समाज की इमारत में आदमी पत्थर की तरह लग जाते-कविता साहित्य


हर पल लोगों के सामने
अपना कद बढाने की कोशिश
हर बार समाज में
सम्मान पाने की कोशिश
आदमी को बांधे रहती है
ऐसे बंधनों में जो उसे लाचार बनाते

ऐसे कायदों पर चलने की कोशिश जो
सर्वशक्तिमान के बनाए बताये जाते
कई किताबों के झुंड में से
छांटकर लोगों को सुनाये जाते
झूठ भी सच के तरह बताते

सब जानते हैं कि भ्रम रचे गए
आदमी को पालतू बनाने के लिए
उड़ न सके कभी आजाद पंछी की तरह
फिर भी कोई नहीं चाहता
अपने बनाए रास्ते पर चलना
क्योंकि जहाँ तकलीफ हो वहाँ चिल्लाते
जहाँ फायदा हो वहाँ हाथ फैलाकर खडे हो जाते
समाज कोई इमारत नहीं है
पर आदमी इसमें पत्थर की तरह लग जाते

आदमी अकेला आया है
और अकेला ही जाता भी
पर ताउम्र उठाता है ऐसे भ्रमों का बोझ
जो कभी सच होते नहीं दिख पाते
लोग पंछियों की तरह उड़ने की चाहत लिए
इस दुनिया से विदा हो जाते

—————————–

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कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

क्यों नहीं देते सुखद अहसास

हाथ के स्पर्श से किसी के बदन को
तसल्ली मिलती है तो
उसे छूकर क्यों नहीं देते सुखद अहसास
चंद अल्फाजों से किसी के दिल को
हमदर्दी मिल जाती है
तो अपनी जुबान से बोलकर
क्यों नहीं देते किसी को सुखद अहसास
अपने देखने से किसी को
अच्छा लगता है
तो क्यों नहीं अपनी नजरें इनायत कर
किसी को क्यों नहीं देते अहसास
क्या डरते हैं
अपने से लड़ते हैं
सोचते हैं
किसी को सुखी देख
परेशान होगा मन
ए जिन्दगी को आकाश वाले का तोहफा
माननी वालों
दुख से सजा है यह उसका तोहफा
इसे मिलजुलकर सुख बना दो
इसलिए अक्ल दी है
बांटकर एक दूसरे का दुख-दर्द
क्यों नहीं देते एक दूसरे को सुख का अहसास

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कहने वाले का कहना ही है व्यापार-व्यंग्य कविता


एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसान सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

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जिस घर के अंदर झांका वहीं जंग का मैदान पाता

अपनों में गैर
और गैरों में अजनबी हो जाना
कितना सताता है
जब आदमी अपने को अकेला पाता है

भरी दोपहर में
शरीर से बहता पसीना
चलते जा रहे पांव
चंद पलों के मन के सुख की खातिर
जिस घर के अंदर झांका
वहीं जंग का मैदान पाता है

मांगने पर थोड़ा प्यार
इतराने लगते हैं लोग
देते हैं नसीहतें तमाम
पर चंद प्यार के लफ्ज बोलकर
हमदर्दी जताने का ख्याल
किसी को नहीं आता है

ऊपर से बरसाता आग सूरज
नीचे जलती धरती
नंगे पांव चलता आदमी
ढूंढता है सभी जगह मन की शीतलता
पर भी नजर डाले
लोगों का मन छल से भरा
स्वयं को ही धोखा देता नजर आता है

कुछ पल प्यार की चाह
जलते पांव के लिये शीतलता की राह
मांग कर अपने आपको
शर्मिंदा करने से तो
जलती आग मे चलते रहना ही भाता है
भला आदमी भी कभी आदमी को
सुख के पल दे पाता है
…………………………….
उस महफिल में चंद पल सुकून से
बिताने की खातिर रखा था कदम
हमें मालुम नहीं था दिलजलों ने
अपने लिये उसे सजाया हैं
उनके मसले देखकर ख्याल आया कि
इससे तो घर ही अच्छे थे हम
पहले भी कम नहीं थे साथ हमारे
वहां से बेआबरू होने का लेकर लौटे गम
………………………………..

