कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कार्य के तीन व्यसन (kautilya ka arthshastra-karya ke teen vyasan)


वस्तुध्वशक्येषु समुद्यनश्चेच्छक्येषु मोहादसमुद्यश्मश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यनश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदंति।।
हिंदी में भावार्थ-
शक्ति से परे वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना, प्राप्त होने योग्य वस्तु के लिये उद्यम न करना , और तथा शक्ति होते हुए भी शक्य वस्तु की प्राप्ति के लिये समय निकल जाने पर प्रयास करना-यह कार्य के व्यसन हैं।
द्रोहो भयं शश्वदुपक्षणंव शीतोष्णवर्षाप्रसहिष्णुता च।
एतानि करले समुपहितानि कुर्वन्त्यवश्यं खलु सिद्धिविघ्नम्
हिंदी में भावार्थ-
द्रोह, डर, उपेक्षा, सर्दी,गमी, तथा वषा का अधिक होना कार्यसिद्धि समय पर होने मेें बाधा अवश्य उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हम अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो उस समय अपनी शक्ति का पूर्वानुमान करना चाहिये। उसी तरह कोई योजना बनाकर कोई वस्तु प्राप्त करते हैं तो उस समय अपने आर्थिक, सामाजिक, तथा पारिवारिक स्त्रोतों की सीमा पर भी विचार कना चाहिये। अपने सामथ्र्य से अधिक वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास एक तरह का व्यसन ही है।
उसी तरह किसी वस्तु या लक्ष्य का अवसर पास आने पर उसकी उपेक्षा कर मूंह फेर लेना भी एक तरह का व्यसन है। अगर कोई कार्य हमारी शक्ति की परिधि में है तो उसे अवश्य करना चाहिये। जीवन में सतत सक्रिय रहना ही मनुष्य जीवन को आनंद प्रदान करता है। अगर किसी उपयोगी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का अवसर आता है तो उसमें लग जाना चाहिये।
कोई वस्तु हमारी शक्ति के कारण प्राप्त हो सकती है पर हम उसकी यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि यह हमारे किस काम की! बाद में पता लगता है कि उसका हमारे लिये महत्व है और उसे पाने का प्रयास करते हैं। यह भी एक तरह का व्यसन है। हमें अपने जीवन में उपयोग और निरुपयोगी वस्तुओं और लक्ष्यों का ज्ञान होना चाहिये। कई बार कोई चीज हमें उपलब्ध होती है पर धीरे धीरे उसकी मात्रा काम होती है। उसका संग्रह का उपस्थित होने पर उसका विचार नहीं करते-यह सोचकर कि वह तो भंडार में है पर बाद में पता लगता है कि यह अनुमान गलत था। यह वैचारिक आलस्य का परिणाम जीवन में कष्टकारक होता है।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कार्य के होते हैं तीन व्यसन (kautilya ka arthshastra in hindi)


वस्तुध्वशक्येषु समुद्यनश्चेच्छक्येषु मोहादसमुद्यश्मश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यनश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदंति।।
हिंदी में भावार्थ-
शक्ति से परे वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना, प्राप्त होने योग्य वस्तु के लिये उद्यम न करना , और तथा शक्ति होते हुए भी शक्य वस्तु की प्राप्ति के लिये समय निकल जाने पर प्रयास करना-यह कार्य के व्यसन हैं।
द्रोहो भयं शश्वदुपक्षणंव शीतोष्णवर्षाप्रसहिष्णुता च।
एतानि करले समुपहितानि कुर्वन्त्यवश्यं खलु सिद्धिविघ्नम्
हिंदी में भावार्थ-
द्रोह, डर, उपेक्षा, सर्दी,गमी, तथा वषा का अधिक होना कार्यसिद्धि समय पर होने मेें बाधा अवश्य उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हम अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो उस समय अपनी शक्ति का पूर्वानुमान करना चाहिये। उसी तरह कोई योजना बनाकर कोई वस्तु प्राप्त करते हैं तो उस समय अपने आर्थिक, सामाजिक, तथा पारिवारिक स्त्रोतों की सीमा पर भी विचार कना चाहिये। अपने सामथ्र्य से अधिक वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास एक तरह का व्यसन ही है।
उसी तरह किसी वस्तु या लक्ष्य का अवसर पास आने पर उसकी उपेक्षा कर मूंह फेर लेना भी एक तरह का व्यसन है। अगर कोई कार्य हमारी शक्ति की परिधि में है तो उसे अवश्य करना चाहिये। जीवन में सतत सक्रिय रहना ही मनुष्य जीवन को आनंद प्रदान करता है। अगर किसी उपयोगी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का अवसर आता है तो उसमें लग जाना चाहिये।
कोई वस्तु हमारी शक्ति के कारण प्राप्त हो सकती है पर हम उसकी यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि यह हमारे किस काम की! बाद में पता लगता है कि उसका हमारे लिये महत्व है और उसे पाने का प्रयास करते हैं। यह भी एक तरह का व्यसन है। हमें अपने जीवन में उपयोग और निरुपयोगी वस्तुओं और लक्ष्यों का ज्ञान होना चाहिये। कई बार कोई चीज हमें उपलब्ध होती है पर धीरे धीरे उसकी मात्रा काम होती है। उसका संग्रह का उपस्थित होने पर उसका विचार नहीं करते-यह सोचकर कि वह तो भंडार में है पर बाद में पता लगता है कि यह अनुमान गलत था। यह वैचारिक आलस्य का परिणाम जीवन में कष्टकारक होता है।
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संत कबीर वाणी-मूर्ख लोग सभी की पीड़ा एक समान नहीं मानते


पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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भर्तृहरि नीति शतक: जिनकी देह,मन और विचार में अमृत हो ऐसे लोग नगण्य


मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः
परगुणपनमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृवि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः

हिंदी में भावार्थ- जिनकी देह मन और वचन की शुद्धता और पुण्य के अमृत से परिपूर्ण है और वह परोपकार से सभी का हृदय जीत लेते हैं। वह तो दूसरों को गुणों को बड़ा मानते हुए प्रसन्न होते हैं पर ऐसे सज्जन इस संसार में हैं ही कितने?
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-दूसरों के दोष गिनाते हुए अपने गुणों का बखान तथा दिखाने के लिये समाज के कल्याण में जुटे कथित लोगों की कमी नहीं है। आत्म विज्ञापन से प्रचार माध्यम भरे पड़े हैं। अपने अंदर गुणों का विकास कर सच्चे हृदय से समाज सेवा करने वालों का तो कहीं अस्तित्व हीं दिखाई नहीं देता। अपनी लकीर को दूसरे की लकीर से बड़ा करने वाले बुद्धिमान अब कहां हैं। यहां तो सभी जगह अपनी थूक से दूसरे की लकीर मिटाने वाले हो गये हैं। ऐसे लोगों की सोच यह नहीं है कि वह समाज कल्याण के लिये कार्य कैसे करें बल्कि यह है कि वह किस तरह समाज में दयालू और उदार व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध हों। प्रचार करने में जुटे लोग, गरीबों और मजबूरों के लिये तमाम तरह के आयोजन करते हैं पर वह उनका दिखावा होता है। ‘मैंने यह अच्छा काम किया’ या ‘मैंने उसको दान दिया’ जैसे वाक्य लोग स्वयं ही बताते हैं क्योंकि उनके इस अच्छे काम को किसी ने देखा ही नहीं होता। देखेगा भी कौन, उन्होंने किया ही कहां होता?

इस संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो परोपकार और दया काम चुपचाप करते हैं पर किसी से कहते नहीं। हालांकि उनकी संख्या बहुत नगण्य है पर सच तो यह है कि संसार के सभी सभ्य समाज उनके त्याग और बलिदान के पुण्य से चल रहे हैं नकली दयालू लोग तो केवल अपना प्रचार करते हैं।
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हमदर्दी जताने का ख्याल-हिन्दी शायरी


अपनों में गैर
और गैरों में अजनबी हो जाना
कितना सताता है
जब आदमी अपने को अकेला पाता है

भरी दोपहर में
शरीर से बहता पसीना
चलते जा रहे पांव
चंद पलों के मन के सुख की खातिर
जिस घर के अंदर झांका
वहीं जंग का मैदान पाता है

मांगने पर थोड़ा प्यार
इतराने लगते हैं लोग
देते हैं नसीहतें तमाम
पर चंद प्यार के लफ्ज बोलकर
हमदर्दी जताने का ख्याल
किसी को नहीं आता है

ऊपर से बरसाता आग सूरज
नीचे जलती धरती
नंगे पांव चलता आदमी
ढूंढता है सभी जगह मन की शीतलता
पर भी नजर डाले
लोगों का मन छल से भरा
स्वयं को ही धोखा देता नजर आता है

कुछ पल प्यार की चाह
जलते पांव के लिये शीतलता की राह
मांग कर अपने आपको
शर्मिंदा करने से तो
जलती आग मे चलते रहना ही भाता है
भला आदमी भी कभी आदमी को
सुख के पल दे पाता है
…………………………….
उस महफिल में चंद पल सुकून से
बिताने की खातिर रखा था कदम
हमें मालुम नहीं था दिलजलों ने
अपने लिये उसे सजाया हैं
उनके मसले देखकर ख्याल आया कि
इससे तो घर ही अच्छे थे हम
पहले भी कम नहीं थे साथ हमारे
वहां से बेआबरू होने का लेकर लौटे गम
………………………………..

लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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1. अनंत शब्दयोग
2.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

क्रिकेट मैच में एक्शन का सीन-हास्य कविता


बगल में अखबार दबाकर
घर आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापु तुमने
पहले अखबारों  और अब ब्लाग पर
क्रिकेट पर ही लिखना शुरू किया
फिर क्यों अब मूंह फेर लिया
देखो क्रिकेट में फिल्म के एक्शन का
मजा भी आ रहा है
पहले पिटा  हीरो
अब पीटकर बाहर जा रहा है
क्यों नहीं तुम भी देखा करते
बैट-बाल के खेल में
मारधाड़ की भी मजा क्यों नहीं लिया करते
ऐसे क्रिकेट से क्यों किनारा किया’

सुनकर पहले हैरान हुए फिर बोले
‘‘हम फिल्म के वक्त फिल्म और
क्रिकेट के वक्त क्रिकेट देख करते हैं
यह टू-इन-वन मजा तुम ही लो
हमें तो अब इससे दूर ही समझ लो
हमने पहले भी कहा था
क्रिकेट अब कम खेली जायेगी
पर उससे पहले उसकी पटकथा लिखा जायेगी
फिल्म वालों ने लिया है मोर्चा
क्रिकेट को चमकान का
तो उनकी कला यहां भी नजर आयेगी
आस्ट्रेलिया में किया था जिसने हीरो को रोल
उसे अब विलेन बनाकर पेश किया
उस समय के विलेन को दे रहे थें जो गालियां
अब बजा रहे उनके लिये तालियां
यह हीरो-हीरोइन भला कब  डायरेक्टर के
 हुक्म के बिना एक्शन के कब होते है
जरूर लिखी होगी किसे ने पटकथा
जो झगड़े की फोटो कैमरे से लेने में रोकते हैं
झगड़ा करने वाले खिलाड़ी
बाद में ऐसे होकर मिलते हैं
जैसे कोई बढि़या अभिनय किया
कह तो रहे है सभी
पर किसने देखा यह कि 
थप्पड़ मारने वाले ने अपना कितना नुक्सान किया
हमने ने देखा न मैच न झगड़ा
पर एक बात मानते हैं कि
क्रिकेट खेल में एक्शन का सीन लिखकर
पटकथा लिखने वाले ने कमाल किया
……………………….


फ़िर भी लिखता रहूँगा


अब धीरे-धीरे यह समझ में आ रहा है कि ब्लॉग बनाना और लिखना वैसे ही है जैसे किसी शो के लिए एस.एम् एस. करना. जिस तरह टीवी चैनल पर शो होते हैं उनके लिए लोग आत्म मुग्ध होकर एस.एम् एस करते हैं कि हमने अपनी जोरदार भूमिका अदा की. इसी तरह रेडियो पर भी ज़रा-ज़रा से प्रश्नों पर जवाब के लिए एस.एम्. एस कराया जाता है. कुछ लोगों को विजेता बनाकर उनकी आवाज वहाँ सुनाई जाती है ताकि सब लोग उससे प्रेरित हों.
उससे किसका फायदा होता है सब जानते हैं. अलबता बड़े शहर के लोगों के लिए अपना नाम कमाने का खूब यहाँ अवसर हैं पर छोटे शहरों के ब्लॉग लेखकों को तो केवल भीड़ ही माना जायेगा.

