अब तो हादसों के इतिहास पर भी
सर्वशक्तिमान के दरबार बनते हैं,
जिनके पास नहीं रही देह
उन मृतकों के दर्द को लेकर
जिंदगी के गुढ़ रहस्य को जो नहीं जानते
वही उफनते हैं,
जज़्बातों के सौदागरों ने पहन लिया
सर्वशक्तिमान के दूत का लबादा,
भस्म हो चुके इंसानों के घावों की
गाथा सुना सुनाकर
करते हैं आम इंसानों से दर्द का व्यापार
क्योंकि उनके महल ऐसे ही तनते हैं।
————
इंसानों को दर्द से जड़ने का जज़्बा
भला वह अक्लमंद क्या सिखायेंगे,
जो हादसों में मरों के लिये झूठे आंसु बहाकर,
सर्वशक्तिमान के दरबार सजाकर
लोगों का अपना दर्द दिखायेंगे,
यह अलग बात है कि उनके भौंपू
उनका नाम इतिहास में
सर्वशक्तिमान के दूत की तरह लिखायेंगे।
———-
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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friends
कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बुद्धि और परिश्रम के संयुक्त प्रयास से ही सफलता संभव
धातोश्चामीकरमिव सर्पिनिर्मथनादिव।
बुद्धिप्रयत्नोपगताध्यवसायाद्ध्रवं फलम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह अनेक धातुओं में मिला होने पर भी गलाने से प्रकट होता है तथा दही मथने से घृत प्रगट होता है वैसे बुद्धि और उद्योग से के संयुक्त उद्यम से फल की प्राप्ति भी होती है।
सूक्ष्मा सत्तवप्रयत्नाभ्यां दृढ़ा बुद्धिरधिष्ठिता।
प्रसूते हि फलं श्रीमदरणीय हुताशनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जो बुद्धि सूक्ष्म तत्त्वगुण का ज्ञान होने से दृढ़ स्थिति में है वह धन रूपी फल को उत्पन्न करती है जिस प्रकार अरणी काष्ट अग्नि को प्रकट करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में वर्णित ज्ञान की लोग यह सोचकर उपेक्षा करते हैं कि वह तो सांसरिक कार्य से विरक्ति की ओर प्रेरित कर सन्यास मार्ग की ओर ले जाता है। यह अल्पज्ञान का प्रंमाण है। सच तो यह है कि उसमें वर्णित तत्व ज्ञान को जिसने भी धारण कर लिया उसकी बुद्धि दृढ़ मार्ग पर चल देती है। वह छोटी मोटी बातों पर न ध्यान देता है न उसे मान अपमान की चिंता रहती है। जिनसे मनुष्य को विचलित किया जा सकता है वह मायावी प्रयास उसे अपने मार्ग से डिगा नहीं सकते। यही कारण है कि अपने बौद्धिक संतुलन और एकाग्रता से अन्य के मुकाबले तत्वज्ञानी अधिक सफल रहता है। निष्काम भाव से उद्योग करने का आशय यह कतई नहीं है कि सारे संसार के काम को तिलांजलि देकर बैठा जाये बल्कि उपलब्धि प्राप्त होने पर हर्षित होकर चुप न बैठें और न नाकामी होने पर हताश हों, यही उसका आशय है।
तत्वज्ञान का आशय यह भी है कि जीवन पथ पर उत्साह के साथ बढ़ें। समय के साथ मनुष्य को भी बदलना पड़ता है। अच्छे, बुरे, मूर्ख और चतुर व्यक्तियों से उसका संपर्क होता है, उनसे व्यवहार करने का तरीका केवल तत्वज्ञानी ही जानते हैं। तत्व ज्ञान से जो बुद्धि में स्थिरता आती है उससे दूसरे लोग अपने छल, चालाकियों तथा मिथ्या ज्ञान से विचलित नहीं कर सकते। वर्तमान में हम देखें तो विश्व आर्थिक शिखर पर बैठे लोगों का सारा ढांचा ही मिथ्या ज्ञान तथा काल्पनिक स्वर्ग बेचने पर आधारित है। अगर लोगों में तत्व ज्ञान हो तो शायद ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलें जिसमें लोगों को जीते जी जमीन पर मरने पर आसमान में स्वर्ग खरीदते हुए अपना धन तथा समय बरबाद करते हैं। इस दुनियां में अनेक लोगों का व्यापार तो केवल इसलिये ही चल रहा है कि लोगों को अध्यात्म का ज्ञान नहीं है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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फरिश्तों का सम्मेलन -हिन्दी व्यंग्य कविता (sammelan-hindi satire poem
अब संभव नहीं है
कोई कर सके
सागर का मंथन
या डाले हवाओं पर बंधन।
इसलिये नये फरिश्ते इस दुनियां के
रोकना चाहते हैं
जहरीली गैसों का उत्सर्जन
जिसे छोड़ते जा रहे हैं खुद
समंदर से अधिक खारे
विष से अधिक विषैले
नीम से अधिक कसैले अपनी
उन फरिश्तों ने महफिल सजाने के लिये
ढूंढ लिया है कोपेनहेगन।।
——–
वह समंदर मंथन कर
अमृत देवताओं को देंगे
ऐसे दैत्य नहीं हैं।
पी जायें विष ऐसे शिव भी नहीं हैं।
कोपेनहेगन में मिले हैं
इस दुनियां के नये फरिश्ते,
गिनती कर रहे हैं
एक दूसरे द्वारा फैलाये विष के पैमाने की,
अमृत न पायेंगे न बांटेंगे,
बस एक दूसरे के दोष छाटेंगे,
धरती की शुद्धि तो बस एक नारा है
उनके हृदय का भाव खारा है,
क्या करें इसके सिवाय वह लोग
सारा अमृत पी गये पुराने फरिश्ते
अब तो विष ही हर कहीं है।।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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संत कबीर के-रात के सपने निराशा का भाव पैदा करते हैं (sant kabir-rat ke sapne aur nirasha)
कबीर सपनें रैन के, ऊपरी आये नैन
जीव परा बहू लूट में, जागूं लेन न देन
संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि रात में सपना देखते देखते हुए अचानक आंखें खुल जाती है तो प्रतीत होता है कि हम तो व्यर्थ के ही आनंद या दुःख में पड़े थे। जागने पर पता लगता है कि उस सपने में जो घट रहा था उससे हमारा कोई लेना देना नहीं था।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सपनों का एक अलग संसार है। अनेक बार हमें ऐसे सपने आते हैं जिनसे कोई लेना देना नहीं होता। कई बार अपने सपने में भयानक संकट देखते हैं जिसमें कोई हमारा गला दबा रहा है या हम कहीं ऐसी जगह फंस गये हैं जहां से निकलना कठिन है। तब इतना डर जाते हैं कि हमारी देह अचानक सक्रिय हो उठती है और नींद टूट जाती है। बहुत देर तक तो हम घबड़ाते हैं जब थोड़ा संभलते हैं तो पता लगता है कि हम तो व्यर्थ ही संकट झेल रहे थे।
कई बार सपनों में ऐसी खुशियां देखते हैं जिनकी कल्पना हमने दिन में जागते हुए नहीं की होती । ऐसे लोगों से संपर्क होता है जिनके पास जाने की हम सोच भी नहीं सकते। जागते हुए पुरानी साइकिल पर चलते हों पर सपने में किसी बड़ी गाड़ी पर घूमते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में जब खुशी चरम पर होती है और सपना टूट जाता है। आंखें खुलने पर भी ऐसा लगता है कि जैसे हम खुशियों के समंदर में गोता लगा रहे थे पर फिर जैसे धीरे धीरे होश आता है तो पता लगता है कि वह तो एक सपना था।
आशय यह है कि यह जीवन भी एक तरह से सपना ही है। इसमें दुःख और सुख भी एक भ्रम हैं। मनुष्य को यह देह इस संसार का आनंद लेने के लिये मिली है जिसके लिये यह जरूरी है कि भगवान भक्ति और ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया जाये न कि विषयों में लिप्त होकर अपने को दुःख की अनुभूति कराई जाये। जीवन में कर्म सभी करते हैं पर ज्ञानी और भक्त लोग उसके फल में आसक्त नहीं होते इसलिये कभी निराशा उनके मन में घर नहीं करती। ऐसे ज्ञानी और भक्तजन दुःख और सुख के दिन और रात में दिखने वाले सपने से परे होकर शांति और परम आनंद के साथ जीवन व्यतीत करते हैं।
अगर हम भारतीय अध्यात्म संदेशों का अर्थ समझें तो दुःख और सुख जीवन में बर्फ में पानी के सदृश हैं। अर्थात दोनों की अनूभूतियां हैं बस और कुछ नहीं है। जिस तरह बर्फ दिखती है पर होता तो वह पानी ही है। उसी दुःख और सुख बस एक सपने की तरह है। जो इस तत्व ज्ञान को समझ लेना वह जीवन को आनंद के साथ जी सकता है।
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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima)
गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव
जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं। आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।
कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि
जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।
जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है। बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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भर्तृहरि नीति शतक: जिनकी देह,मन और विचार में अमृत हो ऐसे लोग नगण्य
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः
परगुणपनमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृवि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः
हिंदी में भावार्थ- जिनकी देह मन और वचन की शुद्धता और पुण्य के अमृत से परिपूर्ण है और वह परोपकार से सभी का हृदय जीत लेते हैं। वह तो दूसरों को गुणों को बड़ा मानते हुए प्रसन्न होते हैं पर ऐसे सज्जन इस संसार में हैं ही कितने?
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-दूसरों के दोष गिनाते हुए अपने गुणों का बखान तथा दिखाने के लिये समाज के कल्याण में जुटे कथित लोगों की कमी नहीं है। आत्म विज्ञापन से प्रचार माध्यम भरे पड़े हैं। अपने अंदर गुणों का विकास कर सच्चे हृदय से समाज सेवा करने वालों का तो कहीं अस्तित्व हीं दिखाई नहीं देता। अपनी लकीर को दूसरे की लकीर से बड़ा करने वाले बुद्धिमान अब कहां हैं। यहां तो सभी जगह अपनी थूक से दूसरे की लकीर मिटाने वाले हो गये हैं। ऐसे लोगों की सोच यह नहीं है कि वह समाज कल्याण के लिये कार्य कैसे करें बल्कि यह है कि वह किस तरह समाज में दयालू और उदार व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध हों। प्रचार करने में जुटे लोग, गरीबों और मजबूरों के लिये तमाम तरह के आयोजन करते हैं पर वह उनका दिखावा होता है। ‘मैंने यह अच्छा काम किया’ या ‘मैंने उसको दान दिया’ जैसे वाक्य लोग स्वयं ही बताते हैं क्योंकि उनके इस अच्छे काम को किसी ने देखा ही नहीं होता। देखेगा भी कौन, उन्होंने किया ही कहां होता?
इस संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो परोपकार और दया काम चुपचाप करते हैं पर किसी से कहते नहीं। हालांकि उनकी संख्या बहुत नगण्य है पर सच तो यह है कि संसार के सभी सभ्य समाज उनके त्याग और बलिदान के पुण्य से चल रहे हैं नकली दयालू लोग तो केवल अपना प्रचार करते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
पत्थर कभी इतने नहीं उड़े जितनी खबरें बनी-हास्य व्यंग्य कविता
पत्थर कभी इतने नहीं उड़ाये गये
जितनी खबरें बन गयी।
खंजर कभी इतने नहीं घौंपे गये
जिनकी चर्चा से जमाने की भौहें तन गयी।
बस! बात इतनी है कि
अमन से रहते लोगों के दिमाग में
खौफ के जज़्बात की हवा का
एक झटका देना बहुत होता है
जिसमें बहकर वह बाजार चला आता है
दिल बहलाने के लिये
सौदागरों की जेब भर जाता है
घबड़ाने की बाद क्या
इससे शायरों के पास भी अमन का
पैगाम सुनाने का मौका आता है
जमाने को चलाने के लिये
बने कुछ दस्तूर है
कलम के साथ खंजर का भी होना जरूर है
जमीन पर पसरे खून से इंसान दहल जाता है
मगर अल्फाजों और चीजों से फिर बहल जाता है
इसलिये जब पत्थर बरसे या खंजर चला
तब सौदागरों के खिल उठे चेहरे
भले आम इंसान की नसें तन गयी
…………………..