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श्रमिक पुत्र कभी अभिनेता नहीं बनता-हास्य कविता-व्यंग्य कविता



आज मजदूर दिवस है
आओ सब मिलकर नारे लगायें
जो गरीबों और मजदूरों को भायें
जन कल्याण और न्याय के लिये
जोर से आवाज उठायें
फिर भूल चाहे भूल जायें
एक ही दिन तो सब करना है
फिर कौन पूछेगा कोई कि
हम क्या कर रहे हैं
मजदूर दिवस कोई रोज नहीं आता
जो कोई फिक्र करें कि
उसके बाद भी कुछ करना होगा
फिर तो पूर वर्ष
न नारे होंगे न कोई सभायें
फिर क्यों घबड़ायें
…………………………..

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पत्थर तोडने वाले मजदूर की बेटी से
खेलते हुए दूसरे मजदूर के बेटे ने कहा
‘‘मै तो बड़ा होकर हीरो बनूंगा’
उसने कहा
‘‘अब ठहर गया है जमाना
समय बदलता है यह सत्य है
पर कितना भी बदले
मजदूर का बेटा हीरो नहीं बनता है
सब जगह यही है हाल
यहां आदमी अब मां के पेट से बनता है
मजदूर का बेटा चाहे कितना भी कर ले
वह समाज में हीरो नहीं बनता है
………………………….

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जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी उड़ा ले जाते हैं-हिन्दी शायरी


मोहब्बत में साथ चलते हुए
सफर हो जाते आसान
नहीं होता पांव में पड़े
छालों के दर्द का भान
पर समय भी होता है बलवान
दिल के मचे तूफानों का
कौन पता लगा सकता है
जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी
उड़ा ले जाते हैं
खाली पड़ी जगह पर जवाब नहीं होते
जो सवालों को दिये जायें
वहां रह जाते हैं बस जख्मों के निशान
……………………………
जब तक प्यार नहीं था
उनसे हम अनजान थे
जो किया तो जाना
वह कई दर्द साथ लेकर आये
जो अब हमारी बने पहचान थे

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रिश्तों के कभी नाम नहीं बदलते-हिन्दी ग़ज़ल

दुनियां में रिश्तों के तो बदलते नहीं कभी नाम
ठहराव का समय आता है जब, हो जाते अनाम
कुछ दिल में बसते हैं, पर कभी जुबां पर नहीं आते
उनके गीत गाते हैं, जिनसे निकलता है अपना काम
जो प्यार के होते हैं, उनको कभी गाकर नहीं सुनाते
ख्यालों मे घूमते रहते हैं, वह तो हमेशा सुबह शाम
रूह के रिश्ते हैं, वह भला लफ्जों में कब बयां होते
घी के ‘दीपक’ जलाकर, दिखाने का नहीं होता काम

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भृतहरि शतकःसज्जन की मित्रता पूर्वाद्ध की छाया के समान


दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर
इसका आशय यह है कि कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी तो साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।

आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्

जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्ध में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सज्जन व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्ध में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है।

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अनुभूति पत्रिका’ पर लिखा गया है। इस पर कोई विज्ञापन नहीं है। न ही यह किसी वेबसाइट पर प्रकाशन के लिये इसकी अनुमति दी गयी है।
इसके अन्य वेब पृष्ट हैं
1. शब्दलेख सारथी
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3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

देखें यह चालाकी है या चोरी या कोई प्रयोग-आलेख


दीपक बापू कहिन पर अपना पाठ रखा और उस ब्लाग पर गया -जहां मेरे पाठ की कापी मेरे से पूछे ही रखी जा रही है-तो क्या देखता हूं कि पहले वाला पाठ उसने नहीं रखा पर आज वाला पाठ वहां पर आ गया। इतना तो समझ में आ गया है कि मेरे ब्लाग सीधे उस वेबसाइट/ब्लाग पर कैसे पहुंच रहे हैं। अब केवल यह जानना बाकी है कि वह इस देश का हिंदी ब्लागर है जो नये प्रयोग कर रहा है या कोई अंग्रेजी का ब्लागर है। इसकी संभावना भी हो सकती है कि वर्डप्रेस से जुड़ा कोई वह ब्लाग भी हो कि जो विभिन्न श्रेणियों के ब्लाग को अलग अलग करने की दृष्टि से बनाया गया हो। वह कोई ऐसा अंग्रेजी ब्लागर भी हो सकता है जो केवल साफ्टवेयर के सहारे अपना ब्लाग चला रहा हो और इस देश का भी।

