हैं बाल
सूरज से लेकर उधार की रौशनी चमकता है
बिछाता है अपनी सुंदरता का बस यूं ही जाल,
पुराने ज़माने के आशिक तो
उसकी असलियत से थे अनजान,
इसलिये देते थे अपनी लंबी तान,
मगर तुम तो नये ज़माने के आशिक हो
अक्षरज्ञान के भी मालिक हो,
फिर क्यूं बजाया यह झूठी प्रशंसा का ढोल,
अब अपना मुंह न दिखाना
खुल गयी तुम्हारी पोल।’’
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सांसरिक चतुराई तो हर कोई सीख लेता है-हिन्दू धर्म सन्देश


लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव।
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि लिखना, पढ़ना चतुराई करना यह तो संसार की सामन्य बातें हैं। जिस परमात्मा का नाम पढ़कर समझना चाहिये उसे कोई नहीं मानता।
ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।
राम रता इन्द्री जिता, कोटी मध्ये अनेक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं इस संसार में ज्ञानी और विद्वान बहुत मिले। पण्डित और कवि भी बहुत हैं। परन्तु राम भक्ति में लीन अपनी इंद्रियों को जीतने वाला करोड़ो में कोई एक होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी यही कहा कि हजारों में कोई एक मुझे भजता है। उन हजारों में भी कोई एक मुझे हृदय से भजता है।
मनुष्य का मन जब संसार के कार्य से ऊब जाता है तब वह कुछ नया चाहता है। कुछ लोग फिल्म और धारावाहिक देखकर मनोरंजन करते हैं तो कुछ गाने सुनकर। कुछ लोग भगवान भक्ति भी यह सोचकर करते हैं कि इससे मन को राहत मिल जाये। उनमें श्रद्धा का अभाव होता है इसलिये भक्ति करने के बाद उनके आचार, विचार और कर्म में कोई अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो सच्ची श्रद्धा से भगवान की भक्ति कर पाते हैं।

इस संसार में जिसे अवसर मिलता है वह पढ़ता लिखता तो अवश्य ही है और इस कारण उसमें चतुराई भी आती है। मगर इससे लाभ कुछ नहीं है। ऐसे कई प्रसंग अब सामने आने लगेे हैं जिसमें पढ़े लिखे लोग ही धर्म परिवर्तन कर दिखाते हैं कि उनमें समाज और परिवार के प्रति विद्रोह है। धर्म परिवर्तन कर विवाह करने वाले अधिकतर लोग शिक्षित ही रहे हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को शिक्षित तो बना देती है पर अध्यात्मिक ज्ञानी नहीं। कहने को यही शिक्षित कहते हैं कि धर्म क्या चीज है पर भारतीय अध्यात्म ज्ञान के अभाव में वही धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। आप उनसे पूछिये कि धर्म अगर कोई चीज नहीं है तो उसे बदला क्यों? अगर आप देश में चल रहे भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर चल रहे झगड़ों को देखें तो उनमें शिक्षित लोग ही अधिक लिप्त हैं। इससे यह तो जाहिर हो जाता है कि शिक्षित होने से इंसान ज्ञानी नहीं हो जाता। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी भटकाव की राह पर चला जाता है। इसलिये जितना हो सके अपने घर पर अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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नये वर्ष का कबाड़ा-हिन्दी लघु व्यंग कथा (new year after on day-hindi satire


 वह दोनों लड़के हमेशा की तरह उस कालोनी में घर से बाहर पड़े कूड़े और और चौराहे पर रखे कूड़ेदानों से बेचने लायक कबाड़ छांट रहे थे।  पास से जाते हुए दो लोगों में से किसी एक को उन्होंने कहते सुना कि‘ कल से नया वर्ष 2010 लग रहा है।  आज पुराने वर्ष 2009 का अंतिम दिन है।’ देखें अगला वर्ष स्वयं को फलता है कि नहीं!

दूसरे ने कहा-‘काहे का नया वर्ष। सब पैसे वालों को चौंचले हैं।’

लड़कों ने यह सुना। एक खुश होकर बोला-‘यार, कल तो बहुत सारा माल मिलेगा। लोग तमाम तरह के सामान लाकर उसके पुट्ठे, कागज़ और पनियां बाहर फैंकेंगे। अपना भी नया साल शुरु होगा जब माल मिल जायेगा।’

दूसरे ने कहा-‘नहीं, अपना नया साल तो एक दिन बाद यानि परसों से शुरु होगा। कल तो लोग खाने पीने और तोहफे के लेनदेन का सामान लायेंगे। उनके ग्रीटिंग कार्ड वगैरह कम से कम एक दिन तो घर में मेहमानी तो करेंगे ही न! उनका जब नया साल एक या दो दिन पुराना होगा तब हमारा शुरु होगा।’

दूसरा निराश नहीं हुआ-‘कोई बात नहीं! एक दिन या दो दिन बाद ही नये साल का कबाड़ हमें मिलेगा तो जरूर न!

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फरिश्तों का सम्मेलन -हिन्दी व्यंग्य कविता (sammelan-hindi satire poem


अब संभव नहीं है
कोई कर सके
सागर का मंथन
या डाले हवाओं पर बंधन।
इसलिये नये फरिश्ते इस दुनियां के
रोकना चाहते हैं
जहरीली गैसों का उत्सर्जन
जिसे छोड़ते जा रहे हैं खुद
समंदर से अधिक खारे
विष से अधिक विषैले
नीम से अधिक कसैले अपनी
उन फरिश्तों ने महफिल सजाने के लिये
ढूंढ लिया है कोपेनहेगन।।
——–
वह समंदर मंथन कर
अमृत देवताओं को देंगे
ऐसे दैत्य नहीं हैं।
पी जायें विष ऐसे शिव भी नहीं हैं।
कोपेनहेगन में मिले हैं
इस दुनियां के नये फरिश्ते,
गिनती कर रहे हैं
एक दूसरे द्वारा फैलाये विष के पैमाने की,
अमृत न पायेंगे न बांटेंगे,
बस एक दूसरे के दोष छाटेंगे,
धरती की शुद्धि तो बस एक नारा है
उनके हृदय का भाव खारा है,
क्या करें इसके सिवाय वह लोग
सारा अमृत पी गये पुराने फरिश्ते
अब तो विष ही हर कहीं है।।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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हिन्दू धर्म संदेश-सदगुणों से ही आयु बढ़ती है (sadgun aur ayu-hindu dharm sandesh)


अपनीतं सुनीतेन योऽयं प्रत्यानिनीषते।
मतिमास्थाय सुदृढां तदकापुरुषव्रतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो अन्याय के कारण नष्ट हुए धन को अपनी स्थिर बुद्धि का आश्रय लेकर पवित्र नीति से वापस प्राप्त करने का संकल्प लेता है वह वीरता का आचरण करता है।
मार्दव सर्वभूतनामसूया क्षमा धृतिः।
आयुष्याणि बुधाः प्राहुर्मित्राणा चाभिमानना।।
हिंदी में भावार्थ-
संपूर्ण जीवों के प्रति कोमलता का भाव, गुणों में दोष न देखना, क्षमा, धैर्य और मित्रों का अपमान न करना जैसे गुण मनुष्य की आयु में वृद्धि करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के स्वयं के अंदर ही गुण दोष होते हैं। उनको पहचानने की आवश्यकता है। दूसरे लोगों के दोष देखकर उनके प्रति कठोरता का भाव धारण करना स्वयं के लिये घातक है। जब किसी के प्रति क्रोध आता है तब हम अपने शरीर का खून ही जलाते हैं। अवसर आने पर हम अपने मित्रों का भी अपमान कर डालते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने हृदय में कठोरता या क्रोध के भाव लाकर मनुष्य अपनी ही आयु का क्षरण करता है।
कोमलता का भाव न केवल मनुष्य के प्रति वरन् पशु पक्षियों तथा अन्य जीवों के प्रति रखना चाहिए। कभी भी अपने सुख के लिये किसी जीव का वध नहीं करना चाहिये। आपने सुना होगा कि पहले राजा लोग शिकार करते थे पर अब उनका क्या हुआ? केवल भारत में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में ही राजशाही खत्म हो गयी क्योंकि वह लोगा पशुओं के शिकार का अपना शौक पूरा करते थे। यह उन निर्दोष और बेजुबान जानवरों का ही श्राप था जो उनकी आने वाली पीढ़ियां शासन नहीं कर सकी।
हम जब अपनी मुट्ठियां भींचते हैं तब पता नहीं लगता कि कितना खून जला रहे हैं। यह मानकर चलिये कि इस संसार में सभी ज्ञानी नहीं है बल्कि अज्ञानियेां के समूह में रह रहे हैं। लोग चाहे जो बक देते हैं। अपने को ज्ञानी साबित करने के लिये न केवल उलूल जुलूल हरकतें करते हैं बल्कि घटिया व्यवहार भी करते हैं ताकि उनको देखने वाले श्रेष्ठ समझें। ऐसे लोग दिमाग से सोचकर बोलने की बजाय केवल जुबान से बोलते हैं। उनकी परवाह न कर उन्हें क्षमा करें ताकि उनको अधिक क्रोध आये या वह पश्चाताप की अग्नि में स्वयं जलें। अपनी आयु का क्षय करने से अच्छा है कि हम अपने अंदर ही क्षमा और कोमलता का भाव रखें। दूसरे ने क्या किया और कहा उस कान न दें।
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विदुर नीति-अर्थ प्राप्ति के लिए धर्म का पालन करें (arth aur dharm-hindu adhyamik sandesh)


