हिन्दी शायरी-ताज और दौलत (hindi shayari-taj aur daulat)


जिनको पहनाया ताज़
वही दौलत के गुलाम हो गये,
जिन ठिकानों पर यकीन रखा
वही बेवफाई की दुकान हो गये।
किसे ठहरायें अपनी बेहाली का जिम्मेदार
दूसरों की कारिस्तानियों से मिली जिंदगी में ऐसी हार
कि अपनी ही सोच पर
ढेर सारे शक और
मुंह से निकलते नहीं लफ्ज़
जैसे कि हम बेजुबान हो गये।
———-
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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अयोध्या में राम मंदिर कब बन पायेगा-हिन्दी हास्य कविता (ayodhya mein ram mandir kab ban paeyga-hindi hasya kavita)


एक राम भक्त ने दूसरे से कहा
‘वैसे तो राम सभी जगह हैं,
हमारे अध्यात्मिक ज्ञान की बड़ी वजह हैं,
घर घर में बसे हैं,
घट घट में इष्ट की तरह श्रीराम सजे हैं श्रीराम
पर फिर भी जिज्ञासावश
अयोध्या के राम मंदिर का ख्याल आता है,
चलो किसी समाज सेवक से चलकर
पूछ लेते हैं कि
वह कब तक बन पाता है।’

सुनकर दूसरे राम भक्त ने कहा
‘भला तुमको भी समाजसेवकों की तरह
अपनी आस्था की परीक्षा क्या ख्याल क्यों आता है,
अरे, अयोध्या के मंदिर का मामला
बड़े लोगों का है
यह पता नहीं उनका वास्तव में
राम भक्ति से कितना नाता है,
अलबत्ता चाहो तो किसी सट्टेबाज या
बाज़ार के सौदागरों से पूछ लेते हैं,
चाहे जो भी जनचर्चा को विषय हो
उसमें अपने भगवान पैसे को पूज लेते हैं,
प्रचारक अब क्रिकेट जैसे खेल में भी
भगवान का स्वरूप गढ़ने लगे हैं
शिकायत भी वही करते हैं कि
अंधविश्वासी लोग बढ़ने लगे हैं,
चुनाव हो या क्रिकेट
जीत हार फिक्स कर लेते हैं,
सौदा और सट्टा मिक्स कर लेते हैं,
समाज सेवा में भी उनके दलाल पलने लगे हैं,
धर्म कर्म भी उनके इशारे पर चलने लगे हैं,
सट्टेबाज़ जिज्ञासाओं और आशाओं की आड़ में कमाते हैं
इसलिये इंसानों को उसमें फंसाते हैं
हम तो बरसों से सुनते हुए राम मंदिर प्रसंग भुला बैठे,
पर बड़े लोग इसे चाहे जब झुला बैठे,
इसलिये सौदागरों से यह पूछना होगा कि
कब राम मंदिर पर उनका दिल आयेगा,
सट्टेबाजों से पूछना होगा
उनका आंकड़ा कब हिल पायेगा,
अपुन ठहरे आम भक्त,
अंदर से पुख्ता, बाहर अशक्त,
अपने राम तो मन में बसे रहेंगे,
एक जगह न ठहर सभी जगह
कल्याण करते बहेंगे,
कण कण में देखते रूप उनका
काम नहीं करती अक्ल इस पर कि
अयोध्या में राम मंदिर कब बन पायेगा।’’
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सांसरिक चतुराई तो हर कोई सीख लेता है-हिन्दू धर्म सन्देश


लिखना पढ़ना चातुरी, यह संसारी जेव।
जिस पढ़ने सों पाइये, पढ़ना किसी न सेव।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है कि लिखना, पढ़ना चतुराई करना यह तो संसार की सामन्य बातें हैं। जिस परमात्मा का नाम पढ़कर समझना चाहिये उसे कोई नहीं मानता।
ज्ञानी ज्ञाता बहु मिले, पण्डित कवी अनेक।
राम रता इन्द्री जिता, कोटी मध्ये अनेक।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं इस संसार में ज्ञानी और विद्वान बहुत मिले। पण्डित और कवि भी बहुत हैं। परन्तु राम भक्ति में लीन अपनी इंद्रियों को जीतने वाला करोड़ो में कोई एक होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी यही कहा कि हजारों में कोई एक मुझे भजता है। उन हजारों में भी कोई एक मुझे हृदय से भजता है।
मनुष्य का मन जब संसार के कार्य से ऊब जाता है तब वह कुछ नया चाहता है। कुछ लोग फिल्म और धारावाहिक देखकर मनोरंजन करते हैं तो कुछ गाने सुनकर। कुछ लोग भगवान भक्ति भी यह सोचकर करते हैं कि इससे मन को राहत मिल जाये। उनमें श्रद्धा का अभाव होता है इसलिये भक्ति करने के बाद उनके आचार, विचार और कर्म में कोई अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो सच्ची श्रद्धा से भगवान की भक्ति कर पाते हैं।

