अयोध्या में राम मंदिर कब बन पायेगा-हिन्दी हास्य कविता (ayodhya mein ram mandir kab ban paeyga-hindi hasya kavita)


एक राम भक्त ने दूसरे से कहा
‘वैसे तो राम सभी जगह हैं,
हमारे अध्यात्मिक ज्ञान की बड़ी वजह हैं,
घर घर में बसे हैं,
घट घट में इष्ट की तरह श्रीराम सजे हैं श्रीराम
पर फिर भी जिज्ञासावश
अयोध्या के राम मंदिर का ख्याल आता है,
चलो किसी समाज सेवक से चलकर
पूछ लेते हैं कि
वह कब तक बन पाता है।’

सुनकर दूसरे राम भक्त ने कहा
‘भला तुमको भी समाजसेवकों की तरह
अपनी आस्था की परीक्षा क्या ख्याल क्यों आता है,
अरे, अयोध्या के मंदिर का मामला
बड़े लोगों का है
यह पता नहीं उनका वास्तव में
राम भक्ति से कितना नाता है,
अलबत्ता चाहो तो किसी सट्टेबाज या
बाज़ार के सौदागरों से पूछ लेते हैं,
चाहे जो भी जनचर्चा को विषय हो
उसमें अपने भगवान पैसे को पूज लेते हैं,
प्रचारक अब क्रिकेट जैसे खेल में भी
भगवान का स्वरूप गढ़ने लगे हैं
शिकायत भी वही करते हैं कि
अंधविश्वासी लोग बढ़ने लगे हैं,
चुनाव हो या क्रिकेट
जीत हार फिक्स कर लेते हैं,
सौदा और सट्टा मिक्स कर लेते हैं,
समाज सेवा में भी उनके दलाल पलने लगे हैं,
धर्म कर्म भी उनके इशारे पर चलने लगे हैं,
सट्टेबाज़ जिज्ञासाओं और आशाओं की आड़ में कमाते हैं
इसलिये इंसानों को उसमें फंसाते हैं
हम तो बरसों से सुनते हुए राम मंदिर प्रसंग भुला बैठे,
पर बड़े लोग इसे चाहे जब झुला बैठे,
इसलिये सौदागरों से यह पूछना होगा कि
कब राम मंदिर पर उनका दिल आयेगा,
सट्टेबाजों से पूछना होगा
उनका आंकड़ा कब हिल पायेगा,
अपुन ठहरे आम भक्त,
अंदर से पुख्ता, बाहर अशक्त,
अपने राम तो मन में बसे रहेंगे,
एक जगह न ठहर सभी जगह
कल्याण करते बहेंगे,
कण कण में देखते रूप उनका
काम नहीं करती अक्ल इस पर कि
अयोध्या में राम मंदिर कब बन पायेगा।’’
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खुल गयी प्यार की पोल-हिन्दी हास्य कविता(khul gayi pyar ki pol-hindi haysa kavita)


आशिक ने कहा माशुका से
‘‘मुझसे पहले भी बहुत से आशिकों ने
अपनी माशुकाओं के चेहरे की तुलना
चांद से की होगी,
मगर वह सब झूठे थे
सच मैं बोल रहा हूं
तुम्हारा चेहरा वाकई चांद की तरह है खूबसूरत और गोल।’’

सुनकर माशुका बोली
‘‘आ गये अपनी औकात पर
जो मेरी झूठी प्रशंसा कर डाली,
यकीनन तुम्हारी नीयत भी है काली,
चांद को न आंखें हैं न नाक
न उसके सिर पर हैं बाल
सूरज से लेकर उधार की रौशनी चमकता है
बिछाता है अपनी सुंदरता का बस यूं ही जाल,
पुराने ज़माने के आशिक तो
उसकी असलियत से थे अनजान,
इसलिये देते थे अपनी लंबी तान,
मगर तुम तो नये ज़माने के आशिक हो
अक्षरज्ञान के भी मालिक हो,
फिर क्यूं बजाया यह झूठी प्रशंसा का ढोल,
अब अपना मुंह न दिखाना
खुल गयी तुम्हारी पोल।’’
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बुद्धि और परिश्रम के संयुक्त प्रयास से ही सफलता संभव


धातोश्चामीकरमिव सर्पिनिर्मथनादिव।
बुद्धिप्रयत्नोपगताध्यवसायाद्ध्रवं फलम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह अनेक धातुओं में मिला होने पर भी गलाने से प्रकट होता है तथा दही मथने से घृत प्रगट होता है वैसे बुद्धि और उद्योग से के संयुक्त उद्यम से फल की प्राप्ति भी होती है।
सूक्ष्मा सत्तवप्रयत्नाभ्यां दृढ़ा बुद्धिरधिष्ठिता।

प्रसूते हि फलं श्रीमदरणीय हुताशनम्।।

हिन्दी में भावार्थ-जो बुद्धि सूक्ष्म तत्त्वगुण का ज्ञान होने से दृढ़ स्थिति में है वह धन रूपी फल को उत्पन्न करती है जिस प्रकार अरणी काष्ट अग्नि को प्रकट करता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में वर्णित ज्ञान की लोग यह सोचकर उपेक्षा करते हैं कि वह तो सांसरिक कार्य से विरक्ति की ओर प्रेरित कर सन्यास मार्ग की ओर ले जाता है। यह अल्पज्ञान का प्रंमाण है। सच तो यह है कि उसमें वर्णित तत्व ज्ञान को जिसने भी धारण कर लिया उसकी बुद्धि दृढ़ मार्ग पर चल देती है। वह छोटी मोटी बातों पर न ध्यान देता है न उसे मान अपमान की चिंता रहती है। जिनसे मनुष्य को विचलित किया जा सकता है वह मायावी प्रयास उसे अपने मार्ग से डिगा नहीं सकते।  यही कारण है कि अपने बौद्धिक संतुलन और एकाग्रता से अन्य के मुकाबले तत्वज्ञानी  अधिक सफल रहता है।  निष्काम भाव से उद्योग करने का आशय यह कतई नहीं है कि सारे संसार के काम को तिलांजलि देकर बैठा जाये बल्कि उपलब्धि प्राप्त होने पर हर्षित होकर चुप न बैठें और न नाकामी होने पर हताश हों, यही उसका आशय है। 

तत्वज्ञान का आशय यह भी है कि जीवन पथ पर उत्साह के साथ बढ़ें। समय के साथ मनुष्य को भी बदलना पड़ता है। अच्छे, बुरे, मूर्ख और चतुर व्यक्तियों से उसका संपर्क होता है, उनसे व्यवहार करने का तरीका केवल तत्वज्ञानी ही जानते हैं। तत्व ज्ञान से जो बुद्धि में स्थिरता आती है उससे दूसरे लोग अपने छल, चालाकियों तथा मिथ्या ज्ञान से विचलित नहीं कर सकते।  वर्तमान में हम देखें तो विश्व आर्थिक शिखर पर बैठे लोगों का  सारा ढांचा ही मिथ्या ज्ञान तथा काल्पनिक स्वर्ग बेचने पर आधारित है। अगर लोगों में तत्व ज्ञान हो तो शायद ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलें जिसमें लोगों को जीते जी जमीन पर मरने पर आसमान में स्वर्ग खरीदते हुए अपना धन तथा समय बरबाद करते हैं। इस दुनियां में अनेक लोगों का व्यापार तो केवल इसलिये ही चल रहा है कि लोगों को अध्यात्म का ज्ञान नहीं है।
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रहीम दर्शन-भक्ति न करने पर विषय घेर लेते हैं


कविवर रहीम कहते है कि
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रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय
पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय

भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय लोग भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।
वर्तमान सदंर्भ में व्याख्या-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।

आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है। इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। फिर विषय आदमी के मन में ऐसे विचरते हैं कि वह पूरा जीवन यह भ्रम पाल लेता है कि यही सत्य है। वह उससे मुक्ति तो तब पायेगा जब वह अपनी सोच के कुंऐं से मुक्त हो। जब तक राम का नाम स्मरण न करे तब तक वह इससे मुक्त भी नहीं हो सकता।
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नये वर्ष का कबाड़ा-हिन्दी लघु व्यंग कथा (new year after on day-hindi satire


 वह दोनों लड़के हमेशा की तरह उस कालोनी में घर से बाहर पड़े कूड़े और और चौराहे पर रखे कूड़ेदानों से बेचने लायक कबाड़ छांट रहे थे।  पास से जाते हुए दो लोगों में से किसी एक को उन्होंने कहते सुना कि‘ कल से नया वर्ष 2010 लग रहा है।  आज पुराने वर्ष 2009 का अंतिम दिन है।’ देखें अगला वर्ष स्वयं को फलता है कि नहीं!

दूसरे ने कहा-‘काहे का नया वर्ष। सब पैसे वालों को चौंचले हैं।’

लड़कों ने यह सुना। एक खुश होकर बोला-‘यार, कल तो बहुत सारा माल मिलेगा। लोग तमाम तरह के सामान लाकर उसके पुट्ठे, कागज़ और पनियां बाहर फैंकेंगे। अपना भी नया साल शुरु होगा जब माल मिल जायेगा।’

दूसरे ने कहा-‘नहीं, अपना नया साल तो एक दिन बाद यानि परसों से शुरु होगा। कल तो लोग खाने पीने और तोहफे के लेनदेन का सामान लायेंगे। उनके ग्रीटिंग कार्ड वगैरह कम से कम एक दिन तो घर में मेहमानी तो करेंगे ही न! उनका जब नया साल एक या दो दिन पुराना होगा तब हमारा शुरु होगा।’

दूसरा निराश नहीं हुआ-‘कोई बात नहीं! एक दिन या दो दिन बाद ही नये साल का कबाड़ हमें मिलेगा तो जरूर न!

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फरिश्तों का सम्मेलन -हिन्दी व्यंग्य कविता (sammelan-hindi satire poem


अब संभव नहीं है
कोई कर सके
सागर का मंथन
या डाले हवाओं पर बंधन।
इसलिये नये फरिश्ते इस दुनियां के
रोकना चाहते हैं
जहरीली गैसों का उत्सर्जन
जिसे छोड़ते जा रहे हैं खुद
समंदर से अधिक खारे
विष से अधिक विषैले
नीम से अधिक कसैले अपनी
उन फरिश्तों ने महफिल सजाने के लिये
ढूंढ लिया है कोपेनहेगन।।
——–
वह समंदर मंथन कर
अमृत देवताओं को देंगे
ऐसे दैत्य नहीं हैं।
पी जायें विष ऐसे शिव भी नहीं हैं।
कोपेनहेगन में मिले हैं
इस दुनियां के नये फरिश्ते,
गिनती कर रहे हैं
एक दूसरे द्वारा फैलाये विष के पैमाने की,
अमृत न पायेंगे न बांटेंगे,
बस एक दूसरे के दोष छाटेंगे,
धरती की शुद्धि तो बस एक नारा है
उनके हृदय का भाव खारा है,
क्या करें इसके सिवाय वह लोग
सारा अमृत पी गये पुराने फरिश्ते
अब तो विष ही हर कहीं है।।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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हिंदी आध्यात्मिक सन्देश-बेकार के कम न करें तो ही ठीक (vidur niti-bekar kam n karen)


तथैव योगविहितं यत्तु कर्म नि सिध्यति।
उपाययुक्तं मेधावी न तव्र गलपयेन्मनः।।
हिंदी में भावार्थ-
अच्छे और सात्विक प्रयास करने पर कोई सत्कर्म सिद्ध नहीं भी होता है तो भी बुद्धिमान पुरुष को अपने अंदर ग्लानि नहीं अनुभव करना चाहिए।