यस्यात्मा विरतः पापाद कल्याणे च निवेशितः।
तेन स्र्वमिदं बुद्धम् प्रकृतिर्विकृतिश्चय वा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिसकी बुद्धि पाप से परे होकर कल्याण के मार्ग पर आ जाये वह इस संसार में हर वस्तु कि प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह से जान लेता है।

अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत्।
न हि धर्मदपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिस मनुष्य के हृदय में अर्थ प्राप्त करने की इच्छा है उसे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। जिस तरह स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह कहना गलत है धर्म के मार्ग पर अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। धर्म-ईमानदारी, सहजता, परमार्थ, और अपने कर्तव्य से प्रतिबद्धता-का परिणाम ही अर्थ की प्राप्ति ही है। यह अलग बात है कि जल्दी अमीर बनने या आवश्यकता से अधिक धनार्जन के के लिये लोग अपने जीवन में आक्रामक और बेईमानी की प्रवृत्ति अपना लेते हैं। इस संसार में ऐसे लोग भी है जो बेईमानी से धन कमाकर कथित रूप से प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का आकर्षण समाज के युवाओं को आकर्षित करता है पर उनको यह समझ लेना चाहिये कि बेईमान और भ्रष्ट लोगों को धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की शक्ति की वजह से सामने कोई कुछ नहीं कहता पर पीठ पीछे सभी लोग उनके प्रति घृणा का भाव दिखाने से नहीं चूकते। फिर भ्रष्ट और बेईमान लोग का धन जिस तरह बर्बाद होता है उसे भी देखना चाहिये।

नीति विशारद विदुर जी के अनुसार जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त कर लिया वह इस संसार में व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थितियों की प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह समझ जाते हैं। इस ज्ञान से वह विकृतियों से परे रहने में सफल रहते हैं और प्रकृतियां उनका स्वतः ही मार्ग प्रशस्त करती हैं। अत: जितना हो सके योग साधना तथा अन्य उपायों द्वारा अपनी बुद्धि को शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिए।
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हिंदी आध्यात्मिक सन्देश-बेकार के कम न करें तो ही ठीक (vidur niti-bekar kam n karen)


तथैव योगविहितं यत्तु कर्म नि सिध्यति।
उपाययुक्तं मेधावी न तव्र गलपयेन्मनः।।
हिंदी में भावार्थ-
अच्छे और सात्विक प्रयास करने पर कोई सत्कर्म सिद्ध नहीं भी होता है तो भी बुद्धिमान पुरुष को अपने अंदर ग्लानि नहीं अनुभव करना चाहिए।

मिथ्यापेतानि कर्माण सिध्येवुर्यानि भारत।
अनुपायवुक्तानि मा स्म तेष मनः कृथाः।।
हिंदी में भावार्थ-
मिथ्या उपाय से कपट पूर्ण कार्य सिद्ध हो जाते हैं पर उनमें मन लगाना ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर आपने सुना होगा कि प्यार और जंग में सब जायज है-यह पश्चिम से आयातित विचार है। जीवन की तो यह वास्तविकता है कि जैसा कर्म करोगे वैसा परिणाम सामने आयेगा। जैसा मन में संकल्प होगा वैसे ही यह संसार हमारे साथ व्यवहार करेगा। अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में मनुष्य इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने कर्म की शुद्धता और अशुद्धता का बोध नहीं रहता। इसी कारण वह ऐसे उपायों का भी सहारा लेता है जो अपवित्र और अनैतिक हैं। फिर उसको अपनी बात के प्रमाण रखने के लिये अनेक प्रकार के झूठ भी बोलने पड़ते हैं। इस तरह वह हमेशा पाप की दुनियां में घूमता है। मगर मन तो मन है वह उसकी तृप्ति के लिये भक्ति और साधना का ढोंग भी करता है। इससे प्रकार वह एक ऐसे मायाजाल में फंसा रहता है जिससे जीवन भर उसकी मुक्ति नहीं होती।
इसलिये अपने जीवन में अच्छे संकल्प धारण करने के साथ ही अपने कार्य की सिद्ध के लिये पवित्र और नैतिक उपायों की ही सहायता लेना चाहिए।

बाकी लोग किस रास्ते पर जा रहे हैं यह विचार करने की बजाय यह देखना चाहिए कि हमारे लिये उचित मार्ग कौनसा है। इसके अलावा यह भी एक अन्य बात यह भी है कि अगर हमारा कोई पवित्र और सात्विक कर्म अपने उचित उपाय से सिद्ध नहीं होता तो भी परवाह नहीं करना चाहिए। याद रखें कार्य सिद्ध होने का भी अपना एक समय होता है और जब आता है तो हमें यह भी पता नहीं लगता कि वह काम कैसे पूरा हुआ। इसलिए कोई भी शुभ काम मन लगाकर करना चाहिए। बहुत जल्दी सफलता के लिए ग़लत मार्ग नहीं पकड़ना चाहिए।
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कौटिल्य दर्शन-दोस्त और दुश्मन दो प्रकार के होते हैं (kautilya darshan-dost aur dushman)


सहज कार्यजश्वव द्विविधः शत्रु सच्यते।
सहज स्वकुलोत्पन्न कार्यजः स्मृतः।
हिंदी में भावार्थ-
शत्रु दो प्रकार के होते हैं-एक तो जो स्वाभाविक रूप से बनते हैं दूसरे वह जो कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक शत्रु कुल में उत्पन्न होता है तो दूसरा अपने कार्य के कारण बन जाता है।
उच्छेदापचयो काले पीडनं कर्षणन्तथा।
इति विधाविदः प्राहु, शत्रौ वृतं चतुविंघम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उच्छेद, अपचय, समय पर पीड़ा देना और कर्षण यह चार प्रकार की स्थिति विद्वान बताते हैं।
वर्तमान संबंध में संपादकीय-ऐसा कोई जीव इस प्रथ्वी पर नहीं है जिसका कोई शत्रु न हो। बड़े बड़े महापुरुष इस प्रकृत्ति के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाये। शत्रु दो प्रकार के बनते हैं। एक तो जो स्वाभाविक रूप होते ही हैं दूसरे हमारे कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक रूप शत्रु या विरोधी परिवार, समाज तथा कुल की वजह से बनते हैं। जैसे बिल्ली चूहे की तो कुत्ता बिल्ली का दुश्मन होता है। उसी तरह इंसानों में भी कुछ रिश्ते आपस में प्रतिस्पर्धा पैदा करते हैं। जहां कुल बड़ा होता है वहां आपस में लोग एक दूसरे के विरोधी या दुश्मन पैदा होते हैं। आपने देखा होगा कि किसी आदमी को तब हानि नहीं पहुंचाई जा सकती जब उसका अपना कोई शत्रु न हो। बड़े शत्रु को हराने के लिये छोटे शत्रु से समझौता करना चाहिये यह इसलिये कहा गया है कि क्योंकि दो शत्रुओं से एक साथ लड़ना संभव नहीं होता।

हम यहां शत्रु के साथ विरोधी की भी चर्चा करें तो बात आसानी से समझी जा सकती है। हम जब कोई अपना कार्य करते हैं तो वही कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हमें शत्रु भाव से देखता है। वह इस बात से आशंकित रहता है कि कहीं उसका प्रतिस्पर्धी उससे आगे न निकल जाये। तब वह इस बात का प्रयास भी करता है कि आपको नाकाम किया जाये, आपकी मजाक उड़ायी जाये और तमाम तरह का दुष्प्रचार कर आपका मनोबल गिराया जाये। वह आपके ही छोटे शत्रु या विरोधी को अपना मित्र बना लेता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस दैहिक जीवन में शत्रु या विरोधी से मुक्त रहना संभव नहीं है। अतः शत्रु और विरोधी की गतिविधियों को नजर रखें। वह आपकी उपेक्षा करने के साथ ही आपके कार्यसिद्धि के साधनों को हानि पहुंचा सकते हैं। शत्रु या विरोधी की प्रकृत्ति को समझें तो हमेशा सतर्क रहकर उसका मुकाबला कर सकते हैं। याद रहे आपके शत्रु या विरोधी कभी भी आपकी सफलता को न तो स्वीकार कर सकते हैं न ही पचा सकते हैं।
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श्री गीता से-वेद ज्ञान से बड़ी है ह्रदय से की गए भक्ति (ved aur bhakt-shri geeta in hindi)


यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदावादरताः पार्थ नान्यदरस्तीति वादिनः।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।
भोगैश्वर्यप्रस्कतानां तयापहृतचेसाम्।।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।
(श्री गीता के अध्याय दो के श्लोक क्र. 42, 43, 44)
हिंदी में भावार्थ-जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है जो कहते हैं कि स्वर्ग से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकार दिखावटी आकर्षक वाणी कहते हैं, जो मनुष्य जन्म रूप कर्मफल देने वाले भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के प्रयास करते हैं और वाणी द्वारा जिनका चित हर लिया गया है, जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य प्राप्ति के व्यवसाय में आसक्त है उनकी परमात्मा में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रविष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।
(श्री गीता के अध्याय 8 का श्लोक क्रमांक 28)
हिंदी में भावार्थ-योगी पुरुष ज्ञान रहस्य के तत्व को जानकर वेदों को पढ़ने तथा यज्ञ, तप दानादि के करने में पुण्यफल कहा है उन सबका निःसंदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परमपद को प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार भी है। अगर हम श्रीगीता के उपरोक्त श्लोकों को देखें तो उनसे यही आशय निकलता है कि भगवान श्रीकृष्ण जी ने वेदों में स्वर्ग दिलाने वाले कर्मकांडों को महत्व न देते हुए केवल उनमें ही लिप्त रहने को अज्ञान का प्रमाण माना है। हालांकि श्रीगीता में अनेक स्थानों पर वेदों की चर्चा है पर स्वर्ग के लिये कर्मकांडों में मनुष्य को लिप्त करने वाले उनके संदेशों को एक तरह से भगवान श्री कृष्ण ने द्वारा खारिज किया गया है।
दूसरे शब्दों में कहें तो भगवान श्रीकृष्ण जी ने इन पवित्र वेदों से तत्वज्ञान के साथ जीवन एवं सुष्टि रहस्यों का सार लेकर अपने गीता संदेश में प्रस्तुत किया और स्वर्ग के प्रयासों सकाम भक्ति मान लिया। यही कारण है कि उनके द्वारा निष्काम भक्ति तथा निष्प्रयोजन दया के सिद्धांत का प्रतिपादन करने से समाज में वेदों से अधिक श्रीगीता का महत्व बढ़ गया। यहां याद रहे वेदों में सभी प्रकार की भक्ति की बात कही गयी है। यही कारण है कि समाज में बहुदेव वादी संस्कृति और पूजा पद्धतियों का निर्माण हुआ। अपने समय में वेदों का बहुत महत्व रहा है पर श्रीगीता की स्थापना के बाद उनकी सहायक भूमिका ही रह गयी। अक्सर वेदों को लेकर देश के ही कुछ कथित विद्वान अपने ही धर्म की आलोचना करते हैं पर उनको पता ही नहीं कि श्रीगीता में ही अब भारतीय अध्यात्म में मूल तत्व विराजमान हैं।
भगवान श्रीकृष्ण समाज में धर्म के नाम पर वैमनस्य फैलने की प्रवृत्ति को रोकना चाहते थे और इसलिये उन्होंने श्रीगीता की स्थापना की। उसमें केवल अध्यात्मिक शांति के लिये तत्वज्ञान ही नहीं है बल्कि दैहिक रूप से मनुष्य अपना जीवन स्वस्थ और प्रसन्नचित होकर गुजारे इसके लिये विज्ञान रहस्य भी उसमें शामिल है। अक्सर अनेक लोग आलोचकों के प्रतिकार के लिये वेदों की प्रशंसा कर अपना समय नष्ट करते हैं उनको इस बात का आभास ही नहीं है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक स्थानों पर वेदों के ज्ञान को अस्वीकार किया है। दरअसल हमारा समाज सतत चलता रहता है और उसमें रूढ़ता की प्रवृत्ति नहीं है इसलिये वेदों से निकले ज्ञान को अनेक महापुरुष अपने उन वचनों और रचनाओं में स्थान देते रहे हैं जो हमेशा ही समाज के लिये हितकर हैं और समाज भी उनको ग्रहण करता रहा है। श्रीगीता की स्थापना ने भारतीय समाज को न केवल अध्यात्मिक रूप से दृढ़ता प्रदान की बल्कि सांसरिक कार्यों को संपन्न करने का संबल भी प्रदान किया। यही कारण है कि आज समाज में लोग वेदों में अधिक दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि श्रीगीता के साथ ही बाल्मीकी रामायण तथा श्रीमद्भागवत भी हृदय को प्रसन्न करने वाले ग्रंथ हैं। मजे की बात यह है कि भारतीय धर्मों के आलोचक वेदों से तो श्लोक उठाते हैं पर इन ग्रंथों में कुछ ढूंढने से कतराते हैं क्योंकि उनको अपने ही हृदय परिवर्तन की आशंका रहती है।
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मनु स्मृति-अध्ययन में सुस्ती नहीं करें (manu smriti-shiksha aur susti)


अध्येयष्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालमतन्द्रितः।
‘अधीष्व भो! इति ब्रुयाद्विरामोऽस्त्विति चारमेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
शिष्य को पढ़ाने के विषय में गुरु को कभी भी आलस नहीं बरतना चाहिये। इसके अलावा बेमन से भी अध्यापन का कार्य करना उचित नहीं है। अध्यापन प्रारंभ करने से पहले छात्र से कहना चाहिये कि ‘पढ़ो’ और समाप्ति पर कहना चाहिये कि विश्राम करो।
ब्रह्यणः प्रणवः कुर्यादादावन्ते च सर्वदा।
स्त्रवत्यनोंकृतं पूर्व परस्ताच्च विशीर्यति।।
हिंदी में भावार्थ-
गुरु का यह कर्तव्य है कि वह अध्यापन प्रारंभ करने से पहले ॐ शब्द का आप छात्र से करावे। ऐसा न करने से पढ़ा हुआ स्मरण में नहीं रहता। इस कारण दोनों का परिश्रम व्यर्थ हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान शिक्षा पद्धति में अनेक दोष हैं और इसी कारण हमारे यहां समाज में विकृत्तियां बढ़ती जा रही है। हम समाज के आचरण को लेकर तमाम तरह की निराशाजनक प्रतिक्रियायें तो व्यक्त करते हैं पर उसमें सुधार की कोई योजना हमारे पास नहीं है। किसी भी मनुष्य में संस्कार और बौद्धिक निर्माण का समय उसका छात्र जीवन ही रहता है। उस समय संयम और नियम से जीवन व्यतीत करने पर ही शिक्षा प्राप्त हो सकती है। समाज चल रहा है इसकी विपरीत दिशा में। आजकल तो छात्र जीवन ही मौज मस्ती का माना जाता है और कहा जाता है कि आजकल बच्चे अपने माता पिता से अधिक कुशाग्र बुद्धि हैं क्योंकि वह मोबाइल और टीवी का रिमोट चलाना जानते हैं। मगर हम संस्कारों की बात नहीं करते जिनके बारे में सभी मानते हैं कि उनका क्षरण हो गया है। छात्र जीवन में ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही इस बात की भी होड़ लगी है कि उसका अधिक से अधिक प्रदर्शन किया जाये।
कहते हैं कि भजन और भक्ति तो बुढ़ापे में किया जाना चाहिये जबकि सच यह है कि जो संस्कार बचपन में नहीं पड़े फिर उनकी स्थापना एकदम कठिन है। ऐसे में बचपन से बच्चों को अपनी नियमित शिक्षा के साथ ही आध्यात्म का ज्ञान भी दिया जाना चाहिये। विद्यालयों में तो यह शिक्षा मिलती नहीं है इसलिये माता पिता या दादा दादी को ही यह दायित्व उठाना चाहिये।
ॐ शब्द का हमारे अध्यात्म में बहुत महत्व है और इसलिये अध्ययन से पूर्व उसका जाप मन ही मन में अवश्य करना चाहिये। शब्दों में ओम को सर्वोत्तम माना गया है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में तो इसका जाप अध्यापक कराते नहीं है इसलिये माता पिता को चाहिये कि वह अपने बच्चों को इसका जाप करने का संदेश दें। इसके जाप से पढ़ा हुआ याद रहता है और इससे मन भी स्वच्छ रहता है।
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वैचारिक महाभारत की आवश्यकता-आलेख (baba shri ramdev,shri shri ravishankar & shri gita)


कभी समलैंगिकता तो कभी सच का सामना, युवक युवतियों के बिना विवाह साथ रहने और इंटरनेट पर यौन सामग्री से संबंधित सामग्री पर प्रतिबंध जैसे विषयों पर जूझ रहे अध्यात्मिक गुरुओं और समाज चिंतकों को देखकर लगता है कि वैचारिक रूप से इस देश में खोखलापन पूरी तरह से घर कर चुका है। इसलिये बाबा रामदेव अगर योग के बाद अगर ज्ञान को लेकर कोई वैचारिक धर्मयुद्ध छेड़ते हैं तो वह एक अच्छी बात होगी। आज के युग में अस्त्रों शस्त्रों से युद्ध की बजाय एक वैचारिक महाभारत की आवश्यकता है। समलैंगिकता और सच का सामना जैसे विषयों पर देश के युवाओं का ध्यान जाये उससे अच्छा है कि उनको अध्यात्मिक वाद विवाद की तरफ लाना चाहिये। पहले शास्त्रार्थ हुआ करता था और यही शास्त्रार्थ अब आधुनिक प्रचार माध्यमों में आ जाये तो बहुत बढ़िया है।

अध्यात्मिक विषयों पर लिखने में रुचि रखने वाले जब बेमतलब के मुद्दों पर बहस देखते हैं तो उनके लिये निराशा की बात होती है। बहुत कम लोग इस बात को मानेंगे कि इसी शास्त्रार्थ ने ही भारतीय अध्यात्म को बहुत सारी जानकारी और ज्ञान दिया है और उसके दोहराव के अभाव में अध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोगों को एकतरफा ही ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि अनेक साधु संत शास्त्रार्थ करने की बजाय अकेले ही प्रवचन कर चल देते हैं। अपनी बात कहने के बाद उस पर उनसे वाद विवाद की कोई सुविधा नहीं है। दरअसल उनके पास ही मूल ज्ञान तत्व का अभाव है।

