सांसरिक चतुराई तो हर कोई सीख लेता है-हिन्दू धर्म सन्देश


लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव।
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि लिखना, पढ़ना चतुराई करना यह तो संसार की सामन्य बातें हैं। जिस परमात्मा का नाम पढ़कर समझना चाहिये उसे कोई नहीं मानता।
ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।
राम रता इन्द्री जिता, कोटी मध्ये अनेक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं इस संसार में ज्ञानी और विद्वान बहुत मिले। पण्डित और कवि भी बहुत हैं। परन्तु राम भक्ति में लीन अपनी इंद्रियों को जीतने वाला करोड़ो में कोई एक होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी यही कहा कि हजारों में कोई एक मुझे भजता है। उन हजारों में भी कोई एक मुझे हृदय से भजता है।
मनुष्य का मन जब संसार के कार्य से ऊब जाता है तब वह कुछ नया चाहता है। कुछ लोग फिल्म और धारावाहिक देखकर मनोरंजन करते हैं तो कुछ गाने सुनकर। कुछ लोग भगवान भक्ति भी यह सोचकर करते हैं कि इससे मन को राहत मिल जाये। उनमें श्रद्धा का अभाव होता है इसलिये भक्ति करने के बाद उनके आचार, विचार और कर्म में कोई अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो सच्ची श्रद्धा से भगवान की भक्ति कर पाते हैं।

इस संसार में जिसे अवसर मिलता है वह पढ़ता लिखता तो अवश्य ही है और इस कारण उसमें चतुराई भी आती है। मगर इससे लाभ कुछ नहीं है। ऐसे कई प्रसंग अब सामने आने लगेे हैं जिसमें पढ़े लिखे लोग ही धर्म परिवर्तन कर दिखाते हैं कि उनमें समाज और परिवार के प्रति विद्रोह है। धर्म परिवर्तन कर विवाह करने वाले अधिकतर लोग शिक्षित ही रहे हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को शिक्षित तो बना देती है पर अध्यात्मिक ज्ञानी नहीं। कहने को यही शिक्षित कहते हैं कि धर्म क्या चीज है पर भारतीय अध्यात्म ज्ञान के अभाव में वही धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। आप उनसे पूछिये कि धर्म अगर कोई चीज नहीं है तो उसे बदला क्यों? अगर आप देश में चल रहे भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर चल रहे झगड़ों को देखें तो उनमें शिक्षित लोग ही अधिक लिप्त हैं। इससे यह तो जाहिर हो जाता है कि शिक्षित होने से इंसान ज्ञानी नहीं हो जाता। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी भटकाव की राह पर चला जाता है। इसलिये जितना हो सके अपने घर पर अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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कबीर वाणी-प्यार को सही ढंग से कोई नहीं समझता(kabir vani-pyar ka gyan)



प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।

गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में आजकल प्रेम पर बहुत कुछ दिखाया और लिखा जाता है। यह प्रेम केवल स्त्री पुरुष के निजी संबंध को ही प्रोत्सािहत करता है। हालत यह हो गयी है कि अप्रत्यक्ष रूप से विवाहेत्तर या विवाह पूर्व संबंधों का समर्थन किया जाने लगा है। यह क्षणिक प्रेम एक तरह से वासनामय है मगर आजकल के अंग्रेजी संस्कृति प्रेमी और नारी स्वतंत्रता के समर्थक विद्वान इसी प्रेम मेंें शाश्वत जीवन की तलाश कर हास्यास्पद दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक मजे की बात यह है कि एक तरफ सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन करने की प्रवृति को स्वतंत्रता के नाम पर प्रेमियों की रक्षा की बात की जाती है दूसरी तरफ प्रेम को निजी मामला बताया जाता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सब धर्मों से प्रीति का धर्म बड़ा है। अब अगर उनसे पूछा जाये कि इसका स्वरूप क्या है तो कोई बता नहीं पायेगा। इस नश्वर शरीर का आकर्षण धीमे धीमे कम होता जाता है और उसके साथ ही दैहिक प्रेम की आंच भी धीमी हो जाती है।