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अन्धविश्वास ने धर्म के प्रति विश्वास को कमजोर किया है-आलेख
एक मित्र ब्लाग लेखक सुरेश चिपलूनकर ने कल कुछ फोटो बनारस शहर और गंगा नदी के भेजे। वह हिंदी ब्लागजगत के सक्रिय लेखक होने के साथ दूसरों से सतत संपर्क रखने की कला में भी सिद्ध हस्त हैं और अक्सर ऐसे फोटो और वेबसाईटें ईमेल पर भेजते रहते हैं जो वैचारिक और चिंतन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होती है। कल उनके फोटो के साथ इस बात का भी जिक्र था कि हिंदू धर्म के पवित्र माने जाने वाले बनारस और गंगा नदी में कितना कचड़ा दिखाई देता है। मेरा कभी बनारस जाना नहीं हुआ पर उसके बारे मेंे सुनता रहता हूं। अनेक लोग भी इस बात की चर्चा करते हैं कि वहां गंगा में अब प्रदूषण बहुत है। कहने को इसके लिये लोग अनेक कारण बतायेंगे पर सच बात तो यह है कि इसके लिये अंध श्रद्धालू भी कम जिम्मेदार नहीं है। हिंदू अध्यात्म विश्व का सबसे श्रेष्ठ ज्ञान है पर यह भी उतना ही सच है कि सर्वाधिक अज्ञानी और अंधविश्वासी भारत में ही हैं और इसी कारण भारत के अधिकतर शहर और नदियों की पवित्रता पर विष की चादर बिछ गयी है। देखा जाये तो मंदिर केवल इसलिये बने ताकि लोग एक समूह में आकर वहां सत्संग और कीर्तन कर सकें पर अंधविश्वासों और अज्ञान की वजह से लोगों ने उनको वह कूंआं मान लिया जहां से पुण्य भरकर अपने साथ स्वर्ग ले जाया सके। अपने दैहिक कचड़े को वहां छोड़कर वह यह मान लेते हैं कि वह पवित्र हो गये। उनके उस कचड़े से दूसरे आने वाले श्रद्धालू उनको कितना कोसते हैं और उसका पाप उनके सिर ही आता है यह वह भूल जाते हैं।
पहले उन फोटो की बात करें। उनमें दिखाया गया था कि बनारस की सड़कों पर भारी कचड़ा जमा था। गंगा नदी में लाशें तैर रहीं थीं। कई जगह रेत में तो हड्डियां बिखरी पड़ी थीं। लाशें देखकर अच्छा खासा आदमी डर जाये। उनको कुत्ते खा रहे थे। कई जगह कौवे उन पर बैठे थे। कई लाशें जलने को तैयारी थी तो पास में लोग नहाते हुए दिख रहे थे। कटे हुए बालों के झुंड वहां जमा थे। यह दृश्य देखकर हृदय से भक्ति करने वाले किसी भी आदमी का मन दुःखी हो सकता है। शरीर के बाल, पुराने जूते और कपड़े मंदिरों या तीर्थों पर जाकर फैंकना किस धर्म का हिस्सा है यह कहना कठिन है क्योंकि जिन ग्रंथों को हिंदू धर्म का आधार माना जाता है उनमें ऐसी कोई चर्चा नहीं है।
यह समस्या केवल बनारस तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश के अनेक सिद्ध और प्रसिद्ध मंदिरों मेेंं ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं। कुछ महीने पहले की बात है कि हम अपने एक मित्र के साथ स्कूटर पर अपने ही शहर से तीस तीस किलोमीटर दूर एक प्रसिद्ध मंदिर गया। वह भी पवित्र दिन था और मित्र ने आग्रह इस तरह किया कि हमने सोचा चलो हम भी हो आते हैं। वहां जाकर अपना ध्यान भी लगायेंगे और घूमना भी हो जायेगा।
मंदिर पहाड़ी पर था और रास्ते में खेत खलिहान और तालाब देखकर बहुत अच्छा लगा। शहर से दूर ताजी हवा वैसे भी मन को प्रभावित करती है। जब उस मंदिर के निकट पहुंचे तो बहुत भीड़ थी। वैसे उस मंदिर पर भीड़ इतनी नहीं होती पर उस दिन खास दिन था इसलिये आवाजाही अधिक थी। हमने मंदिर से दो किलामीटर स्कूटर रखा-उसको रखने के पांच रुपये दिये क्योंकि ऐसे मौके पर भी भक्तों के साथ कोई रियायत नहीं होती। हम दोनों पैदल पहाड़ी पर चढ़ने लगे। वहां किनारे नाईयों के पास अपने बाल कटवाने वाले लोगों का झुंड लगा हुआ था। किनारे के दोनेां और पड़े बालो के झुंड किसी का मन खराब करने के लिये काफी थे। हम चलते गये तो आगे देखा कि लोग पुरानी चप्पलें वहीं छोड़ गये थे जो कई बार हमारे पैरों में बाधा पैदा कर देती थी। मंदिर पहुंचे तो लंबी लाईन लगी थी। हमने अपने मित्र से कहा कि इस धूप में इतनी देर लाईन में खड़े होना हमारे लिये संभव नहीं हैं। हम तो कभी दोबारा आकर दर्शन कर लेंगे।’
मित्र भी निराश हो गया था पर चलते चलते वह पता नहीं मंदिर से पचास मीटर पहले ही लाईन के बीच में लग गया हम उससे उस समय थोड़ा दूर थे। तब हम मंदिर के पास ही एक टैंट के में अपने बैठने की जगह तलाशने लगे। वह एक मैदान था। वहां बालों, पुराने कपड़ों और चप्पलों के बीच खड़ा होकर हम सोचने लगे कि ‘भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान’ में आखिर ऐसा कहां संदेश मिलता है कि धार्मिक स्थानों को अपने अंधविश्वासों से अपवित्र बनाया जाये। एक तो गर्मी फिर वहां के इस दृश्य ने हमें नरक के दर्शन कराकर पीड़ा ही दी और जब तक मित्र बाहर नहीं आया उससे झेलते रहे। एक बार तो गुस्सा आया कि लोगों से कहैं कि ‘यह कौनसा भक्ति करने का तरीका है।’ पर फिर सोचा कि जिस अध्यात्मिक ज्ञान की बात हम करेंगे उसके बारे में यह अधिक बतायेंगे। यहां कई ऐसे ज्ञानी हैं जिनको कबीर,तुलसी और सूर के दोहे जुबानी याद हैं पर अंधविश्वास की धारा में वही सभी से अधिक बहते हैं।
अगर पूरे बाल कटवा दिये जायें तो दिमाग को तरावट होती है। नये कपड़े या जूते पहने से भी देह को सुखद अनुभूति होती है। अगर किसी पवित्र स्थान पर जाकर ऐसी अनुभूति की तो कोई चमत्कार नहीं है पर उसको सिद्धि से जोड़ना भ्रम है। मंदिर निर्माण का मुख्य उद्देश्य मनुष्य में सामुदायिकता की भावना का विकास करना है और उसमें सिद्धि और प्रसिद्धि को विचार तो केवल प्रचार या विज्ञापन ही है। जो लोग वहां अपनी गंदगी का त्याग करते हैं वह कहां जायेगी? इस पर कोई नहीं सोचता। अनेक लोग मंदिरों में केवल मत्था टेकने जाते हैं उनके लिये इस प्रकार की गंदगी वहां नरक जैसा दृश्य प्रस्तुत करती है।
चिपलूनकर जी ने ईमेल के ऊपर ही लिख दिया था कि अंधभक्ति और कमजोर दिलवाले इसे नहीं देखें। बहरहाल हमने फोटो देखे और इस बात को समझ गये कि वह कहना क्या चाहते हैं? उन फोटो को यहां दिखाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह एक व्यापक विषय है कि हम अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे होकर अंधविश्वासों का बोझ कम तक ढोते रहेंगे? अक्सर देश की संस्कृति और संस्कार बचाने की बात करने वाले आखिर इस अंधविश्वास से आंखें बंद कर क्यों अपने अभियान चलाते हैं? आम पाठक शायद न समझें पर ब्लाग जगत पर सक्रिय ब्लाग लेखक यही कहना चाहेंगे कि यह सवाल तो सुरेश चिपलूनकर जी से ही किया जाना चाहिये। अधिकतर लोगों को यह लगता है कि सुरेश चिपलूनकर जी परंपरावादी लेखकों के समूह के सदस्य हैं पर हम ऐसा नहीं मानते। उनकी उग्र लेखनी से निकले आलेखों पर सभी लाजवाब हो जाते हैं और जो विरोध करते हैं तो भी उनके तर्क कमजोर दिखते हैं। सच बात तो यह है कि सुरेश चिपलूनकर न केवल अंध विश्वासों के विरोधी है बल्कि उनके कई पाठ धर्म के नाम पर पाखंड के विरुद्ध लिखे गये हैं। उन्होंने अपने ही उज्जैन शहर के मंदिर पर हो रहे पाखंड और भ्रष्टाचार का उल्लेख अपने पाठ में लिया था। उनके इन प्रहारात्मक लेखों से लोग इसलिये भी प्रभावित होते हैं। उन्हें परंपरावादी लेखक तो हम नहीं मानते बल्कि आधुनिक विचाराधारा के परिपक्व श्रेणी के लेखकों में गिनती करते हैं।
प्रसंगवश परंपरपादी और प्रगतिशील लेखकों की बात भी कर लें। दोनों में कोई अधिक अंतर नहीं है। प्रगतिशील भारत के अंधविश्वासों को निशाना बनाते हुए यहां के समग्र चरित्र पर प्रहार करते हुए विदेशी विचारधाराओं की बात करते हैं जबकि परंपरावादी लेखक अपने पुराने ज्ञान को ही प्रमाणिक मानते हैं और अपने अंधविश्वास और पाखंड से बचते हैं। प्रगतिशील और परंपरावादियों से अलग ऐसे आधुनिक लेखक भी हैं जो अपने पुराने अध्यात्म को प्रमाणिक मानते हुए अंधविश्वास और पाखंड पर प्रहार करने का अवसर नहीं चूकते और यही कारण है कि यह तीसरा वर्ग ही भारत में परिवर्तन के लिये जूझता दिखता है। सच बात तो यह है कि कर्मकांडों का आधार स्थानीय होता है और उनका धर्म से संबंध केवल इसलिये दिखता है क्योंकि देश के अधिकतर लोगों के धार्मिक इष्ट एक ही है। कई जगह एक त्यौहार जिस तरह से मनाया जाता है तो दूसरी जगह दूसरे ढंग से। उसी तरह जाति से भी त्यौहार मनाने के तरीके से भिन्नता का आभास होता है। अगर हम कुल निष्कर्ष निकालें तो केवल अध्यात्मिक ज्ञान के आधार पर ही सभी एक हैं कर्मकांडों में विरोधाभास है और वह धर्म का आधार कतई नहीं लगते। यह अलग बात है कि पहले पुराने और अब आधुनिक बाजार ने अपनी कमाई के लिये कर्मकांडों को ही धार्मिक आधार बना दिया है। सच बात तो यह है कि अंधविश्वासों की वजह से धर्म बदनाम ही हुआ है और पराये क्या अपने ही लोग उनका मजाक उड़ाते हैं। भारत के अनेक महापुरुषों में पाखंड और अंधविश्वास से दूर रहने का संदेश दिया है और उनके कृतित्व का ही नतीजा है कि हमारा देश विश्व में अध्यात्म गुरु माना जाता है। शेष फिर कभी
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वेलेंटाइन डे का एक दिन में शोर थमा-हास्य-व्यंग्य (velantine day ka shor-hasya vyangya)
