हिन्दी शायरी-ताज और दौलत (hindi shayari-taj aur daulat)


जिनको पहनाया ताज़
वही दौलत के गुलाम हो गये,
जिन ठिकानों पर यकीन रखा
वही बेवफाई की दुकान हो गये।
किसे ठहरायें अपनी बेहाली का जिम्मेदार
दूसरों की कारिस्तानियों से मिली जिंदगी में ऐसी हार
कि अपनी ही सोच पर
ढेर सारे शक और
मुंह से निकलते नहीं लफ्ज़
जैसे कि हम बेजुबान हो गये।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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खुल गयी प्यार की पोल-हिन्दी हास्य कविता(khul gayi pyar ki pol-hindi haysa kavita)


आशिक ने कहा माशुका से
‘‘मुझसे पहले भी बहुत से आशिकों ने
अपनी माशुकाओं के चेहरे की तुलना
चांद से की होगी,
मगर वह सब झूठे थे
सच मैं बोल रहा हूं
तुम्हारा चेहरा वाकई चांद की तरह है खूबसूरत और गोल।’’

सुनकर माशुका बोली
‘‘आ गये अपनी औकात पर
जो मेरी झूठी प्रशंसा कर डाली,
यकीनन तुम्हारी नीयत भी है काली,
चांद को न आंखें हैं न नाक
न उसके सिर पर हैं बाल
सूरज से लेकर उधार की रौशनी चमकता है
बिछाता है अपनी सुंदरता का बस यूं ही जाल,
पुराने ज़माने के आशिक तो
उसकी असलियत से थे अनजान,
इसलिये देते थे अपनी लंबी तान,
मगर तुम तो नये ज़माने के आशिक हो
अक्षरज्ञान के भी मालिक हो,
फिर क्यूं बजाया यह झूठी प्रशंसा का ढोल,
अब अपना मुंह न दिखाना
खुल गयी तुम्हारी पोल।’’
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-बुद्धि और परिश्रम के संयुक्त प्रयास से ही सफलता संभव


धातोश्चामीकरमिव सर्पिनिर्मथनादिव।
बुद्धिप्रयत्नोपगताध्यवसायाद्ध्रवं फलम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह अनेक धातुओं में मिला होने पर भी गलाने से प्रकट होता है तथा दही मथने से घृत प्रगट होता है वैसे बुद्धि और उद्योग से के संयुक्त उद्यम से फल की प्राप्ति भी होती है।
सूक्ष्मा सत्तवप्रयत्नाभ्यां दृढ़ा बुद्धिरधिष्ठिता।

प्रसूते हि फलं श्रीमदरणीय हुताशनम्।।

हिन्दी में भावार्थ-जो बुद्धि सूक्ष्म तत्त्वगुण का ज्ञान होने से दृढ़ स्थिति में है वह धन रूपी फल को उत्पन्न करती है जिस प्रकार अरणी काष्ट अग्नि को प्रकट करता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में वर्णित ज्ञान की लोग यह सोचकर उपेक्षा करते हैं कि वह तो सांसरिक कार्य से विरक्ति की ओर प्रेरित कर सन्यास मार्ग की ओर ले जाता है। यह अल्पज्ञान का प्रंमाण है। सच तो यह है कि उसमें वर्णित तत्व ज्ञान को जिसने भी धारण कर लिया उसकी बुद्धि दृढ़ मार्ग पर चल देती है। वह छोटी मोटी बातों पर न ध्यान देता है न उसे मान अपमान की चिंता रहती है। जिनसे मनुष्य को विचलित किया जा सकता है वह मायावी प्रयास उसे अपने मार्ग से डिगा नहीं सकते।  यही कारण है कि अपने बौद्धिक संतुलन और एकाग्रता से अन्य के मुकाबले तत्वज्ञानी  अधिक सफल रहता है।  निष्काम भाव से उद्योग करने का आशय यह कतई नहीं है कि सारे संसार के काम को तिलांजलि देकर बैठा जाये बल्कि उपलब्धि प्राप्त होने पर हर्षित होकर चुप न बैठें और न नाकामी होने पर हताश हों, यही उसका आशय है। 

तत्वज्ञान का आशय यह भी है कि जीवन पथ पर उत्साह के साथ बढ़ें। समय के साथ मनुष्य को भी बदलना पड़ता है। अच्छे, बुरे, मूर्ख और चतुर व्यक्तियों से उसका संपर्क होता है, उनसे व्यवहार करने का तरीका केवल तत्वज्ञानी ही जानते हैं। तत्व ज्ञान से जो बुद्धि में स्थिरता आती है उससे दूसरे लोग अपने छल, चालाकियों तथा मिथ्या ज्ञान से विचलित नहीं कर सकते।  वर्तमान में हम देखें तो विश्व आर्थिक शिखर पर बैठे लोगों का  सारा ढांचा ही मिथ्या ज्ञान तथा काल्पनिक स्वर्ग बेचने पर आधारित है। अगर लोगों में तत्व ज्ञान हो तो शायद ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलें जिसमें लोगों को जीते जी जमीन पर मरने पर आसमान में स्वर्ग खरीदते हुए अपना धन तथा समय बरबाद करते हैं। इस दुनियां में अनेक लोगों का व्यापार तो केवल इसलिये ही चल रहा है कि लोगों को अध्यात्म का ज्ञान नहीं है।
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रहीम के दोहे-प्यार के दुर्गम मार्ग पर सभी नहीं चल सकते


प्रेम पंथ ऐसी कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं
रहिमन मैन-तुरगि बढि, चलियो पावक माहिं
कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम का मार्ग ऐसा दुर्गम हे कि सब लोग इस पर नहीं चल सकते। इसमें वासना के घोड़े पर सवाल होकर आग के बीच से गुजरना होता है।
फरजी सह न ह्म सकै गति टेढ़ी तासीर
रहिमन सीधे चालसौं, प्यादा होत वजीर
कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम में कभी भी टेढ़ी चाल नहीं चली जाती। जिस तरह शतरंज के खेल में पैदल सीधी चलकर वजीर बन जाता है वैसे ही अगर किसी व्यक्ति से सीधा और सरल व्यवहार किया जाये तो उसका दिल जीता जा सकता है।
आज के संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिस तरह सब जगह प्रेम का गुणगान होता है वह केवल बाजार की ही देन है जो युवक-युवतियों को आकर्षित करने तक ही केंद्रित है। उसे प्रेम में केवल वासना है और कुछ नहीं है। सच्चा प्रेम किसी से कुछ मांगता नहीं है बल्कि उसमें त्याग किया जाता है। सच्चे प्रेम पर चलना हर किसी के बस की बात नहीं है। प्रेम में कुछ पाने का आकर्षण होतो वह प्रेम कहां रह जाता है। सच तो यह है कि लोग प्रेम का दिखावा करते हैं पर उनके मन में लालच और लोभ भरा रहता है। लोग दूसरे का प्यार पाने के लिये चालाकियां करते हैं जो कि एक धोखा होता है।
आजकल हम देख रहे हैं कि प्रेम के नाम पर अनेक लोग धोखे का शिकार हो रहे हैं। दरअसल फिल्म और टीवी चैनलों पर आज के युवक और युवतियों की यौन भावनाओं को भड़काया जा रहा है। अनेक ऐसी बेसिर पैर की कहानियां दिखाई जाती हैं जिनका यथार्थ के धरातल पर कोई आधार नहीं मिलता। केवल शादी तक तक ही लिखी गयी कहानियां गृहस्थी के यथार्थो का विस्तार नहीं दिखाती। इनको देखकर युवक युवतियां प्यार की कल्पना तो करते हैं पर उसके बाद का सच उनके सामने तभी आता है जब वह गल्तियां कर चुके होते हैं।
इतना ही नहीं कई प्रेम कहानियों में तो लड़कों को छल कपट से लड़कियों को अपने प्यार के जाल मेें फंसाते हुए दिखाया जाता है। इन कहानियों के दृश्य देखकर अनेक युवक युवतियां भ्रमित होकर उसी राह पर चलते है। इस तरह के प्रचार को समझने की जरूरत है।

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रहीम दर्शन-भक्ति न करने पर विषय घेर लेते हैं


कविवर रहीम कहते है कि
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रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय
पसु खर खात सवाद सों, गुर बुलियाए खाय

भगवान राम को हृदय में धारण करने की बजाय लोग भोग और विलास में डूबे रहते है। पहले तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए जानवरों की टांग खाते हैं और फिर उनको दवा भी लेनी पड़ती है।
वर्तमान सदंर्भ में व्याख्या-वर्तमान समय में मनुष्य के लिये सुख सुविधाएं बहुत उपलब्ध हो गयी है इससे वह शारीरिक श्रम कम करने लगा हैं शारीरिक श्रम करने के कारण उसकी देह में विकार उत्पन्न होते है और वह तमाम तरह की बीमारियों की चपेट में आ जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन भी रहता है। इसके अलावा जैसा भोजन आदमी करता है वैसा ही उसका मन भी होता है।

आज कई ऐसी बीमारिया हैं जो आदमी के मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न होती है। इसके अलावा मांसाहार की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। मुर्गे की टांग खाने के लिय लोग बेताब रहते हैं। शरीर से श्रम न करने के कारण वैसे ही सामान्य भोजन पचता नहीं है उस पर मांस खाकर अपने लिये विपत्ति बुलाना नहीं तो और क्या है? फिर लोगों का मन तो केवल माया के चक्कर में ही लगा रहता है। आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि अगर कोई आदमी एक ही तरफ ध्यान लगाता है तो उसे उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसे विकास घेर लेते हैं। माया के चक्कर से हटकर आदमी थोड़ा राम में मन लगाये तो उसका मानसिक व्यायाम भी हो, पर लोग हैं कि भगवान श्रीराम चरणों की शरण की बजाय मुर्गे के चरण खाना चाहते हैं। यह कारण है कि आजकल मंदिरों में कम अस्पतालों में अधिक लोग शरण लिये होते हैं। भगवान श्रीराम के नाम की जगह डाक्टर को दहाड़ें मारकर पुकार रहे होते है।

