अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि‘आजकल समय खराब हो गया है और नयी पीढ़ी व्यसनों का शिकार हो रही है।’
हम समाज के नैतिक और अध्यात्मिक पतन के लिये बढ़ते हुए भौतिकतावद को दोष देते हैं। यह सही है पर इसके लिये मनुष्य के की शारीरिक सुख सुविधा तथा मनोरंजन के लिये बनी वस्तुओं का उपभोग नहीं बल्कि उनको खरीदने की लिये धन का वह स्वरूप है जो अधर्म पर आधारित होता है। सच तो यह है कि जब पहले देश में जब कृषि आधारित व्यवस्था में श्रम की प्रधानता थी तब लोग ईमानदारी और परिश्रम के मार्ग से अपना भौतिक विकास करते थे। यह मार्ग लंबा होता था पर लोग सहजता से जीवन व्यतीत करते थे। विश्व में आर्थिक उदारीकरण की लहर के बाद देश की सामान्य कार्यप्रणाली में परिवर्तन आया है। अब जिसे देखो नौकरी के पीछे भाग रहा है। जिनके पास शिक्षा की उपाधि है उनमें कोई भी व्यवसाय या कृषि को अपना लक्ष्य नहीं बनाता। जल्दी जल्दी धन कमाने के लिये अनेक व्यक्ति अधर्म तथा अपराध का काम करने लगते हैं। ऐसे में उनकी उपभोग की प्रवृत्ति भी वैसी होती जा रही है। शराब, जुआ तथा सट्टा जैसे व्यसनों का प्रकोप बड़ रहा है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार।।
‘‘पाप के धन को नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता। ठीक उसी तरह जैसे होली के अवसर पर कुछ लोग लकड़ी चुराकर लाते हैं और वह जलकर जल्दी नष्ट हो जाती है।’’
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार।।
‘‘पाप के धन को नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता। ठीक उसी तरह जैसे होली के अवसर पर कुछ लोग लकड़ी चुराकर लाते हैं और वह जलकर जल्दी नष्ट हो जाती है।’’
पाप का धन होली के लिये चुराई गयी लकड़ी की तरह ही नष्ट होता है। जिन लोगों के पास अधर्म की कमाई है उनका पैसा भी वैसे ही खर्च होता है। किसी को स्वयं ही शराब, जुआ, तथा सट्टे की आदत लग जाती है या फिर उनके परिवार के सदस्य इसका शिकार होते हैं। यह भी नहीं हुआ तो बीमारी अपना रौद्र रूप प्रकट कर पैसा बाहर निकलवाती है। इसलिये जहां तक संभव हो धर्म की कमाई करें क्योंकि शरीर के अच्छ स्वास्थ्य और मन की प्रसन्नता का यही एक उपाय है।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com
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