मित्रों की रक्षा कर ही शत्रु को हराया जा सकता है-कौटिल्य का अर्थशास्त्र के आधार पर हिन्दी चिंत्तन लेख


      भारतीय अध्यात्म दर्शन  में न केवल प्रथ्वी के जीवन रहस्य को वर्णन किया गया है कि वरन् उसमें सांसरिक विषयों से पूर्ण सामर्थ्य के साथ ही लिप्त रहने के लिये पठनीय सामग्री भी शामिल है। भारतीय दर्शन मनुष्यों में जाति या भाषा के आधार पर भेद करने की बजाय स्वभाव, कर्म तथा प्रकृति की दृष्टि से उनमें प्रथकता का ज्ञान कराता है। भारतीय अध्यात्म दर्शन यह दावा कभी नहीं  करता कि उसके अध्ययन से सभी मनुष्य देवता हो जायेंगे बल्कि वह इस सत्य की पुष्टि करता है कि मनुष्यों में आसुरी और दैवीय प्रकृतियां वैचारिक  रूप में हमेशा मौजूद रहेगी।  इसके विपरीत भारत के बाहर से आयातित विचारधारायें सभी मनुष्य को फरिश्ता बनाने के दावे का स्वप्न मनुष्य मन में प्रवाहित कर उसे भ्रमित करती हैं।  हमारे देश में राजा की परंपरा समाप्त हो गयी तो उसकी जगह विदेशों से आयातित लोकतांत्रिक व्यवस्था की विचाराधाराओं ने यहां जड़े जमायीं।  हैरानी की बात है कि देश की प्रबंधकीय व्यवस्था का स्तर इतना गिर गया है कि लोग आज राजाओं के साथ ही अंग्रेजों की राज्य व्यवस्था को  याद करते हैं।   तय बात है कि आज के राजनीतिक प्रबंधकों से उनके मन में भारी निराशा व्याप्त है।  इसी निराशा का लाभ शत्रु राष्ट्र उठाकर सीमा पर नित्त नये खतरे पैदा कर रहे हैं।

       दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में चुनाव जीत कर ही कोई शासन प्राप्त कर सकता है।  यह भी पांच वर्ष की सीमित अवधि के लिये मिलता है।  फिर चुनाव जीतने के लिये भारी प्रचार का व्यय करने के साथ ही कार्यकर्ताओं को भी पैसा देना पड़ता है। परिणाम यह हुआ है कि भले ही लोग समाज सेवा के लिये चुनावी राजनीति करने का दावा करते हों पर उनके कार्य करने की शैली उनके व्यवसायिक रूप का अनुभव कराती है। स्थिति यह है कि कानून में निर्धारित  राशि से कई गुना खर्च चुनाव जीतने के लिये उम्मीदवार करते हैं।  चुनाव जीतन के बाद राजकीय पद पर बैठने पर भी उनकी व्यक्तिगत चिंतायें कम नहीं होतीं। कहा भी जाता है कि जिसे राजनीति का चस्का लग जाये तो फिर आदमी उसे छोड़ नहीं सकता। तात्कालिक रूप से अपना पद बचाये रखने के साथ ही  अगली बार चुनाव  जीतने का सोच चुनावी राजनीति में सक्रिय लोगों को परेशान किये रहता है। जहां तक प्रजा के लिये व्यवस्था के प्रबंध का प्रश्न है तो वह अंग्रेजों की बनायी लकीर पर फकीर की तरह चल ही रही है।  भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपने कौशल के अनुसार राज्य चलाते हैं।  वह अपने सिर पर बैठे चुनावी राजनीति से आये शिखर पुरुषों को भी संचालित करते हैं।  राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों को राजाओं जैसी सुविधा मिलती है तो वह प्रशासन तथा प्रबंधकीय स्थानों पर बैठे लोगों की कार्यप्रणाली पर अधिक दृष्टिपात नहीं करते। दिखाने के लिये भले ही वैचारिक द्वंद्व प्रचार माध्यमों में होता है पर मूल व्यवस्था में कभी कोई बदलाव नहीं होता।