अगर लोग शुद्ध हृदय से राम का नाम लें तो उनके कई दर्दें का इलाज हो जाये पर माया ऐसा नहीं करने देती वह तो उन्हें डाक्टर की सेवा कराने ले जाती है जो कि उसके भी वैसे ही भक्त होते हैं जैसे मरीज। फिर विषय आदमी के मन में ऐसे विचरते हैं कि वह पूरा जीवन यह भ्रम पाल लेता है कि यही सत्य है। वह उससे मुक्ति तो तब पायेगा जब वह अपनी सोच के कुंऐं से मुक्त हो। जब तक राम का नाम स्मरण न करे तब तक वह इससे मुक्त भी नहीं हो सकता।
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श्रीगुरुवाणी-किसी से जाति या जन्म के बारे में न पूछें


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‘जाति जनमु नह पूछीअै, सच घर लेहु बताई।

सा जाति सा पति है, जेहे करम होई।।’

हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार किसी की जाति या जन्म के बारे में न पूछें। सभी एक ही सर्वशक्तिमान के घर से जुड़े हुए हैं।  आदमी की जाति और समाज (पति) वही है जैसे  उसका कर्म है।

‘नीचा अंदरि नीच जाति, नीची हू अति नीचु।

नानक तिल कै संगि साथि, वडिआ सिउ किआ रीस।

जिथै नीच समालिअन, तिथे नदर तेरी बख्सीस।

हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुनानकदेव कहते हैं जे नीच से भी नीच जाति का है हम उसके साथ हैं। बड़ी जाति वालों से होड़ करना व्यर्थ है बल्कि जहां गरीब, पीड़ित और निचले वर्ग के व्यक्ति की सहायता की जाती है वहीं सर्वशक्तिमान की कृपा बरसती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति को निम्न जाति का मानकर उसकी अवहेलना करना बहुत बड़ा अपराध है। आज के समय में तो यह हास्यास्पद लगता है।  दरअसल पहले व्यवसायों के आधार पर जातियों का वर्गीकरण एक तरह से तर्कपूर्ण भी लगता था पर आजकल तो लोगों ने अपने परंपरागत पारिवारिक व्यवसाय ही त्याग दिये हैं पर फिर भी वह पुरानी जातिप्रथाओं के आधार पर अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बताते हैं।  न केवल लोगों ने अपने व्यवसाय बदले हैं बल्कि उनका आचरण भी बदल गया है। भ्रष्टाचार और अहंकार में डूबे लोग अर्थ के आधार पर सभी का आंकलन करते हैं मगर जब किसी की निंदा करनी हो तो उसकी जाति की निंदा करते हैं।

फिर आजकल पाश्चात्य जीवन शैली अपनाने की वजह से पुराने सामाजिक आधार ध्वस्त हो गये हैं।  आप किसी भी शहर में नये बने बाजार या कालोनियों में चले जायें वहां के कारोबारी और रहवासी विभिन्न संप्रदायों के होते हैं।  उनके दुकान और मकान जितने बड़े और आकर्षक होते हैं उतना ही समाज उनका सम्मान करता है।  हर कोई अपनी आर्थिक श्रेणी के अनुसार एक दूसरे से संपर्क रखता है। इतना ही नहीं अगर जाति में अपनी श्रेणी के समकक्ष अपनी संतान का रिश्ता मिल गया तो ठीक नहीं तो दूसरी जाति में भी विवाह करने को लोग अब तैयार होने लगे हैं।  कहने का तात्पर्य यह है कि धनवानों को ही समाज बड़ा मानता है पर वह अपने समाज की चिंता नहीं करते।  सच बात तो यह है कि धर्म, जाति, और भाषाओं की सेवा जितने गरीब और निम्न वर्ग के लोग करते हैं उतना अमीर और बड़े वर्ग के नहीं करते।  भारतीय समाजों का मजबूत ढांचा अगर ध्यान से देखें तो हमें यह साफ लगेगा कि भारतीय संस्कृति, संस्कारों, भाषाओं तथा नैतिक मूल्यों की रक्षा निचले तबके के लोगों ने अधिक की है।  यही कारण कि देश के सभी महापुरुष गरीब की सेवा को सर्वाधिक महत्व देते हैं।  

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सांसरिक चतुराई तो हर कोई सीख लेता है-हिन्दू धर्म सन्देश


लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव।
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि लिखना, पढ़ना चतुराई करना यह तो संसार की सामन्य बातें हैं। जिस परमात्मा का नाम पढ़कर समझना चाहिये उसे कोई नहीं मानता।
ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।
राम रता इन्द्री जिता, कोटी मध्ये अनेक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं इस संसार में ज्ञानी और विद्वान बहुत मिले। पण्डित और कवि भी बहुत हैं। परन्तु राम भक्ति में लीन अपनी इंद्रियों को जीतने वाला करोड़ो में कोई एक होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी यही कहा कि हजारों में कोई एक मुझे भजता है। उन हजारों में भी कोई एक मुझे हृदय से भजता है।
मनुष्य का मन जब संसार के कार्य से ऊब जाता है तब वह कुछ नया चाहता है। कुछ लोग फिल्म और धारावाहिक देखकर मनोरंजन करते हैं तो कुछ गाने सुनकर। कुछ लोग भगवान भक्ति भी यह सोचकर करते हैं कि इससे मन को राहत मिल जाये। उनमें श्रद्धा का अभाव होता है इसलिये भक्ति करने के बाद उनके आचार, विचार और कर्म में कोई अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो सच्ची श्रद्धा से भगवान की भक्ति कर पाते हैं।

इस संसार में जिसे अवसर मिलता है वह पढ़ता लिखता तो अवश्य ही है और इस कारण उसमें चतुराई भी आती है। मगर इससे लाभ कुछ नहीं है। ऐसे कई प्रसंग अब सामने आने लगेे हैं जिसमें पढ़े लिखे लोग ही धर्म परिवर्तन कर दिखाते हैं कि उनमें समाज और परिवार के प्रति विद्रोह है। धर्म परिवर्तन कर विवाह करने वाले अधिकतर लोग शिक्षित ही रहे हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को शिक्षित तो बना देती है पर अध्यात्मिक ज्ञानी नहीं। कहने को यही शिक्षित कहते हैं कि धर्म क्या चीज है पर भारतीय अध्यात्म ज्ञान के अभाव में वही धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। आप उनसे पूछिये कि धर्म अगर कोई चीज नहीं है तो उसे बदला क्यों? अगर आप देश में चल रहे भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर चल रहे झगड़ों को देखें तो उनमें शिक्षित लोग ही अधिक लिप्त हैं। इससे यह तो जाहिर हो जाता है कि शिक्षित होने से इंसान ज्ञानी नहीं हो जाता। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी भटकाव की राह पर चला जाता है। इसलिये जितना हो सके अपने घर पर अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए।
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नये वर्ष का कबाड़ा-हिन्दी लघु व्यंग कथा (new year after on day-hindi satire


 वह दोनों लड़के हमेशा की तरह उस कालोनी में घर से बाहर पड़े कूड़े और और चौराहे पर रखे कूड़ेदानों से बेचने लायक कबाड़ छांट रहे थे।  पास से जाते हुए दो लोगों में से किसी एक को उन्होंने कहते सुना कि‘ कल से नया वर्ष 2010 लग रहा है।  आज पुराने वर्ष 2009 का अंतिम दिन है।’ देखें अगला वर्ष स्वयं को फलता है कि नहीं!

दूसरे ने कहा-‘काहे का नया वर्ष। सब पैसे वालों को चौंचले हैं।’

लड़कों ने यह सुना। एक खुश होकर बोला-‘यार, कल तो बहुत सारा माल मिलेगा। लोग तमाम तरह के सामान लाकर उसके पुट्ठे, कागज़ और पनियां बाहर फैंकेंगे। अपना भी नया साल शुरु होगा जब माल मिल जायेगा।’

दूसरे ने कहा-‘नहीं, अपना नया साल तो एक दिन बाद यानि परसों से शुरु होगा। कल तो लोग खाने पीने और तोहफे के लेनदेन का सामान लायेंगे। उनके ग्रीटिंग कार्ड वगैरह कम से कम एक दिन तो घर में मेहमानी तो करेंगे ही न! उनका जब नया साल एक या दो दिन पुराना होगा तब हमारा शुरु होगा।’

दूसरा निराश नहीं हुआ-‘कोई बात नहीं! एक दिन या दो दिन बाद ही नये साल का कबाड़ हमें मिलेगा तो जरूर न!

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फरिश्तों का सम्मेलन -हिन्दी व्यंग्य कविता (sammelan-hindi satire poem


अब संभव नहीं है
कोई कर सके
सागर का मंथन
या डाले हवाओं पर बंधन।
इसलिये नये फरिश्ते इस दुनियां के
रोकना चाहते हैं
जहरीली गैसों का उत्सर्जन
जिसे छोड़ते जा रहे हैं खुद
समंदर से अधिक खारे
विष से अधिक विषैले
नीम से अधिक कसैले अपनी
उन फरिश्तों ने महफिल सजाने के लिये
ढूंढ लिया है कोपेनहेगन।।
——–
वह समंदर मंथन कर
अमृत देवताओं को देंगे
ऐसे दैत्य नहीं हैं।
पी जायें विष ऐसे शिव भी नहीं हैं।
कोपेनहेगन में मिले हैं
इस दुनियां के नये फरिश्ते,
गिनती कर रहे हैं
एक दूसरे द्वारा फैलाये विष के पैमाने की,
अमृत न पायेंगे न बांटेंगे,
बस एक दूसरे के दोष छाटेंगे,
धरती की शुद्धि तो बस एक नारा है
उनके हृदय का भाव खारा है,
क्या करें इसके सिवाय वह लोग
सारा अमृत पी गये पुराने फरिश्ते
अब तो विष ही हर कहीं है।।
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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विदुर नीति-अर्थ प्राप्ति के लिए धर्म का पालन करें (arth aur dharm-hindu adhyamik sandesh)


यस्यात्मा विरतः पापाद कल्याणे च निवेशितः।
तेन स्र्वमिदं बुद्धम् प्रकृतिर्विकृतिश्चय वा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिसकी बुद्धि पाप से परे होकर कल्याण के मार्ग पर आ जाये वह इस संसार में हर वस्तु कि प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह से जान लेता है।