वैसे सच बात तो यह है कि प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है क्योंकि वह अनश्वर है। हमारी आत्मा भी अनश्वर है और उसका प्रेम उसी से ही संभव है। परमात्मा से प्रेम करने पर कभी भी निराशा हाथ नहीं आती जबकि दैहिक प्रेम का आकर्षण जल्दी घटने लगता है। जिस आदमी का मन भगवान की भक्ति में रम जाता है वह फिर कभी उससे विरक्त नहीं होता जबकि दैहिक प्रेम वालों में कभी न कभी विरक्ति हो जाती है और कहीं तो यह कथित प्रेम बहुत बड़ी घृणा में बदल जाता है।
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संत कबीर वाणी:मिल बाँट कर खाएं वही हैं वीर


संत कबीर महाराज कहते हैं कि
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कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार

सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।

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संत कबीर संदेशः खोटी मनोवृत्ति के लोगों के सामने अपने रहस्य न खोलें


हीरा तहां न खोलिए,जहां खोटी है हाट
कसि करि बांधो गठरी, उठि चालो बाट

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि अगर अपनी गांठ में हीरा है तो उसे वहां मत खोलो जहां बाजार में खोटी मनोवृत्ति के लोग घूम रहे हैं। उस हीरे को कसकर अपनी गांठ में बांध लो और अपने मार्ग पर चले जाओ।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीर दास जी ने यह बात व्यंजना विद्या में कही हैं। इसका सामान्य अर्थ तो यह है कि अपनी कीमती वस्तुओं का प्रदर्शन वहां कतई मत करो जहां बुरी नीयत के लोगों का जमावड़ा है। दूसरा इसका गूढ़ आशय यह है कि अगर आपके पास अपना कोई ज्ञान है तो उसे सबके सामने मत बघारो। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आपकी बात सुनकर अपना काम चलायेंगे पर आपका नाम कहीं नहीं लेंगे या आपके ज्ञान का मजाक उड़ायेंगे क्योंकि आपके ज्ञान से उनका अहित होता होगा। अध्यात्म ज्ञान तो हमेशा सत्संग में भक्तों में ही दिया जाना चाहिए। हर जगह उसे बताने से सांसरिक लोग मजाक उड़ाने लगते हैं। समय पास करने के लिये कहते हैं कि ‘और सुनाओ, भई कोई ज्ञान की बात’।
अगर कोई तकनीकी या व्यवसायिक ज्ञान हो तो उसे भी तब तक सार्वजनिक न करें जब तक उसका कोई आर्थिक लाभ न होता हो। ऐसा हो सकता है कि आप किसी को अपने तकनीकी और व्यवसायिक रहस्य से अतगत करायें और वह उसका उपयोग अपने फायदे के लिये कर आपको ही हानि पहुंचाये।
अक्सर आदमी सामान्य बातचीत में अपने जीवन और व्यवसाय का रहस्य उजागर कर बाद में पछताते हैं। कबीरदास जी के अनुसार अपना कीमती सामान और जीवन के रहस्यों को संभाल कर किसी के सामने प्रदर्शित करना चाहिए।
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संत कबीर वाणी:विषयी लोग दीप और संत हीरे समान होते हैं



दीपक सुन्दर देखि करि, जरि जरि मरे पतंग
बड़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरे अंग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जलते हुए दीपक की रौशनी को देखकर पतंगे जल-जल कर मर जाते हैं। उसी प्रकार जब मनुष्य के मन में विषयों की लहर हमेशा उठती है और वह उसमें बहता रहता है-उसे अपने जीवन मरण का विचार ही नहीं रहता।

सहकामी दीपक दसा, सौंखें तेल निवास
कबीर हीरा संत जन, सहजै सदा प्रकाश

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जिसमें कामवासना अधिक होती है उसकी दशा दीपक के समान होती है जो जलते हुए अपने तेल को भी चूस लेता है जबकि वह उसकी ऊजा का स्त्रोत होता है और उसके समाप्त होने पर दीपक स्वयं भी बुझ जाता है। इसके विपरीत संत लोग हीरे के समान होते हैं जिनकी तपस्या का प्रकाश चारों और फैलता है।

संत कबीर वाणी:टोना-टोटका सब झूठ है


जंत्र मंत्र झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जानै बिना, कागा हंस न होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यंत्र और मंत्र एकदम बेकार है और इसके भ्रम में कभी मत पड़ो। जब तक परम सत्य और शब्द को नहीं जानेगा तब तक वह सिद्ध नहीं हो सकता। कौवा कभी हंस नहीं हो सकता।