इन संभावनाओं की तलाश करते हुए यह पोस्ट मैं लिख रहा हूं। शायद मैं ऐसा नहीं करता अगर दीपक बापू कहिन पर एक नया पाठ रखने चिट्ठाकार समूह को ईमेल करने के तत्काल उसके ब्लाग पर मुझे अंग्रेजी के बहुत सारे नये पाठ नहीं दिखाई देते। क्या वह उन संदेशों को कहीं पढ़ रहा था। मैंने उससे कहा था कि दोपहर तक वह मेरे पाठ हटा दे और उसने ऐसा करने की बजाय बहुत सारे अंग्रेजी के पाठ ही डाल दिये और गुमराह कर रहा है कि यह तो किसी अंग्रेज का ब्लाग है। इतना तय है कि अगर वह भारत के हिंदी ब्लाग जगत का सदस्य है तो बहुत पुराना है क्योंकि उसे इन चर्चाओं के बारे में पता चल जाता है। अगर वह अंग्रेज ब्लागर है तो फिर उसने मेरे तीन ब्लाग की कापी करने के बाद फिर किसी अन्य ब्लाग के पाठ को वहां क्यों नहीं रखा था। मेरे पाठ लगतार दो दिन तक क्यों दिखाई दे रहे थे?
क्या इस बीच में वहां कोई ऐसा पाठ नहीं आया था। बहरहाल उसने मेरे पाठ को खींचने वाले जो तार वहां लगा रखे हैं उनको हटाते हुए यह पोस्ट मैं लिख रहा हूं। देखते हैं अगर उसके बाद भी यह ब्लाग वहां पहुंचता है तो फिर आगे मामला बढ़ायेंगे और नहीं तो उस ब्लाग पर निगाह रखना होगी कहीं वह कोई और कारिस्तानी तो नहीं कर रहा है। वैसे यह अंतर्जाल है पता नहीं पड़ता है कि हमें कोई धोखा दे रहा है या स्वयं ही खा रहे हैं। मैं इधर उधर जब सफल नहीं होता तो अपने लिखने में ही प्रयोग करता हूं।


दीपक भारतदीप
लेखक एवं संपादक

संगीत का लेते नाम, मचाते कोहराम-हास्य कविता



गीत और संगीत से
दिल मिल जाते हैं पर
अब तो उसकी परख के लिये
प्रतियोगितायें को अब वह
महायुद्ध कहकर जमकर प्रचार कराते
वाद्ययंत्र हथियारों की तरह सजाये जाते
जिन सुरों से खिलना चाहिये मन
उससे हमले कराये जाते
मद्धिम संगीत और गीत से
तन्मय होने की चाहत है जिनके ख्याल में
उन पर शोर के बादल बरसाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘अब गीत और संगीत
में लयताल कहां ढूंढे
बाजार में तो ताल ठोंककर बजाये जाते
महफिलें तो बस नाम है
श्रोता तो वहां भाड़े के सैनिक की
तरह सजाये जाते
जो हर लय पर तालियों का शोर मचाते
देखने वाले भी कान बंद कर
आंखों से देखने की बजाय
उससे लेते हैं सुनने का काम
गायकों को सैनिक की तरह लड़ते देख
फिल्म का आनंद उठाये जाते
किसे समझायें कि
भक्ति हो या संगीत
एकांत में ही देते हैं आनंद
शोर में तो अपने लिये ही
जुटाते हैं तनाव
जिनसे बचने के लिये संगीत का जन्म हुआ
क्या उठाओगे गीत और संगीत का आंनद
जैसे हम उठाते
लगाकर रेडियो पर विविध भारती पर
अपनी अंतर्जाल की पत्रिका पर लिखते जाते
यारों, संगीत सुनने की शय है देखने की नहीं
गीत वह जिसके शब्द दिल को भाते हैं
सुरों के महायुद्ध में जीत हार होते ही
सब कुछ खत्म हो जाता है
पर तन्हाई में लेते जब आनंद तब
वह दिल में बस जाते
बाजार में दिल के मजे नहीं बिकते
अकेले में ही उसके सुर पैदा किये जाते

