संत कबीर वाणी:मन का अहंकार नहीं छूट पाता


माया तजो तो क्या भया मान तजा न जाय
मन बडे मुनिवर गले, मान सभी को खाम

यदि माया मोह का किसी साधक ने अपने आत्मबल से त्याग भी कर दिया, तो भी व्यर्थ है क्योंकि वह अभिमान का त्याग नहीं हो पाता. इसके विपरीत यह अहंकार हो जाता है कि हमने अहंकार का त्याग कर दिया.

मोटी माया सब तजैं, झीनी तजी न जाय
पीर पैगंबर, औलिया, झीनी सबको खाय

स्थूल माया जो दिखती हैं उसका त्याग तो किया जा सकता हैं पर जो सूक्ष्म माया यानी जो मन में अहं का भाव है वह कभी ख़त्म नहीं होता और कई ऐसे लोग जो सिद्ध होने का दावा करते हैं वह भी इससे नहीं बच पाते

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हिन्दी के ठेकेदार- हास्य-व्यंग्य कविता


अंतर्जाल पर एकछत्र राज्य की
कोशिश ने कुछ लोगों को अंधा बना दिया
अपने दोस्त लेखकों की भीड़ जुटाकर
सम्मान की एक दुकान को सजा दिया

एक लेखकनुमा ब्लोगर जो
लिख नहीं पाता था कविता
पसंद भी नहीं था पढ़ना
चुन लाया कहीं से तीन सर्वश्रेष्ठ
और अपना फैसला सुना दिया
कवियों के ब्लोग दूर ही रखे गए
तकनीकी वाले जरूरी थे सो पढे गए
लो मैंने अपना फैसला सुना दिया

मच गया शोर
बरसी कहीं से हास्य कवितायेँ
उसके इस काम पर
आ गया वह बचाव पर
देने लगा पुराने वाद और नारे पर बयान
कर रहा था मैं भी वर्ग में बांटकर
ब्लोग लेखकों का सम्मान
पर लोगों ने अनसुना कर दिया

अब आया एक नेतानुमा ब्लोगर
कर लाया कहीं से बीस का जुगाड़
पुराने दोस्तों को सजाया थाली में
जैसे कोई पकवान
इनके लायक ही है सर्वश्रेष्ठ का सम्मान
लोकतंत्र है सो करो मतदान
मैंने तो बीस का थाल सजा दिया

कहैं दीपक बापू
अभी शुरू भी नहीं हुई
इंटरनेट पर हिन्दी के आने की प्रक्रिया
पहुंच गए हैं धंधेबाज पहले ही
और अपना दुकान सजा दिया
हैरान है लोग
जो हिन्दी की ठेकेदार
हर जगह हैं
सन्देश देते हैं
यहाँ हिन्दी का अपमान हुआ है इस पर लिखो
जमकर विरोध करते दिखो
तुम लिखो जैसा हमने सन्देश दिया

क्या ब्लोग तुम्हारी जागीर है
जो थाल सजाये घूम रहे हो
अपनी वीरों को ही क्यों नहीं झोंकते
तुम्हारी फौज में दम नहीं है
जो हिन्दी का अपमान नहीं रोकते
फिर काहे उनको सम्मान दिया
ग़लतफ़हमी मत पालो
नारों और वाद पर हम नहीं भड़कते
लिखते हैं अपने ख्याल खुद
तुम तो पूजते हो
अपने महल सजाते हो दूसरों के सम्मान से
हिन्दी की दुर्दशा पर रोने वालों
लिखने वालों तो जीते हैं अपमान से
फिर भी दमदार लिखते हैं
वह और होंगे जो तुम्हारे सम्मान पर बिकते हैं
हिन्दी लिखने वाले तो दिल से लिखते हैं
उन्हें परवाह नहीं सम्मान तुमने
दिया कि नहीं दिया
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सपने सिर्फ सपने होते-हिन्दी साहित्य कविता


सपने में जब खोये रह्ते
कभी पूरी होंगे यही सोचकर
बहुत कुछ सहते
जब होता है हकीकतों की तपिश से सामना
तब सबके जिस्म जलने लगते