इस संसार में जिसे अवसर मिलता है वह पढ़ता लिखता तो अवश्य ही है और इस कारण उसमें चतुराई भी आती है। मगर इससे लाभ कुछ नहीं है। ऐसे कई प्रसंग अब सामने आने लगेे हैं जिसमें पढ़े लिखे लोग ही धर्म परिवर्तन कर दिखाते हैं कि उनमें समाज और परिवार के प्रति विद्रोह है। धर्म परिवर्तन कर विवाह करने वाले अधिकतर लोग शिक्षित ही रहे हैं। इससे साफ जाहिर होता है कि आधुनिक शिक्षा आदमी को शिक्षित तो बना देती है पर अध्यात्मिक ज्ञानी नहीं। कहने को यही शिक्षित कहते हैं कि धर्म क्या चीज है पर भारतीय अध्यात्म ज्ञान के अभाव में वही धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। आप उनसे पूछिये कि धर्म अगर कोई चीज नहीं है तो उसे बदला क्यों? अगर आप देश में चल रहे भाषा, जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर चल रहे झगड़ों को देखें तो उनमें शिक्षित लोग ही अधिक लिप्त हैं। इससे यह तो जाहिर हो जाता है कि शिक्षित होने से इंसान ज्ञानी नहीं हो जाता। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में आदमी भटकाव की राह पर चला जाता है। इसलिये जितना हो सके अपने घर पर अध्यात्मिक ज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मंदी का दौर:नया उपभोक्ता वर्ग कहां से आयेगा-आलेख


अमेरिका के उद्योगपति बिल गेट्स ने कहा है कि वर्तमान मंदी अगले चार साल तक चल सकती है। बिल गेट्स विश्व में प्रसिद्ध उद्योगपति हैं और नये लोगों को उनसे प्रेरणा लेने को कहा जाता है। वैसे उन्होंने जो अनुमान लगाया है उसके जो आधार होंगे वह अमेरिका और पश्चिमी देशों के बाजार को दृष्टिगत बनाये गये होंगे। वैसे तो भारत में भी मंदी का दौर चल रहा है पर आज तक यह कोई नहंी बता पा रहा है कि आखिर यह मंदी आई कैसे?

