परमात्मा के नाम का स्मरण करते हुए कष्ट उठाना ही श्रेयस्कर-गुरू पूर्णिमा पर विशेष हिन्दी लेख


      हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के भ्रम इस तरह प्रचलित हो गये हैं कि लोग यह समझ नहीं पाते कि आखिर परमात्मा की भक्ति का कौनसा तरीका प्रभावकारी है? यह भ्रम भारत में सदियों से सक्रिय उन पेशेवर शिखर पुरुषों के कारण है जो लोगों की इंद्रियों को बाहर सक्रिय कर उनसे आर्थिक लाभ पाने के लिये यत्नशील होते हैं। समाज में अंतर्मुखी होकर परमात्मा की भक्ति करने के लिये वह उपदेश जरूर देते हैं पर उसकी जो विधि बताते हैं वह बर्हिमुखी भक्ति की  ही प्रेरक होती है।  भारत में गुरु शिष्य तथा सत्संग की परंपरा का इन पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने जमकर उठाया है।  गुरु बनकर वह जीवन भर के लिये शिष्य को अपने साथ बांध लेते हैं।  शायद ही कोई शिष्य हो जो ज्ञान प्राप्त कर इन गुरुओं के सानिध्य से मुक्त हो पाता हो।  इतना ही नहीं ऐसे धार्मिक ठेकेदार अपने धर्म की दुकान भी किसी शिष्य की बजाय अपने ही घर के किसी सदस्य को सौंपते हैं।  कहने का  अभिप्राय यह है कि अपने पूरे जीवन में धार्मिक व्यवसाय के दौरान एक भी ऐसा शिष्य तैयार नहीं कर पाते जो उनके बाद कोई संभाल सके। सत्संग के नाम पर यह अपने सामने श्रोताओं की भीड़ एकतित्र कर रटा हुआ ज्ञान देते हैं और कभी प्रमाद वाली बातें भी कर माहौल को हल्का करने का दावा भी करते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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किं वेदै स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः स्वर्गग्रामकुटीनिवाफलदैः कर्मक्रयाविभमैः।

मुक्तवैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलन। शेषाः वणिग्वृत्तयः।।

     हिन्दी में भावार्थ-वेद, स्मृतियां और पुराणों के पठन,  शास्त्रों के सूत्रों के विस्तार तथा किसी स्वर्गरूप कुटिया में रहकर स्वर्ग पाने के लिये तप करने से कोई लाभ नहीं होता। संसार में कष्ट से रहित मुक्तभाव सेे विचरण करने के लिये परमात्मा के नाम का स्मरण करने के अलावा अन्य कर्मकांड व्यापारिक प्रवृत्ति का ही प्रतीक हैं।

      वेद, पुराण, शास्त्र तथा अन्य प्राचीन धार्मिक ग्रंथों  के सू़त्र रटकर सुनाने वाले हमारे समाज में बहुत लोग हैं। हमारे देश में कथित रूप से अनेक धर्मों का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है जबकि सच यह है कि शुद्ध आचरण ही मनुष्य के धमभीरु होने का परिचायक है।  हमारे देश में विभिन्न धार्मिक पहचान वाले समूह हैं जिनके तयशुदा रंग के वस्त्र पहनकर कथित ठेकेदार  ऐसा पाखंड करते हैं कि वह देश में अपने धार्मिक समूह के खैरख्वाह है।  ऐसे लोग धार्मिक ही  नहीं आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा प्रचार के क्षेत्र में अपने संपर्क बनाते हैं। अवसर आने पर इस तरह बयान देते हैं कि गोया कि उनके वाक्य सर्वशक्तिमान के श्रीमुख से प्रकट हुए हैं।

      हमारे देश के लोगों में अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति झुकाव सदैव रहा है इसलिये समाज का एक बड़ा वर्ग इन धार्मिक गुरुओं के चक्कर में नहीं पड़ता पर जिस तरह यह लोग प्रचार करते हैं उससे तो बाहरी देशों में यह धारण बनती है कि भारत के नागरिक अधंविश्वासी हैं।  हम जैसे योग तथा ज्ञान साधकों की दृष्टि से स्थिति ठीक विपरीत है पर चूंकि गुणीजन स्वतः प्रचार नहीं करते जबकि यह पेशेवर धार्मिक ठेकेदार अपने विज्ञापन के लिये धन भी व्यय करते हैं तो ऐसा लगता है कि उनका समाज पर उनक भारी प्रभाव है।

      योग साधना, भक्ति तथा चिंत्तन एकांत में की जाने वाली क्रियायें हैं।  एक तरह से यह ज्ञान यज्ञ होता है जबकि कर्मकांड द्रव्यमय यज्ञ हैं जिसको हमारे अध्यात्मिक दार्शनिक अधिक महत्व नहीं देते।  पेशेवर धार्मिक लोग समाज को इसी द्रव्यमय यज्ञ के लिये प्रेरित करते हैं जबकि ज्ञान यज्ञ से ही परमात्मा की अनुभूति की जा सकती है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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1 Comment

  1. बहुत ही अच्छा आलेख है। आज समाज कैसे मूल धर्म से दूर हो बेकार के पाखंड़ी बाबाओं के चक्कर में पड़ चुका यह आपने बहुत भलि-भांति समझाया। परमात्मा को पाने का एक ही मार्ग है ज्ञान-यज्ञ करना।

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