सादगी से कही बात
किसी को समझ में नहीं आती है
इसलिए शायद कुछ लोग श्रृंगार रस की
चाशनी में डुबो कर सुनाते हैं
अलंकारों में सजाते हैं
तो कुछ वीभत्स के विष से डराते हैं
आदमी में विषय के लिए जिज्ञासा जगाते हैं
आदमी के दिल में ही रहता है
प्यार और खौफ
जिसे कभी कवियों ने बहलाया था
अब तो बाजार में सजी दुकानों पर
दर्द की दवा हो या ख़ुशी के लिए अमृत
हर शय बिकने के लिए सज जाती हैं
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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की सिंधु केसरी-पत्रिका ’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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Month: February 2009
अंतर्जाल पर अंग्रेजी से नहीं बल्कि हिन्दी से ही बदलाव हो सकता है=आलेख
अंतर्जाल के ब्लाग पर सामाजिक आंदोलन और जागरुकता के लिये प्रयास कोई अब नयी बात नहीं है। कुछ लोगों ने अभी हाल ही में वेलंटाईन डे के पहले तक इंटरनेट पर चले विवाद पर लिखे गये पाठों को देखकर यही निष्कर्ष निकाला है कि आने वाले समय में भारत के 4.2 करोड़ इंटरनेट प्रयोक्ता सड़क पर जाकर नारेबाजी करते हुए लाठी झेलने की बजाय अपने घरों पर कंप्यूटर और लैपटाप पर आंदोलन करना ठीक समझ रहे हैं। यह दिलचस्प है। ऐसे में एक प्रश्न जरूर उठता है कि आखिर इस देश में कौनसी भाषा के ब्लाग पर हम ऐसी आशा कर रहे हैं? यकीनन वह हिंदी नहीं है बल्कि अंग्रेजी है और जब देश में सामाजिक आंदोलन और जागरुकता के लिये प्रयासों की आवश्यकता है तो उसके लिये सबसे महत्वपूर्ण भूमिका हिंदी के ब्लाग की होना चाहिये-बिना उनके यह कल्पना करना कठिन है।
अभी समाचार पत्र पत्रिकायें जिन ब्लाग का नाम अखबारों के दे रहे हैं वह अंग्रेजी के हैं। विवादास्पद विषय पर अखबार में नाम आने से उनको खोलकर पढ़ने वाले बहुत आते हैं-सामान्य रूप से आने पर ब्लाग में कोई दिलचस्पी नहीं लेता। समाचार पत्र पत्रिकाओं में नाम आने से वैलंटाईन डे से पूर्व तक चले विवाद पर जो पाठ अंग्रेजी ब्लाग पर लिखे गये उनको पाठक मिलना स्वाभाविक था पर हिंदी के ब्लाग के बिना किसी भी आंदोलन या जागरुकता के प्रयास में सफलता नहीं मिल सकती।
इस विवाद पर हिंदी के ब्लाग पर भी जमकर लिखा गया। हिंदी ब्लाग लेखकों ने उन अंग्रंेजी ब्लाग के लिंक दिये और इसमें संदेह नहीं कि उनको पाठक दिलवाने में योगदान दिया। नारी स्वातंत्र्य पर एक फोरम अंतर्जाल पर बनाया जिस पर 14 फरवरी वैलंटाईन डे पर दस हजार से अधिक सदस्य शामिल हुए। कुछ वेबसाईट भी जबरदस्त हिट ले रहीं थी पर यह सभी अंग्रेजी भाषा से सुसज्जित समाज का ही हिस्सा था। आम भारतीय जिसकी भाषा हिंदी है उसका न तो वैंलंटाईन डे से लेना देना था न नारी स्वातंत्र्य पर चल रही सतही बहस से। फिर भी समाचार पत्र पत्रिकाओं ने उस विवाद को महत्वपूर्ण स्थान दिया। ऐसे में हिंदी ब्लाग पर चल रही बहस का कहीं जिक्र नहीं आया जो कि इस बात का प्रमाण है प्रचार माध्यम उसकी अनदेखी कर रहे हैं। हालांकि हिंदी ब्लाग लेखकों के दोनों पक्षों ने इस विषय पर बहुत अच्छा लिखा पर कुछ ब्लाग लेखकों के निजी आक्षेपों ने उनके पाठ को कमजोर बना दिया।