जिन लोगों ने दृष्टा की तरह इस बाजार को देखा होगा वह कभी न कभी इस आशंकित मंदी पर विचार अवश्य करते रहे होंगे। नित प्रतिदिन नवीन उत्पादों की चर्चा आये दिन प्रचार माध्यमों में आती है पर यह बात याद रखने लायक है कि वह पुराने प्रचलित उत्पादों को बाहर अधिक करते हैं बनिस्बत नये ग्राहक बनाने के। अभी में भारत में एक सस्ती कार के निर्माण और बाजार में और की चर्चा है इस कार को देखने के बाद-एक टीवी में एक मेले में इसका माडल दिखाया गया था-कोई भी कह सकता है कि वह लोगों में कम दाम से अधिक अपनी डिजाइन के कारण लोकप्रिय होगी। जिन लोगों के पास महंगी और आकर्षक कारें हैं वह भी इसका उपयोग स्थानापन्न रूप से कर सकते हैं या पुरानी बेचकर वही लेना चाहेंगे। इस कार को नये उपभोक्ता खरीदेंगे पर उनकी संख्या कम होगी। अब यह संभव है कि अनेक महंगी और बड़ी गाडि़यों की बिक्री में कमी उसकी वजह से हो सकती है। कहने का तात्पर्य है कि जो तेजी बाजार में चल रही थी-कम से कम भारत में-वह सीमित वर्ग के धन के व्यय पर चल रही थी। यही वर्ग बदल बदल कर आ रहे उत्पादों को खरीद रहा था। हां शुरुआताी दौर में फ्रिज,टीवी,कूलर,कार,मोटर साइकिल तथा अन्य औद्योगिक उत्पादों को नये होने के कारण भारत में बहुत बड़ा बाजार मिला पर जैसे ही मध्यम वर्ग के सभी लोगों से इसे प्राप्त कर लिया तो उसके बाद फिर वही वर्ग नये उत्पादों को खरीद रहा जिसके पास अपने मूल स्त्रोत से अलग भी आय है-या फिर कहा जाये कि उनके पास एक से अधिक आय के स्त्रोत हैं। इसके अलावा निजी क्षेत्र में ं नयी और आकर्षक नौकरी के कारण भी एक वर्ग नये उत्पादों को खरीदता रहा। देश में उदारीकरण के प्रारंम्भिक दौर में उस समय अनेक उद्योगों और व्यवसायों को अपना मूल ढांचा खड़ा करने के लिये लोग चाहिये थे और उन्होंने इसलिये अपने यहां बड़े पैमाने पर नौकरियां दीं। इनमे आप टेलिफोन कंपनियों का नाम ले सकते हैं। उनकेा नये कनेक्शन और ग्राहक जुटाने थे इसलिये उन्होंने अपना संगठन बढ़ाया। अब वह स्थापित हो गये हैं। शहरों में उन्होंने अपना नेटवर्क स्थापित कर लिया है और नई लाईनें डालने और ग्राहक बनाने का उनका दायरा अब उतना नहीं है जितना दो या तीन वर्ष पूर्व था। तय बात है कि उनको अपने यहां नौकरियां ओर कर्मचारी कम करना पड़ सकते हैं। इसका असर उन लोगों की क्रय क्षमता पर पड़ना है जो वहां से हटाये जायें या कहीं ऐसी जगह रखें जायें जहां उनका स्वयं का व्यय ही अधिक हो जाये। फिर मंदी के दौर के चलते जहां अनेक लोग नौकरियां गंवा रहे हैं या उनके वेतन में कमी हो रही है इससे भी एक उपभोक्ता के रूप में उनकी क्रय क्षमता का हृास हो रहा है।

दरअसल इस मंदी का मुख्य कारण यह है कि कंपनियों ने अपने विनिवेशकों को खुश करने के लिये अधिक लाभांश या ब्याज दिया। यह अलग बात है कि कंपनी के उच्चाधिकारियों के पास भी अधिक मात्रा में शेयर होते हैं और उनको स्वयं भी लाभ मिलता है। इतना ही नहीं कितनी भी मंदी हो कंपनियों के उच्चाधिकारियों के लाभों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह अपना उच्च स्तर बनाये रखते हैं-कई जगह वेतन के साथ वह कमीशन भी प्राप्त करते हैं-उनके व्यय में कमी नहीं आती। अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने अपने देश की कंपनियों को इस बात के लिये लताड़ा भी था कि उनके उच्चाधिकारी न केवल ठाठ से रह रहे हैं बल्कि बोनस भी ले रहे हैं जबकि उनकी कंपनियां मंदी का संकट झेलते हुए सरकार से मदद की गुहार लगा रही हैं।

भारत में तो वैसे भी कर्मचारियों और मजदूरों का शोषण होता रहा है और कंपनियां भी इससे पीछे नहीं हैं। मुख्य बात यह है कि उन छोटे कर्मचारियों का सभी जगह शोषण होता है जो मजदूरी या लिपिकीय कार्य करते हैं। इनके वेतन बहुत कम रखे जाते हैं यह सोचकर कि उनका कोई महत्वपूर्ण नहीं है या उन जैसे बहुत मिल जायेंगे। कंपनियां यह भूल जाती हैं कि उनके कर्मचारी किसी के उपभोक्ता होते हैं जैसे कि अन्य जगह कार्यरत कर्मचारी उनके भी उपभोक्ता होते है। एक टेलीफोन कंपनी मेंं कार्यरत टीवी और फ्रिज भी खरीदता है तो टीवी कंपनी के लिये कार्य करने वाला अपने यहां टेलीफोन भी लगवाता है। अगर हम इस चक्र को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अधिकतर कंपनियां या उद्योगपति समाज के दोहन में लगे रहते हैं और उपभोक्ता के रूप मेंं दूसरे की जेब से पैसा निकालने के लिये तत्पर होते हैं पर जब उसे भरने की बात आती है तो उनको अपने लाभ की चिंता सताती है। इन उद्योगतियों और कंपनियों के उच्चाधिकारियों का बहुत सारा यकीनन बैंकों में सड़ता होगा और वह बैठकर इस मंदी का लुत्फ उठाते हैं और प्रचार माध्यमों में मंदी का रोना रोते हैं।

