भर्तृहरि नीति शतक: कुत्ता हड्डी चबाते हुए इन्द्र देवता की परवाह नहीं करता


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धिजुगुप्सितम्, निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नस्थि निरामिषम्
सुरपतिमपि श्वा पाश्र्वस्थं विलोक्य न शंकते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम्

हिदी में भावार्थ-कीड़ों,लार,दुर्गंध और देखने में गंदी रसहीन हड्डी को कुत्ता बहुत शौक से चबाता है। उस समय इंद्रदेव के अपने आने की परवाह भी नहीं होती। यही हालत स्वार्थी और नीच प्राणी की भी होती है। वह जो वस्तु प्राप्त कर लेता है उसे उपभोग में इतना लीन हो जाता है कि उसे उसकी अच्छाई बुराई का पता भी नहीं चलता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह संसार स्वार्थ और परमार्थ दो तरह के मार्गों का समागम स्थल है। अधिकतर संख्या स्वार्थियों की है जो अपने देहाभिमान वश केवल अपना और परिवार का भरण भोषण कर यह संसार चला रहे हैं। उनके लिये परिवार और पेट भरना ही संसार का मूल नियम हैं। दूसरी तरफ परमार्थी लोग भी होते हैं जो यह सोचकर दूसरो कें हित में सलंग्न रहते हैं कि इंसान होने के नाते यह उनका कर्तव्य है। वही लोग श्रेष्ठ हैं। सच तो यह है कि हम अपने हित पूर्ण करते हुए अपना पूरा जीवन इस विचार में गुजार देते हैं कि यही भगवान की इच्दा है और परमार्थ करने का विचार नहीं करते। स्वार्थ या प्रतिष्ठा पाने के लिये दूसरे का काम करना कोई परमार्थ नहीं होता। निष्प्रयोजन दया ही वास्तविक पुण्य है। अगर हम सोचते हैं कि सारे लोग अपने स्वार्थ पूरे कर काम कर लें तो संसार स्वतः ही चलता जायेगा तो गलती कर रहे हैं। कई बार हमारे जीवन में ऐसा अवसर आता है जब कोई हमारी निष्प्रयोजन सहायता करता है पर हम अपना कठिन समय बीत जाने पर उसे भूल जाते हैं और जब किसी अन्य को हमारी सहायता की जरूरत होती है तब मूंह फेर जाते हैं। यह श्वान की प्रवृत्ति का परिचायक है। भगवान ने हमें यह मनुष्य यौनि इसलिये दी है कि हम अन्य जीवों की सहायता कर उसकी सार्थकता सिद्ध करें। यह सार्थकता स्वार्थ सिद्धि में नहीं परमार्थ करने में है।
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भर्तृहरि शतकः हंसों का मूल गुण परमात्मा भी नहीं छीन सकता


अम्भोजिनी वनविहार विलासमेव हंसस्य हंति नितरां कुपितो विधाता।
न त्वस्य दुग्धवाभेदविधौ प्रसिद्धां वेंदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौं समर्थः

हिंदी में भावार्थ- अगर परमात्मा नाराज हो जाये तो वह हंसों का वनों में विहार करने से रोक सकता है लेकिन उनमें पानी और दूध को अलग अलग करने का जो स्वाभाविक गुण है उसे नष्ट नहीं कर सकता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- श्रीगीता के संदेश के अनुसार भी जीव का जन्म परमात्मा की इच्छा से ही होता है पर पंच तत्वों से बनी देह में मन, अहंकार और बुद्धि से संचालन वह स्वयं करते हुए अपने कर्मों के फल के लिये दायी होता है। अधिकतर धर्मों के गुरु अपने भक्तों के सामने यह भ्रम पैदा करते हैं कि उनके कर्म और फल के लिये परमात्मा ही जिम्मेदार है, इसलिये वह केवल उसकी भक्ति करें। सच बात तो यह है कि इस तरह वह सांसरिक कर्मों से लोगों को विमुख करने का प्रयास करते हैं पर साथ ही फिर अपनी दान दक्षिण के नाम उन्हें धन संग्रह के लिये भी प्रेरित करते हैं। व्यक्ति को नैतिकता, अंिहंसा और परोपकार का उपदेश तो सभी गुरु देते हैं पर उसके लिये प्रेरित करने का उनके पास कोई उपाय नहीं होता। बस प्रवचनों में उनकी बात सुनो फिर भूल जाओ फिर सुनने आओ-यह क्रम चलता रहता है।