अर्थसिद्धि परामिच्छन् धर्ममेवादितश्चरेत्।
न हि धर्मदपैत्यर्थः स्वर्गलोकादिवामृतम्।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर कहते हैं कि जिस मनुष्य के हृदय में अर्थ प्राप्त करने की इच्छा है उसे धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करना चाहिए। जिस तरह स्वर्ग से अमृत दूर नहीं होता उसी प्रकार धर्म से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह कहना गलत है धर्म के मार्ग पर अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। धर्म-ईमानदारी, सहजता, परमार्थ, और अपने कर्तव्य से प्रतिबद्धता-का परिणाम ही अर्थ की प्राप्ति ही है। यह अलग बात है कि जल्दी अमीर बनने या आवश्यकता से अधिक धनार्जन के के लिये लोग अपने जीवन में आक्रामक और बेईमानी की प्रवृत्ति अपना लेते हैं। इस संसार में ऐसे लोग भी है जो बेईमानी से धन कमाकर कथित रूप से प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। ऐसे लोगों के व्यक्तित्व का आकर्षण समाज के युवाओं को आकर्षित करता है पर उनको यह समझ लेना चाहिये कि बेईमान और भ्रष्ट लोगों को धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की शक्ति की वजह से सामने कोई कुछ नहीं कहता पर पीठ पीछे सभी लोग उनके प्रति घृणा का भाव दिखाने से नहीं चूकते। फिर भ्रष्ट और बेईमान लोग का धन जिस तरह बर्बाद होता है उसे भी देखना चाहिये।

नीति विशारद विदुर जी के अनुसार जिस व्यक्ति ने ज्ञान प्राप्त कर लिया वह इस संसार में व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थितियों की प्रकृतियों और विकृतियों को अच्छी तरह समझ जाते हैं। इस ज्ञान से वह विकृतियों से परे रहने में सफल रहते हैं और प्रकृतियां उनका स्वतः ही मार्ग प्रशस्त करती हैं। अत: जितना हो सके योग साधना तथा अन्य उपायों द्वारा अपनी बुद्धि को शुद्ध रखने का प्रयास करना चाहिए।
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हिंदी आध्यात्मिक सन्देश-बेकार के कम न करें तो ही ठीक (vidur niti-bekar kam n karen)


तथैव योगविहितं यत्तु कर्म नि सिध्यति।
उपाययुक्तं मेधावी न तव्र गलपयेन्मनः।।
हिंदी में भावार्थ-
अच्छे और सात्विक प्रयास करने पर कोई सत्कर्म सिद्ध नहीं भी होता है तो भी बुद्धिमान पुरुष को अपने अंदर ग्लानि नहीं अनुभव करना चाहिए।

मिथ्यापेतानि कर्माण सिध्येवुर्यानि भारत।
अनुपायवुक्तानि मा स्म तेष मनः कृथाः।।
हिंदी में भावार्थ-
मिथ्या उपाय से कपट पूर्ण कार्य सिद्ध हो जाते हैं पर उनमें मन लगाना ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्सर आपने सुना होगा कि प्यार और जंग में सब जायज है-यह पश्चिम से आयातित विचार है। जीवन की तो यह वास्तविकता है कि जैसा कर्म करोगे वैसा परिणाम सामने आयेगा। जैसा मन में संकल्प होगा वैसे ही यह संसार हमारे साथ व्यवहार करेगा। अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में मनुष्य इतना तल्लीन हो जाता है कि उसे अपने कर्म की शुद्धता और अशुद्धता का बोध नहीं रहता। इसी कारण वह ऐसे उपायों का भी सहारा लेता है जो अपवित्र और अनैतिक हैं। फिर उसको अपनी बात के प्रमाण रखने के लिये अनेक प्रकार के झूठ भी बोलने पड़ते हैं। इस तरह वह हमेशा पाप की दुनियां में घूमता है। मगर मन तो मन है वह उसकी तृप्ति के लिये भक्ति और साधना का ढोंग भी करता है। इससे प्रकार वह एक ऐसे मायाजाल में फंसा रहता है जिससे जीवन भर उसकी मुक्ति नहीं होती।
इसलिये अपने जीवन में अच्छे संकल्प धारण करने के साथ ही अपने कार्य की सिद्ध के लिये पवित्र और नैतिक उपायों की ही सहायता लेना चाहिए।

बाकी लोग किस रास्ते पर जा रहे हैं यह विचार करने की बजाय यह देखना चाहिए कि हमारे लिये उचित मार्ग कौनसा है। इसके अलावा यह भी एक अन्य बात यह भी है कि अगर हमारा कोई पवित्र और सात्विक कर्म अपने उचित उपाय से सिद्ध नहीं होता तो भी परवाह नहीं करना चाहिए। याद रखें कार्य सिद्ध होने का भी अपना एक समय होता है और जब आता है तो हमें यह भी पता नहीं लगता कि वह काम कैसे पूरा हुआ। इसलिए कोई भी शुभ काम मन लगाकर करना चाहिए। बहुत जल्दी सफलता के लिए ग़लत मार्ग नहीं पकड़ना चाहिए।
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कौटिल्य दर्शन-दोस्त और दुश्मन दो प्रकार के होते हैं (kautilya darshan-dost aur dushman)


सहज कार्यजश्वव द्विविधः शत्रु सच्यते।
सहज स्वकुलोत्पन्न कार्यजः स्मृतः।
हिंदी में भावार्थ-
शत्रु दो प्रकार के होते हैं-एक तो जो स्वाभाविक रूप से बनते हैं दूसरे वह जो कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक शत्रु कुल में उत्पन्न होता है तो दूसरा अपने कार्य के कारण बन जाता है।
उच्छेदापचयो काले पीडनं कर्षणन्तथा।
इति विधाविदः प्राहु, शत्रौ वृतं चतुविंघम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उच्छेद, अपचय, समय पर पीड़ा देना और कर्षण यह चार प्रकार की स्थिति विद्वान बताते हैं।
वर्तमान संबंध में संपादकीय-ऐसा कोई जीव इस प्रथ्वी पर नहीं है जिसका कोई शत्रु न हो। बड़े बड़े महापुरुष इस प्रकृत्ति के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाये। शत्रु दो प्रकार के बनते हैं। एक तो जो स्वाभाविक रूप होते ही हैं दूसरे हमारे कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक रूप शत्रु या विरोधी परिवार, समाज तथा कुल की वजह से बनते हैं। जैसे बिल्ली चूहे की तो कुत्ता बिल्ली का दुश्मन होता है। उसी तरह इंसानों में भी कुछ रिश्ते आपस में प्रतिस्पर्धा पैदा करते हैं। जहां कुल बड़ा होता है वहां आपस में लोग एक दूसरे के विरोधी या दुश्मन पैदा होते हैं। आपने देखा होगा कि किसी आदमी को तब हानि नहीं पहुंचाई जा सकती जब उसका अपना कोई शत्रु न हो। बड़े शत्रु को हराने के लिये छोटे शत्रु से समझौता करना चाहिये यह इसलिये कहा गया है कि क्योंकि दो शत्रुओं से एक साथ लड़ना संभव नहीं होता।

हम यहां शत्रु के साथ विरोधी की भी चर्चा करें तो बात आसानी से समझी जा सकती है। हम जब कोई अपना कार्य करते हैं तो वही कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हमें शत्रु भाव से देखता है। वह इस बात से आशंकित रहता है कि कहीं उसका प्रतिस्पर्धी उससे आगे न निकल जाये। तब वह इस बात का प्रयास भी करता है कि आपको नाकाम किया जाये, आपकी मजाक उड़ायी जाये और तमाम तरह का दुष्प्रचार कर आपका मनोबल गिराया जाये। वह आपके ही छोटे शत्रु या विरोधी को अपना मित्र बना लेता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस दैहिक जीवन में शत्रु या विरोधी से मुक्त रहना संभव नहीं है। अतः शत्रु और विरोधी की गतिविधियों को नजर रखें। वह आपकी उपेक्षा करने के साथ ही आपके कार्यसिद्धि के साधनों को हानि पहुंचा सकते हैं। शत्रु या विरोधी की प्रकृत्ति को समझें तो हमेशा सतर्क रहकर उसका मुकाबला कर सकते हैं। याद रहे आपके शत्रु या विरोधी कभी भी आपकी सफलता को न तो स्वीकार कर सकते हैं न ही पचा सकते हैं।
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कबीर के दोहे-अपनी सराहना स्वयं न करें (kabir darshan-dosron ke dosh)


आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
दोष पराया देखि करि, चले हसन्त हसन्त।
अपना याद आवई, जाका आदि न अन्त।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों के दोष देखकर सभी हंसते हैं पर उनको अपनी देह के स्थाई दोष न तो याद आते हैं न दिखाई देते हैं जिनका कभी अंत ही नहीं है।
आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मूंह से आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा करना मानवीय स्वभाव है। अपने में कोई गुण न हो पर उसे प्रचारित करना और दूसरे के गुण की जगह उसके दुर्गुण की चर्चा करने में सभी को आनंद आता है पर किसी को अपने दोष नहीं दिखते। जितनी संख्या में लोग परमार्थ करने वाले नहीं है उससे अधिक तो उसका दावा करने वाले मिल जायेंगे। हम अपनी देह में अपने उपरी अंग ही देखते हैं पर नीचे के अंग नहीं दिखाई देते जो गंदगी से भरे रहते हैं चाणक्य महाराज के अनुसार उनको कभी पूरी तरह साफ भी नहीं रखा जा सकता। तात्पर्य यह है कि हम अपने दैहिक और मानसिक दुर्गंण भूल जाते हैं। संत कबीरदास जी कहते हैं कि अपने बारे में अधिक दावे मत करो अगर किसी ने उनका प्रमाण ढूंढना चाहा तो पूरी पोल खुल जायेगी।
उसी तरह दूसरे की निंदा करने की बजाय अपने गुणों की सहायता से भले काम करने का प्रयास करें यही अच्छा रहेगा। आत्मप्रवंचना कभी विकास नहीं करती और परनिंदा कभी पुरस्कार नहीं दिलाती। यह हमेशा याद रखना चाहिये।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कार्य के तीन व्यसन (kautilya ka arthshastra-karya ke teen vyasan)