भारत में जो नवीन उपभोक्ता वर्ग गुणात्मक रूप से बढ़ रहा था उसमें अब घनात्मक वृद्धि ही संभव है इसलिये नवीन उत्पाद किसी पुराने उत्पाद को या तो रीसेल के लिये भेजेंगे या कबाड़ में डाल देंगे। इससे बाजार उठने वाला नहीं है। वैसे भी आदमी कितना कबाड़ घर में रखेगा? घर भी आखिर भरने लगता है। यह मंदी का दौर कब तक चलेगा कोई नहीं जानता क्योंकि सभी जगह समस्या यही रहने वाली है कि नया उपभोक्ता वर्ग कहां से आयेगा या उसकी जेब कैसे भरेगी। आखिर आदमी भी कब तक कबाड़ में चीजें रखेगा।
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मानव सभ्यता पर वाद-विवाद-आलेख


आज एक समाचार में एक इतिहासकार द्वारा इतिहास में अयथार्थ से भरे तथ्यों को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों से हटाने की मांग की गयी है। उन्होंने आर्यों से संबंधित कुछ तथ्यों का प्रतिवाद किया।
एक तो यह कि आर्य कभी आक्रामक नहीं रहे और उनके द्वारा कभी भी कहीं सामूहिक नरसंहार नहीं किया गया-यह पश्चिमी अवधारणा केवल उनको बदनाम करने के लिये बनायी गयी।
दूसरे यह है कि वेद ईसा पूर्व 1200 वर्ष पहले ही रचे गये जबकि वास्तविकता यह है कि उनके रचने का कोई एक कार्यकाल नहीं है और वह कई चरणों मेंे रचे गये।
भारतीय इतिहास हमेशा ही विश्व के लिये एक आकर्षण का विषय रहा है। खासतौर से पश्चिम के विद्वान इसमें इसलिये दिलचस्पी लेते हैं क्योंकि उनका यह भ्रम यहां के इतिहास से टूट जाता है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता का विस्तार पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ है।
इतिहास को लेकर कई बातें मजाक भी लगती है जैसे हमारे इतिहास में पढ़ाया जाता है कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की थी। दूसरा यह भी पढ़ाया जाता है कि कोलम्बोस ने अमेरिका की खोज की थी। भारत में कोलम्बोस की चर्चा इस तरह होती है जैसे कि उनके बाद ही अमेरिका में मानव सभ्यता का विस्तार हुआ जबकि सच यह है कि वहां पहले से भी वह विद्यमान थी। वहां रह रहे काले लोग अमेरिका के मूल निवासी माने जाते है। संभवतः वास्कोडिगामा को लेकर पश्चिम में भी यह भ्रम होगा कि उनके वहां पहुंचने के बाद ही मानव सभ्यता का विस्तार भारत में हुआ होगा।

वास्कोडिगामा से पहले भी भारत और चीन के लोगों का पश्चिम आना जाना होता था। यहां से उस तरफ व्यापार होने के कुछ एतिहासिक तथ्य हैं जो अक्सर पढ़ने और सुनने को मिलते हैं। बहरहाल आर्य जाति को लेकर जो इतिहास सुनाया जाता है वह एक अलग विषय है पर उनकी जाति के स्वभावगतः विश्लेषणों का शायद अध्ययन ठीक नहीं किया गया। दरअसल इतिहासकार एतिहासिक घटनाओं का समय तो निर्धारित करने की योग्यता तो रखते हैं पर उनके विश्लेषण मेें वह अपने विवेक का जिस तरह उपयोग करते हैं उससे सभी का सहमत होना संभव नहंी हो पाता।

कुछ एतिहासिक घटनायें ऐसी हैं जिनको आपस में मिलाना आवश्यक लगता है और यह इतिहासकार नहीं करते। यहां हम आर्यों की चर्चा करें तो उनकी कुछ नियमित आदतें दृष्टिगोचर होती हैं।