जब कोई व्यक्ति अपना दुःख लेकर ऐसे गुरुओं के पास पहुंचता है तो यही कहते हैं कि ‘जैसी परमात्मा की मर्जी। हमें तो बस यह संसार देखना है।’ आदमी अपने गुणों और अवगुणों का अध्ययन कर अपने कर्म का निर्णय करे ऐसा उपाय कोई नहीं बताता। अगर यह देह है तो आदमी अपने स्वाभाविक गुणों के वशीभूत कर कोई न कोई कर्म करेगा पर ज्ञानी परिणाम और स्थिति देखकर कदम बढ़ाते है जबकि सामान्य आदमी बिना सोचे समझे कर्मफल पर दृष्टि रखते हुए आगे बढ़ता है और फिर परेशान होता है। आत्म मंथन किये बिना मनुष्य जब आगे बढ़ता है तो उसे सफलता मिलना कठिन हो जाती है। आत्म मंथन से आशय यह है कि अपने अंदर मौजूद गुणों और अवगुणों का अवलोकन करते हुए अपना लक्ष्य निर्धारित करना चाहिये। परमात्मा ने हमें कर्म करने की सारी शक्ति दी है इसलिये अपने कर्म की प्रेरणा के लिये उसकी तरफ ताकने की बजाय अपने गुणों के आधार पर लक्ष्य की तरफ बढ़ना चाहिये। सच बात तो यह है कि परमात्मा ने जिन गुणों को स्वाभाविक रूप से हमें सौंपा है उन्हें वह चाहकर भी वापस नहीं ले सकता क्योंकि वह फल को प्रदान तो करता है पर कर्र्म का निर्धारण जीव को स्वयं ही करना है।
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भर्तृहरि नीति शतक: जिनकी देह,मन और विचार में अमृत हो ऐसे लोग नगण्य


मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः
परगुणपनमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृवि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः

हिंदी में भावार्थ- जिनकी देह मन और वचन की शुद्धता और पुण्य के अमृत से परिपूर्ण है और वह परोपकार से सभी का हृदय जीत लेते हैं। वह तो दूसरों को गुणों को बड़ा मानते हुए प्रसन्न होते हैं पर ऐसे सज्जन इस संसार में हैं ही कितने?
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-दूसरों के दोष गिनाते हुए अपने गुणों का बखान तथा दिखाने के लिये समाज के कल्याण में जुटे कथित लोगों की कमी नहीं है। आत्म विज्ञापन से प्रचार माध्यम भरे पड़े हैं। अपने अंदर गुणों का विकास कर सच्चे हृदय से समाज सेवा करने वालों का तो कहीं अस्तित्व हीं दिखाई नहीं देता। अपनी लकीर को दूसरे की लकीर से बड़ा करने वाले बुद्धिमान अब कहां हैं। यहां तो सभी जगह अपनी थूक से दूसरे की लकीर मिटाने वाले हो गये हैं। ऐसे लोगों की सोच यह नहीं है कि वह समाज कल्याण के लिये कार्य कैसे करें बल्कि यह है कि वह किस तरह समाज में दयालू और उदार व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध हों। प्रचार करने में जुटे लोग, गरीबों और मजबूरों के लिये तमाम तरह के आयोजन करते हैं पर वह उनका दिखावा होता है। ‘मैंने यह अच्छा काम किया’ या ‘मैंने उसको दान दिया’ जैसे वाक्य लोग स्वयं ही बताते हैं क्योंकि उनके इस अच्छे काम को किसी ने देखा ही नहीं होता। देखेगा भी कौन, उन्होंने किया ही कहां होता?

इस संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो परोपकार और दया काम चुपचाप करते हैं पर किसी से कहते नहीं। हालांकि उनकी संख्या बहुत नगण्य है पर सच तो यह है कि संसार के सभी सभ्य समाज उनके त्याग और बलिदान के पुण्य से चल रहे हैं नकली दयालू लोग तो केवल अपना प्रचार करते हैं।
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