भर्तृहरि नीति शतक-आम आदमी का स्वयं पर नियंत्रण सहजता से नहीं होता


      आजकल हमारे देश में अनेक कथित बाबाओं के यौन अपराधों पर प्रचार माध्यम सनसनी खबरें पर प्रस्तुत कर अपना जनहित धर्म निभाते हुए फूले नहीं समाते। जब यह खबरें प्रसारित होती हैं तो संवाददाता और उद्घोषक बाबाओं के बारे में यह कहते हुए नहीं थकते थे कि समाज में अनेक पाखंडी धर्म के ठेकेदार हैं। यह नहीं  जानते हैं कि धर्म एक अलग विषय है और उसके नाम पर प्रचार का व्यवसाय करना कभी किसी के धार्मिक होने का प्रमाण पत्र नहीं हो जाता।  दूसरी बात यह है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में चार अलग अलग प्रकियायें हैं जिनका आपस में प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं होता।  हां, इतना अवश्य है कि प्रातः धर्म निर्वाह के बाद अन्य प्रक्रियाओं में सात्विकता का भाव स्वतः आ जाता है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान न होने के कारण पश्चिमी शिक्षा से ओतप्रोत इन प्रचार माध्यमों में कार्यरत बुद्धिमान लोगों से तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह धर्म को काम से न जोड़ें बल्कि उनके दर्शकों में बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं कि काम की अग्नि धर्म के कच्चे खिलाड़ी को ही नहीं वरन् परिपक्व मनुष्य को भी पथ से भ्रष्ट कर देती है।

महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि

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विश्वामित्रपराशरप्रभृत्यो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललित। दृष्ट्वैव मोहं गताः।।

शाल्पन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा।स्तेपामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेत् विन्ध्यस्तरेत् सागरे।।

      हिन्दी में भावार्थ-विश्वमित्र और पाराशर ऋषि पत्ते और जल का सेवन कर तप करते थे वह भी काम की अग्नि का वेग सहन नहीं कर सके तो फिर अन्न, घी, दूध तथा दही का सेवन करने वाले मनुष्य काम पर नियंत्रण कर लें तो समझ लो समुद्र में विंध्याचल तैर रहा है।

      जब सतयुग में कुछ ऋषि अपनी तपस्या में कामदेव को विध्न डालने से नहीं रोक सके तो आज के व्यवसायिक धर्मगुरुओं से यह आशा करना कि वह कामाग्नि से बच पायेंगे मूर्खता है।  हमारे देश में अनेक गुरु हैं जो अपने आसपास शिष्याओं का जमावड़ा इसलिये दिखाते हैं ताकि भक्त अधिक से अधिक उनके पास आयें।  अगर हम भारतीय अध्यात्मिक पात्रो का अध्ययन करें तो कहीं भी किसी नारी का गुरु पुरुष नहीं होता।  जब भगवान श्रीराम वनवास को गये थे तब श्रीसीता के साथ अनेक ऋषियों के आश्रम में गये। वहां भगवान श्रीराम उन ऋषियों से चर्चा करते थे गुंरु पत्नियां ही श्रीसीता को ज्ञान देती थीं।  आजकल जब नारी और पुरुष समान का नारा लगा है तब धर्मगुरुओं ने उसका लाभ जमकर उठाया है।  अनेक धर्मगुरु तो प्रवचन के समय अपनी निकटस्थ शिष्याओं को मंच पर ही बिठा देते हैं ताकि आकर्षण बना रहे।

      इधर जब से यौन अपराधों पर नया कानून आया है तब अनेक गुरुओं पर मामले दर्ज हो चुके हैं।  कभी कभी तो कुछ लोगों को  यह लगता है कि अपने भारतीय धर्म की बदनामी प्रायोजित ढंग से की जा रही है। इस तरह का संदेह करने वाले लोग कहते हैं कि दूसरे धर्म की कोई चर्चा नहीं करता।  हमारा मानना है कि हमारे देश में भारतीय धर्मावलंबियों को बहुमत है इसलिये उनकी घटनायें अधिक सामने आती हैं।  दूसरी बात यह कि अन्य धर्मों में कहीं पैसे तो पहलवानी के दम पर ऐसी घटनाओं को आने से रोका जाता है जबकि भारतीय धर्म में ऐसा नहीं हो पाता। जहां तक विश्व के सभी धर्मों के ठेकेदारों का सवाल है वह चाहे लाख पाखंड करें पर जिनके पास महिला शिष्यों का अधिक जमावड़ा है वहां पूरी तरह से मर्यादित व्यवहार की आशा कम ही हो जाती है। यह अलग बात है कि कुछ स्वयं नियंत्रित कर लेते हैं पर कुछ कामाग्नि में जल ही जाते हैं। कुछ का अपराध सामने आ जाता है जिनका दुष्कर्म अप्रकट है वह साधु ही बने रहते हैं।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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