वस्तुध्वशक्येषु समुद्यनश्चेच्छक्येषु मोहादसमुद्यश्मश्च।
शक्येषु कालेन समुद्यनश्व त्रिघैव कार्यव्यसनं वदंति।।
हिंदी में भावार्थ-
शक्ति से परे वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास करना, प्राप्त होने योग्य वस्तु के लिये उद्यम न करना , और तथा शक्ति होते हुए भी शक्य वस्तु की प्राप्ति के लिये समय निकल जाने पर प्रयास करना-यह कार्य के व्यसन हैं।
द्रोहो भयं शश्वदुपक्षणंव शीतोष्णवर्षाप्रसहिष्णुता च।
एतानि करले समुपहितानि कुर्वन्त्यवश्यं खलु सिद्धिविघ्नम्
हिंदी में भावार्थ-
द्रोह, डर, उपेक्षा, सर्दी,गमी, तथा वषा का अधिक होना कार्यसिद्धि समय पर होने मेें बाधा अवश्य उत्पन्न करते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हम अपने जीवन में कोई लक्ष्य निर्धारित करते हैं तो उस समय अपनी शक्ति का पूर्वानुमान करना चाहिये। उसी तरह कोई योजना बनाकर कोई वस्तु प्राप्त करते हैं तो उस समय अपने आर्थिक, सामाजिक, तथा पारिवारिक स्त्रोतों की सीमा पर भी विचार कना चाहिये। अपने सामथ्र्य से अधिक वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास एक तरह का व्यसन ही है।
उसी तरह किसी वस्तु या लक्ष्य का अवसर पास आने पर उसकी उपेक्षा कर मूंह फेर लेना भी एक तरह का व्यसन है। अगर कोई कार्य हमारी शक्ति की परिधि में है तो उसे अवश्य करना चाहिये। जीवन में सतत सक्रिय रहना ही मनुष्य जीवन को आनंद प्रदान करता है। अगर किसी उपयोगी वस्तु या लक्ष्य की प्राप्ति का अवसर आता है तो उसमें लग जाना चाहिये।
कोई वस्तु हमारी शक्ति के कारण प्राप्त हो सकती है पर हम उसकी यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि यह हमारे किस काम की! बाद में पता लगता है कि उसका हमारे लिये महत्व है और उसे पाने का प्रयास करते हैं। यह भी एक तरह का व्यसन है। हमें अपने जीवन में उपयोग और निरुपयोगी वस्तुओं और लक्ष्यों का ज्ञान होना चाहिये। कई बार कोई चीज हमें उपलब्ध होती है पर धीरे धीरे उसकी मात्रा काम होती है। उसका संग्रह का उपस्थित होने पर उसका विचार नहीं करते-यह सोचकर कि वह तो भंडार में है पर बाद में पता लगता है कि यह अनुमान गलत था। यह वैचारिक आलस्य का परिणाम जीवन में कष्टकारक होता है।
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विदुर नीति-अमीर रिश्तेदार के पास जाकर बेकार में दुःख पाना (vidur niti-amir ke pas jana)


ज्ञातयस्यतारयन्तीह ज्ञातयो मज्जयन्ति च।
सुवृत्तास्तारयन्तीह दुर्वंतत्ता मज्ज्यन्ति च।।
हिंदी में भावार्थ-
इस संसार में अपने ही जाति बंधु जीवन की नैया पार भी लगाते हैं तो डुबोते भी है। जो सदाचारी है वह तो तारने के लिये तत्पर रहते हैं और जो दुराचारी है वह डुबा देते हैं।

श्रीमन्तं ज्ञातिमासाद्य यो ज्ञातिरवसीदति।
दिग्धहस्तं मृग इव स एनस्तस्य विन्दति।।
हिंदी में भावार्थ
-जिस तरह मृग विषैला बाण हाथ में लिये शिकारी के पास पहुंचकर कष्ट पाता है वैसे ही मनुष्य अपने धनी बंधु के पास कष्ट पाता है। वह धन देने से इंकार कर दे तो कष्ट होता है और दे तो उसके पाप का भागी बनता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पता नहीं कब कैसे जातियां बनी पर मनुष्य के स्वभाव को देखते हुये तो यही कहा जा सकता है कि अपनी सुरक्षा के लिये उसने जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम पर समूह बना लिये। यह पक्रिया इतने स्वाभाविक ढंग से हुई कि पता ही नहीं चला होगा। बहरहाल प्रत्येक मनुष्य में अपने समाज या समूह के प्रति लगाव होता है भले ही वह स्वार्थ के कारण हों। इसका उसे लाभ भी मिलता है जब कोई शादी या गमी का अवसर आता है तब अनेक लोग एक दूसरे से जुड़ते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति के यहां कोई दुर्घटना हो जाये और वह अगर उससे छिपाना चाहे तो भी नहीं छिप सकती। वजह! जाति भाई जाकर सभी जगह वैसे ही बता देंगे। अगर किसी व्यक्ति के घर या परिवार में कोई दोष हो तो अन्य समाज या समूह के लोग नहीं जान पाते पर सजातीय बंधु यह काम करने में चूकते नहीं है-मतलब यह कि सजातीय लोग ही बदनाम करने में लग जाते हैं।
सदाचारी जातीय बंधु तो जीवन नैया तार देते हैं और दुराचारी डुबो देते हैं पर आजकल यह भी देखना चाहिये कि इस धरती पर कितने सदाचारी और कितने दुराचारी लोग विचरण कर रहे हैं। सजातीय बंधुओं से खतरा इस कारण भी बढ़ता है कि हम उन्हें अपना समझकर अपने घर की बात या घटना बता देते हैं ताकि समय पर वह हमारी सहायता करे। इसकी बजाय वह उसका प्रचार कर बदनाम करते हैं। अगर उनके साथ घर के राज की चर्चा ही नहीं की जाये तो फिर वह ऐसा नहीं कर सकते।

वैसे आजकल तो रहन, सहन, और व्यवहार का स्वरूप एक जैसा ही हो गया है अतः सजातीय बंधुओं से सहयोग और संपर्क की अपेक्षा करने की बजाय समस्त मित्रों और पड़ौसियों से-जातीय भाव की उपेक्षा कर-व्यवहार रखना चाहिये। पहले सजातीय बंधुओं से संपर्क स्वाभाविक रूप से इसलिये भी होता था क्योंकि सभी लोग मोहल्लों और गलियों में जातीय समूह की अधिकता देखकर बसते थे। अब तो कालोनियां बन गयी हैं जिसमें विभिन्न जातियों और समुदायों के लोग रहते हैं। ऐसे मेें सजातीय बंधुओं से एक सीमा तक ही संपर्क रह पाता है।
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संत कबीर के-रात के सपने निराशा का भाव पैदा करते हैं (sant kabir-rat ke sapne aur nirasha)


कबीर सपनें रैन के, ऊपरी आये नैन
जीव परा बहू लूट में, जागूं लेन न देन

संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि रात में सपना देखते देखते हुए अचानक आंखें खुल जाती है तो प्रतीत होता है कि हम तो व्यर्थ के ही आनंद या दुःख में पड़े थे। जागने पर पता लगता है कि उस सपने में जो घट रहा था उससे हमारा कोई लेना देना नहीं था।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सपनों का एक अलग संसार है। अनेक बार हमें ऐसे सपने आते हैं जिनसे कोई लेना देना नहीं होता। कई बार अपने सपने में भयानक संकट देखते हैं जिसमें कोई हमारा गला दबा रहा है या हम कहीं ऐसी जगह फंस गये हैं जहां से निकलना कठिन है। तब इतना डर जाते हैं कि हमारी देह अचानक सक्रिय हो उठती है और नींद टूट जाती है। बहुत देर तक तो हम घबड़ाते हैं जब थोड़ा संभलते हैं तो पता लगता है कि हम तो व्यर्थ ही संकट झेल रहे थे।

कई बार सपनों में ऐसी खुशियां देखते हैं जिनकी कल्पना हमने दिन में जागते हुए नहीं की होती । ऐसे लोगों से संपर्क होता है जिनके पास जाने की हम सोच भी नहीं सकते। जागते हुए पुरानी साइकिल पर चलते हों पर सपने में किसी बड़ी गाड़ी पर घूमते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में जब खुशी चरम पर होती है और सपना टूट जाता है। आंखें खुलने पर भी ऐसा लगता है कि जैसे हम खुशियों के समंदर में गोता लगा रहे थे पर फिर जैसे धीरे धीरे होश आता है तो पता लगता है कि वह तो एक सपना था।

आशय यह है कि यह जीवन भी एक तरह से सपना ही है। इसमें दुःख और सुख भी एक भ्रम हैं। मनुष्य को यह देह इस संसार का आनंद लेने के लिये मिली है जिसके लिये यह जरूरी है कि भगवान भक्ति और ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया जाये न कि विषयों में लिप्त होकर अपने को दुःख की अनुभूति कराई जाये। जीवन में कर्म सभी करते हैं पर ज्ञानी और भक्त लोग उसके फल में आसक्त नहीं होते इसलिये कभी निराशा उनके मन में घर नहीं करती। ऐसे ज्ञानी और भक्तजन दुःख और सुख के दिन और रात में दिखने वाले सपने से परे होकर शांति और परम आनंद के साथ जीवन व्यतीत करते हैं।
अगर हम भारतीय अध्यात्म संदेशों का अर्थ समझें तो दुःख और सुख जीवन में बर्फ में पानी के सदृश हैं। अर्थात दोनों की अनूभूतियां हैं बस और कुछ नहीं है। जिस तरह बर्फ दिखती है पर होता तो वह पानी ही है। उसी दुःख और सुख बस एक सपने की तरह है। जो इस तत्व ज्ञान को समझ लेना वह जीवन को आनंद के साथ जी सकता है।
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मनु स्मृति-गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं (bhojan karne ka tarika-manu smruti)


न नृत्येन्नैव गायेन वादित्राणि वादयेत्।
नास्फीट च क्ष्वेडेन्न च रक्तो विरोधयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि नाचना गाना, वाद्य यंत्र बजाना ताल ठोंकना, दांत पीसकर बोलना ठीक नहीं और भावावेश में आकर गधे जैसा शब्द नहीं बोलना चाहिये।
न कुर्वीत वृथा चेष्टां न वार्य´्जलिना पिबेत्।
नौत्संगे भक्षयेद् भक्ष्यानां जातु स्यात्कुतूहली।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुमहाराज कहते हैं कि जिस कार्य को करने से अच्छा फल नहीं मिलता हो उसे करने का प्रयास व्यर्थ है। अंजली में भरकर पानी और गोद में रखकर भोजन करना ठीक नहीं नहीं है। बिना प्रयोजन का कौतूहल नहीं करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब आदमी तनाव रहित होता है तब वह कई ऐसे काम करता है जो उसकी देह और मन के लिये हितकर नहीं होते। लोग अपने उठने-बैठने, खाने-पीने, सोने-चलने और बोलने-हंसने पर ध्यान नहीं देते जबकि मनुमहाराज हमेशा सतर्क रहने का संदेश देते हैं। अक्सर लोग अपनी अंजली से पानी पीते हैं और बातचीत करते हुए खाना गोद में रख लेते हैं-यह गलत है।
जब से फिल्मों का अविष्कार हुआ है लोगों का न केवल काल्पनिक कुतूहल की तरफ रुझान बढ़ा है बल्कि वह उन पर चर्चा ऐसे करते हैं जैसे कि कोई सत्य घटना हो। फिल्मों की वजह से संगीत के नाम पर शोर के प्रति लोग आकर्षित होते हैं।
मनुमहाराज इनसे बचने का जो संदेश देते है उनके अनुसार नाचना, गाना, वाद्य यंत्र बजाना तथा गधे की आवाज जैसे शब्द बोलना अच्छा नहीं है। फिल्में देखना बुरा नहीं है पर उनकी कहानियों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों को देखकर कौतूहल का भाव पालन व्यर्थ है इससे आदमी का दिमाग जीवन की सच्चाईयों को सहने योग्य नहीं रह जाता।