जिहि शब्दे दुख ना लगे, सोईं शब्द उचार
तपत मिटी सीतल भया, सोई शब्द ततसार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मुख से ऐसे शब्द बोलना चाहिए जिससे दूसरा प्रसन्न हो जाये। अगर दूसरा व्यक्ति हमारे बोलने से प्रसन्न होता है तो हमें स्वाभाविक रूप से आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।

संपादकीय व्याख्या-कहते हैं कि शिक्षा व्यक्ति को जागरूक बनाती है पर कुछ हमारे देश में कुछ लोग ऐसे है जो शिक्षित होने के बावजूद टोने टोटके वालों के पास जाकर अपनी समस्याओं का हल ढूंढते हैं या कथित ढोंगी साधुओं की दरबार में उपस्थित होकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। यह यंत्र-मंत्र और टोना टोटका कई लोगों के लिये व्यापार बना हुआ है। कहीं पैसा लेकर यज्ञ हो रहा है तो कही तावीज आदि बेचा जाता है। किसी के हाथ में कोई सिद्धि नहीं है पर सिद्ध कहलाने वाले बहुत लोग मिल जायेंगे। सच तो यह है जीवन का पहिया घूमता है तो कई काम स्वतः बनते हैं तो कई आदमी के बनाने के बावजूद बिगड़ जाते हैं। ऐसे में अंधविश्वासों की सहायता लेना अपने आपको धोखा देना है।

संत कबीर वाणी:प्रपंची गुरूओं से कोई लाभ नहीं


शब्द कहै सौ कीजिये, बहुतक गुरु लबार
अपने अपने लाभ को, ठौर ठौर बटपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो सत्य का शब्द हो उसी के अनुसार कार्य करो। इस संसार में कई ऐसे गुरू हैं जो पांखडी और प्रपंची होते हैं। वह अपने स्वार्थ के अनुसार कार्य करते हुए उपदेश देते हैं और उनसे कोई लाभ नहीं होता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संबंध में मेरे द्वारा एक आलेख अन्य ब्लाग पर लिखा गया था जो यहां प्रस्तुत है।

आज के कथित संत और भक्त प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक नहीं
भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की और एक बार वहाँ से निकले तो फिर चल पड़े अपने जीवन पथ पर। फिर विश्वामित्र का सानिध्य प्राप्त किया और उनसे अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्होने अपना जीवन समाज के हित में लगा दिया न कि केवल गुरु के आश्रमों के चक्कर काटकर उसे व्यर्थ किया। भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि संदीपनि से शिक्षा पाई और फिर धर्म की स्थापना के लिए उतरे तो वह कर दिखाया। न गुरु ने उन्हें अपने पास बाँध कर रखा न ही उन्होने हर ख़ास अवसर पर जाकर उनंके आश्रम पर कोई पिकनिक नहीं मनाई। अर्जुन ने अपने गुरु से शिक्षा पाई और अवसर आने पर अपने ही गुरु को परास्त भी किया। आशय यह है कि इस देश में गुरु-शिष्य की परंपरा ऐसी है जिसमें गुरु अपने शिष्य को अपना ज्ञान देकर विदा करता है और जब तक शिष्य उसके सानिध्य में है उसकी सेवा करता है। उसके बाद चल पड्ता है अपने जीवन पथ पर और अपने गुरु का नाम रोशन करता है।

भारत की इसी प्राचीनतम गुरु-शिष्य परंपरा का बखान करने वाले गुरु आज अपने शिष्यों को उस समय गुरु दीक्षा देते हैं जब उसकी शिक्षा प्राप्त करने की आयु निकल चुकी होती है और फिर उसे हर ख़ास मौके पर अपने दर्शन करने के लिए प्रेरित करते हैं। कई तथाकथित गुरु पूरे साल भर तमाम तरह के पर्वों के साथ अपने जन्मदिन भी मनाते हैं और उस पर अपने इर्द-गिर्द शिष्यों की भीड़ जमा कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. यहाँ इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की भारतीय जीवन दर्शन में जन्मदिन मनाने की कोई ऐसी परंपरा नहीं है जिसका पालन यह लोग कर रहे हैं.