मिथ्यापेतानि कर्माण सिध्येवुर्यानि भारत।
अनुपायवुक्तानि मा स्म तेष मनः कृथाः।।
हिंदी में भावार्थ-
मिथ्या उपाय से कपट पूर्ण कार्य सिद्ध हो जाते हैं पर उनमें मन लगाना ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर आपने सुना होगा कि प्यार और जंग में सब जायज है-यह पश्चिम से आयातित विचार है। जीवन की तो यह वास्तविकता है कि जैसा कर्म करोगे वैसा परिणाम सामने आयेगा। जैसा मन में संकल्प होगा वैसे ही यह संसार हमारे साथ व्यवहार करेगा। अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में मनुष्य इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने कर्म की शुद्धता और अशुद्धता का बोध नहीं रहता। इसी कारण वह ऐसे उपायों का भी सहारा लेता है जो अपवित्र और अनैतिक हैं। फिर उसको अपनी बात के प्रमाण रखने के लिये अनेक प्रकार के झूठ भी बोलने पड़ते हैं। इस तरह वह हमेशा पाप की दुनियां में घूमता है। मगर मन तो मन है वह उसकी तृप्ति के लिये भक्ति और साधना का ढोंग भी करता है। इससे प्रकार वह एक ऐसे मायाजाल में फंसा रहता है जिससे जीवन भर उसकी मुक्ति नहीं होती।
इसलिये अपने जीवन में अच्छे संकल्प धारण करने के साथ ही अपने कार्य की सिद्ध के लिये पवित्र और नैतिक उपायों की ही सहायता लेना चाहिए।

बाकी लोग किस रास्ते पर जा रहे हैं यह विचार करने की बजाय यह देखना चाहिए कि हमारे लिये उचित मार्ग कौनसा है। इसके अलावा यह भी एक अन्य बात यह भी है कि अगर हमारा कोई पवित्र और सात्विक कर्म अपने उचित उपाय से सिद्ध नहीं होता तो भी परवाह नहीं करना चाहिए। याद रखें कार्य सिद्ध होने का भी अपना एक समय होता है और जब आता है तो हमें यह भी पता नहीं लगता कि वह काम कैसे पूरा हुआ। इसलिए कोई भी शुभ काम मन लगाकर करना चाहिए। बहुत जल्दी सफलता के लिए ग़लत मार्ग नहीं पकड़ना चाहिए।
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भर्तृहरि नीति शतक-धन की ऊष्मा से रहित मनुष्य क्या रह जाता है (heat of money-hindu sandesh)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि 
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तानींद्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षपोन सोऽष्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य की इंद्रिया नाम,बुद्धि तथा अन्य सभी गुण वही होते हैं पर धन की उष्मा से रहित हो जाने पर पुरुष क्षणमात्र में क्या रह जाता है? धन की महिमा विचित्र है।
वर्तमान सन्दर्भ  में संपादकीय व्याख्या- इस सृष्टि को परमात्मा ने बनाया है पर माया की भी अपनी लीला है जिस पर शायद किसी का भी बस नहीं है। माया या धन के पीछे सामान्य मनुष्य हमेशा पड़ा रहता है। चाहे कितना भी किसी के पास आध्यत्मिक ज्ञान या कोई दूसरा कौशल हो पर पंच तत्वों से बनी इस देह को पालने के लिये रोटी कपड़ा और मकान की आवश्यकता होती है। अब तो वैसे ही वस्तु विनिमय का समय नहीं रहा। सारा लेनदेन धन के रूप में ही होता है इसलिये साधु हो या गृहस्थ दोनों को ही धन तो चाहिये वरना किसी का काम नहीं चल सकता। हालांकि आदमी का गुणों की वजह से सम्मान होता है पर तब तक ही जब तक वह किसी से उसकी कीमत नहीं मांगता। वह सम्मान भी उसको तब तक ही मिलता है जब तक उसके पास अपनी रोजी रोटी होती है वरना अगर वह किसी से अपना पेट भरने के लिये धन भिक्षा या उधार के रूप में मांगे तो फिर वह समाप्त हो जाता है।
वैसे भी सामान्य लोग धनी आदमी का ही सम्मान करते है। कुछ धनी लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि वह अपने गुणों की वजह से पुज रहे हैं। इसी चक्कर में कुछ लोग दान और धर्म का दिखावा भी करते हैं। अगर धनी आदमी हो तो उसकी कला,लेखन तथा आध्यात्मिक ज्ञान-भले ही वह केवल सुनाने के लिये हो-की प्रशंसा सभी करते हैं। मगर जैसे ही उनके पास से धन चला जाये उनका सम्मान खत्म होते होते क्षीण हो जाता है।

इसके बावजूद यह नहीं समझना चाहिये कि धन ही सभी कुछ है। अगर अपने पास धन अल्प मात्रा में है तो अपने अंदर कुंठा नहीं पालना चाहिये। बस मन में शांति होना चाहिये। दूसरे लोगों का समाज में सम्मान देखकर अपने अंदर कोई कुंठा नहीं पालना चाहिये। यह स्वीकार करना चाहिये कि यह धन की महिमा है कि दूसरे को सम्मान मिल रहा है उसके गुणों के कारण नहीं। इसलिये अपने गुणों का संरक्षण करना चाहिये। वैसे यह सच है कि धन का कोई महत्व नहीं है पर वह इंसान में आत्मविश्वास बनाये रखने वाला एक बहुत बड़ा स्त्रोत है। सच
 तो यह है कि खेलती माया है हम सोचते हैं कि हम खेल रहे हैं।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कार्य के तीन व्यसन (kautilya ka arthshastra-karya ke teen vyasan)


वस्तुध्वशक्येषु समुद्यनश्चेच्छक्येषु मोहादसमुद्यश्मश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यनश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदंति।।
हिंदी में भावार्थ-
शक्ति से परे वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना, प्राप्त होने योग्य वस्तु के लिये उद्यम न करना , और तथा शक्ति होते हुए भी शक्य वस्तु की प्राप्ति के लिये समय निकल जाने पर प्रयास करना-यह कार्य के व्यसन हैं।
द्रोहो भयं शश्वदुपक्षणंव शीतोष्णवर्षाप्रसहिष्णुता च।
एतानि करले समुपहितानि कुर्वन्त्यवश्यं खलु सिद्धिविघ्नम्
हिंदी में भावार्थ-
द्रोह, डर, उपेक्षा, सर्दी,गमी, तथा वषा का अधिक होना कार्यसिद्धि समय पर होने मेें बाधा अवश्य उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हम अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो उस समय अपनी शक्ति का पूर्वानुमान करना चाहिये। उसी तरह कोई योजना बनाकर कोई वस्तु प्राप्त करते हैं तो उस समय अपने आर्थिक, सामाजिक, तथा पारिवारिक स्त्रोतों की सीमा पर भी विचार कना चाहिये। अपने सामथ्र्य से अधिक वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास एक तरह का व्यसन ही है।
उसी तरह किसी वस्तु या लक्ष्य का अवसर पास आने पर उसकी उपेक्षा कर मूंह फेर लेना भी एक तरह का व्यसन है। अगर कोई कार्य हमारी शक्ति की परिधि में है तो उसे अवश्य करना चाहिये। जीवन में सतत सक्रिय रहना ही मनुष्य जीवन को आनंद प्रदान करता है। अगर किसी उपयोगी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का अवसर आता है तो उसमें लग जाना चाहिये।
कोई वस्तु हमारी शक्ति के कारण प्राप्त हो सकती है पर हम उसकी यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि यह हमारे किस काम की! बाद में पता लगता है कि उसका हमारे लिये महत्व है और उसे पाने का प्रयास करते हैं। यह भी एक तरह का व्यसन है। हमें अपने जीवन में उपयोग और निरुपयोगी वस्तुओं और लक्ष्यों का ज्ञान होना चाहिये। कई बार कोई चीज हमें उपलब्ध होती है पर धीरे धीरे उसकी मात्रा काम होती है। उसका संग्रह का उपस्थित होने पर उसका विचार नहीं करते-यह सोचकर कि वह तो भंडार में है पर बाद में पता लगता है कि यह अनुमान गलत था। यह वैचारिक आलस्य का परिणाम जीवन में कष्टकारक होता है।
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संत कबीर वाणी-मूर्ख लोग सभी की पीड़ा एक समान नहीं मानते


पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-घमंड से शुरू काम की नाकामी से व्यर्थ का तनाव होता है


प्रारब्धानि यथाशास्त्रं कार्याण्यासनबुद्धिभिः।
बनानीय मनोहारि प्रयच्छन्त्यचिसत्फलम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस कार्य को शास्त्रों के अनुसार बुद्धिपूर्वक संपन्न करने का प्रयास किया जाता है वह शीघ्र फल दिलाने वाले होते हैं।
सम्यगारभ्यमानं हि कार्ये यद्यपि निष्फलम्।
न तत्तथा तापयपि यथा मोहसनीहितम्।।
हिंदी में भावार्थ-
भली प्रकार प्रारंभ किया कोई काम या अभियान निष्फल भी हो जाये तो उससे मन को कष्ट नहीं होता जैसा कि मोह या अभिमान के वशीभूत होकर करने से होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अपने जीवन में कोई उद्देश्य निर्धारित करने से पहले उसका सही स्वरूप, अपने सामथ्र्य तथा उससे प्राप्त होने वाले फल पर विचार कर लेना चाहिए। कोई व्यक्तिगत कार्य बिना किसी उद्देश्य के केवल इसलिये नहीं प्रारंभ करना चाहिए कि उसके न करने से अपने परिवार, रिश्तेदार या मित्र समूह में प्रतिष्ठा खराब होगी। यह भ्रम हैं। अगर हमें कार नहीं चलाना आता तो केवल इसलिये दिखाने के लिये उसे चलाने का प्रयास नहीं करना चाहिए कि किसी व्यक्ति ने हमको चुनौती दी है या किसी के सामने अपनी कला का अनावश्यक प्रदर्शन करना है। अगर आप देश में दुर्घटनाओं का अवलोकन करें तो पायेंगे कि उसमें अधिकतर शिकार लोग अपने सामथ्र्य से अधिक कार्य करने के लिये प्रेरित होने के कारण कष्ट में आये।

तात्पर्य यह है कि अपना दिमागी संतुलन बनाये रखना चाहिए। किसी छोटे या बड़े काम को पूरी तरह से विचार कर प्रारंभ करना चाहिए। ऐसे काम में नाकाम होने पर भी दुःख नहीं होता। तब हमें इस बात का अफसोस नहीं होता कि हमने अपने कर्म में कोई कमी की। अगर बिना विचारे काम प्रारंभ किये जाते हैं तो उनमें शक्ति भी अधिक खर्च होती है और उनमें नाकामी मन को बहुत परेशान भी कर देती है।
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भर्तृहरि नीति शतक: कुत्ता हड्डी चबाते हुए इन्द्र देवता की परवाह नहीं करता


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्, निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नस्थि निरामिषम्
सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शंकते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्