नाचने गाने और वाद्य यंत्र बजाना या बजाते हुए सुनना अच्छा लगता है पर जब उनसे पृथक होते हैं तो उनका अभाव तनाव पैदा करता है। इसके अलावा अगर इस तरह का मनोरंजन जब व्यसन बन जाता है तब जीवन में अन्य आवश्यक कार्यों की तरफ आदमी का ध्यान नहीं जाता। लोग बातचीत में अक्सर अपना प्रभाव जमाने के लिये किसी अन्य का मजाक उड़ाते हुए बुरे स्वर में उसकी नकल करते हैं जो कि स्वयं उनकी छबि के लिये ठीक नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि उठने-बैठने और चलने फिरने के मामले में हमेशा स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिए।
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गुरु पूर्णिमा-तत्वज्ञान दे वही होता है सच्चा गुरु (article in hindi on guru purnima)


गुरु लोभी शिष लालची, दोनों खेले दांव।
दो बूड़े वापूरे,चढ़ि पाथर की नाव
जहां गुरु लोभी और शिष्य लालची हों वह दोनों ही अपने दांव खेलते हैं पर अंततः पत्थर बांध कर नदिया पर करते हुए उसमें डूब जाते हैं।
आज पूरे देश में गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है। भारतीय अध्यात्म में गुरु का बहुत महत्व है और बचपन से ही हर माता पिता अपने बच्चे को गुरु का सम्मान करने का संस्कार इस तरह देते हैं कि वह उसे कभी भूल ही नहीं सकता। मुख्य बात यह है कि गुरु कौन है?
दरअसल सांसरिक विषयों का ज्ञान देने वाला शिक्षक होता है पर जो तत्व ज्ञान से अवगत कराये उसे ही गुरु कहा जाता है। यह तत्वज्ञान श्रीगीता में वर्णित है। इस ज्ञान को अध्ययन या श्रवण कर प्राप्त किया जा सकता है। अब सवाल यह है कि अगर कोई हमें श्रीगीता का ज्ञान देता है तो हम क्या उसे गुरु मान लें? नहीं! पहले उसे गुरु मानकर श्रीगीता का ज्ञान प्राप्त करें फिर स्वयं ही उसका अध्ययन करें और देखें कि आपको जो ज्ञान गुरु ने दिया और वह वैसा का वैसा ही है कि नहीं। अगर दोनों मे साम्यता हो तो अपने गुरु को प्रणाम करें और फिर चल पड़ें अपनी राह पर।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता में गुरु की सेवा को बहुत महत्व दिया है पर उनका आशय यही है कि जब आप उनसे शिक्षा लेते हैं तो उनकी दैहिक सेवा कर उसकी कीमत चुकायें। जहां तक श्रीकृष्ण जी के जीवन चरित्र का सवाल है तो इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि उन्होंने अपने गुरु से ज्ञान प्राप्त कर हर वर्ष उनके यहां चक्कर लगाये।
गुरु तो वह भी हो सकता है जो आपसे कुछ क्षण मिले और श्रीगीता पढ़ने के लिये प्रेरित करे। उसके बाद अगर आपको तत्वज्ञान की अनुभूति हो तो आप उस गुरु के पास जाकर उसकी एक बार सेवा अवश्य करें। हम यहां स्पष्ट करें कि तत्वज्ञान जीवन सहजता पूर्ण ढंग से व्यतीत करने के लिये अत्यंत आवश्यक है और वह केवल श्रीगीता में संपूर्ण रूप से कहा गया है। श्रीगीता से बाहर कोई तत्व ज्ञान नहीं है। इससे भी आगे बात करें तो श्रीगीता के बाहर कोई अन्य विज्ञान भी नहीं है।
इस देश के अधिकतर गुरु अपने शिष्यों को कथायें सुनाते हैं पर उनकी वाणी तत्वाज्ञान से कोसों दूर रहती है। सच तो यह है कि वह कथाप्रवचक है कि ज्ञानी महापुरुष। यह लोग गुरु की सेवा का संदेश इस तरह जैसे कि हैंण्ड पंप चलाकर अपने लिये पानी निकाल रहे हैं। कई बार कथा में यह गुरु की सेवा की बात कहते हैं।
सच बात तो यह है गुरुओं को प्रेम करने वाले अनेक निष्कपट भक्त हैं पर उनके निकट केवल ढोंगी चेलों का झुंड रहता है। आप किसी भी आश्रम में जाकर देखें वहा गुरुओं के खास चेले कभी कथा कीर्तन सुनते नहीं मिलेंगे। कहीं वह उस दौरान वह व्यवस्था बनाते हुए लोगों पर अपना प्रभाव जमाते नजर आयेंगे या इधर उधर फोन करते हुए ऐसे दिखायेंगे जैसे कि वह गुरु की सेवा कर रहे हों।

कबीरदास जी ने ऐसे ही लोगों के लिये कहा है कि
जाका गुरु आंधरा, चेला खरा निरंध।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फंद।
जहां गुरु ज्ञान से अंधा होगा वहां चेला तो उससे भी बड़ा साबित होगा। दोनों अंधे मिलकर काल के फंदे में फंस जाते है।
बहुत कटु सत्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान एक स्वर्णिम शब्दों का बड़ा भारी भंडार है जिसकी रोशनी में ही यह ढोंगी संत चमक रहे हैं। इसलिये ही भारत में अध्यात्म एक व्यापार बन गया है। श्रीगीता के ज्ञान को एक तरह से ढंकने के लिये यह संत लोग लोगों को सकाम भक्ति के लिये प्रेरित करते हैं। भगवान श्रीगीता में भगवान ने अंधविश्वासों से परे होकर निराकर ईश्वर की उपासना का संदेश दिया और प्रेत या पितरों की पूजा को एक तरह से निषिद्ध किया है परंतु कथित रूप से श्रीकृष्ण के भक्त हर मौके पर हर तरह की देवता की पूजा करने लग जाते हैं। गुरु पूर्णिमा पर इन गुरुओं की तो पितृ पक्ष में पितरों को तर्पण देते हैं।
मुक्ति क्या है? अधिकतर लोग यह कहते हैं कि मुक्ति इस जीवन के बाद दूसरा जीवन न मिलने से है। यह गलत है। मुक्ति का आशय है कि इस संसार में रहकर मोह माया से मुक्ति ताकि मृत्यु के समय उसका मोह सताये नहीं। सकाम भक्ति में ढेर सारे बंधन हैं और वही तनाव का कारण बनते हैं। निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं जिनसे आप जीवन भर मुक्त भाव से विचरण करते हैं और यही कहलाता मोक्ष। अपने गुरु या पितरों का हर वर्ष दैहिक और मानसिक रूप से चक्कर लगाना भी एक सांसरिक बंधन है। यह बंधन कभी सुख का कारण नहीं होता। इस संसार में देह धारण की है तो अपनी इंद्रियों को कार्य करने से रोकना तामस वृत्ति है और उन पर नियंत्रण करना ही सात्विकता है। माया से भागकर कहीं जाना नहीं है बल्कि उस पर सवारी करनी है न कि उसे अपने ऊपर सवार बनाना है। अपनी देह में ही ईश्वर है अन्य किसी की देह को मत मानो। जब तुम अपनी देह में ईश्वर देखोगे तब तुम दूसरों के कल्याण के लिये प्रवृत्त होगे और यही होता है मोक्ष।
इस लेखक के गुरु एक पत्रकार थे। वह शराब आदि का सेवन भी करते थे। अध्यात्मिक ज्ञान तो कभी उन्होंने प्राप्त नहीं किया पर उनके हृदय में अपनी देह को लेकर कोई मोह नहीं था। वह एक तरह से निर्मोही जीवन जीते थे। उन्होंने ही इस लेखक को जीवन में दृढ़ता से चलने की शिक्षा दी। माता पिता तथा अध्यात्मिक ग्रंथों से ज्ञान तो पहले ही मिला था पर उन गुरु जी जो दृढ़ता का भाव प्रदान किया उसके लिये उनको नमन करता हूं। अंतर्जाल पर इस लेखक को पढ़ने वाले शायद नहीं जानते होंगे कि उन्होंने अपने तय किये हुए रास्ते पर चलने के लिये जो दृढ़ता भाव रखने की प्रेरणा दी थी वही यहां तक ले आयी। वह गुरु इस लेखक के अल्लहड़पन से बहुत प्रभावित थे और यही कारण है कि वह उस समय भी इस तरह के चिंतन लिखवाते थे जो बाद में इस लेखक की पहचान बने। उन्हीं गुरुजी को समर्पित यह रचना।
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विदुर नीति-बुद्धिमान से बैर करना ठीक नहीं (buddhiman se bair-vidur niti)