आचार्य श्रीरामदेव ने भी आज इस बात को दोहराया कि श्रीगीता के उपदेशो की गलत व्याख्या की जा रही है। यह लेखक तो मानता है कि श्रीगीता से आम आदमी को परे रखने के लिये ही कर्मकांडोें, जादू टोने और कुरीतियों को निभाने के लिये आदमी पर जिम्मेदारी डाली गयी। समाज और धर्म के ठेकेदारों ने यह परंपरायें इस तरह डाली कि लोग आज भी इनको बेमन से इसलिये निभाते हैं क्योंकि अन्य समाज यही चाहता है। अपने अध्यात्म ज्ञान से हमारे देश का शिक्षित वर्ग इतना दूर हो गया है कि वह अन्य धर्मों के लोगों द्वारा रखे गये कुतर्कों का जवाब नहीं दे पाता।

विदेशों में प्रवर्तित धर्मों के मानने वाले यह दावा करते हैं कि उनके धर्म के लोगों ने ही इस देश को सभ्यता सिखाई। वह विदेशी आक्रांतों का गुणगान करते हुए बताते हैं कि उन्होंने यहां की जनता से न्यायप्रियता का व्यवहार किया। अपने आप में यह हास्याप्रद बात है। आज या विगत में जनता की राजनीति में अधिक भूमिका कभी नहीं रही। भारत के राजा जो विदेशी राज्यों से हारे वह अपने लोगों की गद्दारी के कारण हारे। सिंध के राजा दाहिर को हराना कठिन काम था। इसलिये ईरान के एक आदमी को उसके यहां विश्वासपात्र बनाकर भेजा गया। अपने लोगों के समझाने के बावजूद वह उस विश्वासपात्र को साथ रखे रहा। उसी विश्वासपात्र ने राजा दाहिर को बताया कि उसकी शत्रु सेना जमीन के रास्ते से आ रही है जबकि वह आयी जलमार्ग से। इस तरह राजा दाहिर विश्वास में मारा गया। यहां के लोग सीधे सादे रहे हैं इसलिये वह छलकपट नहीं समझते। दूसरा यह है कि जो अध्यात्मिक ज्ञान और योग साधना उनको सतर्क, चतुर तथा शक्तिशाली बनाये रख सकती है उससे समाज का दूर होना ही इस देश का संकट का कारण रहा है। दरअसल सभ्य हमारा देश पहले हुआ विदेश में तो बाद में लोगों ने बहुत कुछ सीखा जिसके बारे में हमारे पूर्वज पहले ही जान चुके थे। पर हमारा देश अपने अध्यात्मिक ज्ञान के कारण ही कभी आक्रामक नहीं रहा जबकि विदेशी लोग उसके अभाव में आक्रामक रहें। फिर जितनी प्रकृत्ति की कृपा इस देश में कहीं नहीं है यह इतिहास विपन्न देशों द्वारा संपन्न लोगों को लूटने के साथ भी जोड़ा जा सकता है। इसलिये अनेक इतिहासकार कहते भी है कि जो भी यहां आया वह लूटने ही आया।

फिर कुछ आक्रामक लोग अपने साथ अपने साथ मायावी ज्ञान उनको प्रचार करने वाले कथित सिद्ध भी ले आये जिनके पास चमत्कार और झूठ का घड़ा पूरा भरा हुआ था। आश्चर्य की बात है कि अन्य धर्म के लोग जब बहस करते हैं तो कोई उनका जवाब नहीं देता। हां, जो गैर भारतीय धर्मों पर गर्व करते हैं कभी उनसे यह नहीं कहा गया कि ‘आप अपने धर्म पर इतरा रहे हो पर आपके कथित एतिहासिक पात्रों ने जो बुरे काम किये उसका जिम्मा वह लेंगे। क्या इस देश के राजाओं, राजकुमारों और राजकुमारियों के साथ उनके एतिहासिक पात्रों द्वारा की गयी अमानुषिक घटनाओं को सही साबित करेंगे? उन्हों बताना चाहिये कि मीठा खा और कड़वा थूक की नीति धार्मिक चर्चाओं में नहीं चलती।

धार्मिक प्रवचनकर्ता ढेर सारा धन बटोर रहे हैं। इस पर हमें आपत्ति नहीं करेंगे क्योंकि अगर माया के खेल पर बहस करने बैठे तो मूल विचार से भटक जायेंगे। पर यह तो देखेंगे कि साधु और संत अपने प्रवचनों और उपदेशों से किस तरह के भक्त इस समाज को दे रहे हैं। केवल खाली पीली जुबानी भगवान का नाम लेकर समाज से परे होकर आलस्य भाव से जीवन बिताने वाले भक्त न तो अपना न ही समाज का भला कर सकते हैं। भक्ति का मतलब है कि आप समाज के प्रति भी अपने दायित्वों का पालने करें। श्रीगीता का सार आप लोगों ने कई बार कहीं छपा देखा होगा। उसमें बहुत अच्छी बातें लिखी होती है पर उनका आशय केवल सकाम भक्ति को प्रोत्साहन देना होता है और उनका एक वाक्य भी श्रीगीता से नहीं लिया गया होता। हां, यह आश्चर्य की बात है और इस पर चर्चा होना चाहिये। बाबा रामदेव और श्रीरविशंकर दो ऐसे गुरु हैं जो वाकई समाज को सक्रिय भक्त प्रदान कर रहे हैं-इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उनकी आलोचना करने वाले बहुत हैं। यही आलोचक ही कभी सच का सामना तो कभी समलैंगिक प्रथा पर जोरशोर से विरोध करने के लिये खड़े होते हैं। योगासन, ध्यान, मंत्रजाप और श्रीगीता का अध्ययन करने वाले भक्त कभी इन चीजों की तरफ ध्यान नही देते। हमें ऐसा समाज चाहिये जिसके बाह्य प्रयासों से बिखर जाने की चिंता होने की बजाय अपनी इच्छा शक्ति और दृढ़ता से अपनी जगह खड़े का गर्व हमारे साथ हो। कम से कम बाबा रामदेव और श्रीरविश्ंाकर जैसे गुरुओं की इस बात के लिये प्रशंसा की जानी चाहिये कि वह इस देश में ऐसा समाज बना रहे हैं जो किसी अन्य के द्वारा विघटन की आशंका से परे होकर अपने वैचारिक ढांचे पर खड़ा हो। बाबा श्रीरामदेव द्वारा धर्म के प्राचीन सिद्धांतों पर प्रहार करने से यह वैचारिक महाभारत शुरु हो सकता है और इसकी जरूरत भी है। आखिर विदेशी और देशी सौदागर देश के लोगों का ध्यान अपनी खींचकर ही तो इतना सारा पैसा बटोर रहे हैं अगर उस पर स्वदेशी विचाराधारा का प्रभाव हो तो फिर ऐसी बेवकूफ बनाने वाली योजनायें स्वतः विफल हो जायेंगी।
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विदुर नीति-अमीर रिश्तेदार के पास जाकर बेकार में दुःख पाना (vidur niti-amir ke pas jana)


ज्ञातयस्यतारयन्तीह ज्ञातयो मज्जयन्ति च।
सुवृत्तास्तारयन्तीह दुर्वंतत्ता मज्ज्यन्ति च।।
हिंदी में भावार्थ-
इस संसार में अपने ही जाति बंधु जीवन की नैया पार भी लगाते हैं तो डुबोते भी है। जो सदाचारी है वह तो तारने के लिये तत्पर रहते हैं और जो दुराचारी है वह डुबा देते हैं।

श्रीमन्तं ज्ञातिमासाद्य यो ज्ञातिरवसीदति।
दिग्धहस्तं मृग इव स एनस्तस्य विन्दति।।
हिंदी में भावार्थ
-जिस तरह मृग विषैला बाण हाथ में लिये शिकारी के पास पहुंचकर कष्ट पाता है वैसे ही मनुष्य अपने धनी बंधु के पास कष्ट पाता है। वह धन देने से इंकार कर दे तो कष्ट होता है और दे तो उसके पाप का भागी बनता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पता नहीं कब कैसे जातियां बनी पर मनुष्य के स्वभाव को देखते हुये तो यही कहा जा सकता है कि अपनी सुरक्षा के लिये उसने जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम पर समूह बना लिये। यह पक्रिया इतने स्वाभाविक ढंग से हुई कि पता ही नहीं चला होगा। बहरहाल प्रत्येक मनुष्य में अपने समाज या समूह के प्रति लगाव होता है भले ही वह स्वार्थ के कारण हों। इसका उसे लाभ भी मिलता है जब कोई शादी या गमी का अवसर आता है तब अनेक लोग एक दूसरे से जुड़ते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति के यहां कोई दुर्घटना हो जाये और वह अगर उससे छिपाना चाहे तो भी नहीं छिप सकती। वजह! जाति भाई जाकर सभी जगह वैसे ही बता देंगे। अगर किसी व्यक्ति के घर या परिवार में कोई दोष हो तो अन्य समाज या समूह के लोग नहीं जान पाते पर सजातीय बंधु यह काम करने में चूकते नहीं है-मतलब यह कि सजातीय लोग ही बदनाम करने में लग जाते हैं।
सदाचारी जातीय बंधु तो जीवन नैया तार देते हैं और दुराचारी डुबो देते हैं पर आजकल यह भी देखना चाहिये कि इस धरती पर कितने सदाचारी और कितने दुराचारी लोग विचरण कर रहे हैं। सजातीय बंधुओं से खतरा इस कारण भी बढ़ता है कि हम उन्हें अपना समझकर अपने घर की बात या घटना बता देते हैं ताकि समय पर वह हमारी सहायता करे। इसकी बजाय वह उसका प्रचार कर बदनाम करते हैं। अगर उनके साथ घर के राज की चर्चा ही नहीं की जाये तो फिर वह ऐसा नहीं कर सकते।