हमारा यहां उद्देश्य वैलंटाईन डे पर हुई बहस के निष्कर्षों पर विचार करना नहीं है बल्कि सामाजिक आंदोलन और जागरुकता में हिंदी ब्लाग के संभावित योगदान का आंकलन करना है। यह बात इस लेखक द्वारा हिंदी क्षेत्र के होने के कारण नहीं लिखी जा रही कि भारत में हिंदी ब्लाग की ही किसी सामाजिक परिवर्तन में भूमिका हो सकती है। अगर अंग्रेजी ब्लाग की भूमिका हुई तो वह हिंदी समाचार पत्र पत्रिकाओं में उनके पाठों के स्थान मिलने का कारण होगी न कि अपने कारण। यह हैरानी की बात है कि ब्लाग का प्रचार तो सभी कर रहे हैं पर इस सत्य से मूंह छिपा रहे हैं कि वह अंग्रेजी भाषा के ब्लाग के बारे में लिख रहे हैं न कि हिंदी के बारे में। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि अंग्रेजी के मोह के कारण प्रचार चाहने वाले प्रतिष्ठित लोग अंग्रेजी के ब्लाग पर ही अपना नाम देखना चाहते हैं जैसे कि बी.बी.सी. लंंदन के समाचारों में देखते हैं। जहां तक हिट का प्रश्न है तो अभी अंतर्जाल पर कई तरह के भ्रम हैं कि क्या वाकई अंग्रंजी ब्लाग लेखकों के उतने पाठक हैं जितने कि वह दावा करते हैं। अंग्रेजी के एक ब्लाग लेखक ने अपनी एक टिप्पणी में लिखा था कि अंग्रेजी में वही ब्लाग हिट ले रहे हैं जो प्रायोजित हैं पर जो सामान्य लोगों के ब्लाग हैं उनकी कमोबेश स्थिति हिंदी जैसी है। सच क्या है कोई नहीं जानता। वैसे भी किसी एक के दावे पर यकीन करना ठीक नहीं है।
फिर यह ंअंतर्जाल है। अंग्रेजी का परचम फहरा रहा है यह सही है पर भारतीय विषयों पर हिंदी में लिखा गया है तो उसे पाठक नहीं मिलेंगे यह भी भ्रम है। हां, इतना अवश्य है कि उच्च स्तर पर अंग्रेजी भाषा के लोगों का वर्चस्व है और वह अपने ब्लाग हिट बना लेते हैं पर इसके लिये उनकी तकनीकी कौशल या चतुर प्रबंधन को ही श्रेय दिया जा सकता है न कि पाठों को। यह हैरान करने वाली बात है कि अगर अंग्रेजी ब्लाग के मुकाबले हिंदी ब्लाग के लेखक अधिक भावनात्मक ढंग से अपनी बात रखते हैं और उनके पाठक भी उनको ऐसे ही पढ़ते हैं।
एक बात तय रही कि अंग्रेजी के ब्लाग पढ़ने वाले बहुत मिल जायेंगे क्योंकि उनको हिंदी ब्लाग के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। दूसरा कारण यह है कि हिंदी के प्रचार माध्यम केवल चुनींदा हिंदी ब्लाग लेखकोें पर ही प्रकाश डालते हैं क्योंकि सभी की पहुंच उनके कार्यालयों तक नहीं है। जब किसी विषय के साथ ब्लाग का नाम देना होता है तो अंग्रेजी के ब्लाग का नाम तो दिया जाता है पर हिंदी के ब्लाग को एक समूह के नाम से संबोधित कर निपटा दिया जाता है। कभी कभी झल्लाहट आती है पर फिर सोचते हैं कि अगर कहीं इन्होंने हिंदी के ब्लाग के नाम अपने प्रचार में दिये तो फिर उनको ही तो चुनौती मिलेगी-भला कौन व्यवसायी अपने सामने प्रतिस्पर्धी खड़ा करना चाहेगा। हिंदी के ब्लाग लेखकों के पास साधन सीमित है। मध्यवर्गीय परिवारों के लोग किस तरह अपने ब्लाग चला रहे हैं यह तो वही जानते हैं। फिर जो ब्लाग लेखक हैं उनमें से अधिकतर शांति से रहकर काम करने वाले हैं। किसी प्रकार का दूराव छिपाव नहीं करते इसलिये ही तो अंग्रजी ब्लाग का भी लिंक देते हैं पर अंग्रेजी के ब्लाग ऐसा कहां करने वाले हैं?