पूरे भी हो जाएं तो भी
सपने वैसे ही नहीं लगते
जिन्हें पालते-पोसते हैं बडे चाव से दिल में
कभी भी वह सपने सच होकर भी
अपनी नहीं लगते
हकीकतों से कब तक मुहँ मोड़ सकता है कोई
पर सपने भी कब पीछा छोड़ते
कभी-कभी जिंदा रहने का बहाना बनते हैं

जब जला देती हैं हकीकतें बदन
तब सपने देखकर ही की जा सकती है तसल्ली
पर उन पर फ़िदा होकर रोना ठीक नहीं
सपने सिर्फ सपने होते हैं
सच हो जाएं तो अपने नसीब होते
नहीं तो पराये लगते
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सत्य से जितनी दूर जाओगे-हास्य कविता


सत्य से जितनी दूर जाओगे
भ्रम को उतना ही करीब पाओगे
खवाब भले ही हकीकत होने लगें
सपने चाहे सामने चमकने लगें
उम्मीदें भी आसमान में उड़ने लगें
पर तुम अपने पाँव हमेशा
जमीन से ऊपर नहीं उठा पाओगे

झूठ को सच साबित करने के लिए
हजार बहानों की बैसाखियों की
जरूरत होती है
सच का कोई श्रृंगार नहीं होता
कटु होते हुए भी
उसकी संगत में सुखद अनुभूति होती हैं
कब तक उससे आंखें छिपाओगे
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प्यार सच है
पर कभी दिखता नहीं है
जो दिख रहा है
वह केवल एक पल का सपना है
जिसमें होती है यह गलतफहमी कि
जो सामने वह अपना है
इस झूठ में बह गए कई लोग
अपनी हंसती-खेलती जिन्दगी
उनको चलता फिरता मुर्दा दिखता है
पराये को भी जबरदस्ती
पड़ता समझना अपना है
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नोट-यह पत्रिका-ब्लोग कहीं भी लिंक नहीं है और न ही इसे पूर्व अनुमति के लिंक किया जाये. इसको लिंक करने के लिए पहले भुगतान आवश्यक है. इसकी रचनाओं के पूर्व प्रकाशन के के लिए भी अनुमति लेना जरूरी है-दीपक भारतदीप

रहीम के दोहे:मांगने से सम्मान कम होता है


जानि अनीती जे करैं, जागत ही रह सोई।
ताहि सिखाई जगाईबो, उचित न होई ॥

अर्थ-समझ-बूझकर भी जो व्यक्ति अन्याय करता है वह तो जागते हुए भी सोता है, ऐसे व्यक्ति को जाग्रत रहने के शिक्षा देना भी उचित नहीं है।
कविवर रहीम का आशय यह कई जो लोग ऐसा करते हैं उनके मन में दुर्भावना होती है और वह अपने आपको सबसे श्रेष्ठ समझते हैं अत: उन्हें समझना कठिन है और उन्हें सुधारने का प्रयास करना भी व्यर्थ है।

मांगे घटत रहीम पद, कितौ करौ बढ़ि काम
तीन पैग बसुधा करो, तऊ बावनै नाम

यहाँ आशय यह है कि याचना कराने से पद कम हो जाता है चाहे कितना ही बड़ा कार्य करें। राजा बलि से तीन पग में संपूर्ण पृथ्वी मांगने के कारण भगवान् को बावन अंगुल का रूप धारण करना पडा।

संत कबीर वाणी:जैसा भोजन वैसा तन, जैसा पानी वैसी वाणी


आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक
कहैं कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक

संत कबीर जी का कहना है की गाली आते हुए एक होती है, परन्तु उसके प्रयुत्तर में जब दूसरा भी गाली देता है, तो वह एक की अनेक रूप होती जातीं हैं। अगर कोई गाली देता है तो उसे सह जाओ क्योंकि अगर पलट कर गाली दोगे तो झगडा बढ़ता जायेगा-और गाली पर गाली से उसकी संख्या बढ़ती जायेगी।

जैसा भोजन खाईये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी होय

संत कबीर कहते हैं जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है उसका जीवन वैसा ही बन जाता है। एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय
तीरथ व्रत जप तप नहिं, सतगुरु चरण समय संत कबीर कहते हैं की जो सबके भीतर रमा हुआ एक राम है, उसे जानकर दूसरों को भुला दो, अन्य सब भ्रम है। तीर्थ-व्रत-जप-तप आदि सब झंझटों से मुक्त हो जाओ और सद्गुरु-स्वामी के श्रीचरणों में ध्यान लगाए रखो। उनकी सेवा और भक्ति करो