कल वैलंटाईन डे बीत गया। पिछले प्रदंह दिन से उसका प्रचार जोरदार ढंग से हुआ। आज अनेक खबरें इस बारे में समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में छायी हुईं हैं। अधिकतर लोगोंं का ध्यान सड़कों, पार्कों, होटलों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर हुए अच्छे बुरे दृश्यों के विश्लेषण पर केंद्रित हैं पर कुछ लोग हैं जिनका ध्यान बाजार समाचार पर है। टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं की इस बात के लिये भी प्रशंसा करनी चाहिये कि उन्होंने इस बात को छिपाया नही कि मंदी से जूझ रहे बाजार को कल एक दिन के लिये संजीवनी मिल गयी-यह कितने दिन काम करेगी यह तो बाद में ही पता चलेगा।
इन्हीं समाचारों से पता चला कि इस बार कथित प्रेमियों ने सोने या उससे संबंद्ध उपहार अपने प्रेमियों को दिये-यह भी बताया है कि ऐसी सलाह प्रेमियों को बाजार विशेषज्ञों ने ही दी थी। इस बार मंदी के कारण विदेशी गुलाब फूलों की बिक्री के कारण कम बिकने की आशंका थी पर वह गलत निकली। उपहारों के सामान और ग्रीटिंग कार्ड खूब बिके। निष्कर्ष यह है कि मंदी का वैलंटाईन डे पर बुरा प्रभाव नहीं हुआ पर भविष्य में ऐसी आशंका से इंकार भी नहीं किया जा सकता।
प्रचार और विज्ञापन से पहले आदमी का असहज किया जाता है ताकि वह बाजार के लिये एक ग्राहक के रूप में तैयार हो सके। विदेशी या पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित हो कथित दिवस यहां प्रचलन में आये हैं वह एक दिन में नहीं आये बल्कि उसके लिये बकायदा योजना बनायी गयी। यह योजना भले ही संगठित रूप से न बनी हो पर धीरे धीरे वह बृहद रूप लेती गयी।
हमारे देश में किसी भी फैशन की शुरुआत फिल्मों से ही होती थी। अब टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाओं ने भी इसमें योगदान देना प्रारंभ कर दिया है। भले ही उनको प्रत्यक्ष रूप से लाभ नहीं होता पर उनके प्रायोजक और विज्ञापनदाता उनसे ऐसी आशा करते हैंे कि वह अपने पाठकों और दर्शकों उनके उत्पादों और वस्तुओं की तरफ आकर्षित कर सकें।
हर बार की तरह एक बहुत बड़ा वर्ग इससे दूर ही रहा। यह अलग बात है कि वैलंटाईन डे पर बाजार को संजीवनी देने के लिये पूरे विश्व में प्रयास हुए और भारत में तो ऐसा लगता है कि इसकी भूमिका एक माह पहले ही तैयार की गयी। एक बड़े शहर में पब पर हुए आक्रमण में विरोध स्वरूप कुछ लोगों ने उसे वैलंटाईन डे से जोड़ दिया। देखा जाये तो दो ऐसे प्रसंग हुए जिनको बाजार के लिये प्रचार प्रबंधकों ने खूब पकाया।
अगर आप लेखक या पत्रकार हैं तो यह जरूरी नहीं है कि हर घटना पर अपनी सहमति या असहमति जतायें। अगर आप परंपरावादी होने का दावा करते हुए पाश्चात्य सभ्यता का विरोध करते हैं तो यह याद रखना चाहिये कि अपने धर्मग्रंथों में उपेक्षासन भी एक विधि जिससे प्रतिद्वंद्वी को परास्त किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इस आसन के लिये आपको सहज होना पड़ता है, मगर जब आप विरोध करने के लिये तत्पर होते हैं तब अपने अंदर उस असहज भाव को प्रवेश होने देतें हैं तो इसका मतलब यह है कि आज बाजार की सहायता कर रहे हैं जिसकी कीमत प्रचार प्रबंधक वसूल कर ही लेते हैं।
एक दृष्टा की तरह अनेक लोग बाजार के इस खेल को देख रहे थे। टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओंं से इसका पता नहीं चलता पर अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग पढ़ने से पता लगता है कि अधिकतर लोग विवाद बढ़ाने वाली घटनाओं में बाजार की योजना और हाथ होने का अनुभव कर रहे थे। भले ही विवाद करने वालों का आशय पैसा कमाने से अधिक प्रचार पाना हो पर अनजाने में वह व्यवसायिक प्रचारकों की सहायता कर रहे थे।
मामूली घटनाओं में नारी स्वातंत्र्य और सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश करने वाले आपस में बहस कर रहे थे जबकि बाजार का मतलब केवल अपने लिये पैसा कमाने का था। शराब महिला पिये या पुरुष यह उसका निजी मामला है पर अगर कोई उन पर आक्रमण करता है तो उससे निपटने की जिम्मेदारी कानून की है और वह उसे भी निभा रहा है पर बहस करने वालों को विषय चाहिये था। नारी स्वातंत्र्य के समर्थक इसमें सदियों पुरानी परंपराओं के विरुद्ध आव्हान करते हैंं तो परंपरावादी लोग अपने सांस्कृतिक मूल्यों के लिये फिक्रमंद दिखते हैं। अगर आप उनके लिखे हुए पाठ या दिखाये जा रहे दृश्य देखें तो आपको लगेगा कि यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है पर अगर आप सड़क पर निकल जाईये तो इस बहस से अनजान लाखों लोगों को अपने लक्ष्य की ओर आते जाते देखा जा सकता है। बाजार को उनकी उपेक्षा बुरी लगती है इसलिये वह हर जगह अपने उत्पाद और वस्तुओं का प्रचार देखना चाहता है। ऐसे में जहां प्रचार की संभावना है वहां बाजार अपना दांव खेलता है और प्रचार प्रबंधक भी यह सोचकर उसमें जुट जाते हैं कि उससे उनके प्रयोजकों और विज्ञापनदाताओं को लाभ हो।
इधर अंतर्जाल पर अनेक पाठ देखकर अच्छा लगा। सच बात तो यह है कि समाचार पत्र पत्रिकाओें और टीवी चैनलों की सीमायें हैं। वह अपनी तरफ से कोई बात नहीं कह पाते बल्कि उनको आवश्यकता होती है उसके लिये किसी मुख की जिसके नाम से वह कुछ लिख सकें। अगर विवाद हो तो उसे दो मुखों की आवश्यकता होती है-एक समर्थन के लिये दूसरा विरोध के लिये। तय बात है कि जिन्हें प्रचार चाहिये वह इधर या उधर से होकर बोलते हैं ताकि उनके मुख चमक सकें। अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। पाठ लिखने वाले ने लिखा तो असहमत होने वालों ने उस पर समर्थन या विरोध में टिप्पणी की वह भी कम पढ़ने लायक नहीं होती। प्रतिवाद में पाठ तक लिख जाते हैं और फिर अधिक गुस्सा हो तो सामने वाले ब्लाग लेखक का नाम ही शीर्षक मेंे दिया जाता है।
यहां भी दोनों पक्षंों के ब्लाग लेखक हैं। पिछले दो वर्षों में यह पहला ऐसा अवसर था जब वैलंटाईन डे पर ऐसे पाठ ब्लागों पर पढ़ने को मिले जो बहुत दिलचस्प लगे। आम जीवन की तरह इस विषय पर उपेक्षासन कर रहे ब्लाग लेखक ही अधिक थे पर वैलंटाईन डे के पक्ष और विपक्ष ब्लाग पर लिखे गये पाठ पढ़ने से भला कौन चूक सकता था? उनको हिट मिलना स्वाभाविक था क्योंकि द्वंद्व हर इंसान को देखने में मजा आता है-अगर वह खुद उसके पात्र न हों। जो स्वयं बहस में लिप्त नहीं होते वही उन बहसों का निष्कर्ष निकाल सकते हैं पर अगर पूरी तरह उपेक्षासन करने वाले हों तो फिर हंस तो सकते ही हैं। सच बात तो यह है कि अगली बार वैलंटाईन डे पर जिन आम लोगोंे को समय हो तो वह बजाय कहीं अन्यत्र जाने के हिंदी ब्लाग जगत पर अधिक सक्रिय रहें इसके लिये जरूरी है कि वह अभी से ही सक्रिय हो जायें क्योंकि उनको जो संतोष यहां मिल सकता है वह किसी अन्य प्रचार माध्यम पर नहीं मिल सकता।
प्रसंगवश हमारे मित्र ब्लाग लेखकों की इसमें जोरदार भूमिका थी और उनका सामना भी ऐसी महिला ब्लाग लेखिकाओं से हुआ जिनके प्रति हमारे मन में आत्मीय भाव है। अब यह छिपाना बेकार है कि ब्लाग के पाठों पर चले रहे इन द्वंद्वों के प्रति हमने उपेक्षासन किया होगा। चूंकि इस विषय पर हमने केवल बाजार की दृष्टि से ही विचार किया इसलिये किसी सिद्धंात या आदर्श की बात करना हमें स्वयं स्वीकार नहीं था।
एक बात तय कि अपनी बात किसी से जबरन मनवाने की बजाय उसे अपने विचार या व्यवहार से प्रभावति करना चाहिये और यही सभ्य समाज का तकादा है। बहसें होना चाहिये पर मर्यादा के पार नहीं जाना चाहिये। मतभेद हों पर मनभेद नहीं होना चाहिये। बजार और प्रचार का यह खेल कभी थमने वाला नहीं है। अभी तो उनके पास 365 दिनों में केवल 20 से 25 दिन प्रचार के लिये हैं। हो सकता है कल वह पूर्व और उत्तर से कोई दिन निकालें और उसका यहां प्रचार करने लगें। उनको तो 365 दिन ही बाजार में ग्राहक चाहिये।
आदमी जो कपड़े पहनने या सोने के लिये उपयोग करता है उसके पूरी तरह गल जाने पर ही दूसरा खरीदता है-बहुत कम लोग हैं जो नये वस्त्र खरीद सकते हैं। फिर खुद खरीदने से कहां खुशी होती है जितना दूसरे को उपहार देने से। शायद इसलिये प्रचार माध्यम उपहार की बात अधिक करते हैं। आदमी अपने चीज पुरानी या नष्ट होने पर आये, बाजार इतनी देर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। इसलिये ग्रीटिंग कार्ड और अन्य उपहार जो उपयोग में अधिक नहीं होते पर बाजार को पैसा देते हैं उनको बेचने का मार्ग यही एक मार्ग है। बहरहाल शोर थम गया है और ऐसा शांति लग रही है जैसे धुलेड़ी में दो बजे के बाद बाजार में लगती है। जिस तरह के दृश्य सामने आये उससे तो लगता है जैसे कि यह होली का पर्व हो। अंतर बस इतना ही है कि उस समय गंदगी और रंगों के विषैले होने के भय से लोग बाहर नहीं निकलते पर वैलंटाईन डे के दिन यह खतरा उन युवाओं के लिये ही है जो जोड़े बनाकर घूमते हैं।
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मंदी का दौर:नया उपभोक्ता वर्ग कहां से आयेगा-आलेख
अमेरिका के उद्योगपति बिल गेट्स ने कहा है कि वर्तमान मंदी अगले चार साल तक चल सकती है। बिल गेट्स विश्व में प्रसिद्ध उद्योगपति हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा लेने को कहा जाता है। वैसे उन्होंने जो अनुमान लगाया है उसके जो आधार होंगे वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के बाजार को दृष्टिगत बनाये गये होंगे। वैसे तो भारत में भी मंदी का दौर चल रहा है पर आज तक यह कोई नहंी बता पा रहा है कि आखिर यह मंदी आई कैसे?