(दीपक भारतदीप, लेखक संपादक)

……………………………..

भृतहरि शतकःमनुष्य इच्छा और आशा के कारण नाचता है


खलालापाः सोढा कथमपि तदाराश्र्चनपरैर्निगुह्मान्तर्वाष्पं हस्तिमपि शून्येन मनसा
कृतश्चियत्तस्तम्भः प्रहसितश्रिचयामञ्जलिरपि त्वमाशे मोघाशे किममपरमतो नर्तयसि माम्

हिंदी में भावार्थ-दुष्टजनों की सेवा करते हुए उनके ताने और व्यंग्य सुने। दुख के कारण हृदय में उमड्ने वाले आंसुओं को रोक और उनका मन रखने के लिए उनक सामने हंसने का दिखावा किया। मन को समझाकर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके समक्ष हाथ भी जोड़े। हे आशा क्या अभी और नचायेगीं।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-यह गंभीर प्रसंग हैं। हम अपने जीवन के दूसरों के सामने हंसने का प्रयास करते हैं, कई लोगों के व्यंग्य बाण और आलोचना को झेलते हैं। कई बार ऐसा अवसर आता है कि आंखों से आंसु निकलने वाले होते हैं पर हम उन्हें रोक लेते हैं। दुनियां में सबका यही हाल है। आजकल तो सारी माया ही ऐसे लोगों के हाथों में जो जिनके कर्म खोटे हैं। उनके यहां कई लोग सेवा में रहते हैं। वह उनके इशारे पर हंसते और चिल्लाते हैं। दूसरों पर अपने मालिक की तरफ से ताने और फब्तियां कसते हैं। मगर सच यही है कि वह भी वक्त के मारें हैं। हर बार सोचते हैं कि यह हमारा काम हो जाये तो मुक्ति हो जायेगी। ऐसा होता नहीं है। एक कामना पूरी होती है तो दूसरी शुरू हो जाती है। ऐसे में आदमी सोचता ही रह जाता है कि हम उनका साथ छोड़ें जिनके साथ रहने में मन को रंज होता है।

संत कबीर वाणी:विषयी लोग दीप और संत हीरे समान होते हैं



दीपक सुन्दर देखि करि, जरि जरि मरे पतंग
बड़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरे अंग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जलते हुए दीपक की रौशनी को देखकर पतंगे जल-जल कर मर जाते हैं। उसी प्रकार जब मनुष्य के मन में विषयों की लहर हमेशा उठती है और वह उसमें बहता रहता है-उसे अपने जीवन मरण का विचार ही नहीं रहता।

सहकामी दीपक दसा, सौंखें तेल निवास
कबीर हीरा संत जन, सहजै सदा प्रकाश

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जिसमें कामवासना अधिक होती है उसकी दशा दीपक के समान होती है जो जलते हुए अपने तेल को भी चूस लेता है जबकि वह उसकी ऊजा का स्त्रोत होता है और उसके समाप्त होने पर दीपक स्वयं भी बुझ जाता है। इसके विपरीत संत लोग हीरे के समान होते हैं जिनकी तपस्या का प्रकाश चारों और फैलता है।

रहीम के दोहे:देता तो परमात्मा है किसी अन्य का भ्रम मत पालो


देनदार कोउ और है, भेजत सा दिन रैन
लोग भरम पै धरे, वाते नीचे नैन

कविवर रहीम कहते हैं कि इस जीवन में कुछ देने वाला तो परमात्मा है पर लोग अपने द्वारा लेने-देने की भ्रम पाल लेते है। इसी कारण हमारे नेत्र झुके रहते है।