विदुर महाराज कहते हैं कि
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बुद्धिमान व्यक्ति के प्रति अपराध कर कोई दूर भी चला जाये तो चैन से न बैठे क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति की बाहें लंबी होती है और समय आने पर वह अपना बदला लेता है।
संक्षिप्त व्याख्या-कई मूर्ख लोग सभ्य और बुद्धिमान व्यक्तियों को अहिंसक समझकर उनका अपमान करते हैं। उनके प्रति अपराध करते हुए उनको लगता है कि यह तो अहिंसक व्यक्ति है क्या कर लेगा? आजकल तो हिंसा के प्रति लोगों का मोह ऐसा बढ़ गया है कि लोग बुद्धिमान से अधिक बाहूबलियों का आसरा लेना पसंद करते हैं। एक सभ्य और बुद्धिमान युवक की बजाय लोग दादा टाईप के आदमी से मित्रता करने को अधिक तरजीह देते हैं। ऐसा करना लाभदायक नहीं है। बुद्धिमान व्यक्ति शारीरिक रूप से हिंसक नहीं होते पर उनकी बुद्धि इतनी तीक्ष्ण होती है कि उससे उनकी कार्य करने की क्षमता व्यापक होती है अर्थात उनकी बाहें लंबी होती है। अपने स्वयं ये मित्र के प्रति अपराध या अपमान किये जाने का समय आने पर वह बदला लेते हैं। हमें इसलिये बुद्धिमान लोगों से मित्रता करना चाहिये न कि उनके प्रति अपराध।
2.जो विश्वास का पात्र नहीं है उसका तो कभी विश्वास किया ही नहीं जाना चाहिये पर जो विश्वास योग्य है उस पर भी अधिक विश्वास नहीं किया जाना चाहिये। विश्वास से जो भय उत्पन्न होता है वह मूल उद्देश्य का भी नाश कर डालता है।
संक्षिप्त व्याख्या-सच तो यह है कि जहां विश्वास है वहीं धोखा है। इसलिये विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये। किसी कार्य या उद्देश्य के लिये अपनी शक्ति पर निर्भर रहना ही अच्छा है पर अगर करना भी पड़े तो अधिक विश्वास नहीं करना चाहिये। जहां हमने अपने कार्य या उद्देश्य के लिये पूरी तरह किसी पर विश्वास किया तो उसके पूर्ण होने की संभावना नगण्य ही रह जाती है।
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रहीम के दोहे-अमीर को पैसा देने के लिए सब तैयार,गरीब से इंकार (rahim ke dohe)


संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत
दीन बंधु बिन दीन की, कौ रहीम सुधि लेत

     कविवर रहीम कहते हैं कि जिनके पास धन पर्याप्त मात्रा में लोग उनको सब कुछ देने को तैयार हो जाते हैं और जिसके पास कम है उसकी कोई सुधि नहीं लेता।

संपति भरम गंवाइ के, हाथ रहत कछु नाहिं
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहिं मांहि

     कविवर रहीम कहते हैं कि भ्रम में आकर आदमी तमाम तरह की आदतों का शिकार हो जाता है और उसमें अपनी संपत्ति का अपव्यय करता रहता है और एक दिन ऐसा आ जाता है जब उसके पास कुछ भी शेष नहीं रह जाता। इसके साथ ही समाज में उसकी प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है।
     वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में माया का खेल विचित्र है। वह कभी स्थिर नहीं रहती। आजकल जितने धन के उद्भव के काले स्त्रोत बने हैं उतने उसके पराभव के मार्ग बने हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने पद, प्रतिष्ठा और परिवार के नाम पर गलत तरीके से अथाह धनार्जन किया पर उनके घर के सदस्यों ने ही गलत मार्ग अपना कर जूए, शराब, सट्टे तथा अन्य व्यसनों में तबाह कर दिया। देखने के लिये अनेक भले लोग अपने धन का अहंकार दिखते हैं पन अपने बच्चों की आदतों से उनका मन हमेशा विचलित होता है। हालांकि कुछ लोग अनाप-शनाप पैसा कमा रहे हैं और अपने बच्चों के विरुद्ध शिकायत न तो सुनते हैं और न ही कोई उनके सामने करता है।

     यही कारण है कि आजकल जो कथित बड़े लोग उनके अनेक घर के रहस्य जब सामने आते हैं तो लोग हैरान रह जाते हैं। उनका अपने परिवार पर बस नहीं हैं। कई लोग तो जिनका नाम था अब इसलिये गुमनाम हो गये क्योंकि उनका धन पूरी तरह गलत कामों की वजह से तबाह हो गया। उनकी चर्चा अब इसलिये नहीं होती क्योंकि जिनके पास धन नहीं है उनकी चर्चा भला कौन करता है? इसके बावजूद भी शिक्षित और कथित ज्ञानी लोग भी वैभवशाली लोगों का चाटुकारिता करते हैं और गरीब को अनदेखा करते हैं। अमीर के दौलत से कुद पाने के लिये ही वह लोग उनके इर्दगिर्द चक्कर लगाते है। गरीब को तो वह पांव की जुती समझते हैं। इसके बावजूद हमें समझदार होना चाहिए और सबके प्रति समान व्यवहार करना चाहिए। ऐसा भी होता है कि अमीर की चाटुकारिता करते रहो पर हाथ कुछ नहीं आता। कोई अमीर किसी की बिना कारण सहायता नहीं करता। यह हमें समझना चाहिए। अगर कोई हमारी सहायता करने आ रहा है तो समझ लो उसका कोई स्वार्थ है।
     अतः अगर अपने पास अगर धन कम हो तो यह मान लेना चाहिए कि लोग आर्थिक सहयोग तैयार करने के लिये कम ही तैयार होंगे। साथ ही इस बात की चिंता नहीं करना चाहिए कि कोई सम्मान करेगा या नहीं। अगर धन अधिक हो तो दूसरों द्वारा सहयोग की पेशकश को अपने गुणों का प्रभाव न समझते हुए यह मान लेना चाहिए कि हमारे धन की वजह से दूसरे प्रभावित हैं।
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स्त्रियों की कम संख्या उनके प्रति बढ़ते अपराधों के लिये जिम्मेदार-आलेख


देश में प्रतिदिन ही महिलाओं के प्रति किये गये अपराध समाचारों की सुर्खियां बन रहे हैं। हालत यह हो गयी है कि एक दिन में पांच पांच समाचार आते हैं और जब अपराधी पकड़े जाते हैं तो यह याद रखना कठिन हो जाता है कि आखिर वह किस घटना के लिये पकड़े गये हैं। इस पर तमाम तरह के आलेख और रिपोर्ताज पढ़ने और सुनने के बाद यह नहीं लगता कि देश का बुद्धिजीवी वर्ग इसे कन्या भ्रुण हत्याओं से जोड़कर देख पा रहा हो।
जो नियमित रूप से समाचार पत्र पत्रिकायें पढ़ते हैं उनको अच्छी तरह याद होगा जब आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व कन्याओं की भ्रुण हत्या का दौर शुरु हुआ था तब सामाजिक विशेषज्ञों ने स्पष्टतः आज के दृश्य की कल्पना कर बता दी थी। एक लंबे समय तक यह दौर चला फिर इसके लिये कानून भी बना पर सामाजिक विशेषज्ञ मानते हैं कि कन्याओं की भ्रुण हत्याओं का दौर बंद हुआ। हालत यह है कि एक समय तक पहली संतान के रूप में कन्या होना भी ठीक मानने वाले इस समाज में अब ऐसे भी लोग हैं जो पहली संतान के रूप में भी बेटा चाहते हैं और जरूरत पड़े तो कन्या भ्रुण हत्या करा देते हैं। ऐसी जानकारियां समाचार पत्र-पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर आती रहती हैं।

महिलाओं पर तेजाब फैंकने या उनके साथ जोर जबरदस्ती की घटनाओं पर विश्लेषण करने वाले अल्पज्ञानी बुद्धिजीवी हर घटना में अपराधी और पीड़िता की स्थितियों के आंकलन में लग जाते हैं। कुछ इसे गिरती कानूनी व्यवस्था ं तो कुछ इसे पहनावे और लड़कियों की आजादी को मानते हैं। इधर इंटरनेट पर ऐसी बहसें देखने को मिलती हैं जिससे लगता है कि वाद और नारों की राह पर चले लेखक और बुद्धिजीवी अपने चिंतन से कम अपने गुरुओं की सोच पर अधिक चलते हैं।
एक कहता है कि
1.लड़कियां उकसावे वाले कपड़े पहनती हैं।
2.वह एक नहीं अनेक लड़के मित्र बनाती हैं जिससे आपस में कभी न कभी तनाव बनता है।
3.माता पिता अपनी व्यस्तताओं के चलते लड़कियों की निगाहबानी नहीं कर पाते जिससे वह अपने युवावस्था के कारण ऐसी गलतियां कर बैठती हैं जो अततः उनके लिये घातक होती है।

दूसरा कहता है कि
1.समाज अभी भी असभ्य है उसका लड़की के प्रति नजरिया नहीं बदला।
2.जैसे जैसे धन की प्रचुरता बढ़ रही है लड़कियों के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं।
3. कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है और अपराधियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही नहीं हो रही। पुरुष समुदाय इसके लिये पूरी तरह से जिम्मेदार है।

हो सकता है कि ये सभी लेखक और बुद्धिजीवी सही हों पर वह इन घटनाओं के दृश्यव्य रूप पर ही अपना ध्यान केंद्रित करने से समस्या का हल नहीं हो सकता।
25 वर्ष पूर्व ही सामाजिक विशेषज्ञों ने कहा था कि जिस दहेज समस्या से पीड़ित होकर समाज कन्या भ्रुण हत्याओं के दौर को स्वीकार कर रहा है वह तो हल नहीं होगी बल्कि इससे उनके प्रति जो अपराध होंगे वह अधिक भयानक होंगे।
उनका कहना था कि
1.अभी लड़कियां पर्याप्त मात्रा में हैं इसलिये लड़के इधर उधर नजरें मारकर काम चलाते हैं। एक नहीं तो दूसरी नहंीं तो तीसरी। कहने का तात्पर्य यह है कि उनके संपर्क में अधिक लड़कियां आती हैं और वह उनको देखते हैं इसलिये उनमें आक्रामकता नहीं आती। जब यह संख्या कम हो जायेगी तक एक लड़की पर अनेक लड़कों की नजर होगी। इससे आकर्षण में तीव्रता आयेगी और ऐसे में अगर लड़की की तरफ से उनको निराशा हाथ लगती है तो वह उस पर आक्रमण करेंगे।
2.रास्ते पर अनेक लड़कियों को होने से भी लड़के व्यस्त रहते हैं पर जब उनकी संख्या सीमित होगी तो वह चलते फिरते आक्रमण करेंगे।
3.दहेज प्रथा बिल्कुल हल नहीं होगी। उल्टे लड़कियां कम होने से उनके माता पिता अधिक अच्छा वर चाहेंगे। भारत में धन के असमान वितरण से वैसे ही समस्यायें बढ़ रही है। इधर जो अच्छे वर और घर होंगे वह अधिक दहेज की मांग करेंगे। इससे उल्टे इससे बेमेल विवाहों को प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि जिसके पास अधिक धन होगा वह अधिक धन और सुंदर लड़की की मांग करेगा इससे लड़कों की आयु बढ़ेगी और ऐसे में उनको छोटी आयु की लड़कियां भी ब्याह करने को मिल जायेंगी।