जिन लोगों ने दृष्टा की तरह इस बाजार को देखा होगा वह कभी न कभी इस आशंकित मंदी पर विचार अवश्य करते रहे होंगे। नित प्रतिदिन नवीन उत्पादों की चर्चा आये दिन प्रचार माध्यमों में आती है पर यह बात याद रखने लायक है कि वह पुराने प्रचलित उत्पादों को बाहर अधिक करते हैं बनिस्बत नये ग्राहक बनाने के। अभी में भारत में एक सस्ती कार के निर्माण और बाजार में और की चर्चा है इस कार को देखने के बाद-एक टीवी में एक मेले में इसका माडल दिखाया गया था-कोई भी कह सकता है कि वह लोगों में कम दाम से अधिक अपनी डिजाइन के कारण लोकप्रिय होगी। जिन लोगों के पास महंगी और आकर्षक कारें हैं वह भी इसका उपयोग स्थानापन्न रूप से कर सकते हैं या पुरानी बेचकर वही लेना चाहेंगे। इस कार को नये उपभोक्ता खरीदेंगे पर उनकी संख्या कम होगी। अब यह संभव है कि अनेक महंगी और बड़ी गाडि़यों की बिक्री में कमी उसकी वजह से हो सकती है। कहने का तात्पर्य है कि जो तेजी बाजार में चल रही थी-कम से कम भारत में-वह सीमित वर्ग के धन के व्यय पर चल रही थी। यही वर्ग बदल बदल कर आ रहे उत्पादों को खरीद रहा था। हां शुरुआताी दौर में फ्रिज,टीवी,कूलर,कार,मोटर साइकिल तथा अन्य औद्योगिक उत्पादों को नये होने के कारण भारत में बहुत बड़ा बाजार मिला पर जैसे ही मध्यम वर्ग के सभी लोगों से इसे प्राप्त कर लिया तो उसके बाद फिर वही वर्ग नये उत्पादों को खरीद रहा जिसके पास अपने मूल स्त्रोत से अलग भी आय है-या फिर कहा जाये कि उनके पास एक से अधिक आय के स्त्रोत हैं। इसके अलावा निजी क्षेत्र में ं नयी और आकर्षक नौकरी के कारण भी एक वर्ग नये उत्पादों को खरीदता रहा। देश में उदारीकरण के प्रारंम्भिक दौर में उस समय अनेक उद्योगों और व्यवसायों को अपना मूल ढांचा खड़ा करने के लिये लोग चाहिये थे और उन्होंने इसलिये अपने यहां बड़े पैमाने पर नौकरियां दीं। इनमे आप टेलिफोन कंपनियों का नाम ले सकते हैं। उनकेा नये कनेक्शन और ग्राहक जुटाने थे इसलिये उन्होंने अपना संगठन बढ़ाया। अब वह स्थापित हो गये हैं। शहरों में उन्होंने अपना नेटवर्क स्थापित कर लिया है और नई लाईनें डालने और ग्राहक बनाने का उनका दायरा अब उतना नहीं है जितना दो या तीन वर्ष पूर्व था। तय बात है कि उनको अपने यहां नौकरियां ओर कर्मचारी कम करना पड़ सकते हैं। इसका असर उन लोगों की क्रय क्षमता पर पड़ना है जो वहां से हटाये जायें या कहीं ऐसी जगह रखें जायें जहां उनका स्वयं का व्यय ही अधिक हो जाये। फिर मंदी के दौर के चलते जहां अनेक लोग नौकरियां गंवा रहे हैं या उनके वेतन में कमी हो रही है इससे भी एक उपभोक्ता के रूप में उनकी क्रय क्षमता का हृास हो रहा है।
दरअसल इस मंदी का मुख्य कारण यह है कि कंपनियों ने अपने विनिवेशकों को खुश करने के लिये अधिक लाभांश या ब्याज दिया। यह अलग बात है कि कंपनी के उच्चाधिकारियों के पास भी अधिक मात्रा में शेयर होते हैं और उनको स्वयं भी लाभ मिलता है। इतना ही नहीं कितनी भी मंदी हो कंपनियों के उच्चाधिकारियों के लाभों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह अपना उच्च स्तर बनाये रखते हैं-कई जगह वेतन के साथ वह कमीशन भी प्राप्त करते हैं-उनके व्यय में कमी नहीं आती। अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अपने देश की कंपनियों को इस बात के लिये लताड़ा भी था कि उनके उच्चाधिकारी न केवल ठाठ से रह रहे हैं बल्कि बोनस भी ले रहे हैं जबकि उनकी कंपनियां मंदी का संकट झेलते हुए सरकार से मदद की गुहार लगा रही हैं।
भारत में तो वैसे भी कर्मचारियों और मजदूरों का शोषण होता रहा है और कंपनियां भी इससे पीछे नहीं हैं। मुख्य बात यह है कि उन छोटे कर्मचारियों का सभी जगह शोषण होता है जो मजदूरी या लिपिकीय कार्य करते हैं। इनके वेतन बहुत कम रखे जाते हैं यह सोचकर कि उनका कोई महत्वपूर्ण नहीं है या उन जैसे बहुत मिल जायेंगे। कंपनियां यह भूल जाती हैं कि उनके कर्मचारी किसी के उपभोक्ता होते हैं जैसे कि अन्य जगह कार्यरत कर्मचारी उनके भी उपभोक्ता होते है। एक टेलीफोन कंपनी मेंं कार्यरत टीवी और फ्रिज भी खरीदता है तो टीवी कंपनी के लिये कार्य करने वाला अपने यहां टेलीफोन भी लगवाता है। अगर हम इस चक्र को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अधिकतर कंपनियां या उद्योगपति समाज के दोहन में लगे रहते हैं और उपभोक्ता के रूप मेंं दूसरे की जेब से पैसा निकालने के लिये तत्पर होते हैं पर जब उसे भरने की बात आती है तो उनको अपने लाभ की चिंता सताती है। इन उद्योगतियों और कंपनियों के उच्चाधिकारियों का बहुत सारा यकीनन बैंकों में सड़ता होगा और वह बैठकर इस मंदी का लुत्फ उठाते हैं और प्रचार माध्यमों में मंदी का रोना रोते हैं।
भारत में जो नवीन उपभोक्ता वर्ग गुणात्मक रूप से बढ़ रहा था उसमें अब घनात्मक वृद्धि ही संभव है इसलिये नवीन उत्पाद किसी पुराने उत्पाद को या तो रीसेल के लिये भेजेंगे या कबाड़ में डाल देंगे। इससे बाजार उठने वाला नहीं है। वैसे भी आदमी कितना कबाड़ घर में रखेगा? घर भी आखिर भरने लगता है। यह मंदी का दौर कब तक चलेगा कोई नहीं जानता क्योंकि सभी जगह समस्या यही रहने वाली है कि नया उपभोक्ता वर्ग कहां से आयेगा या उसकी जेब कैसे भरेगी। आखिर आदमी भी कब तक कबाड़ में चीजें रखेगा।
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आजाद होकर भी गुलाम खड़े मालिकों की कृपा के इंतजार में -हास्य व्यंग्य कविताएँ
परदेस में पुजने से ही
देश में भगवान बनेंगे
कैसा यह उनका भ्रम है।
देश के लोगों से मिले मान से
क्या गौरव नहीं बढ़ता जो
बाहर से इनाम लूटने के लिये
दौड़ का नहीं थम रहा क्रम है।
मालिकों ने कर दिया आजाद
पर फिर भी गुलाम खड़े हैं इंतजार में
उनके दरवाजे पर
कृपा में शायद कोई मिल जाये इनाम
तो बढ़े अपने घर में ही सम्मान
सच कहा है
मनुष्य को चलाता है मन उसका
देह की आजादी और गुलामी तो भ्रम है।
…………………………………
परदेस के इनाम लटके हैं
आसमान में
मिलते नहीं इसलिये चमक बरकरार है।
ख्वाब है जब तक बिक जाते है
जज्बात उनके नाम
मिल जाये तो फिर खाक हो जायेंगे
कहा भी जाता है
गुलामों का पेट कभी नहीं भरना चाहिये
भर गया तो आजाद हो जायेंगे
इसलिये परदेसी
पहले इनाम के लिये लपकाते हैं
फिर पीछे हट जाते हैं
देश चलता रहता है
उसकी आड़ में जज्बातोंे का व्यापार
दूर के ढोल सुहावने होते हैं
इसलिये उनको दूर रखो
देशी विदेशी जज्बातों के सौदागरों का
लगता यह कोई आपसी करार है
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बाज़ार में खौफ का अफ़साना-हिन्दी शायरी
<strong>कुछ हकीकत कुछ ख्वाव
बन जाता है यूँ ही अफसाना
सुर्खियों में बने रहें अख़बारों की
चर्चा करे नाम की पूरा ज़माने
इसलिए कभी वह हादसों को ढूंढते हैं
न मिलें तो कर लेते, आगे होने का बहाना
जिन्हें आदत हो गयी भीड़ में चमकने की
उनको पसंद नहीं है हाशिये पर आना
लोगों की मस्ती और बेचैनी में ही
आता हैं उनको कमाना
जो चाहो चैन अपनी जिंदगी में
तो कभी उनकी आवाजों से डर मत जाना
उनके लिखे शब्द पढ़ना खूब
पर बहक मत जाना
बाज़ार में अमन की हकीकत नहीं
बिकता है अब खौफ का अफसाना </strong>
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मानव सभ्यता पर वाद-विवाद-आलेख
आज एक समाचार में एक इतिहासकार द्वारा इतिहास में अयथार्थ से भरे तथ्यों को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों से हटाने की मांग की गयी है। उन्होंने आर्यों से संबंधित कुछ तथ्यों का प्रतिवाद किया।
एक तो यह कि आर्य कभी आक्रामक नहीं रहे और उनके द्वारा कभी भी कहीं सामूहिक नरसंहार नहीं किया गया-यह पश्चिमी अवधारणा केवल उनको बदनाम करने के लिये बनायी गयी।
दूसरे यह है कि वेद ईसा पूर्व 1200 वर्ष पहले ही रचे गये जबकि वास्तविकता यह है कि उनके रचने का कोई एक कार्यकाल नहीं है और वह कई चरणों मेंे रचे गये।
भारतीय इतिहास हमेशा ही विश्व के लिये एक आकर्षण का विषय रहा है। खासतौर से पश्चिम के विद्वान इसमें इसलिये दिलचस्पी लेते हैं क्योंकि उनका यह भ्रम यहां के इतिहास से टूट जाता है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता का विस्तार पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ है।
इतिहास को लेकर कई बातें मजाक भी लगती है जैसे हमारे इतिहास में पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी। दूसरा यह भी पढ़ाया जाता है कि कोलम्बोस ने अमेरिका की खोज की थी। भारत में कोलम्बोस की चर्चा इस तरह होती है जैसे कि उनके बाद ही अमेरिका में मानव सभ्यता का विस्तार हुआ जबकि सच यह है कि वहां पहले से भी वह विद्यमान थी। वहां रह रहे काले लोग अमेरिका के मूल निवासी माने जाते है। संभवतः वास्कोडिगामा को लेकर पश्चिम में भी यह भ्रम होगा कि उनके वहां पहुंचने के बाद ही मानव सभ्यता का विस्तार भारत में हुआ होगा।
वास्कोडिगामा से पहले भी भारत और चीन के लोगों का पश्चिम आना जाना होता था। यहां से उस तरफ व्यापार होने के कुछ एतिहासिक तथ्य हैं जो अक्सर पढ़ने और सुनने को मिलते हैं। बहरहाल आर्य जाति को लेकर जो इतिहास सुनाया जाता है वह एक अलग विषय है पर उनकी जाति के स्वभावगतः विश्लेषणों का शायद अध्ययन ठीक नहीं किया गया। दरअसल इतिहासकार एतिहासिक घटनाओं का समय तो निर्धारित करने की योग्यता तो रखते हैं पर उनके विश्लेषण मेें वह अपने विवेक का जिस तरह उपयोग करते हैं उससे सभी का सहमत होना संभव नहंी हो पाता।
कुछ एतिहासिक घटनायें ऐसी हैं जिनको आपस में मिलाना आवश्यक लगता है और यह इतिहासकार नहीं करते। यहां हम आर्यों की चर्चा करें तो उनकी कुछ नियमित आदतें दृष्टिगोचर होती हैं।
1.वह लोग व्यवसाय और कृषि में दक्ष थे। वह इसके लिये नयी तकनीकी का अविष्कार और उपयोग करते थे।
2.उनके रहने के भवन पक्के थे और आधुनिक शैली से मिलते जुलते थे।
2.धनार्जन में दक्ष होने के कारण मनोरंजन और धाार्मिक कार्यों में उनकी बहुत दिलचस्पी थी।
3.उनकी स्त्रियों भी कभी आधुनिक थीं और नृत्य और गायन कला में उनका प्रवीणता थी।
4.वह संभवतः मूर्तिपूजक थे और सामूहिक धर्म स्थान बनाकर आपस में तारतम्य रखते थे।