रहीम के दोहे:प्रेम-पथ पर बुद्धिहीन होकर मत चलो


रहिमन मार्ग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव
जो डिगिहै तो फिर कहूं, नहिं धरने को पाँव

कविवर रहीम कहते हैं की प्रेम-पथ पर बुद्धिहीन होकर मत चलो। यदि प्रेम में कहीं पग डगमगा गए तो फिर पैर रखने को भी स्थान नहीं मिलेगा।

रहिमन मांगत बडेन की, लघुता होत अनूप
बलि मख मांगत को गए, धरि बावन को रूप

कविवर रहीम कहते हैं की महान पुरुषों की याचना का छोटा रूप भी अनुपम होता है। भगवान ने राजा बलि के यज्ञ में संपूर्ण पृथ्वी को मांगने हेतु केवल बावन अंगुल का स्वरूप धारण किया था।

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जिन्दगी ऐसे ही बीत जाती-कविता साहित्य


किसी की पीडा को दूर करने की कोशिश
जब हो जाती है नाकाम
बढ़ जाती है उसकी पीडा तो
हो जाते बदनाम
कमजोर दिल के लोगों के बीच
रहते हुए
किसी पर तरस खाने में डर लगता है
लोग दर्द के कम होने से अधिक
दूसरों को जख्म देकर खुश होने की
कोशिश कर चलाते हैं अपना काम
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समंदर की तरह उठती हैं
मन में उठतीं है लहरें
जब लौटती हैं वापस तो
इच्छाओं और आकांशाओं को
साथ लेकर छोड़ जाती हैं
आदमी ढोता है उनका बोझ
हर पल गुजारता है बैचैनी के साथ
जोड़ता रहता है हर पल सामान पर
फिर भी रहते उसके खाली हाथ
उसकी जिन्दगी ऐसे ही बीत जाती

कहीं नहीं लिखा जिन्दगी गुजारो
किसी गुलाम की तरह
पर आदमी अपनी उम्मीदों की ही
करता जिन्दगी भर गुलामी
आजादी की सोचते हुए
पूरी जिन्दगी गुलामी में बीत जाती

एक वर्ष हो गया ब्लोग पर लिखते हुए


आज ईसवी संवत २००७ समाप्त हो रहा है और कल से २००८ प्रारंभ हो रहा है। इस अवसर मैंने लोगों को औपचारिक रूप से बधाई देने का सिलसिला कब शुरू किया मुझे याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई अगर मुझे इस अवसर पर बधाई देता है तो उसे अवश्य देता हूँ पर अपनी तरफ से कभी पहल नहीं करता। वजह मुझे अजीब लगता है और आज भी जिन लोगों से मेरे संपर्क हैं वह उनमें बहुत कम ऐसे हैं जिनसे इस तरह की औपचारिकता पूरी करता हूँ।

वैसे आज मुझे एक वर्ष पूरा हो गया जो मैंने अपना ब्लोग बनाने के प्रयास शुरू किये थे। मुझे कुछ पता नहीं था कि क्या करना है? कोई तकनीकी जानकारी देने वाला नहीं था, और अभिव्यक्ति पत्रिका पर जाकर जब नारद पर देखता हो सोचता था कि कैसे इसे बनाया जाये। बहुत समय तक तो मैं यही समझता था कि अभिव्यक्ति वाले ही इस पर अपनी रचना रखते होंगे। मैंने उनको अपनी एक रचना “पेन मांगने में शर्म नहीं आती” भेजी और सोचा वह छाप देंगे। इधर अक्षरधाम से ब्लोग बनाने का प्रयास किया तो भी समझ में नहीं आया। वहाँ से होता वर्डप्रेस पर गया। फिर ब्लागस्पाट।कॉम पर आया। दोनों पर पहला ब्लोग एक ही दिन यानी ३१ दिसंबर २००६ को बनाया। और उस पर अपने कृतिदेव फॉण्ट में लिख कर रख दी। फिर पलट कर नहीं देखा। वर्डप्रेस पर अपना ब्लोग रेटिंग में न देखकर निराशा होती थी, फिर पता नहीं उसे कैसे हिन्दी में ले गया। तब थोडा चलता दिखा, पर काम से काम दो माह बाद।
नारद पर जाने के प्रयास सफल नहीं हो रहे थे सो अपनी अलख बैठकर जगह रहे थे। वहाँ की पोस्टें देखते रहते फिर वर्डप्रेस। पर भी उनको देखते। कोई परवाह नहीं थी पर रेटिंग में जब वह ऊंचे जातीं तो सोचता था कि आगे हम भी इस स्थिति में आयेंगे पर समय लगेगा।