हिदी में भावार्थ-कीड़ों,लार,दुर्गंध और देखने में गंदी रसहीन हड्डी को कुत्ता बहुत शौक से चबाता है। उस समय इंद्रदेव के अपने आने की परवाह भी नहीं होती। यही हालत स्वार्थी और नीच प्राणी की भी होती है। वह जो वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे उपभोग में इतना लीन हो जाता है कि उसे उसकी अच्छाई बुराई का पता भी नहीं चलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह संसार स्वार्थ और परमार्थ दो तरह के मार्गों का समागम स्थल है। अधिकतर संख्या स्वार्थियों की है जो अपने देहाभिमान वश केवल अपना और परिवार का भरण भोषण कर यह संसार चला रहे हैं। उनके लिये परिवार और पेट भरना ही संसार का मूल नियम हैं। दूसरी तरफ परमार्थी लोग भी होते हैं जो यह सोचकर दूसरो कें हित में सलंग्न रहते हैं कि इंसान होने के नाते यह उनका कर्तव्य है। वही लोग श्रेष्ठ हैं। सच तो यह है कि हम अपने हित पूर्ण करते हुए अपना पूरा जीवन इस विचार में गुजार देते हैं कि यही भगवान की इच्दा है और परमार्थ करने का विचार नहीं करते। स्वार्थ या प्रतिष्ठा पाने के लिये दूसरे का काम करना कोई परमार्थ नहीं होता। निष्प्रयोजन दया ही वास्तविक पुण्य है। अगर हम सोचते हैं कि सारे लोग अपने स्वार्थ पूरे कर काम कर लें तो संसार स्वतः ही चलता जायेगा तो गलती कर रहे हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसा अवसर आता है जब कोई हमारी निष्प्रयोजन सहायता करता है पर हम अपना कठिन समय बीत जाने पर उसे भूल जाते हैं और जब किसी अन्य को हमारी सहायता की जरूरत होती है तब मूंह फेर जाते हैं। यह श्वान की प्रवृत्ति का परिचायक है। भगवान ने हमें यह मनुष्य यौनि इसलिये दी है कि हम अन्य जीवों की सहायता कर उसकी सार्थकता सिद्ध करें। यह सार्थकता स्वार्थ सिद्धि में नहीं परमार्थ करने में है।
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भर्तृहरि शतकः हंसों का मूल गुण परमात्मा भी नहीं छीन सकता


अम्भोजिनी वनविहार विलासमेव हंसस्य हंति नितरां कुपितो विधाता।
न त्वस्य दुग्धवाभेदविधौ प्रसिद्धां वेंदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौं समर्थः

हिंदी में भावार्थ- अगर परमात्मा नाराज हो जाये तो वह हंसों का वनों में विहार करने से रोक सकता है लेकिन उनमें पानी और दूध को अलग अलग करने का जो स्वाभाविक गुण है उसे नष्ट नहीं कर सकता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- श्रीगीता के संदेश के अनुसार भी जीव का जन्म परमात्मा की इच्छा से ही होता है पर पंच तत्वों से बनी देह में मन, अहंकार और बुद्धि से संचालन वह स्वयं करते हुए अपने कर्मों के फल के लिये दायी होता है। अधिकतर धर्मों के गुरु अपने भक्तों के सामने यह भ्रम पैदा करते हैं कि उनके कर्म और फल के लिये परमात्मा ही जिम्मेदार है, इसलिये वह केवल उसकी भक्ति करें। सच बात तो यह है कि इस तरह वह सांसरिक कर्मों से लोगों को विमुख करने का प्रयास करते हैं पर साथ ही फिर अपनी दान दक्षिण के नाम उन्हें धन संग्रह के लिये भी प्रेरित करते हैं। व्यक्ति को नैतिकता, अंिहंसा और परोपकार का उपदेश तो सभी गुरु देते हैं पर उसके लिये प्रेरित करने का उनके पास कोई उपाय नहीं होता। बस प्रवचनों में उनकी बात सुनो फिर भूल जाओ फिर सुनने आओ-यह क्रम चलता रहता है।

जब कोई व्यक्ति अपना दुःख लेकर ऐसे गुरुओं के पास पहुंचता है तो यही कहते हैं कि ‘जैसी परमात्मा की मर्जी। हमें तो बस यह संसार देखना है।’ आदमी अपने गुणों और अवगुणों का अध्ययन कर अपने कर्म का निर्णय करे ऐसा उपाय कोई नहीं बताता। अगर यह देह है तो आदमी अपने स्वाभाविक गुणों के वशीभूत कर कोई न कोई कर्म करेगा पर ज्ञानी परिणाम और स्थिति देखकर कदम बढ़ाते है जबकि सामान्य आदमी बिना सोचे समझे कर्मफल पर दृष्टि रखते हुए आगे बढ़ता है और फिर परेशान होता है। आत्म मंथन किये बिना मनुष्य जब आगे बढ़ता है तो उसे सफलता मिलना कठिन हो जाती है। आत्म मंथन से आशय यह है कि अपने अंदर मौजूद गुणों और अवगुणों का अवलोकन करते हुए अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये। परमात्मा ने हमें कर्म करने की सारी शक्ति दी है इसलिये अपने कर्म की प्रेरणा के लिये उसकी तरफ ताकने की बजाय अपने गुणों के आधार पर लक्ष्य की तरफ बढ़ना चाहिये। सच बात तो यह है कि परमात्मा ने जिन गुणों को स्वाभाविक रूप से हमें सौंपा है उन्हें वह चाहकर भी वापस नहीं ले सकता क्योंकि वह फल को प्रदान तो करता है पर कर्र्म का निर्धारण जीव को स्वयं ही करना है।
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क्रिकेट मैच विद ब्लाग गासिप-हास्य व्यंग्य


वह ब्लाग क्रिकेट की वजह से ही लोकप्रिय हो रहा है। हुआ यह कि एक अभिनेता की की कोई एक क्रिकेट टीम है। इसी अभिनेता ने अपना एक ब्लाग भी खोल रखा है। यानि क्रिकेट और ब्लाग में उसका बराबर का दखल है। ब्लाग और क्रिकेट दोनेां ही प्रचार के वजह से ही लोकप्रिय होते हैं। अगर कोई क्रिकेट न ख्ेाले और ब्लाग न लिखे-पढ़े तो दोनों ही पटियों पर आ जायेंगे। इसलिये कभी कभी तो यह लगता है कि ब्लाग और क्रिकेट दोनों की प्रचार दिलाने के लिये अभिनेताओं का उपयोग हो रहा है।
अब इसी ब्लाग और क्रिकेट के बीच संघर्ष हो रहा है या कराया जा रहा है जो भी समझ लें। वैसे देखा जाये तो वह ब्लाग जो कि अभिनेता की टीम की आलोचना करते हुए अंदरूनी खबरें दे रहा है उसे देखते हुए तो ऐसा लगता है कि जैसे फिल्मों की गासिप आती है वैसे ही वह भी कर रहा है। तय बात है कि अभिनेताओं को गासिपों की जरूरत होती है-प्रत्यक्ष रूप से वह उन गासिपेां की विरोध करते हुए बयान देते हैं यानि अगर वह गासिप नहीं छपे तो उनको बयान देने का अवसर भी न मिले। प्रत्यक्ष रूप से वह अभिनेता उस ब्लाग लेखक को तलाश करता हुआ दिख रहा है और इधर लोग हैं कि उसे भी शक की नजर से देख रहे हैं। दरअसल यही क्रिकेट के साथ हुआ यही है कि कुछ पुराने क्रिकेट प्रेमी जो अब ब्लागर बन गये हैं उसे शक की नजर से देखते हैं। शक यूं भी होता है कि वह ब्लाग क्रिकेट की वजह से ही मशहूर हो रहा है। वैसे वह ब्लाग अंग्रेजी में हैं-टीवी में इस लेखक ने यही देखा था-पर यह महत्वपूर्ण नहीं है। ब्लाग लिखवाने के लिये कोई हिंदी का टाईपिस्ट नहीं मिला होगा या फिर यूनिकोड का उनको पता नहीं होगा। इस लेखक ने कई बार जिम्मेदार हिंदी ब्लाग लेखकों से कहा है कि इस टूल का प्रचार करो। कभी कभी तो लगता है कि कुछ ब्लाग लेखक बड़े लोगों से मिलते हैं पर उनके यूनिकोड टूल का पता नहीं बताते।
यकीनन अगर वह ब्लाग लिखवाने वालों को हिंदी टूल का पता होता तो वह ऐसा ही करते। एक तीर से दो शिकार! दोनों ही भाषाओं में प्रचार! भले ही अभिनेता और अभिनेत्रियों को हिंदी नहीं आती-उनके टीवी पर साक्षात्कार देखकर ऐसा ही लगता है जिसमें वह हिंदी के प्रश्न का जवाब भी अंग्रेजी में देते हैं-पर वह हिंदी में प्रचार की भूख उनको बहुत है।
आजकल इस लेखक के अनेक ब्लाग अंग्रेजी कर पढ़े जाते हैं जब उनको खोलकर देखते हैं तो अपना लिखा ही समझ में नहीं आता । अगर ब्लाग लेखक वह हिंदी में ब्लाग लिखता तो उसे ढेर सारे पाठक मिल जाते-अंग्रेजी में भी हिंदी वाले पढ़ते हैं पर उनको समझ में कम आता है। फिर टूल से अनुवाद कर उसे अंग्रेजी में प्रस्तुत किया जा सकता था। इधर हिंदी के ब्लाग लेखक भी उस टिप्पणियां लिखने से बाज नहीं आते-तब उनको यह विचार नहीं आता कि ब्लाग लिखवाने वाला उनके ब्लाग नहीं पढ़ता या टिप्पणी नहीं देता। इतने बड़े आदमी से भला मासूम हिंदी ब्लाग लेखक ऐसी आशा करते भी कैसै?

बड्ा आदमी! हां, ब्लाग लेखक के दावे के अनुसार वह उस अभिनेता की टीम में अंदर तक पहुंच रखता है और यकीनन कोई यह काम छोटा आदमी नहीं कर सकता। अनेक लोग अनेक तरह के शक कर रहे हैं पर एक बात तय है कि ब्लाग को प्रचार खूब मिल रहा है। अब इसमें एक पैंच है कि क्रिकेट की लोकप्रियता को ब्लाग के जरिये बनाये रखने का प्रयास हो रहा है या इससे ब्लाग को प्रचार दिलवाया जा रहा है। उसके समाचार ऐसे ही हैं जैसे फिल्मी अभिनेता और अभिनेत्रियों के इश्क के किस्सै! मुश्किल यह है कि क्रिकेट के ग्यारह खिलाड़ियों में सभी पुरुष हैंे और उनमें किसी तरह की महिला की चर्चा करना खेल से अलग चर्चा हो जायेगी इसलिये शायद उससे बचा जा रहा है। इसलिये अभिनेता ओर अभिनेत्रियेां के प्रसंग की बजाय खिलाड़ियों के आपसी विवादों को लिखा जा रहा है।
वैसे इस लेखक ने इस क्रिकेट और ब्लाग की जंग पहले एक ब्लाग लेखक के कंप्यूटर पर आंखों से देखी थी। वह ब्लाग लेखक अपना ब्लाग बना रहा था। लफड़ा यह था कि वह हिंदी टाईप जानता था और उसे यूनिकोड टूल का पता नहीं था। होता तो भी क्या करता? ब्लाग बनाना भी तो उसे नहीं आता था। बार हिंदी में टाईप करके रखता तो वहां सब अंग्रेजी में हो जाता और वह ऐसा कि किसी के समझ में नहीं आता। इधर विश्व क्रिकेट कप प्रतियोगिता प्रारंभ हो चुकी थी। लीग मैच हो रहे थे और वह परेशान था। इधर मन में यह बात थी कि ब्लाग बन जाये तो अपना लिखना शुरू किया जा सके तो उधर क्रिकेट मैच देखने की इच्छा भी थी कि शायद भारत इस बार जीत जाये। उसने ब्लाग की वजह से हल्के मैच देखेन की कुरबानी करने का फैसला किया। मगर यह क्या? इधर पहली छोटी कविता यूनिकोड में लिखकर डालकर उसने ताली बजायी और सोचा कि चलो पता करें मैच का क्या हुआ? पता लगा कि भारत बंग्लादेश से हार गया।