इधर अब देश में भी ब्लॉग पर लिखने वालों को प्रोत्साहित किया जा रहा है. मैंने एक वर्ष पूर्व जब ब्लॉग लिखना शुरू किया तो मुझे लगा कि शायद कुछ पढने वाले मिल जायेंगे. यहाँ उस समय नारद करके एक फॉरम था जिस पर सब हिन्दी के ब्लॉग दिखते थे. उसके बाद तीन अन्य फॉरम भी खुल गए. वैसे वर्डप्रेस स्वयं भी अपने आप में एक फॉर्म चला रहा है पर ब्लागस्पाट.कॉम के लिए यह सभी हिन्दी फॉरम बहुत उपयोगी हैं क्योंकि उसके हिन्दी ब्लॉग एक साथ देखने के लिए कोई अन्य जगह नहीं है. बहरहाल मैंने अन्य लोगों के आग्रह पर वहाँ अपना ब्लॉग पंजीकृत कराया. शुरू में ऐसा लगा कि शायद कोई बहुत अच्छी जगह है पर अब लगाने लगा कि वहाँ अपनी रचना दिखाने का मतलब है कि उसको बाजार में बेचना. वहां ग्राहक आपकी चीज पर कोई प्रतिकूल कमेन्ट भी कर सकता है.

पर अब उसका दूसरा रूप भी सामने आ रहा है. मैंने एक वर्ष तक जमकर लिखा कि शायद पाठक संख्या बढे पर ऐसा हुआ नहीं उल्टे ऐसा लगा कि ब्लॉग लेखकों संख्या बढाकर कुछ लोग अपनी भीड़ बढाना चाहते हैं. पुराने ब्लोगर जिनके वेब साईटों में अपने संपर्क लगते हैं अपने लिए खूब प्रचार जुटा रहे हैं. मीडिया में ऐसे लोगों को प्रचार मिल रहा है जिनकी पढने की दृष्टि से हिन्दी ब्लॉग जगत में अधिक मान्यता नहीं है. इन लोगों ने पुरस्कार बांटे और फ़िर उनका अखबारों में खूब प्रचार किया. मुझे हैरानी हुई कि किसी ने भी मेरे नाम का उल्लेख नहीं किया जब कि मैंने १२ सौ से अधिक पोस्टों को लिखा. हद तो इस बात की हो गयी कि ब्लोगों के विषयों का उल्लेख करते हुए उन महत्वपूर्ण विषयों-चाणक्य,कबीर, रहीम, मनु स्मृति, और कौटिल्य, विदुर नीति श्री गीता-का उल्लेख तक नहीं किया जाता क्योंकि इसे मैं लिखता हूँ. इतना भयभीत लोग हैं मैं समझता नहीं था. बड़े शहरों के लोगों के दो समूह बन गए हैं जिनका लिखने से अधिक इस बात पर यकीन है कि आत्मप्रचार किया जाए. वैसे मैं इन विषयों पर लिखते हुए किसी सम्मान की आशा करता भी नहीं क्योंकि इसके लिए कोई प्रायोजक नहीं मिल सकता. उल्टे अपमानित किए जाने पर कोई पुरस्कार जरूर पा सकता है ऐसी मैं आशा नहीं करता था.

छोटे शहरों के ब्लोगरों के लिए नाम,नामा और इनाम जैसी अभी कोई संभावना नहीं बनती दिखती. अब तो यही सोच रहा हूँ कि हिन्दी फोरमों पर जो ब्लॉग हैं उन पर अधिक नहीं लिखा जाए क्योंकि वहाँ सम्मान न मिले पर अपमानित कर कुछ लोग पुरस्कृत जरूर हो सकते हैं. जैसे-जैसे यह संख्या बढेगी मुझे अपने आत्म सम्मान के बचाव के लिए अधिक मानसिक संघर्ष करना पड़ेगा और ऐसे में मेरी रचनाधर्मिता प्रभावित होगी. मैंने किसी से कुछ नहीं माँगा-न नाम, न नामा न इनाम पर इससे वह संतुष्ट नहीं है. क्योंकि मेरे विषय अगर कुछ लोगों को प्रिय हैं तो कुछ लोग उनको अपमानित कर अपने लिए सम्मान भी जुटा सकते हैं. एक तो विषय है फ़िर छोटे शहर का और फ़िर लिखकर उसका पीछा न करने की आदत मुझे कहीं पुरस्कृत कराएगी यह तो मैं सोचता भी नहीं पर अपमानित करने पर कुछ लोग पुरस्कृत हों क्या मैं यह स्वीकार कर लेता. बहरहाल फ़िर भी इन फोरमों पर लिखूंगा ताकि कुछ और कहानियाँ यहाँ पर मिल सकें. वैसे मैं धर्म भीरू इन्सान हूँ और श्रीगीता का संदेश नए संदर्भों में प्रस्तुत करने का मन है, उस पर मैं लिखता भी रहा हूँ पर जिस स्वरूप में लिखने का विचार है उसे शुरू नहीं कर सका. देखता हूँ कि आगे भगवान् की क्या मेहरबानी होती है.