सामाजिक विशेषज्ञों की चेतावनी के लिये शब्द कुछ भी रहे हों पर उनका आशय यही था कि कम लड़कियां होने से एक ऐसा संकट आयेगा जिससे बचना कोई आसान काम नहीं होगा। हम यहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को ध्यान में रखते हुए एक बार अपने को दृष्टा और अपनी देह को पंच तत्वों से बनी एक वस्तु मान लें। अर्थात हम मान लें कि स्त्री पुरुष देह भी एक वस्तु हैं-नारीवादी लेखक इस बात तो ध्यान दें यहां यह बात आत्मा को दृष्टा मानकर कही जा रही है-तो भी मांग पूर्ति का नियम लागू होता है। पुरुष अधिक होंगे तो उनकी कम और स्त्री संख्या में कम है तो उसकी मांग अधिक होगी। आप अपने देश में जलस्त्रोतों पर पानी के लिये और सड़कों पर वाहन टकराने पर होने वाले हिंसक संघषों पर ध्यान दें तो पानी कम नहीं है बल्कि मांग बढ़ गयी है पर आपूर्ति उस ढंग से नहीं हो पाती। उसी तरह सड़कों पर वाहन अधिक हो गये हैं पर वह चौडी नहीं हुई उसी तरह आपको लगेगा कि स्त्री पुरुषों की संख्या में अनुपातिक अंतर ही इस संकट के लिये जिम्मेदार हैं। परिवार नियोजन रखना अच्छी बात है पर बच्चे की भ्रुण हत्या एक ऐसा अपराध है जिसका परिणाम तत्काल नहीं पता लगता पर आज समाज जिन हालतों में गुजर रहा है उससे हम समझ सकते हैं कि आखिर वह इस हालत में क्यों आया?
जब हर मनुष्य के दृष्टा होने की बात की है तो एक घटना याद आ रही है-नारीवादियों को शायद यह बुरी लगे पर वह इस लेखक के साथ वैचारिक धरातल पर खड़े हों तो सहमत होंगे। खासतौर से नारीवादी लेखिकाओं से अपेक्षा तो है कि वह इस घटना में आयु और उसकी प्रासंगिकता पर विचार करेंगी।
उस दिन एक सड़क पर यह लेखक अपने रात को नौ बजे स्कूटर पर आ रहा था कि एक जगह गड्ढा आ गया। वह बड़ा था और उससे दूर हटकर निकलने के लिये लेखक को रुकना पड़ा। सड़क पर कोई खास भीड़ नहीं थी। एक आदमी उसी गडढे के पास से गुजर रहा था। उसने इस लेखक से कहा-‘अच्छा हुआ यह गडढ़ा आपको दिख गया वरना इसमें कई गिर चुके हैं।’
यह लेखक जवाब में केवल हंस पड़ा। उसी समय दो लड़कियां वहां से गाड़ी पर निकली। तब वह सज्जन फिर बोले-‘पता नहीं आजकल माता पिता कैसे हैं। आप बताईये क्या इस तरह रात को लड़कियों को बाहर जाने की इजाजत दी जानी चाहिये? अरे, करोड़ो रुपये आदमी संभाल कर रखता है पर देखिये उससे कही अधिक कीमती इस तरह बिटियायें बाहर घूमने के लिये छोड़ देता है।’
लेखक ने पूछा-‘आप उनको जानते हैं?’
उन सज्जन ने कहा-‘नहीं! जिस तरह आजकल की घटनायें हो रही हैं उनको देखते हुए यह बात कह रहा हूं। अरे भई, आप ही बताईये जवान लड़कियों की रक्षा का उपाय उनके घरवालों को नहीं करना चाहिये?’
यह सही है कि युवा विवाहिताओं के प्रति भी अपराध होते हैं पर अविवाहित युवतियों के प्रति अपराध हमेशा ही भारी संकट का कारण बनता है।
आप अगर लेखक हैं तो सड़क पर खड़े होकर बहस नहीं कर सकते। कन्या भ्रुण हत्याओं के बारे में विशेषज्ञों की चेतावनी को अनदेखा करते हुए यह समाज जिस तरह आगे बढ़ता गया यह घटनायें उनका परिणाम है। इन घटनाओं की कोई भी वजह हो सकती है पर यह उसका नहीं बल्कि बरसों पहले चले इस रिवाज-हां, समाज में एक तरह से कन्या भ्रुण हत्या रिवाज ही बन गया है-का ही परिणाम है।
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भर्तृहरि नीति शतक: भक्ति को धंधा न समझें


भर्तृहरि कहते हैं कि
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कि वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रेर्महाविस्तजैः स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।
मुक्त्वैकं भवदुःख भाररचना विध्वंसकालानलं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषाः वणिगवृत्तयं:।।

हिंदी में भावार्थ- वेद, स्मुतियों और पुराणों का पढ़ने और किसी स्वर्ग नाम के गांव में निवास पाने के लये कर्मकांडों को निर्वाह करने से भ्रम पैदा होता है। जो परमात्मा संसार के दुःख और तनाव से मुक्ति दिला सकता है उसका स्मरण और भजन करना ही एकमात्र उपाय है शेष तो मनुष्य की व्यापारी बुद्धि का परिचायक है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने जीवन यापन के लिये व्यापार करते हुए इतना व्यापारिक बुद्धि वाला हो जाता है कि वह भक्ति और भजन में भी सौदेबाजी करने लगता है और इसी कारण ही कर्मकांडों के मायाजाल में फंसता जाता है। कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार संग्रह है और उसमें स्वर्ग में प्रीति उत्पन्न करने वाले वेद वाक्यों से दूर रहने का संदेश इसलिये ही दिया गया है कि लोग कर्मकांडों से लौकिक और परलौकिक सुख पाने के मोह में निष्काम भक्ति न भूल जायें।

वेद, पुराण और उपनिषद में विशाल ज्ञान संग्रह है और उनके अध्ययन करने से मतिभ्रम हो जाता है। यही कारण है कि सामान्य लोग अपने सांसरिक और परलौकिक हित के लिये एक नहीं अनेक उपाय करने लगते हंै। कथित ज्ञानी लोग उसकी कमजोर मानसिकता का लाभ उठाते हुए उससे अनेक प्रकार के यज्ञ और हवन कराने के साथ ही अपने लिये दान दक्षिणा वसूल करते हैं। दान के नाम किसी अन्य सुपात्र को देने की बजाय अपन ही हाथ उनके आगे बढ़ाते हैं। भक्त भी बौद्धिक भंवरजाल में फंसकर उनकी बात मानता चला जाता है। ऐसे कर्मकांडों का निर्वाह कर भक्त यह भ्रम पाल लेता है कि उसने अपना स्वर्ग के लिये टिकट आरक्षित करवा लिया।

यही कारण है कि कि सच्चे संत मनुष्य को निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया करने के लिये प्रेरित करते हैं। भ्रमजाल में फंसकर की गयी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता। इसके विपरीत तनाव बढ़ता है। जब किसी यज्ञ या हवन से सांसरिक काम नहीं बनता तो मन में निराशा और क्रोध का भाव पैदा होता है जो कि शरीर के लिये हानिकारक होता है। जिस तरह किसी व्यापारी को हानि होने पर गुस्सा आता है वैसे ही भक्त को कर्मकांडों से लाभ नहीं होता तो उसका मन भक्ति और भजन से विरक्त हो जाता है। इसलिये भक्ति, भजन और साधना में वणिक बुद्धि का त्याग कर देना चाहिये।
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चाणक्य नीति-निंदा का दुर्गुण हो तो अन्य पाप की क्या जरूरत


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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लोभश्चेदगुणेन किं पिंशुनता यद्यस्ति किं पासकैः सत्यं चेतपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यस्ति किं मण्डनैः सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यस्ति किं मृत्युना।।

हिंदी में भावार्थ-मनुष्य में यदि लोभ का भाव है तो फिर किसी दूसरे दोष की उसे आवश्यकता नहीं है। यदि उसके स्वभाव ही निंदा और चुगली करने का है तो उसे कोई अन्य पाप कर्म करने की आवश्यकता नहीं है। अगर व्यक्ति सत्य के पथ पर है तो उसे किसी तप की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह यदि मन ही पवित्र है तो उसे किसी पवित्र स्थान पर जाकर स्नान करने की आवश्यकता नहीं है। हृदय में सद्भावना है तो फिर कोई दूसरा गुण क्या कर लेगा? संसार में अपने कर्मो से यश फैल रहा है तो फिर आभूषणों या सुंदर वस्त्रों को धारण करने से क्या लाभ? विद्या है तो धनहीन होना महत्वपूर्ण नहीं है। अगर अपयश फैल गया है तो फिर मृत्यु से भी मुक्ति नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में आकर अपने दैहिक निर्वहन के लिये भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है पर उसके लिये अपनी आत्मा को भुलाकर उनमें लिप्त होने से कोई लाभ नहीं है। इस संसार के सभी भौतिक पदार्थ नष्ट प्रायः है पर मनुष्य द्वारा अपने सतकर्मों से अर्जित यश ही उसके बाद चलता रहता है। दुर्गुण तो स्वाभाविक रूप से आते हैं पर गुणों को बनाये रखने के लिये प्रयास करना पड़ता है। उसी तरह अपकीर्ति तो स्वतः ही फैलती है पर कीर्ति फैलाने के लिये प्रयास करना पड़ता है। आशय यह है कि अगर हम अपने ऊपर मानसिक रूप से नियंत्रण नहीं करेंगे तो हमारे कदम स्वतः ही भटकाव की राह पर चल पड़ेंगे।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रु पर सिंह की तरह प्रहार करें