इधर वह ब्लागर हिंदी के हिंदी ब्लाग एक जगह दिखाने वाले फोरम नारद पर ही अपनी क्रिकेट के वह पाठ भी देख रहा था जो किसी के पढ़ने में नहीं आ रहे थे और वहां से शिकायते आ रही थी। बहरहाल हिंदी ब्लाग ने उसके क्रिकेट प्रेम की कुर्बानी ले ही ली। उसके बाद तो उसने क्रिकेट पर केवल एक ही बार अच्छी बात लिखी वह थी जब भारत ने बीस ओवरीय विश्व प्रतियोगिता जीती और उसमें भी जोड़ दिया कि भारत में लोग क्रिकेट से ऊब रहे थे पर बाजार अब इसे लाइफलाईन की तरह उपयोग करेगा। उस ब्लाग को क्रिकेट का विषय हमेशा व्यंग्य लिखने के लिये ही अच्छा लगता है। बीस का नोट पचास में नहीं चलेगा शीर्षक की कविता जबरदस्त हिट है जबकि वह उसी के समझ में नहीं आती।

एक बात लगती है कि क्रिकेट खेल ब्लाग के जरिये लोकप्रियता बनाये रखने के इस तरह प्रयास आगे भी होंगे। यह क्लबी टाईप क्रिकेट है और इसमें लोगों की रुचि अब फिल्मों की तरह बनाये रखने का प्रयास होगा क्योंकि देशप्रेम को भुनाना अब कठिन होता जा रहा है। अनेक बुद्धिमान लोग यह मानने लगे है कि क्रिकेट से देशप्रेम जोड़ना एक भ्रम था भले ही उसके साथ देश का नाम जुड़ा था। अंतर्जाल का प्रयोग बढ़ रहा है और फिल्मी हस्तियों को तो यहां वैसे भी लोकप्रियता प्राप्त है पर क्रिकेट खिलाड़ियों की लोकप्रियता बरकरार रखने के लिये चटपटे ब्लाग आगे भी बनेंगे। गनीमत अंग्रेजी में है और हिंदी ब्लाग एक जगह दिखाने वाले फोरम उसे अपने यहां नहीं दिखा रहे वरना तो किसी भले आदमी का वहां पढ़ना भी भी मुश्किल हो जाये। वहां पाठक चटपटा मसाला पढ़ेगा कि…………….कवितायें या व्यंग्य। अलबत्ता चटपटे होने के कारण हिंदी के ब्लाग लेखक उनके पते यहां छापते रहेंगे।
आखिर बात यह है कि इस लेखक को क्रिकेट और ब्लाग में बैर लगता है क्योंकि जिस दिन मैच होता है उस दिन ब्लाग पर पाठकों की संख्या कम हो जाती है। दिन भर हिट ले रहे ब्लाग स्टेटकांउटर पर अपनी ताकत दिखाते हैं पर रात को क्रिकेट मैच के समय सो जाते हैं। भारतीय समय के अनुसार मैच अगर दिन में हुआ तो फिर रात को ही ब्लाग पर पाठक आते हैं। इसलिये ब्लाग और क्रिकेट की यह जंग भी दिलचस्प है भले ही लोगों को वह प्रयोजित लगती हो।
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पत्थर कभी इतने नहीं उड़े जितनी खबरें बनी-हास्य व्यंग्य कविता


पत्थर कभी इतने नहीं उड़ाये गये
जितनी खबरें बन गयी।
खंजर कभी इतने नहीं घौंपे गये
जिनकी चर्चा से जमाने की भौहें तन गयी।

बस! बात इतनी है कि
अमन से रहते लोगों के दिमाग में
खौफ के जज़्बात की हवा का
एक झटका देना बहुत होता है
जिसमें बहकर वह बाजार चला आता है
दिल बहलाने के लिये
सौदागरों की जेब भर जाता है
घबड़ाने की बाद क्या
इससे शायरों के पास भी अमन का
पैगाम सुनाने का मौका आता है
जमाने को चलाने के लिये
बने कुछ दस्तूर है
कलम के साथ खंजर का भी होना जरूर है
जमीन पर पसरे खून से इंसान दहल जाता है
मगर अल्फाजों और चीजों से फिर बहल जाता है
इसलिये जब पत्थर बरसे या खंजर चला
तब सौदागरों के खिल उठे चेहरे
भले आम इंसान की नसें तन गयी

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सादगी से कही बात किसी के समझ में नहीं आती-हिंदी शायरी


सादगी से कही बात
किसी को समझ में नहीं आती है
इसलिए शायद कुछ लोग श्रृंगार रस की
चाशनी में डुबो कर सुनाते हैं
अलंकारों में सजाते हैं
तो कुछ वीभत्स के विष से डराते हैं
आदमी में विषय के लिए जिज्ञासा जगाते हैं
आदमी के दिल में ही रहता है
प्यार और खौफ
जिसे कभी कवियों ने बहलाया था
अब तो बाजार में सजी दुकानों पर
दर्द की दवा हो या ख़ुशी के लिए अमृत
हर शय बिकने के लिए सज जाती हैं

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अन्धविश्वास ने धर्म के प्रति विश्वास को कमजोर किया है-आलेख


एक मित्र ब्लाग लेखक सुरेश चिपलूनकर ने कल कुछ फोटो बनारस शहर और गंगा नदी के भेजे। वह हिंदी ब्लागजगत के सक्रिय लेखक होने के साथ दूसरों से सतत संपर्क रखने की कला में भी सिद्ध हस्त हैं और अक्सर ऐसे फोटो और वेबसाईटें ईमेल पर भेजते रहते हैं जो वैचारिक और चिंतन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होती है। कल उनके फोटो के साथ इस बात का भी जिक्र था कि हिंदू धर्म के पवित्र माने जाने वाले बनारस और गंगा नदी में कितना कचड़ा दिखाई देता है। मेरा कभी बनारस जाना नहीं हुआ पर उसके बारे मेंे सुनता रहता हूं। अनेक लोग भी इस बात की चर्चा करते हैं कि वहां गंगा में अब प्रदूषण बहुत है। कहने को इसके लिये लोग अनेक कारण बतायेंगे पर सच बात तो यह है कि इसके लिये अंध श्रद्धालू भी कम जिम्मेदार नहीं है। हिंदू अध्यात्म विश्व का सबसे श्रेष्ठ ज्ञान है पर यह भी उतना ही सच है कि सर्वाधिक अज्ञानी और अंधविश्वासी भारत में ही हैं और इसी कारण भारत के अधिकतर शहर और नदियों की पवित्रता पर विष की चादर बिछ गयी है। देखा जाये तो मंदिर केवल इसलिये बने ताकि लोग एक समूह में आकर वहां सत्संग और कीर्तन कर सकें पर अंधविश्वासों और अज्ञान की वजह से लोगों ने उनको वह कूंआं मान लिया जहां से पुण्य भरकर अपने साथ स्वर्ग ले जाया सके। अपने दैहिक कचड़े को वहां छोड़कर वह यह मान लेते हैं कि वह पवित्र हो गये। उनके उस कचड़े से दूसरे आने वाले श्रद्धालू उनको कितना कोसते हैं और उसका पाप उनके सिर ही आता है यह वह भूल जाते हैं।
पहले उन फोटो की बात करें। उनमें दिखाया गया था कि बनारस की सड़कों पर भारी कचड़ा जमा था। गंगा नदी में लाशें तैर रहीं थीं। कई जगह रेत में तो हड्डियां बिखरी पड़ी थीं। लाशें देखकर अच्छा खासा आदमी डर जाये। उनको कुत्ते खा रहे थे। कई जगह कौवे उन पर बैठे थे। कई लाशें जलने को तैयारी थी तो पास में लोग नहाते हुए दिख रहे थे। कटे हुए बालों के झुंड वहां जमा थे। यह दृश्य देखकर हृदय से भक्ति करने वाले किसी भी आदमी का मन दुःखी हो सकता है। शरीर के बाल, पुराने जूते और कपड़े मंदिरों या तीर्थों पर जाकर फैंकना किस धर्म का हिस्सा है यह कहना कठिन है क्योंकि जिन ग्रंथों को हिंदू धर्म का आधार माना जाता है उनमें ऐसी कोई चर्चा नहीं है।
यह समस्या केवल बनारस तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश के अनेक सिद्ध और प्रसिद्ध मंदिरों मेेंं ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं। कुछ महीने पहले की बात है कि हम अपने एक मित्र के साथ स्कूटर पर अपने ही शहर से तीस तीस किलोमीटर दूर एक प्रसिद्ध मंदिर गया। वह भी पवित्र दिन था और मित्र ने आग्रह इस तरह किया कि हमने सोचा चलो हम भी हो आते हैं। वहां जाकर अपना ध्यान भी लगायेंगे और घूमना भी हो जायेगा।

मंदिर पहाड़ी पर था और रास्ते में खेत खलिहान और तालाब देखकर बहुत अच्छा लगा। शहर से दूर ताजी हवा वैसे भी मन को प्रभावित करती है। जब उस मंदिर के निकट पहुंचे तो बहुत भीड़ थी। वैसे उस मंदिर पर भीड़ इतनी नहीं होती पर उस दिन खास दिन था इसलिये आवाजाही अधिक थी। हमने मंदिर से दो किलामीटर स्कूटर रखा-उसको रखने के पांच रुपये दिये क्योंकि ऐसे मौके पर भी भक्तों के साथ कोई रियायत नहीं होती। हम दोनों पैदल पहाड़ी पर चढ़ने लगे। वहां किनारे नाईयों के पास अपने बाल कटवाने वाले लोगों का झुंड लगा हुआ था। किनारे के दोनेां और पड़े बालो के झुंड किसी का मन खराब करने के लिये काफी थे। हम चलते गये तो आगे देखा कि लोग पुरानी चप्पलें वहीं छोड़ गये थे जो कई बार हमारे पैरों में बाधा पैदा कर देती थी। मंदिर पहुंचे तो लंबी लाईन लगी थी। हमने अपने मित्र से कहा कि इस धूप में इतनी देर लाईन में खड़े होना हमारे लिये संभव नहीं हैं। हम तो कभी दोबारा आकर दर्शन कर लेंगे।’
मित्र भी निराश हो गया था पर चलते चलते वह पता नहीं मंदिर से पचास मीटर पहले ही लाईन के बीच में लग गया हम उससे उस समय थोड़ा दूर थे। तब हम मंदिर के पास ही एक टैंट के में अपने बैठने की जगह तलाशने लगे। वह एक मैदान था। वहां बालों, पुराने कपड़ों और चप्पलों के बीच खड़ा होकर हम सोचने लगे कि ‘भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान’ में आखिर ऐसा कहां संदेश मिलता है कि धार्मिक स्थानों को अपने अंधविश्वासों से अपवित्र बनाया जाये। एक तो गर्मी फिर वहां के इस दृश्य ने हमें नरक के दर्शन कराकर पीड़ा ही दी और जब तक मित्र बाहर नहीं आया उससे झेलते रहे। एक बार तो गुस्सा आया कि लोगों से कहैं कि ‘यह कौनसा भक्ति करने का तरीका है।’ पर फिर सोचा कि जिस अध्यात्मिक ज्ञान की बात हम करेंगे उसके बारे में यह अधिक बतायेंगे। यहां कई ऐसे ज्ञानी हैं जिनको कबीर,तुलसी और सूर के दोहे जुबानी याद हैं पर अंधविश्वास की धारा में वही सभी से अधिक बहते हैं।
अगर पूरे बाल कटवा दिये जायें तो दिमाग को तरावट होती है। नये कपड़े या जूते पहने से भी देह को सुखद अनुभूति होती है। अगर किसी पवित्र स्थान पर जाकर ऐसी अनुभूति की तो कोई चमत्कार नहीं है पर उसको सिद्धि से जोड़ना भ्रम है। मंदिर निर्माण का मुख्य उद्देश्य मनुष्य में सामुदायिकता की भावना का विकास करना है और उसमें सिद्धि और प्रसिद्धि को विचार तो केवल प्रचार या विज्ञापन ही है। जो लोग वहां अपनी गंदगी का त्याग करते हैं वह कहां जायेगी? इस पर कोई नहीं सोचता। अनेक लोग मंदिरों में केवल मत्था टेकने जाते हैं उनके लिये इस प्रकार की गंदगी वहां नरक जैसा दृश्य प्रस्तुत करती है।

