खुल गयी प्यार की पोल-हिन्दी हास्य कविता(khul gayi pyar ki pol-hindi haysa kavita)


आशिक ने कहा माशुका से
‘‘मुझसे पहले भी बहुत से आशिकों ने
अपनी माशुकाओं के चेहरे की तुलना
चांद से की होगी,
मगर वह सब झूठे थे
सच मैं बोल रहा हूं
तुम्हारा चेहरा वाकई चांद की तरह है खूबसूरत और गोल।’’

सुनकर माशुका बोली
‘‘आ गये अपनी औकात पर
जो मेरी झूठी प्रशंसा कर डाली,
यकीनन तुम्हारी नीयत भी है काली,
चांद को न आंखें हैं न नाक
न उसके सिर पर हैं बाल
सूरज से लेकर उधार की रौशनी चमकता है
बिछाता है अपनी सुंदरता का बस यूं ही जाल,
पुराने ज़माने के आशिक तो
उसकी असलियत से थे अनजान,
इसलिये देते थे अपनी लंबी तान,
मगर तुम तो नये ज़माने के आशिक हो
अक्षरज्ञान के भी मालिक हो,
फिर क्यूं बजाया यह झूठी प्रशंसा का ढोल,
अब अपना मुंह न दिखाना
खुल गयी तुम्हारी पोल।’’
———–

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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1 Comment

  1. गुजराती के मध्ययुगीन कवि दयाराम ने लिखा है:
    (राधा रूठ गई है और अपनी सहेली से कहती है)
    हवे सखी नहीं बोलुं, नहीं बोलुं, नहीं बोलुं रे!
    कदापि नंदकुंवरनी संगे!
    मने शशिवदनी कहीने खिजवे!
    (अब सखी नहीं बोलूँगी, नहीं बोलूँगी, नहीं बोलूँगी
    कदापि नंदकुमार के संग!
    मुझे वह शशिवदनी कह के चिड़ाता है!)
    चंद्रबिंबमां लांछन छे वळी राहु गळे खटमासे
    पक्षे वधे अने पक्षे घटे कळा
    नित्ये न पूर्ण प्रकाशे रे!
    (चंद्रबिंब में लांछन है और उसे राहु हर छ: मास में निगल जाता है
    हर पक्ष में उसकी कला घटती-बढ़ती है
    कभी भी पूर्णत: प्रकाशित नहीं होता!)
    हवे सखी नहीं बोलुं, नहीं बोलुं, नहीं बोलुं रे!
    कदापि नंदकुंवरनी संगे!
    मने शशिवदनी कहीने खिजवे!

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