४ अप्रैल २००७ पर नारद पर ब्लोग पंजीकृत हुआ तो फिर चल पड़े इस राह पर। पिछले एक वर्ष में मैंने बहुत कुछ परिवर्तन देखे हैं। अपने प्रदर्शन से संतुष्ट नहीं हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि मैं अपनी मूल स्वरूप में नहीं हूँ। मैंने बहुत कम हाथ से लिखकर यहाँ टाईप किया है अधिकतर सीधे ही इस पर लिखा है। अगर सादा हिन्दी फॉण्ट में लिखूं तो शायद प्रभावी हो सकता हूँ पर अभी उसकी सुविधा नहीं है इसलिए खुद को कामचलाऊ मानता हूँ। मैं आक्रामक लिखने वाला लेखक हूँ और इस पर लगता है कि अपनी पोस्ट टाल रहा हूँ। इतना जरूर है कि उसके कुछ फायदे भी हुए हैं। अगर कोई मुझसे कोई कहे कि हाथ से कविता लिखो तो मैं लिख नहीं पाऊंगा जितना मुझे इस पर आता है। खासतौर से हास्य कवितायेँ। अगर मुझसे सादा हिन्दी फॉण्ट में कहें तो नहीं लिखूंगा-जितना मजा मुझे इस पर आता है। जब मैं कंप्यूटर पर आता हूँ तो बस यही सोचता हूँ कि इस पर गद्य रचनाएं तो लिखने में बहुत समय लगता है और प्रभावी भी नहीं होतीं तो क्यों न हास्य कविता लिखी जाये।

बहरहाल ब्लोग पर आये आज एक वर्ष हो गया और अब मेरे लिए यह विश्लेषण करने का वक्त आ गया है कि कहाँ खडा हूँ। मेरी उपलब्धि अगर है तो वह यह मुझसे यहाँ बहुत अच्छे दोस्त मिले हैं और अब उनका प्यार मुझसे लिखवा रहा है। मेरे सामने श्रीश शर्मा और अफलातून जी के नववर्ष के बधाई सन्देश रखे हुए हैं और मुझे अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है पर इन दोनों महानुभावों ने किस तरह मुझे प्रेरित किया यह बताना जरूरी है। श्रीश जी का फोटों मैंने अभिव्यक्ति पर कंप्यूटर पर बैठे देखा था और उसमें ब्लोग बनाने से संबंधित जानकारी थी और मैंने उसे पढा था पर मेरे समझ में कुछ नहीं आया पर मैंने तय किया कि इस शख्स को चुनौती देनी है। मैं चल पड़ा जब इस राह पर तो ऐसा लगा रहा था कि कुछ जम नहीं रहा है। उसके बाद अफलातून जी की एक पोस्ट देखी उनकी बातों से से सहमत नहीं हुआ और जोरदार पोस्ट लिख डाली। उसके बाद अफलातून जी की ही एक पोस्ट ने हास्य कविता लिखने को प्रेरित किया। उनकी पोस्टों से तीन चार बार प्रेरित होकर हास्य कविता लिखी-और इस तरह हास्य कविता लिखना शुरू किया तो वह एक आदत बन गया।उन पर समीक्षा लिखने का कई बार मन आता है पर लिख नहीं पाता। उसका शीर्षक लिखने का दिमाग में रहता है ”लिखते हैं संजीदा नाम अफलातून’। बहरहाल अब सोचता हूँ कि अब कुछ स्वयं भी संजीदा होकर लिखें।