1.वह लोग व्यवसाय और कृषि में दक्ष थे। वह इसके लिये नयी तकनीकी का अविष्कार और उपयोग करते थे।
2.उनके रहने के भवन पक्के थे और आधुनिक शैली से मिलते जुलते थे।
2.धनार्जन में दक्ष होने के कारण मनोरंजन और धाार्मिक कार्यों में उनकी बहुत दिलचस्पी थी।
3.उनकी स्त्रियों भी कभी आधुनिक थीं और नृत्य और गायन कला में उनका प्रवीणता थी।
4.वह संभवतः मूर्तिपूजक थे और सामूहिक धर्म स्थान बनाकर आपस में तारतम्य रखते थे।
अगर हम देखें तो आर्य लोेग कमाने,खाने और मनोरंजन मेें मस्त रहते थे। अगर हम यह कहें कि वह हिंसक थे तो दूसरा सच यह है कि उनको भागते हुए पूर्व की तरफ नहीं आना पड़ता-जैसा कि दावा पश्चिमी इतिहासकार करते हैं। एक बात जो हो सकती है वह यह कि चूंकि धन कमाने और खर्च करने में उनकी व्यस्तता के चलते वह अपने समाज के अलावा अन्य समाजों की उपेक्षा या तिरस्कार का भाव उनमें रहा होगा और इस कारण उनके प्रति जातियों या वर्ग के लोगों में गुस्सा रहा होगा।
हम यह कहते है कि आर्य विदेश से आये थे, थोड़ा अजीब लगता है। इसकी बजाय यह कहना ठीक लगता है कि आर्य एक आधुनिक सभ्यता का प्रतीक हैं जो धीरे धीरे पूर्व तक फैलती गयी। व्यवसाय,कृषि और तकनीकी के क्षेत्र में नये नये तरीके ईजाद करते रहने के कारण उत्पादन अधिक होने से आर्य या सभ्य लोगों की आय अधिक होती थी इसलिये दूसरे स्थानों पर पहुंचना उनके लिये सहज होता गया और धीरे धीरे उनके कुछ लोग विदेश में जाने लगे और फिर वहीं बसते भी गये । अन्य इलाकों के लोग भी उनसे नये नये गुर सीखते गये और फिर वह भी उन जैसे होते गये। पहले कोई पासपोर्ट या वीजा तो होते नहीं थे पर लोगों का मन तो आज जैसा ही था। पर्यटन और भ्रमण करना आदमी का स्वभाव है। ऐसे में धन आने पर कथित आर्य अगर पूर्व की तरफ बढ़े तो कोई आश्चर्य नहीं है। फिर एक मत भूलिये कि जलवायु और खनिज संपदा की दृष्टि से जितना भारत संपन्न है उतना अन्य कोई राष्ट्र नहीं है। तय बात है कि आर्य क्योंकि जागरुक थे इसलिये भारत पर भी उनकी दृष्टि गयी होगी और उनमें से कुछ लोग यहां आये होंगे और यहीं के होकर रहे होंगे। भारत में अनेक देशों से अनेक जातियोेंं के लोग समय समय पर आये हैंं पर सभी को बाहर से आये आर्य मान लेना ठीक नहीं होगा। आर्य एक सभ्यता है न कि जाति क्योंकि आज की सभ्यता को देखें तो उनसे बहुत मेल खाती है पर सभी को आर्य जाति का तो नहीं मान लिया जाता।
दरअसल आर्य अनार्य का भेद करना है तो आचरण के आधार पर ही करना ठीक लगता है। आर्य तो वह है तो जीवन में अपने कर्म के साथ अन्य सामाजिक गतिविधियों में रुचि लेते हैं। अनार्य वह हैं जो अपने कार्य करने से विरक्त होकर दूसरे का वैभव देखकर अप्रसन्न होते हैं। उनको लगता है कि वह वैभव उससे छीना गया है। इसलिये वह काल्पनिक एतिहासिक और पुरानी कहानियां गढ़ते हैं जैसे कि वह वैभव उसके पूर्वजों से छीना गया है। फिर उनका दुःख यह नहीं होता कि वह अमीर नहीं है बल्कि उनको यह बात परेशान करती है कि दूसरे के पास इतना वैभव और सामाजिक सम्मान क्यों है? कुल मिलाकर यह दो प्रकृतियां हैं जिनको जाति मानना ही गलत है। अगर आज हम अपने देश के वर्तमान अध्यात्मिक और सामाजिक विकास को देखें तो किसी एक समाज या जाति का प्रभाव उस पर नहीं है। सभी जातियों से समय समय पर महापुरुष होकर इस समाज का मार्गदर्शन करते रहे हैं।