चिपलूनकर जी ने ईमेल के ऊपर ही लिख दिया था कि अंधभक्ति और कमजोर दिलवाले इसे नहीं देखें। बहरहाल हमने फोटो देखे और इस बात को समझ गये कि वह कहना क्या चाहते हैं? उन फोटो को यहां दिखाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह एक व्यापक विषय है कि हम अपने अध्यात्मिक ज्ञान से परे होकर अंधविश्वासों का बोझ कम तक ढोते रहेंगे? अक्सर देश की संस्कृति और संस्कार बचाने की बात करने वाले आखिर इस अंधविश्वास से आंखें बंद कर क्यों अपने अभियान चलाते हैं? आम पाठक शायद न समझें पर ब्लाग जगत पर सक्रिय ब्लाग लेखक यही कहना चाहेंगे कि यह सवाल तो सुरेश चिपलूनकर जी से ही किया जाना चाहिये। अधिकतर लोगों को यह लगता है कि सुरेश चिपलूनकर जी परंपरावादी लेखकों के समूह के सदस्य हैं पर हम ऐसा नहीं मानते। उनकी उग्र लेखनी से निकले आलेखों पर सभी लाजवाब हो जाते हैं और जो विरोध करते हैं तो भी उनके तर्क कमजोर दिखते हैं। सच बात तो यह है कि सुरेश चिपलूनकर न केवल अंध विश्वासों के विरोधी है बल्कि उनके कई पाठ धर्म के नाम पर पाखंड के विरुद्ध लिखे गये हैं। उन्होंने अपने ही उज्जैन शहर के मंदिर पर हो रहे पाखंड और भ्रष्टाचार का उल्लेख अपने पाठ में लिया था। उनके इन प्रहारात्मक लेखों से लोग इसलिये भी प्रभावित होते हैं। उन्हें परंपरावादी लेखक तो हम नहीं मानते बल्कि आधुनिक विचाराधारा के परिपक्व श्रेणी के लेखकों में गिनती करते हैं।
प्रसंगवश परंपरपादी और प्रगतिशील लेखकों की बात भी कर लें। दोनों में कोई अधिक अंतर नहीं है। प्रगतिशील भारत के अंधविश्वासों को निशाना बनाते हुए यहां के समग्र चरित्र पर प्रहार करते हुए विदेशी विचारधाराओं की बात करते हैं जबकि परंपरावादी लेखक अपने पुराने ज्ञान को ही प्रमाणिक मानते हैं और अपने अंधविश्वास और पाखंड से बचते हैं। प्रगतिशील और परंपरावादियों से अलग ऐसे आधुनिक लेखक भी हैं जो अपने पुराने अध्यात्म को प्रमाणिक मानते हुए अंधविश्वास और पाखंड पर प्रहार करने का अवसर नहीं चूकते और यही कारण है कि यह तीसरा वर्ग ही भारत में परिवर्तन के लिये जूझता दिखता है। सच बात तो यह है कि कर्मकांडों का आधार स्थानीय होता है और उनका धर्म से संबंध केवल इसलिये दिखता है क्योंकि देश के अधिकतर लोगों के धार्मिक इष्ट एक ही है। कई जगह एक त्यौहार जिस तरह से मनाया जाता है तो दूसरी जगह दूसरे ढंग से। उसी तरह जाति से भी त्यौहार मनाने के तरीके से भिन्नता का आभास होता है। अगर हम कुल निष्कर्ष निकालें तो केवल अध्यात्मिक ज्ञान के आधार पर ही सभी एक हैं कर्मकांडों में विरोधाभास है और वह धर्म का आधार कतई नहीं लगते। यह अलग बात है कि पहले पुराने और अब आधुनिक बाजार ने अपनी कमाई के लिये कर्मकांडों को ही धार्मिक आधार बना दिया है। सच बात तो यह है कि अंधविश्वासों की वजह से धर्म बदनाम ही हुआ है और पराये क्या अपने ही लोग उनका मजाक उड़ाते हैं। भारत के अनेक महापुरुषों में पाखंड और अंधविश्वास से दूर रहने का संदेश दिया है और उनके कृतित्व का ही नतीजा है कि हमारा देश विश्व में अध्यात्म गुरु माना जाता है। शेष फिर कभी
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बाज़ार में बिकती है दवा और अमृत-हिंदी शायरी


सादगी से कही बात
किसी को समझ में नहीं आती है
इसलिए शायद कुछ लोग श्रृंगार रस की
चाशनी में डुबो कर सुनाते हैं
अलंकारों में सजाते हैं
तो कुछ वीभत्स के विष से डराते हैं
आदमी में विषय के लिए जिज्ञासा जगाते हैं
आदमी के दिल में ही रहता है
प्यार और खौफ
जिसे कभी कवियों ने बहलाया था
अब तो बाजार में सजी दुकानों पर
दर्द की दवा हो या ख़ुशी के लिए अमृत
हर शय बिकने के लिए सज जाती हैं

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वेलेंटाइन डे का एक दिन में शोर थमा-हास्य-व्यंग्य (velantine day ka shor-hasya vyangya)


कल वैलंटाईन डे बीत गया। पिछले प्रदंह दिन से उसका प्रचार जोरदार ढंग से हुआ। आज अनेक खबरें इस बारे में समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में छायी हुईं हैं। अधिकतर लोगोंं का ध्यान सड़कों, पार्कों, होटलों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर हुए अच्छे बुरे दृश्यों के विश्लेषण पर केंद्रित हैं पर कुछ लोग हैं जिनका ध्यान बाजार समाचार पर है। टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं की इस बात के लिये भी प्रशंसा करनी चाहिये कि उन्होंने इस बात को छिपाया नही कि मंदी से जूझ रहे बाजार को कल एक दिन के लिये संजीवनी मिल गयी-यह कितने दिन काम करेगी यह तो बाद में ही पता चलेगा।
इन्हीं समाचारों से पता चला कि इस बार कथित प्रेमियों ने सोने या उससे संबंद्ध उपहार अपने प्रेमियों को दिये-यह भी बताया है कि ऐसी सलाह प्रेमियों को बाजार विशेषज्ञों ने ही दी थी। इस बार मंदी के कारण विदेशी गुलाब फूलों की बिक्री के कारण कम बिकने की आशंका थी पर वह गलत निकली। उपहारों के सामान और ग्रीटिंग कार्ड खूब बिके। निष्कर्ष यह है कि मंदी का वैलंटाईन डे पर बुरा प्रभाव नहीं हुआ पर भविष्य में ऐसी आशंका से इंकार भी नहीं किया जा सकता।