लब्बोलुवाब यह है कि बातेंे बड़ी करने से काम नहीं चलेगा। तमाम लोग जो सामजिक आंदोलन और जागरुकता के लिये ब्लाग की भूमिका चाहते हैं उनको यह समझना चाहिये कि यह केवल हिंदी में ही संभव है। ऐसे में वह इसी बात का प्रयास करें कि हिंदी ब्लाग जगत का ही प्रचार करें। हालांकि इसके आसार कम ही हैं क्योंकि वैलंटाईन डे पर नारी स्वातंत्र्य की समर्थक जिन वेबसाईटों का प्रचार हो रहा है उनके सामने प्रतिवाद प्रस्तुत करने वाला कौन था? यकीनन कोई नहीं। हां, हिंदी ब्लाग जगत में बहुत सारे पाठ थे जो नारी स्वातंत्र्य के रूप में पब के प्रचार के विरुद्ध जोरदार ढंग से लिखे गये तो परंपरा के नाम पर स्त्रियों पर अनाचार के विरुद्ध भी बहुत कुछ प्रभावी ढंग से कहा गया। तीसरे पक्ष भी था जिसमें ब्लाग पर ऐसे भी पाठ लिखे गये जो इस मुद्दे को ही प्रायोजित मानते हुए समर्थन या विरोध करने की बजाय उसका मजाक उड़ा रहे थे। देश का बहुत बड़ा पाठक वर्ग उससे पढ़ने से वंचित रह गया जो शायद अंग्रेजी में लिखे गये पाठों से बहुत अच्छा था। वैसे एक बात भी लगती है कि वैलंटाईन पर एकतरफा बहस शायद अंग्रेजी में ही संभव थी क्योंकि उनके पाठ एकदम सतही थे। हिंदी वाले तो बहुत गहराई में उतरकर लिखते हैं और एक बार कोई अच्छा ब्लाग पढ़ ले तो पाठक् उनको पढ़ने पर ही आमादा हो जाते हैं। अंग्रेजी में जो ब्लाग इस दौरान हिट हुए वह भला अब रोज थोड़े ही हिट रहने वाले हैं। अगर इस बात से सीखा जाये तो भी यही निष्कर्ष निकलता है कि समाज में स्थाई परिवर्तन केवल हिंदी भाषा के ब्लाग से ही संभव है। अंग्रेजी में क्षणिक प्रचार ही संभव है स्थाई परिवर्तन नहीं।
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वेलेंटाइन डे का एक दिन में शोर थमा-हास्य-व्यंग्य (velantine day ka shor-hasya vyangya)
कल वैलंटाईन डे बीत गया। पिछले प्रदंह दिन से उसका प्रचार जोरदार ढंग से हुआ। आज अनेक खबरें इस बारे में समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में छायी हुईं हैं। अधिकतर लोगोंं का ध्यान सड़कों, पार्कों, होटलों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर हुए अच्छे बुरे दृश्यों के विश्लेषण पर केंद्रित हैं पर कुछ लोग हैं जिनका ध्यान बाजार समाचार पर है। टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं की इस बात के लिये भी प्रशंसा करनी चाहिये कि उन्होंने इस बात को छिपाया नही कि मंदी से जूझ रहे बाजार को कल एक दिन के लिये संजीवनी मिल गयी-यह कितने दिन काम करेगी यह तो बाद में ही पता चलेगा।
इन्हीं समाचारों से पता चला कि इस बार कथित प्रेमियों ने सोने या उससे संबंद्ध उपहार अपने प्रेमियों को दिये-यह भी बताया है कि ऐसी सलाह प्रेमियों को बाजार विशेषज्ञों ने ही दी थी। इस बार मंदी के कारण विदेशी गुलाब फूलों की बिक्री के कारण कम बिकने की आशंका थी पर वह गलत निकली। उपहारों के सामान और ग्रीटिंग कार्ड खूब बिके। निष्कर्ष यह है कि मंदी का वैलंटाईन डे पर बुरा प्रभाव नहीं हुआ पर भविष्य में ऐसी आशंका से इंकार भी नहीं किया जा सकता।
प्रचार और विज्ञापन से पहले आदमी का असहज किया जाता है ताकि वह बाजार के लिये एक ग्राहक के रूप में तैयार हो सके। विदेशी या पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित हो कथित दिवस यहां प्रचलन में आये हैं वह एक दिन में नहीं आये बल्कि उसके लिये बकायदा योजना बनायी गयी। यह योजना भले ही संगठित रूप से न बनी हो पर धीरे धीरे वह बृहद रूप लेती गयी।