भारत के दक्षिण में रहने वालों को द्रविड कहा जाता था पर उनकी सभ्यता आर्यों जैसी हैं। देखा जाये तो भारतीय दर्शन,अध्यात्म और संस्कृति में दक्षिण का कोई कम योगदान नहीं है। द्रविड़ सभ्यता भी विकसित रही है। भारत में धीरे धीरे सभ्यतायें आपस में मिलकर एक ही एक सूत्र में स्वतः आती गयी जिसे अब भारतीय सभ्यता कहा जा सकता है। ऐसा होने में सदियों का समय लगा होगा और एतिहासिक तथ्यों में जिस तरह भ्रांतियां हैं उससे तो नहीं लगता कि किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।
भगवान श्रीराम और राक्षसराज रावण के बीच युद्ध को कुछ पश्चिमी विद्वान सभ्यताओं का संघर्ष मानते हैं। कुछ लोग इसे आर्य-द्रविड़ संघर्ष मानते हैं तो कुछ रावण की आर्य सभ्यता का विस्तार रोकने का प्रयास मानते हैं हनुमान जी और सुग्रीव जो कि आर्य नहीं थे उनके भगवान श्रीराम के सहयाग करने पर पर खामोश हो जाते हैं। इस तरह के विचार केवल भ्रमित करने के लिये हैं। भारत में जातिगत संघर्ष बढ़ाने के लिये ऐसे तथ्य गढ़े गये हैं। चूंकि ऐसा करते हुए भी सदियां बीत गयी हैं इसलिये कई एतिहासिक तथ्य सत्य लगते हैं। आर्य और द्रविड़ दोनों ही सभ्यतायें विकसित रही हैं इसलिये दोनों के आपसी समागम ही भारतीय सभ्यता का निर्माण हुआ।

एक मजे की बात यह है स्वतंत्रता के बाद कई ऐसे मुद्दे सामने आये जो शायद यहां विवाद खड़ा करने के लिये बनाये गये ताकि झगड़े होते रहें। जहां तक आर्य अनार्य का प्रश्न है तो उसकी चर्चा आधुनिक इतिहासकार और विद्वान अधिक करते हैं जबकि प्राचीन साहित्य में इसकी चर्चा नहीं होती।
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अर्थ होता है पढने वाले की नीयत जैसा-हिन्दी शायरी


लिखते लिखते कविता सड़ जाती है
न लिखो तो दिमाग में जड़ हो जाती है
शब्द बोलो तो कोई सुनता नहीं
कान है यहाँ तो, ख्याल है अन्यत्र कहीं
अपने जुबान से निकले शब्द अर्थहीन लगते हैं
अनसुने होकर अपने को ही ठगते हैं
सडांध लगती हैं अपने आसपास
इसलिए नीयत कविता लिखने को मचल जाती हैं

लिखा हुआ सड़ जाए
या सडा हुआ लिखा जाए
पर लिखा शब्द अपनी अस्मिता नहीं खोता
पढने वाले पढ़ें
न पढने वाले न पढ़े
अर्थ होता है पढने वाले की नीयत जैसा
कविता भी वैसी, कवि भी वैसा
जमाने भर की दुर्गन्ध अपने अन्दर
बनी रहे
उसे अच्छा है शब्दों को फूल की तरह बिखेर दो
शायद फ़ैल जाए उनसे सुगंध
वैसे ही क्या कम है लोगों के मन में दुर्गन्ध
अगर सडा हुआ लिखा गया
या लिखा सड़ गया, क्या फर्क पड़ता है
फ़िर भी कविता में कभी कभी
अपने जीवंत रहने की अनुभूति तो नज़र आती है

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सुविधाओं के गुलाम-व्यंग्य


15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ था या एक राष्ट्र के रूप में स्थापना हुई थी। परंतत्र देश स्वतंत्र हुआ पर क्या परतंत्र का मतलब गुलामी होता है। कुछ प्रश्न है जिन पर विचार किया जाना चाहिये। विचार होगा इसकी संभावना बहुत कम लगती है क्योंकि वाद ओर नारों पर चलने वाले भारतीय बुद्धिजीवी समाज की चिंतन करने की अपनी सीमायें हैं और अधिकतर इतिहास में लिखे गये तथ्यों-जिनकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हेाती है- के आधार पर भविष्य की योजनायें बनाते है।