प्रचार और विज्ञापन से पहले आदमी का असहज किया जाता है ताकि वह बाजार के लिये एक ग्राहक के रूप में तैयार हो सके। विदेशी या पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित हो कथित दिवस यहां प्रचलन में आये हैं वह एक दिन में नहीं आये बल्कि उसके लिये बकायदा योजना बनायी गयी। यह योजना भले ही संगठित रूप से न बनी हो पर धीरे धीरे वह बृहद रूप लेती गयी।
हमारे देश में किसी भी फैशन की शुरुआत फिल्मों से ही होती थी। अब टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाओं ने भी इसमें योगदान देना प्रारंभ कर दिया है। भले ही उनको प्रत्यक्ष रूप से लाभ नहीं होता पर उनके प्रायोजक और विज्ञापनदाता उनसे ऐसी आशा करते हैंे कि वह अपने पाठकों और दर्शकों उनके उत्पादों और वस्तुओं की तरफ आकर्षित कर सकें।
हर बार की तरह एक बहुत बड़ा वर्ग इससे दूर ही रहा। यह अलग बात है कि वैलंटाईन डे पर बाजार को संजीवनी देने के लिये पूरे विश्व में प्रयास हुए और भारत में तो ऐसा लगता है कि इसकी भूमिका एक माह पहले ही तैयार की गयी। एक बड़े शहर में पब पर हुए आक्रमण में विरोध स्वरूप कुछ लोगों ने उसे वैलंटाईन डे से जोड़ दिया। देखा जाये तो दो ऐसे प्रसंग हुए जिनको बाजार के लिये प्रचार प्रबंधकों ने खूब पकाया।
अगर आप लेखक या पत्रकार हैं तो यह जरूरी नहीं है कि हर घटना पर अपनी सहमति या असहमति जतायें। अगर आप परंपरावादी होने का दावा करते हुए पाश्चात्य सभ्यता का विरोध करते हैं तो यह याद रखना चाहिये कि अपने धर्मग्रंथों में उपेक्षासन भी एक विधि जिससे प्रतिद्वंद्वी को परास्त किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इस आसन के लिये आपको सहज होना पड़ता है, मगर जब आप विरोध करने के लिये तत्पर होते हैं तब अपने अंदर उस असहज भाव को प्रवेश होने देतें हैं तो इसका मतलब यह है कि आज बाजार की सहायता कर रहे हैं जिसकी कीमत प्रचार प्रबंधक वसूल कर ही लेते हैं।
एक दृष्टा की तरह अनेक लोग बाजार के इस खेल को देख रहे थे। टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओंं से इसका पता नहीं चलता पर अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग पढ़ने से पता लगता है कि अधिकतर लोग विवाद बढ़ाने वाली घटनाओं में बाजार की योजना और हाथ होने का अनुभव कर रहे थे। भले ही विवाद करने वालों का आशय पैसा कमाने से अधिक प्रचार पाना हो पर अनजाने में वह व्यवसायिक प्रचारकों की सहायता कर रहे थे।
मामूली घटनाओं में नारी स्वातंत्र्य और सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश करने वाले आपस में बहस कर रहे थे जबकि बाजार का मतलब केवल अपने लिये पैसा कमाने का था। शराब महिला पिये या पुरुष यह उसका निजी मामला है पर अगर कोई उन पर आक्रमण करता है तो उससे निपटने की जिम्मेदारी कानून की है और वह उसे भी निभा रहा है पर बहस करने वालों को विषय चाहिये था। नारी स्वातंत्र्य के समर्थक इसमें सदियों पुरानी परंपराओं के विरुद्ध आव्हान करते हैंं तो परंपरावादी लोग अपने सांस्कृतिक मूल्यों के लिये फिक्रमंद दिखते हैं। अगर आप उनके लिखे हुए पाठ या दिखाये जा रहे दृश्य देखें तो आपको लगेगा कि यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है पर अगर आप सड़क पर निकल जाईये तो इस बहस से अनजान लाखों लोगों को अपने लक्ष्य की ओर आते जाते देखा जा सकता है। बाजार को उनकी उपेक्षा बुरी लगती है इसलिये वह हर जगह अपने उत्पाद और वस्तुओं का प्रचार देखना चाहता है। ऐसे में जहां प्रचार की संभावना है वहां बाजार अपना दांव खेलता है और प्रचार प्रबंधक भी यह सोचकर उसमें जुट जाते हैं कि उससे उनके प्रयोजकों और विज्ञापनदाताओं को लाभ हो।
इधर अंतर्जाल पर अनेक पाठ देखकर अच्छा लगा। सच बात तो यह है कि समाचार पत्र पत्रिकाओें और टीवी चैनलों की सीमायें हैं। वह अपनी तरफ से कोई बात नहीं कह पाते बल्कि उनको आवश्यकता होती है उसके लिये किसी मुख की जिसके नाम से वह कुछ लिख सकें। अगर विवाद हो तो उसे दो मुखों की आवश्यकता होती है-एक समर्थन के लिये दूसरा विरोध के लिये। तय बात है कि जिन्हें प्रचार चाहिये वह इधर या उधर से होकर बोलते हैं ताकि उनके मुख चमक सकें। अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। पाठ लिखने वाले ने लिखा तो असहमत होने वालों ने उस पर समर्थन या विरोध में टिप्पणी की वह भी कम पढ़ने लायक नहीं होती। प्रतिवाद में पाठ तक लिख जाते हैं और फिर अधिक गुस्सा हो तो सामने वाले ब्लाग लेखक का नाम ही शीर्षक मेंे दिया जाता है।
यहां भी दोनों पक्षंों के ब्लाग लेखक हैं। पिछले दो वर्षों में यह पहला ऐसा अवसर था जब वैलंटाईन डे पर ऐसे पाठ ब्लागों पर पढ़ने को मिले जो बहुत दिलचस्प लगे। आम जीवन की तरह इस विषय पर उपेक्षासन कर रहे ब्लाग लेखक ही अधिक थे पर वैलंटाईन डे के पक्ष और विपक्ष ब्लाग पर लिखे गये पाठ पढ़ने से भला कौन चूक सकता था? उनको हिट मिलना स्वाभाविक था क्योंकि द्वंद्व हर इंसान को देखने में मजा आता है-अगर वह खुद उसके पात्र न हों। जो स्वयं बहस में लिप्त नहीं होते वही उन बहसों का निष्कर्ष निकाल सकते हैं पर अगर पूरी तरह उपेक्षासन करने वाले हों तो फिर हंस तो सकते ही हैं। सच बात तो यह है कि अगली बार वैलंटाईन डे पर जिन आम लोगोंे को समय हो तो वह बजाय कहीं अन्यत्र जाने के हिंदी ब्लाग जगत पर अधिक सक्रिय रहें इसके लिये जरूरी है कि वह अभी से ही सक्रिय हो जायें क्योंकि उनको जो संतोष यहां मिल सकता है वह किसी अन्य प्रचार माध्यम पर नहीं मिल सकता।
प्रसंगवश हमारे मित्र ब्लाग लेखकों की इसमें जोरदार भूमिका थी और उनका सामना भी ऐसी महिला ब्लाग लेखिकाओं से हुआ जिनके प्रति हमारे मन में आत्मीय भाव है। अब यह छिपाना बेकार है कि ब्लाग के पाठों पर चले रहे इन द्वंद्वों के प्रति हमने उपेक्षासन किया होगा। चूंकि इस विषय पर हमने केवल बाजार की दृष्टि से ही विचार किया इसलिये किसी सिद्धंात या आदर्श की बात करना हमें स्वयं स्वीकार नहीं था।
एक बात तय कि अपनी बात किसी से जबरन मनवाने की बजाय उसे अपने विचार या व्यवहार से प्रभावति करना चाहिये और यही सभ्य समाज का तकादा है। बहसें होना चाहिये पर मर्यादा के पार नहीं जाना चाहिये। मतभेद हों पर मनभेद नहीं होना चाहिये। बजार और प्रचार का यह खेल कभी थमने वाला नहीं है। अभी तो उनके पास 365 दिनों में केवल 20 से 25 दिन प्रचार के लिये हैं। हो सकता है कल वह पूर्व और उत्तर से कोई दिन निकालें और उसका यहां प्रचार करने लगें। उनको तो 365 दिन ही बाजार में ग्राहक चाहिये।
आदमी जो कपड़े पहनने या सोने के लिये उपयोग करता है उसके पूरी तरह गल जाने पर ही दूसरा खरीदता है-बहुत कम लोग हैं जो नये वस्त्र खरीद सकते हैं। फिर खुद खरीदने से कहां खुशी होती है जितना दूसरे को उपहार देने से। शायद इसलिये प्रचार माध्यम उपहार की बात अधिक करते हैं। आदमी अपने चीज पुरानी या नष्ट होने पर आये, बाजार इतनी देर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। इसलिये ग्रीटिंग कार्ड और अन्य उपहार जो उपयोग में अधिक नहीं होते पर बाजार को पैसा देते हैं उनको बेचने का मार्ग यही एक मार्ग है। बहरहाल शोर थम गया है और ऐसा शांति लग रही है जैसे धुलेड़ी में दो बजे के बाद बाजार में लगती है। जिस तरह के दृश्य सामने आये उससे तो लगता है जैसे कि यह होली का पर्व हो। अंतर बस इतना ही है कि उस समय गंदगी और रंगों के विषैले होने के भय से लोग बाहर नहीं निकलते पर वैलंटाईन डे के दिन यह खतरा उन युवाओं के लिये ही है जो जोड़े बनाकर घूमते हैं।
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बाज़ार में खौफ का अफ़साना-हिन्दी शायरी


<strong>कुछ हकीकत कुछ ख्वाव
बन जाता है  यूँ ही अफसाना
सुर्खियों में बने रहें अख़बारों की 
चर्चा करे नाम की पूरा ज़माने
इसलिए कभी वह हादसों को ढूंढते हैं
न मिलें तो कर लेते, आगे होने  का बहाना
जिन्हें आदत हो गयी भीड़ में चमकने की
उनको पसंद नहीं है हाशिये पर आना
लोगों की मस्ती और बेचैनी में ही
आता हैं उनको कमाना
जो चाहो चैन अपनी जिंदगी में
तो कभी उनकी आवाजों से डर मत जाना
उनके लिखे शब्द पढ़ना खूब
पर बहक मत जाना
बाज़ार में अमन की हकीकत नहीं
बिकता है अब खौफ का अफसाना </strong>
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रौशनी ने भी अपने रूप बदले हैं-हिंदी शायरी


निकले थे अंधेरे में माटी के चिराग ढूंढने
पर कांच के बल्ब के टुकड़े लग गये पांव में
रौशनी ने भी अपने रूप बदले हैं
शहर चमक रहे हैं चकाचौंध में
अंधेरे का घर है गांव में

मधुर स्वर सुनने की चाह में
पहुंच गये महफिल में
पर कान लगने फटने
सभी गाने वाले लगे थे कांव-कांव में

आंखों से देखने की चाह में
निकले रास्ते पर
पर दिखावटी चेहरों को देखकर
हो गये निराश
बनावटी दृश्यों से हो गये हताश
परिश्रम का पसीना बहता है
सूरज की किरणों मे निरंतर
आलस्य पलता है छांव में

फिर सोचते हैं कि
दुनियां के हैं रंग निराले
क्यों करें अपने विचार काले
कुछ लोगों समझते है जिंदगी का मतलब
खुशनुमा पल से जीने के लिये
जहां कुछ भी न मिले
पर दिल का चैन अमन का अहसास ही
सुकून है सब कुछ अपने लिये
पर बाकी के लिये है जूआ
जो खेलते हैं अपने ख्वाबों पर दांव पर दांव

………………………..
क्यों अपना दिल जलाते हो अपना यार
इस दुनियां में होते हैं नाटक अपार

कभी कहीं कत्ल होगा
कहीं कातिल का सम्मान होगा
चीखने और चिल्लाने की आवाजें होंगीं
कुछ लोग सच में रोएंगे
कुछ बहायेंगे घडि़याली आंसु
तुम न कभी नहीं रोना
अपनी रात चैन से सोना
दिल के उजियाले में
दिखाई देते हैं रात के नजारे
लोग भी क्या समझेंगे
सोच रख चुके गुलाम, अब क्या करेंगे
बमों की आवाज से कांप मत जाना
किसने किया इस पर मत दिमाग खपाना
रोटी से ज्यादा लोग रूपया जोड़ते हैं
गैर क्या, मौका पड़ जाय तो
अपने का घर तोड़ते हैं
आंखों की नहीं अक्ल की भी
उनकी रोशनी कम हो गयी है
जो चश्में लगे हैं उनकी आंखों पर
दौलत,शौहरत और ओहदे की शान से बने हैं
मत पूछा यह कि वह अमृत में नहाये कि
खून से सने हैं
खुल गया है
दुनियां के हर जगह बाजार
आतंक यहां भी मिलता है वहां भी
तुम हैरान और परेशान क्यों हो
अपनी अक्ल से सोचो
जो हर पल पैसे का ही सोचते हैं
वह गैर को कम अपने को अधिक नौचते हैं
शिकायत कहां करोगे
जहां जाओगे मरोगे
कातिलों ने दुनियां पर राज्य कायम कर लिया है
खूबसूरत चेहरों को मुखौटे की तरह ओढ लिया है
वह मुस्कराते हुए बात करते हैं
कातिल तो अपना काम पीछे ही करते हैं
देशभक्ति और लोगों के कल्याण का नारा सुनते जाना
खामोशी से सोचना और फिर अनसुना कर जाना
नारों में बह जाते लोग
भूल जाते अपना असली रोग
जमाने र्की िफक्र बात में करना
ओ सबकी सोचने वाले यार
सरकारी अस्पताल में डाक्टर ने जो
बताई है जो महंगी दवा
तुम्हारी मां के लिये
वह पहले खरीद करना
क्योंकि उसका कोई विकल्प नहीं है
पिता है बिस्तर पर कई सालों से
उसे भी ले जाना अस्पताल
बेटे के लिये रोजगार के लिये भी
चलना है कोई चाल
जीवन में कोई समस्या अल्प नहीं है
जो देते हैं तुम्हें समाज के लिये
हमेशा काम करने का संदेश
उनके लिये अपने घर बड़े हैं न कि देश
तुम मत करना विरोध किसी का
हां में हां करते जाना
जहां अवसर मिल जाये लाभ उठाना
चिल्लाना बिल्कुल नहीं
खामोशी में ही सबसे अधिक है धार

…………………………….

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कतरनों में मनोरंजन -हास्य कविताऐं


बेच रहे हैं मनोरंजन
कहते हैं उसे खबरें
भाषा के शब्दकोष से चुन लिए हैं
कुछ ख़ास शब्द
उनके अर्थ की बना रहे कब्रें
परदे पर दृश्य दिखा रहे हैं
और साथ में चिल्ला रहे हैं
अपनी आँख और कान पर भरोसा नहीं
दूसरों पर शक जता रहे हैं
इसलिए जुबान का भी जोर लगा रहे हैं
टीवी पर कान और आँख लगाए बैठे हैं लोग
मनोरंजन की कतरनों में ढूँढ रहे खबरें
——————————–
चीखते हुए अपनी बात
क्यों सुनाते हो यार
हमारी आंख और कान पर भरोसा नहीं है
या अपने कहे शब्द घटिया माल लगते हैं
जिसका करना जरूरी हैं व्यापार

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दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका पर लिख गया यह पाठ मौलिक एवं अप्रकाशित है। इसके कहीं अन्य प्रकाश की अनुमति नहीं है।
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अध्यात्म ज्ञान के बिना धर्म को समझना कठिन-चिंत्तन