वैसे आजकल तो रहन, सहन, और व्यवहार का स्वरूप एक जैसा ही हो गया है अतः सजातीय बंधुओं से सहयोग और संपर्क की अपेक्षा करने की बजाय समस्त मित्रों और पड़ौसियों से-जातीय भाव की उपेक्षा कर-व्यवहार रखना चाहिये। पहले सजातीय बंधुओं से संपर्क स्वाभाविक रूप से इसलिये भी होता था क्योंकि सभी लोग मोहल्लों और गलियों में जातीय समूह की अधिकता देखकर बसते थे। अब तो कालोनियां बन गयी हैं जिसमें विभिन्न जातियों और समुदायों के लोग रहते हैं। ऐसे मेें सजातीय बंधुओं से एक सीमा तक ही संपर्क रह पाता है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कार्य के होते हैं तीन व्यसन (kautilya ka arthshastra in hindi)


वस्तुध्वशक्येषु समुद्यनश्चेच्छक्येषु मोहादसमुद्यश्मश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यनश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदंति।।
हिंदी में भावार्थ-
शक्ति से परे वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना, प्राप्त होने योग्य वस्तु के लिये उद्यम न करना , और तथा शक्ति होते हुए भी शक्य वस्तु की प्राप्ति के लिये समय निकल जाने पर प्रयास करना-यह कार्य के व्यसन हैं।
द्रोहो भयं शश्वदुपक्षणंव शीतोष्णवर्षाप्रसहिष्णुता च।
एतानि करले समुपहितानि कुर्वन्त्यवश्यं खलु सिद्धिविघ्नम्
हिंदी में भावार्थ-
द्रोह, डर, उपेक्षा, सर्दी,गमी, तथा वषा का अधिक होना कार्यसिद्धि समय पर होने मेें बाधा अवश्य उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हम अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो उस समय अपनी शक्ति का पूर्वानुमान करना चाहिये। उसी तरह कोई योजना बनाकर कोई वस्तु प्राप्त करते हैं तो उस समय अपने आर्थिक, सामाजिक, तथा पारिवारिक स्त्रोतों की सीमा पर भी विचार कना चाहिये। अपने सामथ्र्य से अधिक वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास एक तरह का व्यसन ही है।
उसी तरह किसी वस्तु या लक्ष्य का अवसर पास आने पर उसकी उपेक्षा कर मूंह फेर लेना भी एक तरह का व्यसन है। अगर कोई कार्य हमारी शक्ति की परिधि में है तो उसे अवश्य करना चाहिये। जीवन में सतत सक्रिय रहना ही मनुष्य जीवन को आनंद प्रदान करता है। अगर किसी उपयोगी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का अवसर आता है तो उसमें लग जाना चाहिये।
कोई वस्तु हमारी शक्ति के कारण प्राप्त हो सकती है पर हम उसकी यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि यह हमारे किस काम की! बाद में पता लगता है कि उसका हमारे लिये महत्व है और उसे पाने का प्रयास करते हैं। यह भी एक तरह का व्यसन है। हमें अपने जीवन में उपयोग और निरुपयोगी वस्तुओं और लक्ष्यों का ज्ञान होना चाहिये। कई बार कोई चीज हमें उपलब्ध होती है पर धीरे धीरे उसकी मात्रा काम होती है। उसका संग्रह का उपस्थित होने पर उसका विचार नहीं करते-यह सोचकर कि वह तो भंडार में है पर बाद में पता लगता है कि यह अनुमान गलत था। यह वैचारिक आलस्य का परिणाम जीवन में कष्टकारक होता है।
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संत कबीर के-रात के सपने निराशा का भाव पैदा करते हैं (sant kabir-rat ke sapne aur nirasha)


कबीर सपनें रैन के, ऊपरी आये नैन
जीव परा बहू लूट में, जागूं लेन न देन

संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि रात में सपना देखते देखते हुए अचानक आंखें खुल जाती है तो प्रतीत होता है कि हम तो व्यर्थ के ही आनंद या दुःख में पड़े थे। जागने पर पता लगता है कि उस सपने में जो घट रहा था उससे हमारा कोई लेना देना नहीं था।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सपनों का एक अलग संसार है। अनेक बार हमें ऐसे सपने आते हैं जिनसे कोई लेना देना नहीं होता। कई बार अपने सपने में भयानक संकट देखते हैं जिसमें कोई हमारा गला दबा रहा है या हम कहीं ऐसी जगह फंस गये हैं जहां से निकलना कठिन है। तब इतना डर जाते हैं कि हमारी देह अचानक सक्रिय हो उठती है और नींद टूट जाती है। बहुत देर तक तो हम घबड़ाते हैं जब थोड़ा संभलते हैं तो पता लगता है कि हम तो व्यर्थ ही संकट झेल रहे थे।

कई बार सपनों में ऐसी खुशियां देखते हैं जिनकी कल्पना हमने दिन में जागते हुए नहीं की होती । ऐसे लोगों से संपर्क होता है जिनके पास जाने की हम सोच भी नहीं सकते। जागते हुए पुरानी साइकिल पर चलते हों पर सपने में किसी बड़ी गाड़ी पर घूमते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में जब खुशी चरम पर होती है और सपना टूट जाता है। आंखें खुलने पर भी ऐसा लगता है कि जैसे हम खुशियों के समंदर में गोता लगा रहे थे पर फिर जैसे धीरे धीरे होश आता है तो पता लगता है कि वह तो एक सपना था।

आशय यह है कि यह जीवन भी एक तरह से सपना ही है। इसमें दुःख और सुख भी एक भ्रम हैं। मनुष्य को यह देह इस संसार का आनंद लेने के लिये मिली है जिसके लिये यह जरूरी है कि भगवान भक्ति और ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया जाये न कि विषयों में लिप्त होकर अपने को दुःख की अनुभूति कराई जाये। जीवन में कर्म सभी करते हैं पर ज्ञानी और भक्त लोग उसके फल में आसक्त नहीं होते इसलिये कभी निराशा उनके मन में घर नहीं करती। ऐसे ज्ञानी और भक्तजन दुःख और सुख के दिन और रात में दिखने वाले सपने से परे होकर शांति और परम आनंद के साथ जीवन व्यतीत करते हैं।
अगर हम भारतीय अध्यात्म संदेशों का अर्थ समझें तो दुःख और सुख जीवन में बर्फ में पानी के सदृश हैं। अर्थात दोनों की अनूभूतियां हैं बस और कुछ नहीं है। जिस तरह बर्फ दिखती है पर होता तो वह पानी ही है। उसी दुःख और सुख बस एक सपने की तरह है। जो इस तत्व ज्ञान को समझ लेना वह जीवन को आनंद के साथ जी सकता है।
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मनु स्मृति-गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं (bhojan karne ka tarika-manu smruti)


न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।
न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।

नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima)


गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव
जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं।
आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।

कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि
जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।
जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।
बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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रहीम के दोहे- दिल लगाकर काम कर कामयाबी तय करें (rahim ke dohe-dil lagakar kaam karen)


रहिमन मनहि लगाईं कै, देखि लेहू किन कोय
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय

     कविवर रहीम के मतानुसार मन लगाकर कोई काम कर देखें तो कैसे सफलता मिलती है। अगर अच्छी नीयत से प्रयास किया जाये तो नर क्या नारायण को भी अपने बस में किया जा सकता है।
     वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-लोग बहुत जल्दी सफलता हासिल करना चाहते हैं। काम में मन कम उससे होने वाली उपलब्धि पर अधिक दृष्टि रखते हैं यही कारण है कि उनको सफलता नहीं मिलती। भक्ति हो या सांसरिक काम उसमें मन लगाकर ही आदमी कोई उपलब्धि प्राप्त कर सकता है। अधिकतर लोग अपना काम करते हुए केवल इस बात की चिंता करते हैं कि उससे उनको क्या मिलेगा? जो भक्ति करते हैं वह सोचते हैं कि भगवान बस तत्काल उनका काम बना दें। मन भक्ति में कम अपने काम में अधिक होता है। न उनको इससे भक्ति का लाभ होता है और न काम बनने की संभावना होती है। भक्ति में काम का भाव और जो काम है उससे करने की बजाय भगवान की भक्ति में लगने से दोनों में उनकी सफलता संदिग्ध हो जाती है और फिर ऐसा करने वाले लोग अपनी नाकामी का दोष दूसरों को देते हैं। अगर मन लगाकर भक्ति या सांसरिक काम किया जाये तो उसमें सफलता मिलती है। आदमी क्या भगवान भी बस में किये जा सकते हैं।
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रहीम के दोहे-अमीर को पैसा देने के लिए सब तैयार,गरीब से इंकार (rahim ke dohe)


संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत
दीन बंधु बिन दीन की, कौ रहीम सुधि लेत

     कविवर रहीम कहते हैं कि जिनके पास धन पर्याप्त मात्रा में लोग उनको सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं और जिसके पास कम है उसकी कोई सुधि नहीं लेता।

संपति भरम गंवाइ के, हाथ रहत कछु नाहिं
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं मांहि