हमारे देश में किसी भी फैशन की शुरुआत फिल्मों से ही होती थी। अब टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकाओं ने भी इसमें योगदान देना प्रारंभ कर दिया है। भले ही उनको प्रत्यक्ष रूप से लाभ नहीं होता पर उनके प्रायोजक और विज्ञापनदाता उनसे ऐसी आशा करते हैंे कि वह अपने पाठकों और दर्शकों उनके उत्पादों और वस्तुओं की तरफ आकर्षित कर सकें।
हर बार की तरह एक बहुत बड़ा वर्ग इससे दूर ही रहा। यह अलग बात है कि वैलंटाईन डे पर बाजार को संजीवनी देने के लिये पूरे विश्व में प्रयास हुए और भारत में तो ऐसा लगता है कि इसकी भूमिका एक माह पहले ही तैयार की गयी। एक बड़े शहर में पब पर हुए आक्रमण में विरोध स्वरूप कुछ लोगों ने उसे वैलंटाईन डे से जोड़ दिया। देखा जाये तो दो ऐसे प्रसंग हुए जिनको बाजार के लिये प्रचार प्रबंधकों ने खूब पकाया।
अगर आप लेखक या पत्रकार हैं तो यह जरूरी नहीं है कि हर घटना पर अपनी सहमति या असहमति जतायें। अगर आप परंपरावादी होने का दावा करते हुए पाश्चात्य सभ्यता का विरोध करते हैं तो यह याद रखना चाहिये कि अपने धर्मग्रंथों में उपेक्षासन भी एक विधि जिससे प्रतिद्वंद्वी को परास्त किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इस आसन के लिये आपको सहज होना पड़ता है, मगर जब आप विरोध करने के लिये तत्पर होते हैं तब अपने अंदर उस असहज भाव को प्रवेश होने देतें हैं तो इसका मतलब यह है कि आज बाजार की सहायता कर रहे हैं जिसकी कीमत प्रचार प्रबंधक वसूल कर ही लेते हैं।
एक दृष्टा की तरह अनेक लोग बाजार के इस खेल को देख रहे थे। टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओंं से इसका पता नहीं चलता पर अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग पढ़ने से पता लगता है कि अधिकतर लोग विवाद बढ़ाने वाली घटनाओं में बाजार की योजना और हाथ होने का अनुभव कर रहे थे। भले ही विवाद करने वालों का आशय पैसा कमाने से अधिक प्रचार पाना हो पर अनजाने में वह व्यवसायिक प्रचारकों की सहायता कर रहे थे।
मामूली घटनाओं में नारी स्वातंत्र्य और सांस्कृतिक मूल्यों की तलाश करने वाले आपस में बहस कर रहे थे जबकि बाजार का मतलब केवल अपने लिये पैसा कमाने का था। शराब महिला पिये या पुरुष यह उसका निजी मामला है पर अगर कोई उन पर आक्रमण करता है तो उससे निपटने की जिम्मेदारी कानून की है और वह उसे भी निभा रहा है पर बहस करने वालों को विषय चाहिये था। नारी स्वातंत्र्य के समर्थक इसमें सदियों पुरानी परंपराओं के विरुद्ध आव्हान करते हैंं तो परंपरावादी लोग अपने सांस्कृतिक मूल्यों के लिये फिक्रमंद दिखते हैं। अगर आप उनके लिखे हुए पाठ या दिखाये जा रहे दृश्य देखें तो आपको लगेगा कि यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है पर अगर आप सड़क पर निकल जाईये तो इस बहस से अनजान लाखों लोगों को अपने लक्ष्य की ओर आते जाते देखा जा सकता है। बाजार को उनकी उपेक्षा बुरी लगती है इसलिये वह हर जगह अपने उत्पाद और वस्तुओं का प्रचार देखना चाहता है। ऐसे में जहां प्रचार की संभावना है वहां बाजार अपना दांव खेलता है और प्रचार प्रबंधक भी यह सोचकर उसमें जुट जाते हैं कि उससे उनके प्रयोजकों और विज्ञापनदाताओं को लाभ हो।