अगर हम देखें तो आर्य लोेग कमाने,खाने और मनोरंजन मेें मस्त रहते थे। अगर हम यह कहें कि वह हिंसक थे तो दूसरा सच यह है कि उनको भागते हुए पूर्व की तरफ नहीं आना पड़ता-जैसा कि दावा पश्चिमी इतिहासकार करते हैं। एक बात जो हो सकती है वह यह कि चूंकि धन कमाने और खर्च करने में उनकी व्यस्तता के चलते वह अपने समाज के अलावा अन्य समाजों की उपेक्षा या तिरस्कार का भाव उनमें रहा होगा और इस कारण उनके प्रति जातियों या वर्ग के लोगों में गुस्सा रहा होगा।
हम यह कहते है कि आर्य विदेश से आये थे, थोड़ा अजीब लगता है। इसकी बजाय यह कहना ठीक लगता है कि आर्य एक आधुनिक सभ्यता का प्रतीक हैं जो धीरे धीरे पूर्व तक फैलती गयी। व्यवसाय,कृषि और तकनीकी के क्षेत्र में नये नये तरीके ईजाद करते रहने के कारण उत्पादन अधिक होने से आर्य या सभ्य लोगों की आय अधिक होती थी इसलिये दूसरे स्थानों पर पहुंचना उनके लिये सहज होता गया और धीरे धीरे उनके कुछ लोग विदेश में जाने लगे और फिर वहीं बसते भी गये । अन्य इलाकों के लोग भी उनसे नये नये गुर सीखते गये और फिर वह भी उन जैसे होते गये। पहले कोई पासपोर्ट या वीजा तो होते नहीं थे पर लोगों का मन तो आज जैसा ही था। पर्यटन और भ्रमण करना आदमी का स्वभाव है। ऐसे में धन आने पर कथित आर्य अगर पूर्व की तरफ बढ़े तो कोई आश्चर्य नहीं है। फिर एक मत भूलिये कि जलवायु और खनिज संपदा की दृष्टि से जितना भारत संपन्न है उतना अन्य कोई राष्ट्र नहीं है। तय बात है कि आर्य क्योंकि जागरुक थे इसलिये भारत पर भी उनकी दृष्टि गयी होगी और उनमें से कुछ लोग यहां आये होंगे और यहीं के होकर रहे होंगे। भारत में अनेक देशों से अनेक जातियोेंं के लोग समय समय पर आये हैंं पर सभी को बाहर से आये आर्य मान लेना ठीक नहीं होगा। आर्य एक सभ्यता है न कि जाति क्योंकि आज की सभ्यता को देखें तो उनसे बहुत मेल खाती है पर सभी को आर्य जाति का तो नहीं मान लिया जाता।
दरअसल आर्य अनार्य का भेद करना है तो आचरण के आधार पर ही करना ठीक लगता है। आर्य तो वह है तो जीवन में अपने कर्म के साथ अन्य सामाजिक गतिविधियों में रुचि लेते हैं। अनार्य वह हैं जो अपने कार्य करने से विरक्त होकर दूसरे का वैभव देखकर अप्रसन्न होते हैं। उनको लगता है कि वह वैभव उससे छीना गया है। इसलिये वह काल्पनिक एतिहासिक और पुरानी कहानियां गढ़ते हैं जैसे कि वह वैभव उसके पूर्वजों से छीना गया है। फिर उनका दुःख यह नहीं होता कि वह अमीर नहीं है बल्कि उनको यह बात परेशान करती है कि दूसरे के पास इतना वैभव और सामाजिक सम्मान क्यों है? कुल मिलाकर यह दो प्रकृतियां हैं जिनको जाति मानना ही गलत है। अगर आज हम अपने देश के वर्तमान अध्यात्मिक और सामाजिक विकास को देखें तो किसी एक समाज या जाति का प्रभाव उस पर नहीं है। सभी जातियों से समय समय पर महापुरुष होकर इस समाज का मार्गदर्शन करते रहे हैं।
भारत के दक्षिण में रहने वालों को द्रविड कहा जाता था पर उनकी सभ्यता आर्यों जैसी हैं। देखा जाये तो भारतीय दर्शन,अध्यात्म और संस्कृति में दक्षिण का कोई कम योगदान नहीं है। द्रविड़ सभ्यता भी विकसित रही है। भारत में धीरे धीरे सभ्यतायें आपस में मिलकर एक ही एक सूत्र में स्वतः आती गयी जिसे अब भारतीय सभ्यता कहा जा सकता है। ऐसा होने में सदियों का समय लगा होगा और एतिहासिक तथ्यों में जिस तरह भ्रांतियां हैं उससे तो नहीं लगता कि किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।
भगवान श्रीराम और राक्षसराज रावण के बीच युद्ध को कुछ पश्चिमी विद्वान सभ्यताओं का संघर्ष मानते हैं। कुछ लोग इसे आर्य-द्रविड़ संघर्ष मानते हैं तो कुछ रावण की आर्य सभ्यता का विस्तार रोकने का प्रयास मानते हैं हनुमान जी और सुग्रीव जो कि आर्य नहीं थे उनके भगवान श्रीराम के सहयाग करने पर पर खामोश हो जाते हैं। इस तरह के विचार केवल भ्रमित करने के लिये हैं। भारत में जातिगत संघर्ष बढ़ाने के लिये ऐसे तथ्य गढ़े गये हैं। चूंकि ऐसा करते हुए भी सदियां बीत गयी हैं इसलिये कई एतिहासिक तथ्य सत्य लगते हैं। आर्य और द्रविड़ दोनों ही सभ्यतायें विकसित रही हैं इसलिये दोनों के आपसी समागम ही भारतीय सभ्यता का निर्माण हुआ।
एक मजे की बात यह है स्वतंत्रता के बाद कई ऐसे मुद्दे सामने आये जो शायद यहां विवाद खड़ा करने के लिये बनाये गये ताकि झगड़े होते रहें। जहां तक आर्य अनार्य का प्रश्न है तो उसकी चर्चा आधुनिक इतिहासकार और विद्वान अधिक करते हैं जबकि प्राचीन साहित्य में इसकी चर्चा नहीं होती।
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रौशनी ने भी अपने रूप बदले हैं-हिंदी शायरी
निकले थे अंधेरे में माटी के चिराग ढूंढने
पर कांच के बल्ब के टुकड़े लग गये पांव में
रौशनी ने भी अपने रूप बदले हैं
शहर चमक रहे हैं चकाचौंध में
अंधेरे का घर है गांव में
मधुर स्वर सुनने की चाह में
पहुंच गये महफिल में
पर कान लगने फटने
सभी गाने वाले लगे थे कांव-कांव में
आंखों से देखने की चाह में
निकले रास्ते पर
पर दिखावटी चेहरों को देखकर
हो गये निराश
बनावटी दृश्यों से हो गये हताश
परिश्रम का पसीना बहता है
सूरज की किरणों मे निरंतर
आलस्य पलता है छांव में
फिर सोचते हैं कि
दुनियां के हैं रंग निराले
क्यों करें अपने विचार काले
कुछ लोगों समझते है जिंदगी का मतलब
खुशनुमा पल से जीने के लिये
जहां कुछ भी न मिले
पर दिल का चैन अमन का अहसास ही
सुकून है सब कुछ अपने लिये
पर बाकी के लिये है जूआ
जो खेलते हैं अपने ख्वाबों पर दांव पर दांव
………………………..
क्यों अपना दिल जलाते हो अपना यार
इस दुनियां में होते हैं नाटक अपार
कभी कहीं कत्ल होगा
कहीं कातिल का सम्मान होगा
चीखने और चिल्लाने की आवाजें होंगीं
कुछ लोग सच में रोएंगे
कुछ बहायेंगे घडि़याली आंसु
तुम न कभी नहीं रोना
अपनी रात चैन से सोना
दिल के उजियाले में
दिखाई देते हैं रात के नजारे
लोग भी क्या समझेंगे
सोच रख चुके गुलाम, अब क्या करेंगे
बमों की आवाज से कांप मत जाना
किसने किया इस पर मत दिमाग खपाना
रोटी से ज्यादा लोग रूपया जोड़ते हैं
गैर क्या, मौका पड़ जाय तो
अपने का घर तोड़ते हैं
आंखों की नहीं अक्ल की भी
उनकी रोशनी कम हो गयी है
जो चश्में लगे हैं उनकी आंखों पर
दौलत,शौहरत और ओहदे की शान से बने हैं
मत पूछा यह कि वह अमृत में नहाये कि
खून से सने हैं
खुल गया है
दुनियां के हर जगह बाजार
आतंक यहां भी मिलता है वहां भी
तुम हैरान और परेशान क्यों हो
अपनी अक्ल से सोचो
जो हर पल पैसे का ही सोचते हैं
वह गैर को कम अपने को अधिक नौचते हैं
शिकायत कहां करोगे
जहां जाओगे मरोगे
कातिलों ने दुनियां पर राज्य कायम कर लिया है
खूबसूरत चेहरों को मुखौटे की तरह ओढ लिया है
वह मुस्कराते हुए बात करते हैं
कातिल तो अपना काम पीछे ही करते हैं
देशभक्ति और लोगों के कल्याण का नारा सुनते जाना
खामोशी से सोचना और फिर अनसुना कर जाना
नारों में बह जाते लोग
भूल जाते अपना असली रोग
जमाने र्की िफक्र बात में करना
ओ सबकी सोचने वाले यार
सरकारी अस्पताल में डाक्टर ने जो
बताई है जो महंगी दवा
तुम्हारी मां के लिये
वह पहले खरीद करना
क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं है
पिता है बिस्तर पर कई सालों से
उसे भी ले जाना अस्पताल
बेटे के लिये रोजगार के लिये भी
चलना है कोई चाल
जीवन में कोई समस्या अल्प नहीं है
जो देते हैं तुम्हें समाज के लिये
हमेशा काम करने का संदेश
उनके लिये अपने घर बड़े हैं न कि देश
तुम मत करना विरोध किसी का
हां में हां करते जाना
जहां अवसर मिल जाये लाभ उठाना
चिल्लाना बिल्कुल नहीं
खामोशी में ही सबसे अधिक है धार
…………………………….
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कतरनों में मनोरंजन -हास्य कविताऐं
बेच रहे हैं मनोरंजन
कहते हैं उसे खबरें
भाषा के शब्दकोष से चुन लिए हैं
कुछ ख़ास शब्द
उनके अर्थ की बना रहे कब्रें
परदे पर दृश्य दिखा रहे हैं
और साथ में चिल्ला रहे हैं
अपनी आँख और कान पर भरोसा नहीं
दूसरों पर शक जता रहे हैं
इसलिए जुबान का भी जोर लगा रहे हैं
टीवी पर कान और आँख लगाए बैठे हैं लोग
मनोरंजन की कतरनों में ढूँढ रहे खबरें
——————————–
चीखते हुए अपनी बात
क्यों सुनाते हो यार
हमारी आंख और कान पर भरोसा नहीं है
या अपने कहे शब्द घटिया माल लगते हैं
जिसका करना जरूरी हैं व्यापार
———————————
दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
कवि एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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फरेबी भी बदनाम होकर नाम तो पा जाते हैं-व्यंग्य कविता
अपनी काबलियत पर न इतना इतराओ
इनाम यहां यूं ही नहीं मिल जाते हैं
भीख मांगने का भी होता है तरीका
लूटने के लिये भी चाहिए सलीका
लोगों की नजरें अब देख नहीं
जब कहीं बवंडर नहीं होता
समंदर भर आंसु बहाकर
जब तक कोई नहीं रोता
काबलियत को कर दो दरकिनार
फरेबी भी बदनाम होकर भी
यहां नाम तो पा जाते हैं
शौहरत होना चाहिये
अच्छा बुरा आदमी भला
लोग कहां देखने आते हैं
अगर नहीं है तुम्हारा झूठ का रास्ता
तो नहीं हो सकता इनाम से वास्ता
अपनी नजरों से न गिरो यह भी कम नहीं
देखने और कहने वालों का क्या
इंसानों की याद्दाश्त होती कमजोर
पल भर को देखकर फिर भूल जाते हैं
भलेमानस इसलिये ही
अपनी राह चले जाते हैं
………………………………………
वह खुद हैं राह में भटके हुए
एक ही ख्याल पर अटके हुए
बताते हैं उन लोगों को रास्ता
हवस के पेड़ पर जो लटके हुए
———————-
पर्दे पर चलचित्र देखकर
ख़्वाबों में न खो जाया करो
जो मरते दिखते हैं
वह फिर जिदा हो जाया करते हैं
जो मर गए
वह भी कभी कभी जिदा
नजर आया करते हैं
माया नगरी में कहीं सत्य नहीं बसता
जेब हो खाली तो
देखने के लिए कुछ नहीं बचता
रंगबिरंगे चेहरों के पीछे हैं
काले चरित्र के व्यक्तित्व का मालिक
देखो तो, दिल बहला लेना उनको देखकर
फिर अपनी असली दुनिया में लौट आया करो
——————————————
वह हमारे दिल से
यूं खेलते रहे जैसे कोई खिलौना हो
हमने पाला था यह भ्रम कि
शायद उनके दिल में हमारे लिये भी कोई कोना हो
मगर कोई उम्मीद नहीं की थी
क्योंकि यह सच भी जानते थे कि
दिखाने के लिये
यहां सभी मोहब्बत करते हैं
अपने मतलब के लिये ही
सब साथ चलते हैं
दिखते हैं कद काठी से कैसे
यह अब सवाल करना है बेकार
पर लगता है जैसे
यहां हर आदमी का चरित्र बौना हो
………………………………….