धर्म क्या है यह समझे बिना उसकी आलोचना करना गलत है। किसी भी धार्मिक विद्वान् ने अपने विचार से धर्म की आज तक कोई एक परिभाषा तय नहीं की , इसका कारण यह है कि जिन लोगों ने बुद्धिमान और शिक्षित होने का ठेका लिया है वह वादों-विवादों में इतना फंस जाते हैं उन्हें पता ही नहीं रहता कि कोई निष्कर्ष क्या निकला? एक तरफ वह लोग हैं जिन्हें धर्म नहीं सुहाता और वह इसे भ्रम घोषित कर देते हैं तो दूसरी तरफ वह हैं जो धर्म के रक्षक और पोषक होने का दावा करते हैं और कर्मकांडों को ही उसका पर्याय घोषित कर देते हैं । यह लेखक कोई बहुत बड़ा विद्धान है या नहीं यह तो पढने वाले लोग ही तय करेंगे, पर यहाँ साफ करना जरूरी है कि मेरे पास अपने धर्म के लिए कोई पदवी नहीं है फिर भी अपने विचार व्यक्त करने से बाज नहीं आऊंगा क्योंकि धर्म के आलोचक और प्रशंसक दोनों के तर्कों से में प्रभावित नहीं हूँ ।
देश के वर्तमान हालत जो हैं उसकी वजह लोगों का अपने धर्म से दूर होना ही है-यह लेखक की स्पष्ट मान्यता है। धर्म को अगर हम कर्मकांडों से जोड़कर ही देखेंगे तो उसके स्वरूप में एक नहीं सेंकड़ों दोष दिखाई देंगे , और केवल अध्यात्म से जोड़ कर देखेंगे तो धर्म अंध समर्थक नहीं मानेंगे । जबकि लेखक मानना है कि धर्म की सबसे बड़ी पहचान अध्यात्म ही है । आध्यात्मिक साधना एकांत में होती है और उसके लिए कोई शोर-शराबा नहीं होता और जो लोग शोर-शराबा कर अपने धार्मिक होने का प्रमाण देते हैं वह दूसरे को कम अपने को ज्यादा धोखा देते हैं। अध्यात्म वह है जो इस शरीर में विद्यमान है और उससे साक्षात्कार किये बिना हम चल रहे हैं तो यह समझ लेना चाहिए कि अज्ञान के उस अँधेरे में हैं जहां हमें दोषों के अलावा कुछ और नहीं दिखाई देगा और उनको देखते हम अपनी पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं ।
आजादी के बाद लार्ड मैकाले की द्वारा रची गयी शिक्षा पध्दति को ही जारी रखा गया जो केवल गुलाम पैदा करती है और नकारात्मक सोच उत्पन्न करती है। हिंदू धर्म के आलोचक ग्रंथों के कुछ ऐसे हिस्सों को पढ़कर सुनते है जो वर्तमान समय में लोगों की दृष्टि में अप्रासगिक हो चुके और धर्मभीरू होने के बावजूद लोग उसे महत्व नहीं देते। इससे फायदा किसे हुआ? इस देश में एक ऐसा वर्ग हमेशा रहा है जो यहां के लोगों के बुद्धि तत्व पर नियंत्रण कर उसका लाभ उठाना चाहते हैं -और इसने धर्म के आलोचक और प्रशंसक दोनों ही शामिल है । इन दोनों ने मिलकर समाज में ऐसे द्वन्द्वों को जन्म दिया जिससे न केवल देश में नैतिक आचरण का पतन हुआ बल्कि समाज में सामाजिक समरसता के भाव का भी क्षरण हुआ। भगवान श्रीराम और श्री कृष्ण जी के चरित्रों को शैक्षिक पाठ्यक्रमों में न रखने से दोनों वर्गों को लाभ हुआ। धर्म के प्रशंसकों को अपने ढंग से व्याख्या कर धन और प्रतिष्ठा अर्जित करने का स्वर्णिम अवसर मिला तो आलोचकों को नये भगवान् गड़कर स्वयं को विद्धान साबित कराने का अवसर मिला।

अगर श्रीराम और श्री कृष्ण आज भी देश के आराध्य होते तो बाल्मीकि, तुलसी और वेदव्यास का नाम होता और नये भगवानों को गढ़ने वाले को लेखक और विद्वान् होने का गौरव कहॉ मिलता? धर्म प्रशंसक भी कम नहीं है उन्होने भी नये भगवान् भले नहीं बनाए पर उनका नाम लेकर भक्तों को भ्रमित कम नहीं किया। कई संत और साधू तो ऐसे हैं कि अपने पीछे भगवन की तस्वीर रखकर आरती करवाते हैं जो भगवान् की भी लगे तो उनकी भी। यानी आलोचकों को यह न लगे कि वह अपनी आरती करवा रहे हैं तो भक्त को यह लगे के उनकी आरती हो रही हैं।
धर्म प्रचारक नहीं होने के बावजूद लेखक इस बात को ख़ूब समझता है कि धर्म और अध्यात्म एकांत साधना है और अंतर्मन की शुध्दी के लिए हमें यह करना भी चाहिए । लेखक आधुनिक शिक्षा का विरोधी नहीं है क्योंकि अपने धर्म ग्रंथों के अध्ययन से ही यह ज्ञान पाया है कि आदमी को विज्ञान के साथ ज्ञान भी होना चाहिए। मैं यह पंक्तिया लिख रहा हूँ यह मेरी इसी शिक्षा का परिणाम है । हाँ जो मुझे अध्यात्म की शिक्षा अपने माता-पिता से मिली है उसकी चर्चा भी जरूर करना चाहूँगा जो अब बहुत कम लोगों को मिल रही है। अगर वह शिक्षा मेरे पास नहीं होती तो इतनी मेहनत से यह ब्लोग नहीं लिख रहा होता। कुछ काम ऐसे भी करना चाहिए जिससे लोगों को प्रसन्नता और ज्ञान मिले। मैं इस ज्ञान चर्चा को सत्संग का हिस्सा मानता हूँ जिसे अंतर्मन में शुद्धता और स्फूर्ति आती है, और कोई आपकी बुद्धि का हरण कर आपको भटका नहीं सकता , जैसा कि आजकल लोगों के साथ हो रहा है। आपने देखा ही होगा कि किस तरह जाति, धर्म, पंथ, भाषा और वर्ग के नाम पर लोगों को बरगलाकर देश में हिंसा और अशांति का माहौल बनाया जा रहा है। अगर लोगों के पास अपने धर्म और आध्यात्म की शिक्षा होती तो ऐस नहीं होता क्योंकि तब उनके पास अपना ज्ञान होता और किसी के बरगलाने में वह नहीं आते । शेष अगले अंक में (यह चर्चा इसी ब्लोग पर जारी रहेगी)

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अध्यात्म, हिन्दू, धर्म, हिन्दी साहित्य,समाज,

पढ़कर कितना समझते-हास्य हिन्दी शायरी


आम इंसानों की तरह
रोज जिंदगी गुजारते हैं
पर आ जाता है
पर सर्वशक्तिमान के दलाल
जब देते हैं संदेश
अपना ईमान बचाने का
तब सब भूल जाते हैं
दिल से इबादत तो
कम ही करते हैं लोग
पर उसके नाम पर
जंग करने उतर आते हैं
कौन कहता है कि
दुनियां के सारे धर्म
इंसान को इंसान की
तरह रहना सिखाते
ढेर सारी किताबों को
दिल से इज्जत देने की बात तो
सभी यहां करते हैं
पर उनमें लिखे शब्द कितना पढ़ पाते हैं
पढ़कर कितना समझते
इस पर बहस कौन करता है
दूसरों की बात पर लोग
एक दूसरे पर फब्तियां कसने लग जाते हैं।
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सुविधाओं के गुलाम-व्यंग्य


15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ था या एक राष्ट्र के रूप में स्थापना हुई थी। परंतत्र देश स्वतंत्र हुआ पर क्या परतंत्र का मतलब गुलामी होता है। कुछ प्रश्न है जिन पर विचार किया जाना चाहिये। विचार होगा इसकी संभावना बहुत कम लगती है क्योंकि वाद ओर नारों पर चलने वाले भारतीय बुद्धिजीवी समाज की चिंतन करने की अपनी सीमायें हैं और अधिकतर इतिहास में लिखे गये तथ्यों-जिनकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हेाती है- के आधार पर भविष्य की योजनायें बनाते है।

कई ऐसे नारे गढ़े गये हैं जिनको भुलाना आसान नहीं लगता। कोई कहता है कि चार हजार वर्ष तक भारत गुलाम रहा तो कोई दो हजार वर्ष बताकर मन का बोझ हल्का करता है। अगर मन लें वह गुलामी थी तो फिर क्या आज आजादी हैं? अगर यह आजादी है तो यह पहले भी थी। परंतत्रता और गुलामी में अंतर हैं। तंत्र से आशय कि आपके कार्य करने के साधनों से हैं। शासन, परिवार और संस्थाओं का आधार उनके कार्य करने का तंत्र होता है जिसमें मनुष्य और साधन संलिप्त रहकर काम करते हैं। परतंत्रता से आशय यह है कि इन कार्य करने वालों साधनों और लोगों का दूसरे के आदेश पर काम करना। सीधी बात करें तो देश का शासन करने का तंत्र ही आजाद हुआ था पर लोग अपनी मानसिकता को अभी भी गुलामी में रखे हुए हैे। अधिकतर लोगों का मौलिक चिंतन नहीं है और वह इतिहास की बातें कर बताते हैं कि वह ऐसा था और वहां यह था पर भविष्य की कोई योजना किसी के पास नहीं है।
जैसे जैसे प्रचार माध्यमों की शक्ति बढ़ रही है लोग सच से रू-ब-रू हो रहे हैं और वह इस आजादी को ही भ्रम बता रहे हैं। वह अपने विचार आक्रामक ढंग से व्यक्त करते हैं पर फिर गुलामों जैसे ही निष्कर्ष निकालते हैं। बहुत विचार करना और उससे आक्रामक ढंग से व्यक्त करने के बाद अंत में ‘हम क्या कर सकते हैं’ पर उनकी बात समाप्त हो जाती है।
शायद कुछ लोगों को यह लगे कि यह तो विषय से भटकाव है पर अपने समाज के बारे में विचार किये बिना किसी भी प्रकार की आजादी को मतलब समझना कठिन है। आज भी विश्व के पिछड़े समाजों में हमारा समाज माना जाता है। बीजिंग में चल रहे ओलंपिक में एक ही स्वर्ण पदक पर पूरा देश नाच उठा पर 110 करोड़ के इस देश में कम से कम 25 स्वर्ण पदक होता तो मानते कि हमारा तंत्र मजबूत है। जब भी इन खेलों में भारतीय दलों की नाकाम की बात होती है तो तंत्र को ही कोसा जाता है। यानि हमारा तंत्र कहीं से भी इतना प्रभावशाली नहीं है कि वह 25 स्वर्ण पदक जुटा सके। इक्का-दुक्का स्वर्ण पदक आने पर नाचना भी हैरानी की बात है। भारत ने व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार अब यह स्वर्ण पदक जीता जबकि पाकिस्तान का एक मुक्केबाज इस कारनामे को पहले ही अंजाम दे चुका है पर वहां भी एसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। हमारे देश एक स्वर्ण पदक पर इतना उछलना ही इस बात का प्रमाण है कि लोगों के दिल को यह तसल्ली हो गयी कि ‘चलो एक तो स्वर्ण पदक आ गया वरना तो बुरे हाल होते’।

तंत्र की नाकामी को सभी जानते हैं। इस पर बहसें भी होती हैं पर निष्कर्ष के रूप में कदम कोई नहीं उठाता। वर्तमान हालतों से सब अंसतुष्ट हैं पर बदलाव की बात कोई सोचता नहीं है। अग्रेज अपनी ऐसाी शैक्षणिक प्रणाली यहां छोड़ गये जिसमें गुलाम पैदा होते हैंं। यह अलग बात है कि बड़ा गुलाम छोटे गुलाम का साहब होता है।

