अध्यात्मिक दर्शन का संबंध आंतरिक मनस्थिति से है। उसके ज्ञान से व्यक्ति सात्विक भाव धारण करता है या फिर इस संसार में विषयों से सीमित संबंध रखते हुए योग भाव को प्राप्त होता है। एक बात तय रही कि दैहिक विषयों से राजसी भाव से ही राजसी कर्म के साथ संपर्क रखा जा सकता है। ज्ञान होने पर व्यक्ति अधिक सावधानी से राजसी कर्म करता है और न होने पर वह उसके लिये परेशानी का कारण भी बन जाता हैं। हम देख यह रहे है कि लोग अपने साथ उपाधि तो सात्विक की लगाते हैं पर मूलतः राजसी प्रवृत्ति के होते हैं। ज्ञान की बातें आक्रामक ढंग से इस तरह करेंगे कि वह उन्हीं के पास है पर उनमें धारणा शक्ति नाममात्र की भी नहीं होती और राजसी सुख में लिप्त रहते हैं। राजसी कर्म और उसमें लिप्त लोगों में लोभ, क्रोध, मोह, अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है अतः उनसे सात्विक व्यवहार करने और विचार रखने की आशा करना ही अज्ञान का प्रमाण है। सात्विकता के साथ राजसी कर्म करने वालों की संख्या नगण्य ही रहती है।
धर्म, अर्थ, समाज सेवा, पत्रकारिता और कला क्षेत्र में धवल वस्त्र पहनकर अनेक लोग सेवा का दावा करते हैं। उनके हृदय में शासक की तरह का भाव रहता है। स्वयंभू सेवकों की भाषा में अहंकार प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है। प्रचार में विज्ञापन देकर वह नायकत्व की छवि बना लेते हैं। शुल्क लेकर प्रचार प्रबंधक जनमानस में उन्हें पूज्यनीय बना देते हैं। कुछ चेतनावान लोग इससे आश्चर्यचकित रहते हैं पर ज्ञान के अभ्यासियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता। राजसी कर्म में लोग फल की आशा से ही लिप्त होते हैं-उनमें पद, प्रतिष्ठा पैसा और प्रणाम पाने का मोह रहता ही है। हमारे तत्वज्ञान के अनुसार यही सत्य है।
सामान्य जन उच्च राजसी कर्म और पद पर स्थित शिखर पुरुषों से सदैव परोपकार की आशा करते हैं पर उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता कि इस संसार में सभी मनुष्य अपने और परिवार के हित के बाद ही अन्य बात सोचते हैं। परोपकार की प्रवृत्ति सात्विक तत्व से उत्पन्न होती है और वह केवल अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली मनुष्यों में संभव है। सात्विक लोगों में बहुत कम लोग ही राजसी कर्म में अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक संपर्क रखने का प्रयास करते हें। उन्हें पता है कि व्यापक सक्रियता काम, क्रोध, मोह लोभ तथा अहंकार के पंचगुण वाले मार्ग पर ले जाती है। ऐसे ज्ञान के अभ्यासी कभी भी राजसी पुरुषों की क्रियाओं पर प्रतिकूल टिप्पणियां भी नहीं करते क्योंकि उनको इसका पता है कि अंततः सभी की देह त्रिगुणमयी माया के अनुसार ही संचालित होती है। उनके लिये अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता इसलिये काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार को वह राजसी कर्म से उत्पन्न गुण ही मानते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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