इधर अंतर्जाल पर अनेक पाठ देखकर अच्छा लगा। सच बात तो यह है कि समाचार पत्र पत्रिकाओें और टीवी चैनलों की सीमायें हैं। वह अपनी तरफ से कोई बात नहीं कह पाते बल्कि उनको आवश्यकता होती है उसके लिये किसी मुख की जिसके नाम से वह कुछ लिख सकें। अगर विवाद हो तो उसे दो मुखों की आवश्यकता होती है-एक समर्थन के लिये दूसरा विरोध के लिये। तय बात है कि जिन्हें प्रचार चाहिये वह इधर या उधर से होकर बोलते हैं ताकि उनके मुख चमक सकें। अंतर्जाल पर हिंदी ब्लाग में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। पाठ लिखने वाले ने लिखा तो असहमत होने वालों ने उस पर समर्थन या विरोध में टिप्पणी की वह भी कम पढ़ने लायक नहीं होती। प्रतिवाद में पाठ तक लिख जाते हैं और फिर अधिक गुस्सा हो तो सामने वाले ब्लाग लेखक का नाम ही शीर्षक मेंे दिया जाता है।
यहां भी दोनों पक्षंों के ब्लाग लेखक हैं। पिछले दो वर्षों में यह पहला ऐसा अवसर था जब वैलंटाईन डे पर ऐसे पाठ ब्लागों पर पढ़ने को मिले जो बहुत दिलचस्प लगे। आम जीवन की तरह इस विषय पर उपेक्षासन कर रहे ब्लाग लेखक ही अधिक थे पर वैलंटाईन डे के पक्ष और विपक्ष ब्लाग पर लिखे गये पाठ पढ़ने से भला कौन चूक सकता था? उनको हिट मिलना स्वाभाविक था क्योंकि द्वंद्व हर इंसान को देखने में मजा आता है-अगर वह खुद उसके पात्र न हों। जो स्वयं बहस में लिप्त नहीं होते वही उन बहसों का निष्कर्ष निकाल सकते हैं पर अगर पूरी तरह उपेक्षासन करने वाले हों तो फिर हंस तो सकते ही हैं। सच बात तो यह है कि अगली बार वैलंटाईन डे पर जिन आम लोगोंे को समय हो तो वह बजाय कहीं अन्यत्र जाने के हिंदी ब्लाग जगत पर अधिक सक्रिय रहें इसके लिये जरूरी है कि वह अभी से ही सक्रिय हो जायें क्योंकि उनको जो संतोष यहां मिल सकता है वह किसी अन्य प्रचार माध्यम पर नहीं मिल सकता।
प्रसंगवश हमारे मित्र ब्लाग लेखकों की इसमें जोरदार भूमिका थी और उनका सामना भी ऐसी महिला ब्लाग लेखिकाओं से हुआ जिनके प्रति हमारे मन में आत्मीय भाव है। अब यह छिपाना बेकार है कि ब्लाग के पाठों पर चले रहे इन द्वंद्वों के प्रति हमने उपेक्षासन किया होगा। चूंकि इस विषय पर हमने केवल बाजार की दृष्टि से ही विचार किया इसलिये किसी सिद्धंात या आदर्श की बात करना हमें स्वयं स्वीकार नहीं था।
एक बात तय कि अपनी बात किसी से जबरन मनवाने की बजाय उसे अपने विचार या व्यवहार से प्रभावति करना चाहिये और यही सभ्य समाज का तकादा है। बहसें होना चाहिये पर मर्यादा के पार नहीं जाना चाहिये। मतभेद हों पर मनभेद नहीं होना चाहिये। बजार और प्रचार का यह खेल कभी थमने वाला नहीं है। अभी तो उनके पास 365 दिनों में केवल 20 से 25 दिन प्रचार के लिये हैं। हो सकता है कल वह पूर्व और उत्तर से कोई दिन निकालें और उसका यहां प्रचार करने लगें। उनको तो 365 दिन ही बाजार में ग्राहक चाहिये।