भारत में गुरु शिष्य की परंपरा एक बहुत रोमांचित करने वाली बात है, पूरे विश्व में इसकी गाथा गाई जाती है पर आजकल इसका दोहन कुछ धर्मचार्य अपने भक्तो का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं वह उसका प्रतीक बिल्कुल नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में गुरु की आवश्यकता होती है और खासतौर से उस समय जब जीवन के शुरूआती दौर में एक छात्र होता है। अब गुरुकुल तो हैं नहीं और अँग्रेज़ी पद्धति पर आधारित शिक्षा में गुरु की शिक्षा केवल एक ही विषय तक सीमित रह गयी है-जैसे हिन्दी अँग्रेज़ी, इतिहास, भूगोल, विज्ञानआदि। शिक्षा के समय ही आदमी को चरित्र और जीवन के गूढ रहस्यों का ज्ञान दिया जाना चाहिए। यह देश के लोगों के खून में ही है कि आज के कुछ शिक्षक इसके बावजूद अपने विषयों से हटकर शिष्यों को गाहे-बगाहे अपनी तरफ से कई बार जीवन के संबंध में ज्ञान देते हैं पर उसे औपचारिक मान कर अनेक छात्र अनदेखा करते हैं पर कुछ समझदार छात्र उसे धारण भी करते हैं.

यही कारण है कि आज अपने विषयक ज्ञान में प्रवीण तो बहुत लोग हैं पर आचरण, नैतिकता और अध्यात्म ज्ञान की लोगों में कमी पाई जाती है। इस वजह से लोगों के दिमाग में तनाव होता है और उसको उससे मुक्ति दिलाने के लिए धर्मगुरू आगे आ जाते हैं। आज इस समय देश में धर्म गुरु कितने हैं और उनकी शक्ति किस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में फैली है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। तमाम तरह के आयोजनों में आप भीड़ देखिए। कितनी भारी संख्या में लोग जाते हैं। इस पर एक प्रख्यात लेखक जो बहुत समय तक प्रगतिशील विचारधारा से जुडे थे का मैने एक लेख पढ़ा था तो उसमें उन्होने कहा था की ”हम इन धर्म गुरुओं की कितनी भी आलोचना करें पर यह एक वास्तविकता है कि वह कुछ देर के लिए अपने प्रवचनों से तनाव झेल रहे लोगों को मुक्त कर देते हैं।”

मतलब किसी धार्मिक विचारधारा के एकदम विरोधी उन जैसे लेखक को भी इनमें एक गुण नज़र आया। यह आज से पाँच छ: वर्ष पूर्व मैने आलेख पढ़ा था और मुझे ताज्जुब हुआ-मेरा मानना था कि उन लेखक महोदय ने अगर भारतीय आध्यात्म का अध्ययन किया होता तो उनको पता लगता कि भारतीय आध्यात्म में वह अद्वितीय शक्ति है जिसके थोड़े से स्पर्श में ही आदमी का मन प्रूफुल्लित हो जाता है। मगर वह कुछ देर के लिए ही फिर निरंतर अभ्यास नो होने से फिर तनाव में आ जाते हैं।

एक बात बिल्कुल दावे के साथ मैं कहता हूँ कि अगर किसी व्यक्ति में बचपन से ही आध्यात्म के बीज नहीं बोए गये तो उमरभर उसमें आ नहीं सकते और जिसमें आ गये उसका कोई धर्म के नाम पर शोषण नहीं कर सकता।

संत कबीर वाणी:मन का अहंकार नहीं छूट पाता


माया तजो तो क्या भया मान तजा न जाय
मन बडे मुनिवर गले, मान सभी को खाम

यदि माया मोह का किसी साधक ने अपने आत्मबल से त्याग भी कर दिया, तो भी व्यर्थ है क्योंकि वह अभिमान का त्याग नहीं हो पाता. इसके विपरीत यह अहंकार हो जाता है कि हमने अहंकार का त्याग कर दिया.

मोटी माया सब तजैं, झीनी तजी न जाय
पीर पैगंबर, औलिया, झीनी सबको खाय

स्थूल माया जो दिखती हैं उसका त्याग तो किया जा सकता हैं पर जो सूक्ष्म माया यानी जो मन में अहं का भाव है वह कभी ख़त्म नहीं होता और कई ऐसे लोग जो सिद्ध होने का दावा करते हैं वह भी इससे नहीं बच पाते