कई ऐसे नारे गढ़े गये हैं जिनको भुलाना आसान नहीं लगता। कोई कहता है कि चार हजार वर्ष तक भारत गुलाम रहा तो कोई दो हजार वर्ष बताकर मन का बोझ हल्का करता है। अगर मन लें वह गुलामी थी तो फिर क्या आज आजादी हैं? अगर यह आजादी है तो यह पहले भी थी। परंतत्रता और गुलामी में अंतर हैं। तंत्र से आशय कि आपके कार्य करने के साधनों से हैं। शासन, परिवार और संस्थाओं का आधार उनके कार्य करने का तंत्र होता है जिसमें मनुष्य और साधन संलिप्त रहकर काम करते हैं। परतंत्रता से आशय यह है कि इन कार्य करने वालों साधनों और लोगों का दूसरे के आदेश पर काम करना। सीधी बात करें तो देश का शासन करने का तंत्र ही आजाद हुआ था पर लोग अपनी मानसिकता को अभी भी गुलामी में रखे हुए हैे। अधिकतर लोगों का मौलिक चिंतन नहीं है और वह इतिहास की बातें कर बताते हैं कि वह ऐसा था और वहां यह था पर भविष्य की कोई योजना किसी के पास नहीं है।
जैसे जैसे प्रचार माध्यमों की शक्ति बढ़ रही है लोग सच से रू-ब-रू हो रहे हैं और वह इस आजादी को ही भ्रम बता रहे हैं। वह अपने विचार आक्रामक ढंग से व्यक्त करते हैं पर फिर गुलामों जैसे ही निष्कर्ष निकालते हैं। बहुत विचार करना और उससे आक्रामक ढंग से व्यक्त करने के बाद अंत में ‘हम क्या कर सकते हैं’ पर उनकी बात समाप्त हो जाती है।
शायद कुछ लोगों को यह लगे कि यह तो विषय से भटकाव है पर अपने समाज के बारे में विचार किये बिना किसी भी प्रकार की आजादी को मतलब समझना कठिन है। आज भी विश्व के पिछड़े समाजों में हमारा समाज माना जाता है। बीजिंग में चल रहे ओलंपिक में एक ही स्वर्ण पदक पर पूरा देश नाच उठा पर 110 करोड़ के इस देश में कम से कम 25 स्वर्ण पदक होता तो मानते कि हमारा तंत्र मजबूत है। जब भी इन खेलों में भारतीय दलों की नाकाम की बात होती है तो तंत्र को ही कोसा जाता है। यानि हमारा तंत्र कहीं से भी इतना प्रभावशाली नहीं है कि वह 25 स्वर्ण पदक जुटा सके। इक्का-दुक्का स्वर्ण पदक आने पर नाचना भी हैरानी की बात है। भारत ने व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार अब यह स्वर्ण पदक जीता जबकि पाकिस्तान का एक मुक्केबाज इस कारनामे को पहले ही अंजाम दे चुका है पर वहां भी एसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। हमारे देश एक स्वर्ण पदक पर इतना उछलना ही इस बात का प्रमाण है कि लोगों के दिल को यह तसल्ली हो गयी कि ‘चलो एक तो स्वर्ण पदक आ गया वरना तो बुरे हाल होते’।

तंत्र की नाकामी को सभी जानते हैं। इस पर बहसें भी होती हैं पर निष्कर्ष के रूप में कदम कोई नहीं उठाता। वर्तमान हालतों से सब अंसतुष्ट हैं पर बदलाव की बात कोई सोचता नहीं है। अग्रेज अपनी ऐसाी शैक्षणिक प्रणाली यहां छोड़ गये जिसमें गुलाम पैदा होते हैंं। यह अलग बात है कि बड़ा गुलाम छोटे गुलाम का साहब होता है।

समाज और लोगों की आदतों को ही देख लें वह किस कदर सुविधाओं के गुलाम हो गये है। देश में आयात अधिक है और निर्यात कम। विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता क्या गुलामी नहीं है। जिसे पैट्रोल पर पूरा देश दौड़ रहा है उसका अधिकांश भाग विदेश से आता है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का प्रयास उसका अंग था पर क्या वह आज कोई कर रहा है। पूरा देश गैस, पैट्रोल का गुलाम हो गया है। अगर इनका उत्पादन पूरी तरह देश में होता तो कोई बात नहीं पर अगर किसी कारण वश कोई देश भारत को तेल का निर्यात बंद कर दे या िकसी अन्य कारण से बाधित हो जाये तो फिर इस देश का क्या होगा? पूरा का पूरा समाज अपंग हो जायेगा। अपने शारीरिक तंत्र से लाचार होकर सब देखता रहेगा।