आदमी जो कपड़े पहनने या सोने के लिये उपयोग करता है उसके पूरी तरह गल जाने पर ही दूसरा खरीदता है-बहुत कम लोग हैं जो नये वस्त्र खरीद सकते हैं। फिर खुद खरीदने से कहां खुशी होती है जितना दूसरे को उपहार देने से। शायद इसलिये प्रचार माध्यम उपहार की बात अधिक करते हैं। आदमी अपने चीज पुरानी या नष्ट होने पर आये, बाजार इतनी देर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। इसलिये ग्रीटिंग कार्ड और अन्य उपहार जो उपयोग में अधिक नहीं होते पर बाजार को पैसा देते हैं उनको बेचने का मार्ग यही एक मार्ग है। बहरहाल शोर थम गया है और ऐसा शांति लग रही है जैसे धुलेड़ी में दो बजे के बाद बाजार में लगती है। जिस तरह के दृश्य सामने आये उससे तो लगता है जैसे कि यह होली का पर्व हो। अंतर बस इतना ही है कि उस समय गंदगी और रंगों के विषैले होने के भय से लोग बाहर नहीं निकलते पर वैलंटाईन डे के दिन यह खतरा उन युवाओं के लिये ही है जो जोड़े बनाकर घूमते हैं।
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मंदी का दौर:नया उपभोक्ता वर्ग कहां से आयेगा-आलेख
अमेरिका के उद्योगपति बिल गेट्स ने कहा है कि वर्तमान मंदी अगले चार साल तक चल सकती है। बिल गेट्स विश्व में प्रसिद्ध उद्योगपति हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा लेने को कहा जाता है। वैसे उन्होंने जो अनुमान लगाया है उसके जो आधार होंगे वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के बाजार को दृष्टिगत बनाये गये होंगे। वैसे तो भारत में भी मंदी का दौर चल रहा है पर आज तक यह कोई नहंी बता पा रहा है कि आखिर यह मंदी आई कैसे?
जिन लोगों ने दृष्टा की तरह इस बाजार को देखा होगा वह कभी न कभी इस आशंकित मंदी पर विचार अवश्य करते रहे होंगे। नित प्रतिदिन नवीन उत्पादों की चर्चा आये दिन प्रचार माध्यमों में आती है पर यह बात याद रखने लायक है कि वह पुराने प्रचलित उत्पादों को बाहर अधिक करते हैं बनिस्बत नये ग्राहक बनाने के। अभी में भारत में एक सस्ती कार के निर्माण और बाजार में और की चर्चा है इस कार को देखने के बाद-एक टीवी में एक मेले में इसका माडल दिखाया गया था-कोई भी कह सकता है कि वह लोगों में कम दाम से अधिक अपनी डिजाइन के कारण लोकप्रिय होगी। जिन लोगों के पास महंगी और आकर्षक कारें हैं वह भी इसका उपयोग स्थानापन्न रूप से कर सकते हैं या पुरानी बेचकर वही लेना चाहेंगे। इस कार को नये उपभोक्ता खरीदेंगे पर उनकी संख्या कम होगी। अब यह संभव है कि अनेक महंगी और बड़ी गाडि़यों की बिक्री में कमी उसकी वजह से हो सकती है। कहने का तात्पर्य है कि जो तेजी बाजार में चल रही थी-कम से कम भारत में-वह सीमित वर्ग के धन के व्यय पर चल रही थी। यही वर्ग बदल बदल कर आ रहे उत्पादों को खरीद रहा था। हां शुरुआताी दौर में फ्रिज,टीवी,कूलर,कार,मोटर साइकिल तथा अन्य औद्योगिक उत्पादों को नये होने के कारण भारत में बहुत बड़ा बाजार मिला पर जैसे ही मध्यम वर्ग के सभी लोगों से इसे प्राप्त कर लिया तो उसके बाद फिर वही वर्ग नये उत्पादों को खरीद रहा जिसके पास अपने मूल स्त्रोत से अलग भी आय है-या फिर कहा जाये कि उनके पास एक से अधिक आय के स्त्रोत हैं। इसके अलावा निजी क्षेत्र में ं नयी और आकर्षक नौकरी के कारण भी एक वर्ग नये उत्पादों को खरीदता रहा। देश में उदारीकरण के प्रारंम्भिक दौर में उस समय अनेक उद्योगों और व्यवसायों को अपना मूल ढांचा खड़ा करने के लिये लोग चाहिये थे और उन्होंने इसलिये अपने यहां बड़े पैमाने पर नौकरियां दीं। इनमे आप टेलिफोन कंपनियों का नाम ले सकते हैं। उनकेा नये कनेक्शन और ग्राहक जुटाने थे इसलिये उन्होंने अपना संगठन