    जहां तक राजनीति का प्रश्न है तो उच्च पदों पर पहुंचे लोगों की चाल भी आम आदमी की तरह ही होती है।  जिस तरह आम आदमी अपने राजसी कर्मों के निष्पादन के लिये चिंतित रहता है उसी तरह चुनाव राजनीति में भी केवल चुनाव जीतना ही मुख्य लक्ष्य रह जाता है। चुनाव जीतने के बाद पद मिलते ही अनेक लोग यह भूल जाते हैं कि निज जीवन और सार्वजनिक जीवन की राजनीति में अंतर होता है। राजनीति तो हर आदमी करता है पर सार्वजनिक जीवन की राजनीति करने वालों का समाज में मुख्य दर्जा प्राप्त होता है। प्रजा के धन से ही उनको अनेक सुविधायें मिलती हैं। वह समाज के प्रेरक और आदर्श होते हैं। यह अलग बात है कि चुनावी राजनीति में सक्रिय बहुत कम लोग अपनी सकारात्मक छवि समाज में बना पाते हैं।  राज्य के अंदर की व्यवस्था तो प्रशासकीय अधिकारी करते हैं पर सीमा के प्रश्न पर उनका नजरिया हमेशा ही अस्पष्ट रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि बाह्य विषयों पर  चुनावी राजनीति से पद प्राप्त व्यक्ति ही निर्णायक होता हैै।  ऐसे में जिस देश में राजनेता और प्रशासन में वैचारिक  अंतद्वंद्व हो वह बाहरी संकटों से कठिनाई अनुभव करते हैं।  दूसरी बात यह कि लोकतांत्रिक नेता सैन्य नीतियों पर कोई अधिक राय नहीं रख पाते।  खासतौर से जहां शत्रु राष्ट्र को दंडित करने का प्रश्न है तो लोकतांत्रिक देश के नेता अपनी झिझक दिखाते हैं। युद्ध उनके लिये अप्रिय विषय हो जाता है।  हम पूरे विश्व में जो आतंकवाद का रूप देख रहे हैं वह कहीं न कहीं लोकतांत्रिक नेताओं में युद्ध के प्रति अरुचि का परिणाम है।     

कौटिल्य महाराज अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि

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अरयोऽपि हि मित्रत्वं यान्ति दण्डोवतो ध्रुवम्।

दण्डप्रायो हि नृपतिर्भुनक्तयाक्रम्य मेदिनीम्।।

          हिन्दी में भावार्थ-दण्डग्रहण करने वाले के शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। दण्ड धारण करने वाला राजा या राज्य प्रमुख आक्रमण कर इस धरती पर सुख भोग सकता है।

सस्तम्भयति मित्राणि ह्यभित्र नाशयत्यपि।

भूकोषदण्डैर्वृजति प्राणश्वाप्युपकारिताम्।।

       हिन्दी में भावार्थ-अपने मित्रों को स्थिर रखने के साथ ही शत्रुओं को मारने वाले, प्रथ्वी, कोष और दण्डधारक राजा या राज्य प्रमुख की दूसरे लोग अपने प्राण दाव पर लगाकर रक्षा करते हैं।

     परिवार की हो या देश की राजनीति, वही मनुष्य अपने आपको सफल प्रमाणित कर सकता है जो अपने मित्र की रक्षा तथा शत्रु का नाश करने का सामर्थ्य रखता है। मुख्य बात यह है कि जिस तरह पुरुष अपने परिवार की रक्षा के लिये अपने अंदर आक्रामक प्रवृत्ति बनाये रखता है उसी तरह उसे राज्य की रक्षा के लिये भी तत्पर रहना चाहिये।  राज्य प्रमुख चाहे सैन्य क्षमता से सत्ता प्राप्त करे या चुनाव से, राज्य करने के नियम बदल नहीं सकते। भारत में इस समय चारों  तरफ से सीमा पर खतरा व्याप्त है और हम शांतिपूर्ण राष्ट्र होने की दुहाई देते हुए उनसे बचने का मार्ग ढूंढते हैं तो कहंी न कहीं हमारे राजनीति कौशल के अभाव का ज्ञान उससे होता है। जब हमारे पास अपनी एक शक्तिशाली सेना है तब हमें अहिंसा या शांति की बात कम से कम अपनी सुरक्षा को लेकर करना ही नहीं चाहिये। शांति या अहिंसा की बात करना सार्वजनिक जीवन के राजनयिकों का नहीं है वरन यह सामाजिक तथा धार्मिक शीर्ष पुरुषों पर छोड़ देना चाहिये कि वह समाज को ऐसे संदेश दें।  राजकीय विषयों का निष्पादन हमेशा ही मानसिक दृढ़ता से होता है। वहां सभी को साथ लेकर चलने की नीति की बजाय सभी को साधने की नीति अपनानी चाहिये। कम से कम कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो यही कहता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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