समाज और लोगों की आदतों को ही देख लें वह किस कदर सुविधाओं के गुलाम हो गये है। देश में आयात अधिक है और निर्यात कम। विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता क्या गुलामी नहीं है। जिसे पैट्रोल पर पूरा देश दौड़ रहा है उसका अधिकांश भाग विदेश से आता है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का प्रयास उसका अंग था पर क्या वह आज कोई कर रहा है। पूरा देश गैस, पैट्रोल का गुलाम हो गया है। अगर इनका उत्पादन पूरी तरह देश में होता तो कोई बात नहीं पर अगर किसी कारण वश कोई देश भारत को तेल का निर्यात बंद कर दे या िकसी अन्य कारण से बाधित हो जाये तो फिर इस देश का क्या होगा? पूरा का पूरा समाज अपंग हो जायेगा। अपने शारीरिक तंत्र से लाचार होकर सब देखता रहेगा।

फिर जिन अंग्रेजों को खलनायक मानते थे आज उसकी प्रशंसा करते हैं। उसकी हर बात को बिना किसी प्रतिवाद के मान लेते हैं। हमारे देश के अनेक लोग वहां अपने लिये रोजगार पाने का सपना देखते हैं। वैसी भी अंग्रेजों का रवैया अभी साहबों से कम नहीं है। वैसे पहले तो अपने भाषणों में सभी वक्ता अंग्रेजों को कोसते थे पर अब यह काम किसी के बूते का नहीं है। अमेरिका के मातहत अंग्रेजों से कोई टकरा पाये इसका साहस किसी में नहीं है। फिर उनके द्वारा छोड़ी गयी साहब और गुलाम की व्यवस्था में हम कौनसा बदलाव ला पाये।

फिर अंग्रेजों ने कोई भारत को गुलाम नहीं बनाया था। उन्होंने यहां रियासतों के राजा और महाराजाओं को हटाकर अपना शासन कायम किया था। यही कारण है कि आज भी कई लोग उनको वर्तमान भारत के स्वरूप का निर्माता मानते हैं। अगर देखा जाये तो जिस आम आदमी के आजादी से सांस लेकर जीने का सपना देखा गया वह कभी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तंत्र के संचालक बदले पर तंत्र नहीं। जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो अंग्रेजों की बात करनी पड़ती है पर अगर स्थापना दिवस की बात की जाये तो इस बात को भुलाया जा सकता है कि उनके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था। पिछले दिनों अखबारों में छपा था कि ब्रिटेन में भी सरकारी दफ्तर लालफीताशाही और कागजबाजी के शिकार हैं। वहां भी काम कम होता है। यानि हमारे यहां उनके द्वारा यहां स्थापित तंत्र ही काम रहा है जिसमें कागजों में लिखा पढ़कर फैसला किया जाता है या छोटे से छोटे काम पर चार लोग बैठकार लंबे समय तक विचार कर उसे करने का निर्णय करते हैं। वैसे तो लगता था कि अंग्रेजों ने केवल यहां ही साहब और गुलाम की व्यवस्था रखी पर दरअसल यह तो उनके यहां भी यही तंत्र काम कर रहा है। वहां भी कोई सभी साहब थोड़े ही हैं। वहां भी आम आदमी है और सभी लार्ड नहीं है। भारत से गये कुछ लोग भी वहां लार्ड की उपाधि से नवाजे गये हैं। मतलब यह कि भारतीय भी लार्ड हो सकते हैं यह अब पता चला है। ऐसे में ख्वामख्वाह में अंग्रेजों को महत्व देना। इससे तो अच्छा है कि इसे स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता तो अच्छा था।
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अपने को बैचेन कर शान्ति ढूँढने जाते-हिन्दी शायरी


चलने को ताज महल भी चल जाता है
हिलने को कुतुबमीनार भी हिल जाता है
चांद लाकर यहां भेंट किया जाता है
तारा तोड़ कर जमीन पर सजाया जाता है
बेचने वाला सौदागर होना चाहिए
ख्वाब और भ्रम बेचना यहां आसान है
अपढ़ क्या पढ़ालिखा भी खरीददार बन जाता है

सच से परे ज्ञान पाकर
अक्ल से कौन काम कर पायेगा
जिनके पास ज्ञान है
वह कभी क्यों ख्वाब या भ्रम के बाजार जायेगा
सुख-सुविधा की दौड़ में
इनाम के रूप में चाहते लोग आराम
दिल में बैचेनी और ख्वाहिशों का बोझ ढोते हुए
गुजारते है सुबह और शाम
अंधेरे में जाते रौशनी की तलाश में
रहते है सौदागरों से वफा की आस में
बदन और मन को कर देती है जो राख
उसी आग के पास चैन की तलाश में जाते हैं
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योगासन के लिये समय तो निकालना ही होगा-आलेख


इस बात को कई लोग मानने लगे है कि योगासन, प्राणायाम और ध्यान से तन,मन और विचारों के विकास शरीर से निकल जाते हैं पर सवाल यह है कि आखिर करे कौन? लोग कहते हैं कि समय नहीं मिलता पर जब शरीर पर किसी रोग का हमला होता है तब चिकित्सकों के अस्पताल के बाहर पंक्ति में खड़े होकर जब अपने तथा परिवार के सदस्यों का समय नष्ट होता है तब समय कहां से आता है?

सच तो यह है लोग अपनी देह के साथ इतना खिलवाड़ करते हैं जैसे कि एक ही दिन में पूरे जीवन का सुख प्राप्त कर लेंगे। कई लोग तो ऐसे हैं जो रात को दो तीन बजे सोते हैं और सुबह आठ नौं बजे उठते हैं। फिर कहते हैं कि नींद पूरी नहीं हुई। कहो तो कहते हैं कि ‘क्या करें अपने काम से घर लौटते हैं तो परिवार के सदस्यों से बातचीत करते हुए ही पूरा समय निकल जाता है। बातें क्या होती हैं? यह सभी जानते हैं। सुबह उठने में आलस आना स्वाभाविक है। देर से उठना और रात के समय ही तमाम तरह की दुनियावी बातों में अपना समय और ऊर्जा व्यर्थ कर देते हैं जो कि रोग और विकारों को बढ़ाता है।

समय नहीं मिलता-यह कहने वाले जानते ही नहीं कि वह अपना कितना समय व्यर्थ गुजारते हैं। असल में अब लोगों के पास धन अधिक मात्रा में आया गया है और उसके स्त्रोत भी अधिक पवित्र नहीं है और यह धन जिसे माया भी कहते हैं कि आदमी को बैचेन किए देते हैं और वह अपने मन में छिपे पापों को अपनी स्मृति से हटाने के लिये ही ऐसे उपक्रम करता है। वह परिवार के सदस्यों के साथ अधिक समय रात तक बात करते हुए उनको बताता है कि किस तरह उसने अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त की हैं। प्रतिदिन एक ही कहानी। घर पर नहीं तो बाहर मित्रों के साथ भी वह इसी तरह समय बिताता है।

जब देह रूपी घड़ा विकारों से भर जाता है और वह बाहर फैलने लगता है तब आदमी पेड़ के पत्ते की तरह कांपता हुआ अपने लिये दया याचना करता है और ऐसे में चिकित्सक ही उसका सहारा होता है और जिन परिवार के सदस्यों या मित्रों के साथ उसने अपना समय नष्ट किया होता है वह उसका हालचाल पूछने आते हैं-उनका आना भी फिर उसी तरह के तनाव को जन्म देता है जिस तरह के पहले झेले होते हैं।

योगासन एक नितांत एकांत साधना है और किसी गुरु से सीखकर अकेले मेें ही करना चाहिए। जरूरत पड़े तो अपनी पत्नी और बच्चों को भी सिखायें पर करना तो एकांत में ही चाहिए। कई जगह योगसाधना के समय ही दुनियावी बातों की चर्चा होती है और प्राणायाम और ध्यान पर समय नगण्य कर देते हैं। इससे लाभ कम हो जाता है।
मस्तिष्क शरीर का केंद्र बिंदु है और जब तक वह स्वस्थ नहीं है तब तक कोई भी आदमी अपने जीवन में प्रसन्न नहीं रह सकता। उसका इलाज तो एकाग्रता पूर्र्वक किया गया ध्यान है औरजब तक उसमें पूर्णता नहीं होगी आदमी संपूर्णता के साथ नहीं स्वस्थ जीवन बिता पायेगा। शेष अगले अंंक में
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सच को छिपाना कठिन-हिंदी शायरी


सत्य से जितनी दूर जाओगे
भ्रम को उतना ही करीब पाओगे
खवाब भले ही हकीकत होने लगें
सपने चाहे सामने चमकने लगें
उम्मीदें भी आसमान में उड़ने लगें
पर तुम अपने पाँव हमेशा
जमीन पर ही रख पाओगे

झूठ को सच साबित करने के लिए
हजार बहानों की बैसाखियों की
जरूरत होती है
सच का कोई श्रृंगार नहीं होता
कटु होते हुए भी
उसकी संगत में सुखद अनुभूति होती हैं
कब तक उससे आंखें छिपाओगे
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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रहीम के दोहेःईश्वर का वर्णन कोई नहीं कर सकता


रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं
जो जानत सो कहत नहिं, कहत त जानत नाहिं

कविवर रहीम कहते हैं कि परमात्मा का वर्णन करना कठिन है। उसका स्वरूप अगम्य है और कहना सुनना कठिन है जो जानते हैं वह कहते नहीं हैं जो कहते हैं वह जानते नहीं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सच तो यह है कि परमात्मा के स्वरूप कोई समझ नहीं सकता । उसकी व्याख्या हर कोई अपने अनुसार हर कोई करता है पर वास्तविकता का वर्णन करना कठिन है। अनेक लोग अपने अनुसार भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते है। पर सच तो यह है कि उनके स्वरूप का वर्णन कहना और सुनना कठिन है। उनको तो केवल भक्ति से ही धारण किया जा सकता है। परमात्मा का चरित्र वर्णनातीत है और सच्चे भक्त इस बात को जानते हैं पर कहते नहीं है और जो कहते हैं वह जानते नहीं है। अनेक लोग परमात्मा के अनेक स्वरूपों में से हरेक के जीवन चरित्र पर व्याख्या करते हुए अपना ज्ञान बघारते हैं पर सच तो यह है कि यह उनका व्यवसाय है और वह उसके बारे में कुछ नहीं जानते हैं। उनके वास्तविक स्वरूप को सच्चे भक्त ही जानते हैं पर वह उसका बखान कर अपने अहंकार का प्रदर्शन नहीं करते। अनेक लोग तमाम तरह की खोज का दावा करते हैं तो कुछ लोग कहीं एकांत में तपस्या कर सिद्धि प्राप्त कर फिर समाज में अपना अध्यात्मिक सम्राज्य कायम करने के लिये जुट जाते हैं। ऐसे ढोंगी लोग परमात्मा के स्वरूप का उतना ही बखान करते है जितने से उनका हित और आय का साधन बनता हो।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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प्यार बिकता हैं यहां-हिंदी शायरी



जब भी हम ढूढ़ते हैं अपने लिए प्यार
पर मिलती है सब जगह से दुत्कार
खुद करो चाहे किसी से भी तुम
मांगो न किसी से इसका उपहार
लोग नहीं निकल पाते अपने दिल से
खरीदा और बिकता पैसे से यहाँ प्यार
भाषा में बहुत होते हैं सुन्दर शब्द
पर बोलने में सब लोग हैं लाचार
अपनों में कितना भी तलाशो नहीं मिलता
गैरों भी नहीं मिल सकता जल्दी प्यार
शब्द में होती ढेर सारी शक्ति
पर पैसे से ही लोग देते-लेते प्यार
बेहतर है निकल पड़े अनजाने सफर पर
शायद कहीं मिल जाये प्यार
अपनों की भीड़ में रहकर ऊबने से अच्छा है
अनजाने लोगों के बीच ढूँढें सच्चा प्यार
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