बढ़ाया। अब वह स्थापित हो गये हैं। शहरों में उन्होंने अपना नेटवर्क स्थापित कर लिया है और नई लाईनें डालने और ग्राहक बनाने का उनका दायरा अब उतना नहीं है जितना दो या तीन वर्ष पूर्व था। तय बात है कि उनको अपने यहां नौकरियां ओर कर्मचारी कम करना पड़ सकते हैं। इसका असर उन लोगों की क्रय क्षमता पर पड़ना है जो वहां से हटाये जायें या कहीं ऐसी जगह रखें जायें जहां उनका स्वयं का व्यय ही अधिक हो जाये। फिर मंदी के दौर के चलते जहां अनेक लोग नौकरियां गंवा रहे हैं या उनके वेतन में कमी हो रही है इससे भी एक उपभोक्ता के रूप में उनकी क्रय क्षमता का हृास हो रहा है।
दरअसल इस मंदी का मुख्य कारण यह है कि कंपनियों ने अपने विनिवेशकों को खुश करने के लिये अधिक लाभांश या ब्याज दिया। यह अलग बात है कि कंपनी के उच्चाधिकारियों के पास भी अधिक मात्रा में शेयर होते हैं और उनको स्वयं भी लाभ मिलता है। इतना ही नहीं कितनी भी मंदी हो कंपनियों के उच्चाधिकारियों के लाभों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह अपना उच्च स्तर बनाये रखते हैं-कई जगह वेतन के साथ वह कमीशन भी प्राप्त करते हैं-उनके व्यय में कमी नहीं आती। अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अपने देश की कंपनियों को इस बात के लिये लताड़ा भी था कि उनके उच्चाधिकारी न केवल ठाठ से रह रहे हैं बल्कि बोनस भी ले रहे हैं जबकि उनकी कंपनियां मंदी का संकट झेलते हुए सरकार से मदद की गुहार लगा रही हैं।
भारत में तो वैसे भी कर्मचारियों और मजदूरों का शोषण होता रहा है और कंपनियां भी इससे पीछे नहीं हैं। मुख्य बात यह है कि उन छोटे कर्मचारियों का सभी जगह शोषण होता है जो मजदूरी या लिपिकीय कार्य करते हैं। इनके वेतन बहुत कम रखे जाते हैं यह सोचकर कि उनका कोई महत्वपूर्ण नहीं है या उन जैसे बहुत मिल जायेंगे। कंपनियां यह भूल जाती हैं कि उनके कर्मचारी किसी के उपभोक्ता होते हैं जैसे कि अन्य जगह कार्यरत कर्मचारी उनके भी उपभोक्ता होते है। एक टेलीफोन कंपनी मेंं कार्यरत टीवी और फ्रिज भी खरीदता है तो टीवी कंपनी के लिये कार्य करने वाला अपने यहां टेलीफोन भी लगवाता है। अगर हम इस चक्र को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अधिकतर कंपनियां या उद्योगपति समाज के दोहन में लगे रहते हैं और उपभोक्ता के रूप मेंं दूसरे की जेब से पैसा निकालने के लिये तत्पर होते हैं पर जब उसे भरने की बात आती है तो उनको अपने लाभ की चिंता सताती है। इन उद्योगतियों और कंपनियों के उच्चाधिकारियों का बहुत सारा यकीनन बैंकों में सड़ता होगा और वह बैठकर इस मंदी का लुत्फ उठाते हैं और प्रचार माध्यमों में मंदी का रोना रोते हैं।
भारत में जो नवीन उपभोक्ता वर्ग गुणात्मक रूप से बढ़ रहा था उसमें अब घनात्मक वृद्धि ही संभव है इसलिये नवीन उत्पाद किसी पुराने उत्पाद को या तो रीसेल के लिये भेजेंगे या कबाड़ में डाल देंगे। इससे बाजार उठने वाला नहीं है। वैसे भी आदमी कितना कबाड़ घर में रखेगा? घर भी आखिर भरने लगता है। यह मंदी का दौर कब तक चलेगा कोई नहीं जानता क्योंकि सभी जगह समस्या यही रहने वाली है कि नया उपभोक्ता वर्ग कहां से आयेगा या उसकी जेब कैसे भरेगी। आखिर आदमी भी कब तक कबाड़ में चीजें रखेगा।
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