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अध्यात्म ज्ञान के बिना धर्म को समझना कठिन-चिंत्तन
धर्म क्या है यह समझे बिना उसकी आलोचना करना गलत है। किसी भी धार्मिक विद्वान् ने अपने विचार से धर्म की आज तक कोई एक परिभाषा तय नहीं की , इसका कारण यह है कि जिन लोगों ने बुद्धिमान और शिक्षित होने का ठेका लिया है वह वादों-विवादों में इतना फंस जाते हैं उन्हें पता ही नहीं रहता कि कोई निष्कर्ष क्या निकला? एक तरफ वह लोग हैं जिन्हें धर्म नहीं सुहाता और वह इसे भ्रम घोषित कर देते हैं तो दूसरी तरफ वह हैं जो धर्म के रक्षक और पोषक होने का दावा करते हैं और कर्मकांडों को ही उसका पर्याय घोषित कर देते हैं । यह लेखक कोई बहुत बड़ा विद्धान है या नहीं यह तो पढने वाले लोग ही तय करेंगे, पर यहाँ साफ करना जरूरी है कि मेरे पास अपने धर्म के लिए कोई पदवी नहीं है फिर भी अपने विचार व्यक्त करने से बाज नहीं आऊंगा क्योंकि धर्म के आलोचक और प्रशंसक दोनों के तर्कों से में प्रभावित नहीं हूँ ।
देश के वर्तमान हालत जो हैं उसकी वजह लोगों का अपने धर्म से दूर होना ही है-यह लेखक की स्पष्ट मान्यता है। धर्म को अगर हम कर्मकांडों से जोड़कर ही देखेंगे तो उसके स्वरूप में एक नहीं सेंकड़ों दोष दिखाई देंगे , और केवल अध्यात्म से जोड़ कर देखेंगे तो धर्म अंध समर्थक नहीं मानेंगे । जबकि लेखक मानना है कि धर्म की सबसे बड़ी पहचान अध्यात्म ही है । आध्यात्मिक साधना एकांत में होती है और उसके लिए कोई शोर-शराबा नहीं होता और जो लोग शोर-शराबा कर अपने धार्मिक होने का प्रमाण देते हैं वह दूसरे को कम अपने को ज्यादा धोखा देते हैं। अध्यात्म वह है जो इस शरीर में विद्यमान है और उससे साक्षात्कार किये बिना हम चल रहे हैं तो यह समझ लेना चाहिए कि अज्ञान के उस अँधेरे में हैं जहां हमें दोषों के अलावा कुछ और नहीं दिखाई देगा और उनको देखते हम अपनी पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं ।
आजादी के बाद लार्ड मैकाले की द्वारा रची गयी शिक्षा पध्दति को ही जारी रखा गया जो केवल गुलाम पैदा करती है और नकारात्मक सोच उत्पन्न करती है। हिंदू धर्म के आलोचक ग्रंथों के कुछ ऐसे हिस्सों को पढ़कर सुनते है जो वर्तमान समय में लोगों की दृष्टि में अप्रासगिक हो चुके और धर्मभीरू होने के बावजूद लोग उसे महत्व नहीं देते। इससे फायदा किसे हुआ? इस देश में एक ऐसा वर्ग हमेशा रहा है जो यहां के लोगों के बुद्धि तत्व पर नियंत्रण कर उसका लाभ उठाना चाहते हैं -और इसने धर्म के आलोचक और प्रशंसक दोनों ही शामिल है । इन दोनों ने मिलकर समाज में ऐसे द्वन्द्वों को जन्म दिया जिससे न केवल देश में नैतिक आचरण का पतन हुआ बल्कि समाज में सामाजिक समरसता के भाव का भी क्षरण हुआ। भगवान श्रीराम और श्री कृष्ण जी के चरित्रों को शैक्षिक पाठ्यक्रमों में न रखने से दोनों वर्गों को लाभ हुआ। धर्म के प्रशंसकों को अपने ढंग से व्याख्या कर धन और प्रतिष्ठा अर्जित करने का स्वर्णिम अवसर मिला तो आलोचकों को नये भगवान् गड़कर स्वयं को विद्धान साबित कराने का अवसर मिला।
अगर श्रीराम और श्री कृष्ण आज भी देश के आराध्य होते तो बाल्मीकि, तुलसी और वेदव्यास का नाम होता और नये भगवानों को गढ़ने वाले को लेखक और विद्वान् होने का गौरव कहॉ मिलता? धर्म प्रशंसक भी कम नहीं है उन्होने भी नये भगवान् भले नहीं बनाए पर उनका नाम लेकर भक्तों को भ्रमित कम नहीं किया। कई संत और साधू तो ऐसे हैं कि अपने पीछे भगवन की तस्वीर रखकर आरती करवाते हैं जो भगवान् की भी लगे तो उनकी भी। यानी आलोचकों को यह न लगे कि वह अपनी आरती करवा रहे हैं तो भक्त को यह लगे के उनकी आरती हो रही हैं।
धर्म प्रचारक नहीं होने के बावजूद लेखक इस बात को ख़ूब समझता है कि धर्म और अध्यात्म एकांत साधना है और अंतर्मन की शुध्दी के लिए हमें यह करना भी चाहिए । लेखक आधुनिक शिक्षा का विरोधी नहीं है क्योंकि अपने धर्म ग्रंथों के अध्ययन से ही यह ज्ञान पाया है कि आदमी को विज्ञान के साथ ज्ञान भी होना चाहिए। मैं यह पंक्तिया लिख रहा हूँ यह मेरी इसी शिक्षा का परिणाम है । हाँ जो मुझे अध्यात्म की शिक्षा अपने माता-पिता से मिली है उसकी चर्चा भी जरूर करना चाहूँगा जो अब बहुत कम लोगों को मिल रही है। अगर वह शिक्षा मेरे पास नहीं होती तो इतनी मेहनत से यह ब्लोग नहीं लिख रहा होता। कुछ काम ऐसे भी करना चाहिए जिससे लोगों को प्रसन्नता और ज्ञान मिले। मैं इस ज्ञान चर्चा को सत्संग का हिस्सा मानता हूँ जिसे अंतर्मन में शुद्धता और स्फूर्ति आती है, और कोई आपकी बुद्धि का हरण कर आपको भटका नहीं सकता , जैसा कि आजकल लोगों के साथ हो रहा है। आपने देखा ही होगा कि किस तरह जाति, धर्म, पंथ, भाषा और वर्ग के नाम पर लोगों को बरगलाकर देश में हिंसा और अशांति का माहौल बनाया जा रहा है। अगर लोगों के पास अपने धर्म और आध्यात्म की शिक्षा होती तो ऐस नहीं होता क्योंकि तब उनके पास अपना ज्ञान होता और किसी के बरगलाने में वह नहीं आते । शेष अगले अंक में (यह चर्चा इसी ब्लोग पर जारी रहेगी)
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अर्थ होता है पढने वाले की नीयत जैसा-हिन्दी शायरी
लिखते लिखते कविता सड़ जाती है
न लिखो तो दिमाग में जड़ हो जाती है
शब्द बोलो तो कोई सुनता नहीं
कान है यहाँ तो, ख्याल है अन्यत्र कहीं
अपने जुबान से निकले शब्द अर्थहीन लगते हैं
अनसुने होकर अपने को ही ठगते हैं
सडांध लगती हैं अपने आसपास
इसलिए नीयत कविता लिखने को मचल जाती हैं
लिखा हुआ सड़ जाए
या सडा हुआ लिखा जाए
पर लिखा शब्द अपनी अस्मिता नहीं खोता
पढने वाले पढ़ें
न पढने वाले न पढ़े
अर्थ होता है पढने वाले की नीयत जैसा
कविता भी वैसी, कवि भी वैसा
जमाने भर की दुर्गन्ध अपने अन्दर
बनी रहे
उसे अच्छा है शब्दों को फूल की तरह बिखेर दो
शायद फ़ैल जाए उनसे सुगंध
वैसे ही क्या कम है लोगों के मन में दुर्गन्ध
अगर सडा हुआ लिखा गया
या लिखा सड़ गया, क्या फर्क पड़ता है
फ़िर भी कविता में कभी कभी
अपने जीवंत रहने की अनुभूति तो नज़र आती है
————————————————-
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अपनी-अपनी सब कहैं-हास्य व्यंग्य कवितायें
किस्से कहें और
क्या कहें
सुनते सभी हैं
पर गुनते नजर नहीं आते
कान से सुनते सभी हैं
पर मन के बहरे सभी हैं
——————
अपने मन की बात
किसी से कहें तो क्या
पहले तो कान न धरे
और धरे तो बनाए मजाक
कहें दीपक बापू
कान से बहरे तो ठीक
मन के बहरों के आगे
क्या बीन बजाना
दुसरे उडाएं
इससे तो अपने पर ही
हंस कर अपना उडायें मजाक
—————–
मस्तिष्क से विचारों और अंतर्द्वंद्वों
बीच हाथों से रचे जाते शब्द
मेरे मन की पीडा हर जाते हैं
सोचता हूँ
अब आराम से बैठ पाऊँगा
पर ऐसा होता नहीं
पीडाओं के झुंड अपने साथ शब्दों को लेकर
एक-एक कर फिर मस्तिष्क में
तेजी से चलते आते हैं
कई बार सोचता हूँ
लिखना बंद कर दूं
विचारों और अंतर्द्वंदों से
किनारा कर लूं
बोतल से निकलते जिन्न से
फिर दोस्ती कर लूं
मदहोशी में रहना सीख लूं
पर जब गुजरे पल याद आते हैं
पीडा और बढ़ा देते हैं
फिर शब्दों के झुंड चले आते हैं
मेरे हाथ जिन्न की बोतल से दूर
फिर लिखने के लिए बढ जाते हैं
मैं जितना दूर जाना चाहूँ
अपने शब्दों से
उनके पढने वाले
मुझे याद दिलाने चले आते हैं
कहते हैं वह तुम्हारे शब्द
हमारी पीडा हर जाते हैं
क्योंकि वह सत्य के निकट
नजर आते हैं
मैं नहीं जानता कि
यह सच है या झूठ
बस इतना पता है कि
वह मेरी पीडा को हर ले जाते हैं
जब तक नहीं निकलते
मन को बहुत सताते हैं
——————–
लिखते बहुत हैं
अपने लिखे शब्द से पूजते भी बहुत हैं
अपनी नहीं बल्कि परपीडा पर
निरर्थक और अपठनीय लिखकर
स्तुति भी बहुत पाते हैं
पर लेखक की खुद की
पीडा से निकले शब्द
मेरी दृष्टि में साफ नजर आते हैं
पढने को तरसता हैं मन मेरा
पर सुन्दर कागज पर
रंग-बिरंगी स्याही से सजे शब्द
मेरे पठन-पाठन की क्षुधा को
तृप्त नहीं कर पाते हैं
सोचता हूँ कि
क्या लोगों की पीडा कम हो गयी है
पर देखता हूँ अपने आसपास तो
लगता है कि अब लिखते अब वह हैं
जिनके पास आज के युग के
सारे साधन है और वह
संवेंदनहीन होकर दूसरों की पीडा
अपने शब्दों को सजाते हैं
इसीलिये दिल को छू नहीं पाते हैं
हृदय में अच्छा न पढ़ पाने की पीडा
लिखने से दूर कर देती है
सोचता हूँ अपने शब्द-लेखन से
कहीं दूर हो जाऊं
बिना पढे मैं कब तक लिखता जाऊं
पर शब्द और बोतल में बंद जिन्न के
बीच मैं खङा होकर सोचता हूँ
मुझे किसी एक रास्ते पर तो जाना होगा
और शब्द हैं कि झुंड के झुंड
पीडाओं को साथ लिए चले आते हैं
मुझे अपने साथ खींच ले जाते हैं
———————–
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पढ़कर कितना समझते-हास्य हिन्दी शायरी
आम इंसानों की तरह
रोज जिंदगी गुजारते हैं
पर आ जाता है
पर सर्वशक्तिमान के दलाल
जब देते हैं संदेश
अपना ईमान बचाने का
तब सब भूल जाते हैं
दिल से इबादत तो
कम ही करते हैं लोग
पर उसके नाम पर
जंग करने उतर आते हैं
कौन कहता है कि
दुनियां के सारे धर्म
इंसान को इंसान की
तरह रहना सिखाते
ढेर सारी किताबों को
दिल से इज्जत देने की बात तो
सभी यहां करते हैं
पर उनमें लिखे शब्द कितना पढ़ पाते हैं
पढ़कर कितना समझते
इस पर बहस कौन करता है
दूसरों की बात पर लोग