     कविवर रहीम कहते हैं कि भ्रम में आकर आदमी तमाम तरह की आदतों का शिकार हो जाता है और उसमें अपनी संपत्ति का अपव्यय करता रहता है और एक दिन ऐसा आ जाता है जब उसके पास कुछ भी शेष नहीं रह जाता। इसके साथ ही समाज में उसकी प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है।
     वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में माया का खेल विचित्र है। वह कभी स्थिर नहीं रहती। आजकल जितने धन के उद्भव के काले स्त्रोत बने हैं उतने उसके पराभव के मार्ग बने हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने पद, प्रतिष्ठा और परिवार के नाम पर गलत तरीके से अथाह धनार्जन किया पर उनके घर के सदस्यों ने ही गलत मार्ग अपना कर जूए, शराब, सट्टे तथा अन्य व्यसनों में तबाह कर दिया। देखने के लिये अनेक भले लोग अपने धन का अहंकार दिखते हैं पन अपने बच्चों की आदतों से उनका मन हमेशा विचलित होता है। हालांकि कुछ लोग अनाप-शनाप पैसा कमा रहे हैं और अपने बच्चों के विरुद्ध शिकायत न तो सुनते हैं और न ही कोई उनके सामने करता है।

     यही कारण है कि आजकल जो कथित बड़े लोग उनके अनेक घर के रहस्य जब सामने आते हैं तो लोग हैरान रह जाते हैं। उनका अपने परिवार पर बस नहीं हैं। कई लोग तो जिनका नाम था अब इसलिये गुमनाम हो गये क्योंकि उनका धन पूरी तरह गलत कामों की वजह से तबाह हो गया। उनकी चर्चा अब इसलिये नहीं होती क्योंकि जिनके पास धन नहीं है उनकी चर्चा भला कौन करता है? इसके बावजूद भी शिक्षित और कथित ज्ञानी लोग भी वैभवशाली लोगों का चाटुकारिता करते हैं और गरीब को अनदेखा करते हैं। अमीर के दौलत से कुद पाने के लिये ही वह लोग उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाते है। गरीब को तो वह पांव की जुती समझते हैं। इसके बावजूद हमें समझदार होना चाहिए और सबके प्रति समान व्यवहार करना चाहिए। ऐसा भी होता है कि अमीर की चाटुकारिता करते रहो पर हाथ कुछ नहीं आता। कोई अमीर किसी की बिना कारण सहायता नहीं करता। यह हमें समझना चाहिए। अगर कोई हमारी सहायता करने आ रहा है तो समझ लो उसका कोई स्वार्थ है।
     अतः अगर अपने पास अगर धन कम हो तो यह मान लेना चाहिए कि लोग आर्थिक सहयोग तैयार करने के लिये कम ही तैयार होंगे। साथ ही इस बात की चिंता नहीं करना चाहिए कि कोई सम्मान करेगा या नहीं। अगर धन अधिक हो तो दूसरों द्वारा सहयोग की पेशकश को अपने गुणों का प्रभाव न समझते हुए यह मान लेना चाहिए कि हमारे धन की वजह से दूसरे प्रभावित हैं।
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स्त्रियों की कम संख्या उनके प्रति बढ़ते अपराधों के लिये जिम्मेदार-आलेख


देश में प्रतिदिन ही महिलाओं के प्रति किये गये अपराध समाचारों की सुर्खियां बन रहे हैं। हालत यह हो गयी है कि एक दिन में पांच पांच समाचार आते हैं और जब अपराधी पकड़े जाते हैं तो यह याद रखना कठिन हो जाता है कि आखिर वह किस घटना के लिये पकड़े गये हैं। इस पर तमाम तरह के आलेख और रिपोर्ताज पढ़ने और सुनने के बाद यह नहीं लगता कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग इसे कन्या भ्रुण हत्याओं से जोड़कर देख पा रहा हो।
जो नियमित रूप से समाचार पत्र पत्रिकायें पढ़ते हैं उनको अच्छी तरह याद होगा जब आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व कन्याओं की भ्रुण हत्या का दौर शुरु हुआ था तब सामाजिक विशेषज्ञों ने स्पष्टतः आज के दृश्य की कल्पना कर बता दी थी। एक लंबे समय तक यह दौर चला फिर इसके लिये कानून भी बना पर सामाजिक विशेषज्ञ मानते हैं कि कन्याओं की भ्रुण हत्याओं का दौर बंद हुआ। हालत यह है कि एक समय तक पहली संतान के रूप में कन्या होना भी ठीक मानने वाले इस समाज में अब ऐसे भी लोग हैं जो पहली संतान के रूप में भी बेटा चाहते हैं और जरूरत पड़े तो कन्या भ्रुण हत्या करा देते हैं। ऐसी जानकारियां समाचार पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर आती रहती हैं।

महिलाओं पर तेजाब फैंकने या उनके साथ जोर जबरदस्ती की घटनाओं पर विश्लेषण करने वाले अल्पज्ञानी बुद्धिजीवी हर घटना में अपराधी और पीड़िता की स्थितियों के आंकलन में लग जाते हैं। कुछ इसे गिरती कानूनी व्यवस्था ं तो कुछ इसे पहनावे और लड़कियों की आजादी को मानते हैं। इधर इंटरनेट पर ऐसी बहसें देखने को मिलती हैं जिससे लगता है कि वाद और नारों की राह पर चले लेखक और बुद्धिजीवी अपने चिंतन से कम अपने गुरुओं की सोच पर अधिक चलते हैं।
एक कहता है कि
1.लड़कियां उकसावे वाले कपड़े पहनती हैं।
2.वह एक नहीं अनेक लड़के मित्र बनाती हैं जिससे आपस में कभी न कभी तनाव बनता है।
3.माता पिता अपनी व्यस्तताओं के चलते लड़कियों की निगाहबानी नहीं कर पाते जिससे वह अपने युवावस्था के कारण ऐसी गलतियां कर बैठती हैं जो अततः उनके लिये घातक होती है।

दूसरा कहता है कि
1.समाज अभी भी असभ्य है उसका लड़की के प्रति नजरिया नहीं बदला।
2.जैसे जैसे धन की प्रचुरता बढ़ रही है लड़कियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं।
3. कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है और अपराधियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही नहीं हो रही। पुरुष समुदाय इसके लिये पूरी तरह से जिम्मेदार है।

हो सकता है कि ये सभी लेखक और बुद्धिजीवी सही हों पर वह इन घटनाओं के दृश्यव्य रूप पर ही अपना ध्यान केंद्रित करने से समस्या का हल नहीं हो सकता।
25 वर्ष पूर्व ही सामाजिक विशेषज्ञों ने कहा था कि जिस दहेज समस्या से पीड़ित होकर समाज कन्या भ्रुण हत्याओं के दौर को स्वीकार कर रहा है वह तो हल नहीं होगी बल्कि इससे उनके प्रति जो अपराध होंगे वह अधिक भयानक होंगे।
उनका कहना था कि
1.अभी लड़कियां पर्याप्त मात्रा में हैं इसलिये लड़के इधर उधर नजरें मारकर काम चलाते हैं। एक नहीं तो दूसरी नहंीं तो तीसरी। कहने का तात्पर्य यह है कि उनके संपर्क में अधिक लड़कियां आती हैं और वह उनको देखते हैं इसलिये उनमें आक्रामकता नहीं आती। जब यह संख्या कम हो जायेगी तक एक लड़की पर अनेक लड़कों की नजर होगी। इससे आकर्षण में तीव्रता आयेगी और ऐसे में अगर लड़की की तरफ से उनको निराशा हाथ लगती है तो वह उस पर आक्रमण करेंगे।
2.रास्ते पर अनेक लड़कियों को होने से भी लड़के व्यस्त रहते हैं पर जब उनकी संख्या सीमित होगी तो वह चलते फिरते आक्रमण करेंगे।
3.दहेज प्रथा बिल्कुल हल नहीं होगी। उल्टे लड़कियां कम होने से उनके माता पिता अधिक अच्छा वर चाहेंगे। भारत में धन के असमान वितरण से वैसे ही समस्यायें बढ़ रही है। इधर जो अच्छे वर और घर होंगे वह अधिक दहेज की मांग करेंगे। इससे उल्टे इससे बेमेल विवाहों को प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि जिसके पास अधिक धन होगा वह अधिक धन और सुंदर लड़की की मांग करेगा इससे लड़कों की आयु बढ़ेगी और ऐसे में उनको छोटी आयु की लड़कियां भी ब्याह करने को मिल जायेंगी।