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि

कविवर रहीम कहते हैं कि जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग पहचानना भी भूल जाते है। ऐसे समय में यदि अपने सहृदय लोगों से सम्मान ओर प्रेम मिलता रहे तो फिर धन की हानि की पीड़ा कम हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में कुछ लोग तो गरीब है और कुछ अमीर, पर मनुष्य का स्वभाव है कि वह माया के इस भ्रम का शिकार हो जाता है और उसे लगता है कि जो अमीर है वह कुछ अधिक योग्य है और जो गरीब है वह अयोग्य। आजकल तो यह भ्रम और बढ़ गया है लोग चर्चित और धनवान लोगों को देवता समझ लेते हैं जैसे कि उनमें इंसानों जैसे गुणों के साथ कोई दोष हो ही नहीं। चारों तरफ भ्रम का साम्राज्य है। इसलिये लोग छलकपट और अपराध करके अधिक से अधिक धन कमा कर समाज में प्रतिष्ठित होना चाहते है।

समझदार और ज्ञानी लोग कभी भी भ्रम का शिकार नहीं होते उनको पता होता है कि यह सब माया का खेल है। इसलिये वह अमीर गरीब का भेद नहीं करते। ऐसे सहृदय सज्जन ऐसे किसी अमीर मित्र या रिश्तेदार का साथ नहीं छोड़ते तो उस व्यक्ति को अपने आप को धनी ही समझना चाहिए। माया तो आनी जानी है पर अगर कोई अपने लोग फिर भी सम्मान देते हैं तो समझ लो कुछ नहीं गया।

भृतहरि शतकःसंतोष से अमीर-गरीब समान हो जाते हैं


वयमहि परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दृकूलैस्सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवतु यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्र

भावार्थ-इस भौतिक संसार में कोई मनुष्य वृक्ष की छाल के वस्त्र पहनकर ही संतुष्ट होता है तो किसी का मन रेशमी सूत के बने वस्त्र धारण कर ही प्रसन्न होता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। धनी और निर्धन के संतोष में कोई अंतर नही। जिसकी बहुत बड़ी इच्छाएं वह दरिद्र होते हुए भी मन के संतुष्ट हो जाता है तो भला किसे धनी कहा जाये और किसे दरिद्र।

संक्षिप्त व्याख्या-यहां कोई धनी अपने धन पर इतराता है तो कोई अपनी निर्धनता को लेकर त्रस्त रहता है। अपनी देह में विचरने वाले मन की ओर कोई दृष्टिपात नहीं करता। अगर मन में संतोष है तो फिर किस बात की चिंता रह जाती है। कुछ लोग ऐसे है जो अपने पास भौतिक साधनों के अभाव की परवाह न करते हुए भक्ति भाव से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वह परमात्मा द्वारा दिये गये धन से संतुष्ट हो जाते हैं पर कई धनिक हैं जो धन क पीछे सदैव पड़े रहते हैं पर मन की शांति उनसे कोसों दूर रहती है। इतना ही नहीं अपनी कम आवश्यकताओं के कारण संतुष्ट लोगों के मन की शांति उनको नहीं सुहाती और तब वह सोचते हैं कि काश! हमें मन की शांति मिल जाये।

आज का भौतिक संसार तो आपने देखा होगा मनुष्य की अशांति पर ही अधिक चल रहा है। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन आता है जिसमें एक अभिनेता कहता है-‘डोंट बी संतुष्ट‘। मतलब यह कि आज के युग के व्यवसायी अपने हित के लिऐ ऐसे प्रयास करते हैं कि आम आदमी के मन में असंतोष भड़काकर उन्हें माया के ऐसे चक्कर में फंसाया जहां से वह निकल नहीं सके।

अगर आदमी के मन में संतोष है इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह धनी है या निर्धन। हमारा काम कम आवश्यकता से चल जाता है तो उससे संतुष्ट हो जाना चाहिए। संतोष ही सबसे बड़ा धन है।