कौमे संकोचभास्य प्रहारमपि मर्धयेत्।
काले प्रापते तु मतिमानुत्तिश्ठेत्क्रूरसर्पवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने समय के अनुसार जीवन में रणनीति बनाते हुए कछुए के समान अंग समेटकर शत्रु का प्रहार भी सहन करें तो और उचित अवसर देखकर सांप के समान प्रहार भी करें।
मतप्रमतवत् स्थित्वा ग्रसदुत्पलुत्य पण्डितः।
अपरिभश्यमानं हि क्रमप्राप्ते मृगेन्द्रवत्।।
हिंदी में भावार्थ-
बुद्धिमान व्यक्ति को मत्त और प्रमत्त के समान दिखावे में स्थित होकर शत्रु पर ऐसे ही प्रहार करते हैं जैसे सिंह करता है। उसका वार कभी खाली नहीं जाता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में कई बार ऐसा अवसर आता है जब हमें दूसरे के शब्दिक और शारीरिक आक्रमण को झेलना पड़ता है। उस समय हमें अपनी स्थितियों और शक्ति का अवलोकन करते हुए इस बात को भी देखना चाहिये कि हमारे सहयोगी कौन है? अगर समय हमारे अनुकूल न हो तो अपनी सहनशक्ति को बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि उस समय क्रोध या निराशा में उठाया गया कदम आत्मघाती होता है।
इसके विपरीत जब हमारा समय अनुकूल हो और लगता हो कि हमारे मित्र और सहयोगी साथ देने के लिये तैयार हैं और शत्रु या विरोधी को दबाया जा सकता है तब उस पर शाब्दिक या शारीरिक आक्रमण किया जा सकता है। वैसे आजकल के सभ्य युग में शारीरिक कम शाब्दिक संघर्ष अधिक होते हैं। चाहे किस प्रकार का भी आक्रमण हो उसकी तैयारी विवेक से करना चाहिये। कहीं कहीं हम पर शाब्दिक आक्रमण भी होता है और अगर लगता है कि वहां प्रत्युत्तर देने का उचित समय नहीं है तो मौन रहना ही बेहतर है परंतु यदि लगता है कि उससे सामने वाले को अनावश्यक लाभ मिल रहा है तो स्थिति देखकर उस पर पलटवार करना बुरा नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है जीवन में अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये रणनीति से काम करना चाहिए। कहा भी जाता है कि यह जिंदगी को युद्ध या जंग से कम नहीं होती।
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चाणक्य नीति- निरंतर अभ्यास से ही कामयाबी संभव


जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्वते घटः।
स हेतु सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य चः।।
हिंदी में भावार्थ-
पानी की एक एक बूंद से जिस तरह घड़ा भर जाता है उसी प्रकार थोड़े से अभ्यास से सभी प्रकार विद्यायें, धार्मिक ज्ञान तथा धन प्राप्त किया जा सकता है।
नाहारं विच्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।
आहारा हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।
हिंदी में भावार्थ-
विद्वान को भोजन तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की चिंता छोड़कर केवल धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिए क्योंकि परमात्मा ने दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था पहले ही कर दी है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में सफलता प्राप्त करने का कोई संक्षिप्त मार्ग नहीं है। जीवन में धीरज के साथ अपने कर्म करने के साथ ही ज्ञानार्जन का अभ्यास सतत करना ही सफलता का मंत्र है। संक्षिप्त मार्ग ढूंढने का आशय है अप्राकृतिक साधनों की तरफ आकर्षित होकर अपने लिये विपत्तियों का बुलाना। लोग एक दिन में ही लखपति और फिर करोड़पति बनना चाहते हैं। सच बात तो यह है कि अवैध या अपराधिक कार्यों में ही यह संभव है पर स्वच्छ और पवित्र व्यवसायों में तो धीरज के साथ ही उन्नति की तरफ बढ़ा जाता है। इस बात पर विचार कर सुख के साथ शांति पूर्वक जीवन की इच्छा करने वालों को अपने व्यवसाय और नौकरी के साथ ही अध्यात्मिक विषयों में भी रुचि लेना चाहिए।
इतना ही नहीं जीवन में परिश्रम से बचने का कोई प्रयास नहीं करना चाहिए। काम करने से ही आत्मविश्वास बढ़ता है और इसके लिये जरूरी है कि अपने प्रयास में नैतिकता और ईमानदारी बरतें। अपने व्यवसाय और अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के कार्य के निरंतर अभ्यासरत रहने से उपलब्धियों प्राप्त होती हैं और इस पर विश्वास करना चाहिए।
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चाणक्य नीति-जो विद्या काम की न आये उसे पाना व्यर्थ


नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
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हर्त ज्ञार्न क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नर।
हर्त निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष ह्यभर्तृकाः ।।

हिंदी में भावार्थ- जिस ज्ञान को आचरण में प्रयोग न किया जाये वह व्यर्थ है। अज्ञानी पुरुष हमेशा ही संकट में रहता हुआ ऐसे ही शीघ्र नष्ट हो जाता है जैसे सेनापति से रहित सेना युद्ध में स्वामीविहीन स्त्री जीवन में परास्त हो जाती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- मनुष्य का सेनापित उसका ज्ञान होता है। उसके बिना वह किसी का गुलाम बन जाता है या फिर पशुओं की तरह जीवन जीता है। ज्ञान वह होता है जो जीवन के आचरण में लाया जाये। खालीपीली ज्ञान होने का भी कोई लाभ नहीं है जब तक उसको प्रयोग में न लाया जाये। हमारे देश में ज्ञानोपदेश करने वाले ढेर सारे लोग है जो ‘दान, तत्वज्ञान, तपस्या, धर्म, अहिंसा, प्रेम, और भक्ति की महिमा’ का बखान करते हैं पर उनका जीवन उसके विपरीत विलासिता, धन संग्रह, और अपने बड़े होने के अभिमान में व्यतीत होता है। देखा जाये तो उनके लिये ज्ञान विक्रय और उनके अनुयायियों के लिये क्रय की वस्तु होती है। उसके आचरण से न तो गुरु का और न ही शिष्य का लेना देना होता है।

यही कारण है कि हमारा समाज जितना धार्मिक माना जाता है उतना ही व्यवसायिक भी। भारतीय प्राचीन ग्रथों का तत्वज्ञान का मूल सभी जानते हैं पर उसके भाव को कोई नहंीं जानता। अनेक गुरु ज्ञानोपदेश करते हुए बीच में ही यह बताने लगते हैं कि ‘धर्म के प्रचार के लिये धन की आवश्यकता है’। वह अपने भक्तों में दान और त्याग का भाव पैदा कर अपने लिये धन जुटाते है। भक्त भी अपने मन में स्थित दान भाव की शांति के लिये उनकी बातों में आकर अपनी जेब ढीली कर देते हैं। कथित गुरु अपने शिष्यों को ज्ञान के पथ पर लाकर उनका भौतिक दोहन कर फिर उनको अज्ञान के पथ पर ढकेल देते हैं। यही कारण है कि अध्यात्मिक गुरु कहलाने वाला अपना देश भौतिकता के ऐसे जंजाल में फंस कर रह गया है जहां विकास केवला एक नारा है जिसकी अंतिम मंजिल विनाश है।
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संत कबीर वाणी-मूर्ख लोग सभी की पीड़ा एक समान नहीं मानते


पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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श्री गुरुवाणी-सत्संग से विचार निर्मल होते हैं


‘जो जो कथै सुनै हरि कीरतन ता की दुरमति नासु।’
सगन मनोरथ पावै नानक पूरन होवै आसु।।’’
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार जो व्यक्ति हरि का कीर्तन सुनते है उनकी दुर्बुद्धि का नाश होता है। श्री गुरुनानक जी कहते हैं कि उनकी सारी आशायें पूरी हो जाती हैं।
‘कलजुग महिं कीरतन परधाना।‘
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार कलियुग में केवल कीर्तन ही प्रमुख है।
‘कीरतन निरमोलक हीरा‘।
हिंदी में भावार्थ-
श्रीगुरु ग्रंथ साहिब वाणी के अनुसार कीर्तन (सत्संग) एक अनमोल हीरा है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की भागदौड़ की जिंदगी में काम करने के बाद हर आदमी अपना दिल बहलाने के लिये मनोरंजन चाहता है। अवकाश के दिन आदमी अपने दिमागी मनोरंजन की तलाश करता है। टीवी चैनलों के धारावाहिकों और फिल्मों के दृश्यों से बह दिल बहलाने का प्रयास करता है। मगर विचार करें तो उनमें क्या दिखाया जाता है? डरावने दृश्य,दिल दिमाग में तनाव पैदा करने संवाद और कल्पनातीत कहानियों से भला कहीं दिल बहलता है? इसके विपरीत दिमाग की नसों पर नकारात्मक प्रभाव उसे अधिक कष्ट पहुंचाता है। अपना दिमागी तनाव दूर करने के लिये नई ऊर्जा को मनोरंजन से प्राप्त करने का प्रयास व्यर्थ है बल्कि अपने मौजूद विकार बाहर निकालने की आवश्यकता होती है और यह केवल सत्संग या कीर्तन से ही संभव है।
टीवी चैनलों के धारावाहिकों और फिल्मों के दृश्यों में द्वंद्वात्मक प्रस्तुतियों की भरमार होती हैं। एक कल्पित खलपात्र और एक सहृदय पात्र रचकर जो द्वंद्व होता है उसे देखकर अपने दिल दिमाग को शांति देने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। दिमाग की शांति के लिये द्वंद्वों से पर रहना चाहिये न कि उनमें उनमें शंाति पाने की लालसा करना चाहिये। हमें आवश्यकता होती है अपने अंदर से विकार बाहर निकालने की न कि ग्रहण करने की। इसका एक ही उपाय है कि आदमी नियमित रूप से भगवान का भजन करे। अवकाश के दिन सत्संग में जाये।
इसमें यह नहीं देखना चाहिये कि सत्संग करने वाला कौन है या वहां कौन आता है। मुख्य बात यह है कि हमें अपनी अध्यात्मिक शांति के लिये नियमित रूप से चलने वाले कार्य से हटकर कुछ करने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब हम कीर्तन और सत्संग में भाग लें।
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संत कबीर वाणी:मिल बाँट कर खाएं वही हैं वीर


संत कबीर महाराज कहते हैं कि
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कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार

सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।

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संत कबीर वाणीः अच्छा खाने को मिले तो भी बेवकूफ की संगत न करें


कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय
खीर खीड भोजन मिलै, साकट संग न जाय

संत कबीर दास जी कहते हैं कि साधु की संगत में अगर भूसी भी मिलै तो वह भी श्रेयस्कर है। खीर तथा तमाम तरह के व्यंजन मिलने की संभावना हो तब भी दुष्ट व्यक्ति की संगत न करें।

कबीर संगत साधु की, कभी न निष्फल जाय
जो पै बोवै भूनिके, फूलै फलै अघाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि साधुओं की संगति कभी भी व्यर्थ नहीं जाती और उसका समय पर अवश्य लाभ मिलता है। जैसे बीज भूनकर भी बौऐं तो तो खेती लहलहाती है।

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