एक दूसरे पर फब्तियां कसने लग जाते हैं।
…………………………………
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प्रेमपत्र लिखने का युग बीत गया-हास्य व्यंग्य कविता
जैसे ही कवि ने कहा
”अब मैं आपको अपनी नई कविता
‘प्यार भरा ख़त’ सुनाऊंगा
लिफाफे के रंग का असर भी बताऊंगा
आप ज़रा गौर फ़रमाएँ “
यह सुनते ही दर्शकों में शोर मच गया
एक चिल्ला कर बोला-
“अभी भी कुछ कवि उन्नीसवीं सदी में जी रहे हैं
चंद पुरानी कविताओं के सहारे अभी तक
शेम्पेन पी रहे हैं
कब का ख़त्म हो गया ख़त का ज़माना
लिफाफे में जो लिखते थे ख़त जो प्रेमी
वह बन गए अब नानी और नाना
आजकल इश्क के लिए ईमेल और
मोबाइल पर एस.एम्.एस.ही
पर संदेशों का मिलता है खजाना
कृपया कवि महोदय घर जाएँ
पहले इन्टरनेट पर चाट करें
कोई छद्म नाम धरकर किसी
नवयौवना से इश्क का अभ्यास करें
फिर कोई नयी कविता लिखकर लायें
नहीं समझ में आया तो
हम सडे टमाटर और अंडे बरसायें
———————–
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संत कबीर संदेशः खोटी मनोवृत्ति के लोगों के सामने अपने रहस्य न खोलें
हीरा तहां न खोलिए,जहां खोटी है हाट
कसि करि बांधो गठरी, उठि चालो बाट
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि अगर अपनी गांठ में हीरा है तो उसे वहां मत खोलो जहां बाजार में खोटी मनोवृत्ति के लोग घूम रहे हैं। उस हीरे को कसकर अपनी गांठ में बांध लो और अपने मार्ग पर चले जाओ।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीर दास जी ने यह बात व्यंजना विद्या में कही हैं। इसका सामान्य अर्थ तो यह है कि अपनी कीमती वस्तुओं का प्रदर्शन वहां कतई मत करो जहां बुरी नीयत के लोगों का जमावड़ा है। दूसरा इसका गूढ़ आशय यह है कि अगर आपके पास अपना कोई ज्ञान है तो उसे सबके सामने मत बघारो। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आपकी बात सुनकर अपना काम चलायेंगे पर आपका नाम कहीं नहीं लेंगे या आपके ज्ञान का मजाक उड़ायेंगे क्योंकि आपके ज्ञान से उनका अहित होता होगा। अध्यात्म ज्ञान तो हमेशा सत्संग में भक्तों में ही दिया जाना चाहिए। हर जगह उसे बताने से सांसरिक लोग मजाक उड़ाने लगते हैं। समय पास करने के लिये कहते हैं कि ‘और सुनाओ, भई कोई ज्ञान की बात’।
अगर कोई तकनीकी या व्यवसायिक ज्ञान हो तो उसे भी तब तक सार्वजनिक न करें जब तक उसका कोई आर्थिक लाभ न होता हो। ऐसा हो सकता है कि आप किसी को अपने तकनीकी और व्यवसायिक रहस्य से अतगत करायें और वह उसका उपयोग अपने फायदे के लिये कर आपको ही हानि पहुंचाये।
अक्सर आदमी सामान्य बातचीत में अपने जीवन और व्यवसाय का रहस्य उजागर कर बाद में पछताते हैं। कबीरदास जी के अनुसार अपना कीमती सामान और जीवन के रहस्यों को संभाल कर किसी के सामने प्रदर्शित करना चाहिए।
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सुविधाओं के गुलाम-व्यंग्य
15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ था या एक राष्ट्र के रूप में स्थापना हुई थी। परंतत्र देश स्वतंत्र हुआ पर क्या परतंत्र का मतलब गुलामी होता है। कुछ प्रश्न है जिन पर विचार किया जाना चाहिये। विचार होगा इसकी संभावना बहुत कम लगती है क्योंकि वाद ओर नारों पर चलने वाले भारतीय बुद्धिजीवी समाज की चिंतन करने की अपनी सीमायें हैं और अधिकतर इतिहास में लिखे गये तथ्यों-जिनकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हेाती है- के आधार पर भविष्य की योजनायें बनाते है।
कई ऐसे नारे गढ़े गये हैं जिनको भुलाना आसान नहीं लगता। कोई कहता है कि चार हजार वर्ष तक भारत गुलाम रहा तो कोई दो हजार वर्ष बताकर मन का बोझ हल्का करता है। अगर मन लें वह गुलामी थी तो फिर क्या आज आजादी हैं? अगर यह आजादी है तो यह पहले भी थी। परंतत्रता और गुलामी में अंतर हैं। तंत्र से आशय कि आपके कार्य करने के साधनों से हैं। शासन, परिवार और संस्थाओं का आधार उनके कार्य करने का तंत्र होता है जिसमें मनुष्य और साधन संलिप्त रहकर काम करते हैं। परतंत्रता से आशय यह है कि इन कार्य करने वालों साधनों और लोगों का दूसरे के आदेश पर काम करना। सीधी बात करें तो देश का शासन करने का तंत्र ही आजाद हुआ था पर लोग अपनी मानसिकता को अभी भी गुलामी में रखे हुए हैे। अधिकतर लोगों का मौलिक चिंतन नहीं है और वह इतिहास की बातें कर बताते हैं कि वह ऐसा था और वहां यह था पर भविष्य की कोई योजना किसी के पास नहीं है।
जैसे जैसे प्रचार माध्यमों की शक्ति बढ़ रही है लोग सच से रू-ब-रू हो रहे हैं और वह इस आजादी को ही भ्रम बता रहे हैं। वह अपने विचार आक्रामक ढंग से व्यक्त करते हैं पर फिर गुलामों जैसे ही निष्कर्ष निकालते हैं। बहुत विचार करना और उससे आक्रामक ढंग से व्यक्त करने के बाद अंत में ‘हम क्या कर सकते हैं’ पर उनकी बात समाप्त हो जाती है।
शायद कुछ लोगों को यह लगे कि यह तो विषय से भटकाव है पर अपने समाज के बारे में विचार किये बिना किसी भी प्रकार की आजादी को मतलब समझना कठिन है। आज भी विश्व के पिछड़े समाजों में हमारा समाज माना जाता है। बीजिंग में चल रहे ओलंपिक में एक ही स्वर्ण पदक पर पूरा देश नाच उठा पर 110 करोड़ के इस देश में कम से कम 25 स्वर्ण पदक होता तो मानते कि हमारा तंत्र मजबूत है। जब भी इन खेलों में भारतीय दलों की नाकाम की बात होती है तो तंत्र को ही कोसा जाता है। यानि हमारा तंत्र कहीं से भी इतना प्रभावशाली नहीं है कि वह 25 स्वर्ण पदक जुटा सके। इक्का-दुक्का स्वर्ण पदक आने पर नाचना भी हैरानी की बात है। भारत ने व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार अब यह स्वर्ण पदक जीता जबकि पाकिस्तान का एक मुक्केबाज इस कारनामे को पहले ही अंजाम दे चुका है पर वहां भी एसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। हमारे देश एक स्वर्ण पदक पर इतना उछलना ही इस बात का प्रमाण है कि लोगों के दिल को यह तसल्ली हो गयी कि ‘चलो एक तो स्वर्ण पदक आ गया वरना तो बुरे हाल होते’।
तंत्र की नाकामी को सभी जानते हैं। इस पर बहसें भी होती हैं पर निष्कर्ष के रूप में कदम कोई नहीं उठाता। वर्तमान हालतों से सब अंसतुष्ट हैं पर बदलाव की बात कोई सोचता नहीं है। अग्रेज अपनी ऐसाी शैक्षणिक प्रणाली यहां छोड़ गये जिसमें गुलाम पैदा होते हैंं। यह अलग बात है कि बड़ा गुलाम छोटे गुलाम का साहब होता है।
समाज और लोगों की आदतों को ही देख लें वह किस कदर सुविधाओं के गुलाम हो गये है। देश में आयात अधिक है और निर्यात कम। विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता क्या गुलामी नहीं है। जिसे पैट्रोल पर पूरा देश दौड़ रहा है उसका अधिकांश भाग विदेश से आता है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का प्रयास उसका अंग था पर क्या वह आज कोई कर रहा है। पूरा देश गैस, पैट्रोल का गुलाम हो गया है। अगर इनका उत्पादन पूरी तरह देश में होता तो कोई बात नहीं पर अगर किसी कारण वश कोई देश भारत को तेल का निर्यात बंद कर दे या िकसी अन्य कारण से बाधित हो जाये तो फिर इस देश का क्या होगा? पूरा का पूरा समाज अपंग हो जायेगा। अपने शारीरिक तंत्र से लाचार होकर सब देखता रहेगा।
फिर जिन अंग्रेजों को खलनायक मानते थे आज उसकी प्रशंसा करते हैं। उसकी हर बात को बिना किसी प्रतिवाद के मान लेते हैं। हमारे देश के अनेक लोग वहां अपने लिये रोजगार पाने का सपना देखते हैं। वैसी भी अंग्रेजों का रवैया अभी साहबों से कम नहीं है। वैसे पहले तो अपने भाषणों में सभी वक्ता अंग्रेजों को कोसते थे पर अब यह काम किसी के बूते का नहीं है। अमेरिका के मातहत अंग्रेजों से कोई टकरा पाये इसका साहस किसी में नहीं है। फिर उनके द्वारा छोड़ी गयी साहब और गुलाम की व्यवस्था में हम कौनसा बदलाव ला पाये।
फिर अंग्रेजों ने कोई भारत को गुलाम नहीं बनाया था। उन्होंने यहां रियासतों के राजा और महाराजाओं को हटाकर अपना शासन कायम किया था। यही कारण है कि आज भी कई लोग उनको वर्तमान भारत के स्वरूप का निर्माता मानते हैं। अगर देखा जाये तो जिस आम आदमी के आजादी से सांस लेकर जीने का सपना देखा गया वह कभी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तंत्र के संचालक बदले पर तंत्र नहीं। जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो अंग्रेजों की बात करनी पड़ती है पर अगर स्थापना दिवस की बात की जाये तो इस बात को भुलाया जा सकता है कि उनके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था। पिछले दिनों अखबारों में छपा था कि ब्रिटेन में भी सरकारी दफ्तर लालफीताशाही और कागजबाजी के शिकार हैं। वहां भी काम कम होता है। यानि हमारे यहां उनके द्वारा यहां स्थापित तंत्र ही काम रहा है जिसमें कागजों में लिखा पढ़कर फैसला किया जाता है या छोटे से छोटे काम पर चार लोग बैठकार लंबे समय तक विचार कर उसे करने का निर्णय करते हैं। वैसे तो लगता था कि अंग्रेजों ने केवल यहां ही साहब और गुलाम की व्यवस्था रखी पर दरअसल यह तो उनके यहां भी यही तंत्र काम कर रहा है। वहां भी कोई सभी साहब थोड़े ही हैं। वहां भी आम आदमी है और सभी लार्ड नहीं है। भारत से गये कुछ लोग भी वहां लार्ड की उपाधि से नवाजे गये हैं। मतलब यह कि भारतीय भी लार्ड हो सकते हैं यह अब पता चला है। ऐसे में ख्वामख्वाह में अंग्रेजों को महत्व देना। इससे तो अच्छा है कि इसे स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता तो अच्छा था।