सामाजिक विशेषज्ञों की चेतावनी के लिये शब्द कुछ भी रहे हों पर उनका आशय यही था कि कम लड़कियां होने से एक ऐसा संकट आयेगा जिससे बचना कोई आसान काम नहीं होगा। हम यहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को ध्यान में रखते हुए एक बार अपने को दृष्टा और अपनी देह को पंच तत्वों से बनी एक वस्तु मान लें। अर्थात हम मान लें कि स्त्री पुरुष देह भी एक वस्तु हैं-नारीवादी लेखक इस बात तो ध्यान दें यहां यह बात आत्मा को दृष्टा मानकर कही जा रही है-तो भी मांग पूर्ति का नियम लागू होता है। पुरुष अधिक होंगे तो उनकी कम और स्त्री संख्या में कम है तो उसकी मांग अधिक होगी। आप अपने देश में जलस्त्रोतों पर पानी के लिये और सड़कों पर वाहन टकराने पर होने वाले हिंसक संघषों पर ध्यान दें तो पानी कम नहीं है बल्कि मांग बढ़ गयी है पर आपूर्ति उस ढंग से नहीं हो पाती। उसी तरह सड़कों पर वाहन अधिक हो गये हैं पर वह चौडी नहीं हुई उसी तरह आपको लगेगा कि स्त्री पुरुषों की संख्या में अनुपातिक अंतर ही इस संकट के लिये जिम्मेदार हैं। परिवार नियोजन रखना अच्छी बात है पर बच्चे की भ्रुण हत्या एक ऐसा अपराध है जिसका परिणाम तत्काल नहीं पता लगता पर आज समाज जिन हालतों में गुजर रहा है उससे हम समझ सकते हैं कि आखिर वह इस हालत में क्यों आया?
जब हर मनुष्य के दृष्टा होने की बात की है तो एक घटना याद आ रही है-नारीवादियों को शायद यह बुरी लगे पर वह इस लेखक के साथ वैचारिक धरातल पर खड़े हों तो सहमत होंगे। खासतौर से नारीवादी लेखिकाओं से अपेक्षा तो है कि वह इस घटना में आयु और उसकी प्रासंगिकता पर विचार करेंगी।
उस दिन एक सड़क पर यह लेखक अपने रात को नौ बजे स्कूटर पर आ रहा था कि एक जगह गड्ढा आ गया। वह बड़ा था और उससे दूर हटकर निकलने के लिये लेखक को रुकना पड़ा। सड़क पर कोई खास भीड़ नहीं थी। एक आदमी उसी गडढे के पास से गुजर रहा था। उसने इस लेखक से कहा-‘अच्छा हुआ यह गडढ़ा आपको दिख गया वरना इसमें कई गिर चुके हैं।’
यह लेखक जवाब में केवल हंस पड़ा। उसी समय दो लड़कियां वहां से गाड़ी पर निकली। तब वह सज्जन फिर बोले-‘पता नहीं आजकल माता पिता कैसे हैं। आप बताईये क्या इस तरह रात को लड़कियों को बाहर जाने की इजाजत दी जानी चाहिये? अरे, करोड़ो रुपये आदमी संभाल कर रखता है पर देखिये उससे कही अधिक कीमती इस तरह बिटियायें बाहर घूमने के लिये छोड़ देता है।’
लेखक ने पूछा-‘आप उनको जानते हैं?’
उन सज्जन ने कहा-‘नहीं! जिस तरह आजकल की घटनायें हो रही हैं उनको देखते हुए यह बात कह रहा हूं। अरे भई, आप ही बताईये जवान लड़कियों की रक्षा का उपाय उनके घरवालों को नहीं करना चाहिये?’
यह सही है कि युवा विवाहिताओं के प्रति भी अपराध होते हैं पर अविवाहित युवतियों के प्रति अपराध हमेशा ही भारी संकट का कारण बनता है।
आप अगर लेखक हैं तो सड़क पर खड़े होकर बहस नहीं कर सकते। कन्या भ्रुण हत्याओं के बारे में विशेषज्ञों की चेतावनी को अनदेखा करते हुए यह समाज जिस तरह आगे बढ़ता गया यह घटनायें उनका परिणाम है। इन घटनाओं की कोई भी वजह हो सकती है पर यह उसका नहीं बल्कि बरसों पहले चले इस रिवाज-हां, समाज में एक तरह से कन्या भ्रुण हत्या रिवाज ही बन गया है-का ही परिणाम है।
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भर्तृहरि नीति शतक: भक्ति को धंधा न समझें


भर्तृहरि कहते हैं कि
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कि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लये कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रु पर सिंह की तरह प्रहार करें


कौमे संकोचभास्य प्रहारमपि मर्धयेत्।
काले प्रापते तु मतिमानुत्तिश्ठेत्क्रूरसर्पवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने समय के अनुसार जीवन में रणनीति बनाते हुए कछुए के समान अंग समेटकर शत्रु का प्रहार भी सहन करें तो और उचित अवसर देखकर सांप के समान प्रहार भी करें।
मतप्रमतवत् स्थित्वा ग्रसदुत्पलुत्य पण्डितः।
अपरिभश्यमानं हि क्रमप्राप्ते मृगेन्द्रवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को मत्त और प्रमत्त के समान दिखावे में स्थित होकर शत्रु पर ऐसे ही प्रहार करते हैं जैसे सिंह करता है। उसका वार कभी खाली नहीं जाता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में कई बार ऐसा अवसर आता है जब हमें दूसरे के शब्दिक और शारीरिक आक्रमण को झेलना पड़ता है। उस समय हमें अपनी स्थितियों और शक्ति का अवलोकन करते हुए इस बात को भी देखना चाहिये कि हमारे सहयोगी कौन है? अगर समय हमारे अनुकूल न हो तो अपनी सहनशक्ति को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि उस समय क्रोध या निराशा में उठाया गया कदम आत्मघाती होता है।
इसके विपरीत जब हमारा समय अनुकूल हो और लगता हो कि हमारे मित्र और सहयोगी साथ देने के लिये तैयार हैं और शत्रु या विरोधी को दबाया जा सकता है तब उस पर शाब्दिक या शारीरिक आक्रमण किया जा सकता है। वैसे आजकल के सभ्य युग में शारीरिक कम शाब्दिक संघर्ष अधिक होते हैं। चाहे किस प्रकार का भी आक्रमण हो उसकी तैयारी विवेक से करना चाहिये। कहीं कहीं हम पर शाब्दिक आक्रमण भी होता है और अगर लगता है कि वहां प्रत्युत्तर देने का उचित समय नहीं है तो मौन रहना ही बेहतर है परंतु यदि लगता है कि उससे सामने वाले को अनावश्यक लाभ मिल रहा है तो स्थिति देखकर उस पर पलटवार करना बुरा नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है जीवन में अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये रणनीति से काम करना चाहिए। कहा भी जाता है कि यह जिंदगी को युद्ध या जंग से कम नहीं होती।
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चाणक्य नीति-जो विद्या काम की न आये उसे पाना व्यर्थ


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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हर्त ज्ञार्न क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नर।
हर्त निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष ह्यभर्तृकाः ।।

हिंदी में भावार्थ- जिस ज्ञान को आचरण में प्रयोग न किया जाये वह व्यर्थ है। अज्ञानी पुरुष हमेशा ही संकट में रहता हुआ ऐसे ही शीघ्र नष्ट हो जाता है जैसे सेनापति से रहित सेना युद्ध में स्वामीविहीन स्त्री जीवन में परास्त हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का सेनापित उसका ज्ञान होता है। उसके बिना वह किसी का गुलाम बन जाता है या फिर पशुओं की तरह जीवन जीता है। ज्ञान वह होता है जो जीवन के आचरण में लाया जाये। खालीपीली ज्ञान होने का भी कोई लाभ नहीं है जब तक उसको प्रयोग में न लाया जाये। हमारे देश में ज्ञानोपदेश करने वाले ढेर सारे लोग है जो ‘दान, तत्वज्ञान, तपस्या, धर्म, अहिंसा, प्रेम, और भक्ति की महिमा’ का बखान करते हैं पर उनका जीवन उसके विपरीत विलासिता, धन संग्रह, और अपने बड़े होने के अभिमान में व्यतीत होता है। देखा जाये तो उनके लिये ज्ञान विक्रय और उनके अनुयायियों के लिये क्रय की वस्तु होती है। उसके आचरण से न तो गुरु का और न ही शिष्य का लेना देना होता है।

यही कारण है कि हमारा समाज जितना धार्मिक माना जाता है उतना ही व्यवसायिक भी। भारतीय प्राचीन ग्रथों का तत्वज्ञान का मूल सभी जानते हैं पर उसके भाव को कोई नहंीं जानता। अनेक गुरु ज्ञानोपदेश करते हुए बीच में ही यह बताने लगते हैं कि ‘धर्म के प्रचार के लिये धन की आवश्यकता है’। वह अपने भक्तों में दान और त्याग का भाव पैदा कर अपने लिये धन जुटाते है। भक्त भी अपने मन में स्थित दान भाव की शांति के लिये उनकी बातों में आकर अपनी जेब ढीली कर देते हैं। कथित गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान के पथ पर लाकर उनका भौतिक दोहन कर फिर उनको अज्ञान के पथ पर ढकेल देते हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने वाला अपना देश भौतिकता के ऐसे जंजाल में फंस कर रह गया है जहां विकास केवला एक नारा है जिसकी अंतिम मंजिल विनाश है।
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संत कबीर वाणी-मूर्ख लोग सभी की पीड़ा एक समान नहीं मानते


पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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विदुर नीति-दुष्ट को अपना राज बताना खतरनाक


धर्माऽऽख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत्।
सा सर्वदैव तिष्ठेयेत् को न मुच्येत बंधानात्।।
हिंदी में भावार्थ-
किसी भी धर्म स्थान पर जब कोई व्यक्ति सत्संग का लाभ उठाता है, श्मशान में किसी के शव दाहसंस्कार होते देखता है या किसी रोगी को अपनी पीड़ा से छटपटाता हुआ देखता है तो इस भौतिक दुनियां को निरर्थक मानने लगता है परंतु जैसे ही वहां से हट जाता है वैसे ही उसकी बुद्धि फिर इसी संसार के भौतिक स्वरूप की तरफ आकर्षित होती है।

जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तरं वस्तुशक्तितः।।
हिंदी में भावार्थ-
जल में मिलाया गया तेल, दुर्जन को बताया गया गुप्त रहस्य, सुपात्र को दिया गया धन का दान और बुद्धिमान को प्रदाय किया ज्ञान स्वतः वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-व्यक्ति को अपने राज किसी अन्य से नहीं कहना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति हमारे सामने अच्छा बर्ताव करता है पर अगर उसके मन में हमारे प्रति कपट,ईष्र्या या द्वेष का भाव है तो वह उसे जाकर सभी को बता देगा जिससे अधिक कष्ट प्राप्त होता है। उसी तरह अपने घन का दान किसी अगर अच्छे और गुणी को दिया जाये तो वह उसका सदुपयोग कर उसमें वृद्धि करेगा।
ऐसा अनेक बार जीवन में हमारे सामने अवसर आता है जब कहीं किसी सत्संग में जाते हैं या कहीं श्मशान में किसी प्रियजन और मित्र के दाह संस्कार को देखते हैं या कहीं कोई रोगी तड़तपा हुआ दिखता है तब हमें यह सारा संसार मिथ्या नजर आता है पर अगर उस स्थान से हटते हैं तो फिर सब भूल जाते है। दुनियां के इस भौतिक स्वरूप की महिमा कुछ ऐसी है कि जो इसे बाह्य आंखों से देखता है उसे प्रभावित करता है पर जो ज्ञानी हैं वह इसे जानते हैं और हमेशा ही सुख दुःख, प्रसन्नता शोक और लाभ हानि में समबुद्धिरूप से स्थित रहकर जीवन व्यतीत करते हैं।
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रहीम दास के दोहे-बुराई का नतीजा सामने जरूर आता है


रहिमन खोटी आदि की, सो परिनाम लखाय
जैसे दीपक तम भखै, कज्जल वमन कराय

कविवर रहीम कहते हैं कि बुराई होने पर उसका फ़ल अवश्य दिखाई देता है। जैसे दीपक अंधकार को दूर कर देता है, परंतु शीघ्र ही कालिमा उगलने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर लोग सोचते हैं कि दूसरे से वस्तुऐं मांग कर अपना काम चलायें। ऐसे लोगों में आत्म सम्मान नहीं होता और जिनमें आत्म सम्मान नहीं है वह मनुष्य नहीं बल्कि पशु समान होता है। अक्सर ऐसे लोग हैं जो अपने काम के लिये वस्तु या धन मांगने में संकोच नहीं करते। उनके पास अपना पैसा होता है पर वह उसको बचाने के चक्कर में दूसरे से वस्तुऐं उधार मांग कर काम चलाते हैं। उद्देश्य यही रहता है कि पैसा बचे। ऐसे कंजूस लोग जिंदगी भर पैसा बचाते हैं पर अंततः वह साथ कुछ भी नहीं ले जाते। कोई आदमी कितना भी बड़ा क्यों न हो जब किसी से कोई चीज मांगता है तो वह छोटा हो जाता है और अगर छोटा हो तो उसे भिखारी समझा जाता है। सच बात तो यह है कि मांगने से कोई बड़ा आदमी नहीं बनता बल्कि दान देने से समाज में सम्मान मिलता है।
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भर्तृहरि नीति शतक: धनी दोस्त से धन और दुर्जन से दया कि याचना न करें



भर्तृहरि महाराज कहते हाँ कि
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असन्तो नाम्यथ्र्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्याच्या वृत्तिर्मलिनमुसुभंगेऽप्यसुकरं।
चिपद्युच्चैः स्थेयं पदमनृविधेयं च महतां सत्तां केनाद्दिष्टं विषमममसिधाराव्रतमिदम्?
हिंदी में भावार्थ-
दृष्ट लोगों से दया के लिये प्रार्थना और अमीर मित्रों से याचना न कर केवल सत्य आचरण से ही जीवन पथ पर आगे बढ़ना चाहिये-ऐसे विचार का प्रतिपादन सज्जन लोगों के लिये किसने किया? मृत्यु के समक्ष भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महापुरुषों के मार्ग का ही अनुसरण करना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन के अनेक नियम हैं जिनमें यह भी है कि जो व्यक्ति दुष्ट प्रवृत्ति का है उससे दया की याचना करने का कोई अर्थ नहीं है। उससे अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करना ही है। दया दिखाने पर हो सकता है वह कुछ देर अपने दुष्कर्म से रुक जाये पर फिर उसे उसी मार्ग पर जाना है। अतः दुष्ट प्रकृति के लोगों का प्रतिकार करने का सामर्थ्य हमेशा अपने पास रखना चाहिये या फिर उस स्थान से ही चले जाना चाहिये जहां वह निवास करते है।
उसी तरह अपने धनी मित्र से किसी प्रकार की याचना कर अपने संबंध बिगाड़ने की आशंकायें पैदा करना व्यर्थ है। धन एक माया का रूप है और वह सभी को भ्रम, लालच और लोभ की प्रवृत्तियों के कारण अपने बंधन में जकड़े रहती है। अतः अपने धन बंधु-बांधवों और मित्रों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह याचना करने पर आर्थिक सहायता देंगे। जहां तक आर्थिक सहायता का प्रश्न है तो जिसके मन में यह उदार भाव होता है वह बिना मंागे ही करता है और जिसका हृदय संकीर्ण मानसिकता वाला है उससे कितना भी आग्रह करें वह आर्थिक सहायता नहीं करेगा।
जीवन में अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिये जरूरी है कि उसके कुछ नियमों को समझाया जाये। महापुरुष द्वारा ने अपने अनुभवों से जो सत्य का मार्ग दिखाया है उस पर चलकर ही सामान्य मनुष्य जीवन में स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है। उससे पृथक चलना अपने आपको ही शारीरिक और मानसिक कष्ट देना है।
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मनुस्मृतिः हिंसा से कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं होता


नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्यद्यते क्वचित्।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्।।

हिंदी में भावार्थ-किसी भी जीव की हत्या कर ही मांस प्राप्त किया जाता है लेकिन उससे स्वर्ग नहीं मिल सकता इसलिये सुख तथा स्वर्ग को प्राप्त करने की इच्छा करने वालो को मांस के उपभोग का त्याग कर देना चाहिये।

यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तद्वाघ्नोत्ययत्नेन यो हिनस्तिन किंचन।।

हिंदी में भावार्थ-जो मनुष्य किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करता, वह जिस विषय पर एकाग्रता के साथ विचार और कर्म करता है वह अपना लक्ष्य शीघ्र और बिना विशेष प्रयत्न के प्राप्त कर लेता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में मनुष्य के चलने के दो ही मार्ग हैं-एक सत्य और परमार्थ और दूसरा असत्य और हिंसा। यदि मनुष्य का मन लोभ, लालच और अहंकार से ग्रस्त हो गया तो वह नकारात्मक मार्ग पर चलेगा और उसमें सहृदयता का भाव है तो वह सकारात्मक मार्ग पर चलता है। श्रीगीता के संदेशों का सार यह है कि जैसा मनुष्य अन्न जल ग्रहण करता है तो वैसा ही उसका स्वभाव हो जाता है तब वह उसी के अनुसार ही कर्म करता हुआ फल भोगता है।
वैसे पश्चिम के वैज्ञानिक भी अपने अनुसंधान से यह बात प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन और मांसाहारी भोजन करने वालों के स्वभाव में अंतर होता है। वह यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि शाकाहारी भोजन करने वालों के विचार और चिंतन में सकारात्मक पक्ष अधिक रहता है जबकि मांसाहारी लोगों का स्वभाव इसके विपरीत होता है। अतः जितना संभव हो सके भोजन में मांसाहार से परहेज करना चाहिये।
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भर्तृहरि नीति शतक: कुत्ता हड्डी चबाते हुए इन्द्र देवता की परवाह नहीं करता


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्, निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नस्थि निरामिषम्
सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शंकते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्

हिदी में भावार्थ-कीड़ों,लार,दुर्गंध और देखने में गंदी रसहीन हड्डी को कुत्ता बहुत शौक से चबाता है। उस समय इंद्रदेव के अपने आने की परवाह भी नहीं होती। यही हालत स्वार्थी और नीच प्राणी की भी होती है। वह जो वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे उपभोग में इतना लीन हो जाता है कि उसे उसकी अच्छाई बुराई का पता भी नहीं चलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह संसार स्वार्थ और परमार्थ दो तरह के मार्गों का समागम स्थल है। अधिकतर संख्या स्वार्थियों की है जो अपने देहाभिमान वश केवल अपना और परिवार का भरण भोषण कर यह संसार चला रहे हैं। उनके लिये परिवार और पेट भरना ही संसार का मूल नियम हैं। दूसरी तरफ परमार्थी लोग भी होते हैं जो यह सोचकर दूसरो कें हित में सलंग्न रहते हैं कि इंसान होने के नाते यह उनका कर्तव्य है। वही लोग श्रेष्ठ हैं। सच तो यह है कि हम अपने हित पूर्ण करते हुए अपना पूरा जीवन इस विचार में गुजार देते हैं कि यही भगवान की इच्दा है और परमार्थ करने का विचार नहीं करते। स्वार्थ या प्रतिष्ठा पाने के लिये दूसरे का काम करना कोई परमार्थ नहीं होता। निष्प्रयोजन दया ही वास्तविक पुण्य है। अगर हम सोचते हैं कि सारे लोग अपने स्वार्थ पूरे कर काम कर लें तो संसार स्वतः ही चलता जायेगा तो गलती कर रहे हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसा अवसर आता है जब कोई हमारी निष्प्रयोजन सहायता करता है पर हम अपना कठिन समय बीत जाने पर उसे भूल जाते हैं और जब किसी अन्य को हमारी सहायता की जरूरत होती है तब मूंह फेर जाते हैं। यह श्वान की प्रवृत्ति का परिचायक है। भगवान ने हमें यह मनुष्य यौनि इसलिये दी है कि हम अन्य जीवों की सहायता कर उसकी सार्थकता सिद्ध करें। यह सार्थकता स्वार्थ सिद्धि में नहीं परमार्थ करने में है।
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