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तुम मोबाइल भाई बन जाओ-हास्य कविता hasya vyangya
सास ने कहा बहू से
‘देखो, आज है राखी का दिन
सब बहनों को भाईयों से निभाना
तुम जल्दी भाई को जाकर राखी बांधकर
लौट आओ
फिर पूरा घर है तुम्हें संभालना
फिर मुझे अपने भाई के घर है जाना
वहीं होगा मेरा आज खाना
पीछे से तुम्हारी ननद आयेगी
उसके लिये जल्दी भोजन बनाना
वह लौट जायेगी
फिर उसकी ननद अपने मायके
भाई को राखी बांधने आयेगी
फिर वह भी लौट जायेगी
ज्यादा लंबा क्या खींचूं इस तरह
सभी की ननदें बहुऐं का कर्तव्य भी निभाऐंगी
बाकी तुम सब स्वयं ही समझ जाना’
बहू ने कहा
‘मैं तो अपने भाई को मोबाइल पर ही
कह देती हूं कि मैं तो ट्रांसमीटर की तरह
खड़ी हूं तुम मोबाइल भाई बन जाओ
यहीं राखी बंधवाने आ जाओ
मैं आई तो ससुराल के रक्षाबंधन का
दूर तक फैला लिंक टूट जायेगा
टूट पड़ेगा मुझ पर जमाना
वैसे भी मां ने कहा है
बेटी, आजकल बेदर्द हैं लोग
सभी को है दिखावे का रोग
मुश्किल है बहु का कर्तव्य निभाना
फिर भी सास की हर बात को
चुपचाप मानती जाना
आप तो बेफिक्र होकर मायके जाओ
चाहे जब आओ
मेरा भाई जानता है
राखी के कच्चे बंधनों को पक्का बनाना
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महामशीन भी कैसे महादानव बन जायेगी-हास्य कविता
बहुत शोर सुना था
महामशीन बन जायेगी
महादानव और
पूरी धरती काले छेद में घुस जायेगी
ऐसा नहीं होना था, नहीं हुआ
क्योंकि हाड़मांस की दानव भी
भस्मासुर जैसे महादानव तभी बनते थे
जब करते थे भारी तपस्या
इंसानी फितरत से बने लोहे के ढांचे का क्या
जो दुनियां ढह जायेगी
देवता तो वह इंसान स्वयं नहीं बनता
महादानव की कल्पना भी भला
कैसे साकार हो पायेगी
यारों, शोर चाहे जितना मचा लो
तपस्या से ही बनता है महान
देवता हो या दानव
भूल जाता है यह बात मानव
बिना तप के केवल
कल्पना तो कल्पना ही रह जायेगी
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योगासन के लिये समय तो निकालना ही होगा-आलेख
इस बात को कई लोग मानने लगे है कि योगासन, प्राणायाम और ध्यान से तन,मन और विचारों के विकास शरीर से निकल जाते हैं पर सवाल यह है कि आखिर करे कौन? लोग कहते हैं कि समय नहीं मिलता पर जब शरीर पर किसी रोग का हमला होता है तब चिकित्सकों के अस्पताल के बाहर पंक्ति में खड़े होकर जब अपने तथा परिवार के सदस्यों का समय नष्ट होता है तब समय कहां से आता है?
सच तो यह है लोग अपनी देह के साथ इतना खिलवाड़ करते हैं जैसे कि एक ही दिन में पूरे जीवन का सुख प्राप्त कर लेंगे। कई लोग तो ऐसे हैं जो रात को दो तीन बजे सोते हैं और सुबह आठ नौं बजे उठते हैं। फिर कहते हैं कि नींद पूरी नहीं हुई। कहो तो कहते हैं कि ‘क्या करें अपने काम से घर लौटते हैं तो परिवार के सदस्यों से बातचीत करते हुए ही पूरा समय निकल जाता है। बातें क्या होती हैं? यह सभी जानते हैं। सुबह उठने में आलस आना स्वाभाविक है। देर से उठना और रात के समय ही तमाम तरह की दुनियावी बातों में अपना समय और ऊर्जा व्यर्थ कर देते हैं जो कि रोग और विकारों को बढ़ाता है।
समय नहीं मिलता-यह कहने वाले जानते ही नहीं कि वह अपना कितना समय व्यर्थ गुजारते हैं। असल में अब लोगों के पास धन अधिक मात्रा में आया गया है और उसके स्त्रोत भी अधिक पवित्र नहीं है और यह धन जिसे माया भी कहते हैं कि आदमी को बैचेन किए देते हैं और वह अपने मन में छिपे पापों को अपनी स्मृति से हटाने के लिये ही ऐसे उपक्रम करता है। वह परिवार के सदस्यों के साथ अधिक समय रात तक बात करते हुए उनको बताता है कि किस तरह उसने अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त की हैं। प्रतिदिन एक ही कहानी। घर पर नहीं तो बाहर मित्रों के साथ भी वह इसी तरह समय बिताता है।
जब देह रूपी घड़ा विकारों से भर जाता है और वह बाहर फैलने लगता है तब आदमी पेड़ के पत्ते की तरह कांपता हुआ अपने लिये दया याचना करता है और ऐसे में चिकित्सक ही उसका सहारा होता है और जिन परिवार के सदस्यों या मित्रों के साथ उसने अपना समय नष्ट किया होता है वह उसका हालचाल पूछने आते हैं-उनका आना भी फिर उसी तरह के तनाव को जन्म देता है जिस तरह के पहले झेले होते हैं।
योगासन एक नितांत एकांत साधना है और किसी गुरु से सीखकर अकेले मेें ही करना चाहिए। जरूरत पड़े तो अपनी पत्नी और बच्चों को भी सिखायें पर करना तो एकांत में ही चाहिए। कई जगह योगसाधना के समय ही दुनियावी बातों की चर्चा होती है और प्राणायाम और ध्यान पर समय नगण्य कर देते हैं। इससे लाभ कम हो जाता है।
मस्तिष्क शरीर का केंद्र बिंदु है और जब तक वह स्वस्थ नहीं है तब तक कोई भी आदमी अपने जीवन में प्रसन्न नहीं रह सकता। उसका इलाज तो एकाग्रता पूर्र्वक किया गया ध्यान है औरजब तक उसमें पूर्णता नहीं होगी आदमी संपूर्णता के साथ नहीं स्वस्थ जीवन बिता पायेगा। शेष अगले अंंक में
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वह मतलब निकालकर होशियार कहलाये-हिंदी कविता
जिनको माना था सरताज
वह असलियत में सियार निकल आये
भरोसा किया था जिन पर
वह मतलब निकालकर होशियार कहलाये
उनके लिये लड़ते हुए थकेहारे
सब कुछ गंवा दिया
इसलिये हम कसूरवार कहलाये
………………………………………..
अपनी जिंदगी के राज किसको बतायें
अपने गमों से बचने के लिये सब मजाक बनायें
टूटे बिखरे मन के लोगों का समूह है चारों तरफ
किसके आसरे अपना जहां टिकायें
बेहतर है खुद ही अपने पीर बन जायें
आकाश में बैठे सर्वशक्तिमान को किसने देखा
और कौन समझ पाया
फिर जब दूसरे बन जाते है पहुंचे हुए
तो हम खुद क्यों पीछे रह जायें
……………………………….
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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप
आदमी स्वयं भ्रम में फंसा नजर आता-हिन्दी कविता
यूं तो वक्त गुजरता चला जाता
पर आदमी साथ चलते पलों को ही
अपना जीवन समझ पाता
गुजरे पल हो जाते विस्मृत
नहीं हिसाब वह रख पाता
कभी दुःख तो कभी होता सुख
कभी कमाना तो कभी लुट जाना
अपनी ही कहानियां मस्तिष्क से
निकल जातीं
जिसमें जी रहा है
वही केवल सत्य नजर आती
जो गुजरा आदमी को याद नहीं रहता
अपनी वर्तमान हकीकतों से ही
अपने को लड़ता पाता
हमेशा हानि-लाभ का भय साथ लिये
अपनों के पराये हो जाने के दर्द के साथ जिये
प्रकाश में रहते हुए अंधेरे के हो जाने की आशंका
मिल जाता है कहीं चांदी का ढेर
तो मन में आती पाने की ख्वाहिश सोने की लंका
कभी आदमी का मन अपने ही बोझ से टूटता
तो कभी कुछ पाकर बहकता
कभी स्वतंत्र होकर चल नहीं पाता
तन से आजाद तो सभी दिखाई देते हैं
पर मन की गुलामी से कोई कोई ही
मुक्त नजर आता
सत्य से परे पकड़े हुए है गर्दन भौतिक माया
चलाती है वह चारों तरफ
आदमी स्वयं के चलने के भ्रम में फंसा नजर आता
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रहीम के दोहेःसहृदय लोगों को बुरी संगति नहीं फलती
रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग
कविवर रहीम कहते हैं कि जिनकी प्रवृत्ति उजली और पवित्र है अगर उनकी संगत नीच से न हो तो अच्छा ही है। नीच और दुष्ट लोगों की संगत से कोई न कोई कलंक लगता ही है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सज्जन और उज्जवन प्रकृति के लोग शांत रहते हैं इसलिये उनको ऐसे लोगों की संगत नहीं करना चाहिये जो दुष्टता और अशांत प्रवृत्ति के होते हैं। वैसे आजकल के लोगों में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि वह दलाल और दादा प्रवृत्ति के लोगों की संगत चाहते हैं ताकि कोई उनका कोई बिगाड़ नहीं सके। फिल्म देखकर यह धारणा बना लेते हैं कि दादा लोग किसी से किसी की भी रक्षा कर सकते हैं। कई सज्जन परिवार को लड़के भी भ्रमित होकर दादा किस्म के लड़कों के चक्कर में पड़ जाते हैं तो कई लड़कियां भी अपने लिये ऐसे मित्र चुनती है जो दादा टाईप के हों। उनको लगता है कि वह दादा किस्म के मित्र इस समाज में प्रतिष्ठित होते हैं। देश में इसलिये ही सभी जगह अपराधीकरण का बोलबाला हो रहा है क्योंकि जो उज्जवल और शांत प्रकृत्ति के हैं वह अपना विवेक खोकर ऐसे लोगों को संरक्षण देते हैं जो समाज के लिये खतरा है।
यह बात समझ लेना चाहिये कि बुरे का अंत बुरा ही होता है। दादा और दलाल आकर्षक लगते हैं पर उनकी समाज में कोई सम्मान नहीं होता। बुराई का अंत होता है और ऐसे में जो दुष्ट लोगों की संगत करते हैं उनको भी दुष्परिणाम भोगना पड़ता है।
लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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सच को छिपाना कठिन-हिंदी शायरी
सत्य से जितनी दूर जाओगे
भ्रम को उतना ही करीब पाओगे
खवाब भले ही हकीकत होने लगें
सपने चाहे सामने चमकने लगें
उम्मीदें भी आसमान में उड़ने लगें
पर तुम अपने पाँव हमेशा
जमीन पर ही रख पाओगे
झूठ को सच साबित करने के लिए
हजार बहानों की बैसाखियों की
जरूरत होती है
सच का कोई श्रृंगार नहीं होता
कटु होते हुए भी
उसकी संगत में सुखद अनुभूति होती हैं
कब तक उससे आंखें छिपाओगे
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