फिर जिन अंग्रेजों को खलनायक मानते थे आज उसकी प्रशंसा करते हैं। उसकी हर बात को बिना किसी प्रतिवाद के मान लेते हैं। हमारे देश के अनेक लोग वहां अपने लिये रोजगार पाने का सपना देखते हैं। वैसी भी अंग्रेजों का रवैया अभी साहबों से कम नहीं है। वैसे पहले तो अपने भाषणों में सभी वक्ता अंग्रेजों को कोसते थे पर अब यह काम किसी के बूते का नहीं है। अमेरिका के मातहत अंग्रेजों से कोई टकरा पाये इसका साहस किसी में नहीं है। फिर उनके द्वारा छोड़ी गयी साहब और गुलाम की व्यवस्था में हम कौनसा बदलाव ला पाये।

फिर अंग्रेजों ने कोई भारत को गुलाम नहीं बनाया था। उन्होंने यहां रियासतों के राजा और महाराजाओं को हटाकर अपना शासन कायम किया था। यही कारण है कि आज भी कई लोग उनको वर्तमान भारत के स्वरूप का निर्माता मानते हैं। अगर देखा जाये तो जिस आम आदमी के आजादी से सांस लेकर जीने का सपना देखा गया वह कभी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तंत्र के संचालक बदले पर तंत्र नहीं। जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो अंग्रेजों की बात करनी पड़ती है पर अगर स्थापना दिवस की बात की जाये तो इस बात को भुलाया जा सकता है कि उनके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था। पिछले दिनों अखबारों में छपा था कि ब्रिटेन में भी सरकारी दफ्तर लालफीताशाही और कागजबाजी के शिकार हैं। वहां भी काम कम होता है। यानि हमारे यहां उनके द्वारा यहां स्थापित तंत्र ही काम रहा है जिसमें कागजों में लिखा पढ़कर फैसला किया जाता है या छोटे से छोटे काम पर चार लोग बैठकार लंबे समय तक विचार कर उसे करने का निर्णय करते हैं। वैसे तो लगता था कि अंग्रेजों ने केवल यहां ही साहब और गुलाम की व्यवस्था रखी पर दरअसल यह तो उनके यहां भी यही तंत्र काम कर रहा है। वहां भी कोई सभी साहब थोड़े ही हैं। वहां भी आम आदमी है और सभी लार्ड नहीं है। भारत से गये कुछ लोग भी वहां लार्ड की उपाधि से नवाजे गये हैं। मतलब यह कि भारतीय भी लार्ड हो सकते हैं यह अब पता चला है। ऐसे में ख्वामख्वाह में अंग्रेजों को महत्व देना। इससे तो अच्छा है कि इसे स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता तो अच्छा था।
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कहने वाले का कहना ही है व्यापार-व्यंग्य कविता


एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसान सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

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जिस घर के अंदर झांका वहीं जंग का मैदान पाता

अपनों में गैर
और गैरों में अजनबी हो जाना
कितना सताता है
जब आदमी अपने को अकेला पाता है

भरी दोपहर में
शरीर से बहता पसीना
चलते जा रहे पांव
चंद पलों के मन के सुख की खातिर
जिस घर के अंदर झांका
वहीं जंग का मैदान पाता है

मांगने पर थोड़ा प्यार
इतराने लगते हैं लोग
देते हैं नसीहतें तमाम
पर चंद प्यार के लफ्ज बोलकर
हमदर्दी जताने का ख्याल
किसी को नहीं आता है

ऊपर से बरसाता आग सूरज
नीचे जलती धरती
नंगे पांव चलता आदमी
ढूंढता है सभी जगह मन की शीतलता
पर भी नजर डाले
लोगों का मन छल से भरा
स्वयं को ही धोखा देता नजर आता है

कुछ पल प्यार की चाह
जलते पांव के लिये शीतलता की राह
मांग कर अपने आपको
शर्मिंदा करने से तो
जलती आग मे चलते रहना ही भाता है
भला आदमी भी कभी आदमी को
सुख के पल दे पाता है
…………………………….
उस महफिल में चंद पल सुकून से
बिताने की खातिर रखा था कदम
हमें मालुम नहीं था दिलजलों ने
अपने लिये उसे सजाया हैं
उनके मसले देखकर ख्याल आया कि
इससे तो घर ही अच्छे थे हम
पहले भी कम नहीं थे साथ हमारे
वहां से बेआबरू होने का लेकर लौटे गम
………………………………..

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श्रमिक पुत्र कभी अभिनेता नहीं बनता-हास्य कविता-व्यंग्य कविता



आज मजदूर दिवस है
आओ सब मिलकर नारे लगायें
जो गरीबों और मजदूरों को भायें
जन कल्याण और न्याय के लिये
जोर से आवाज उठायें
फिर भूल चाहे भूल जायें
एक ही दिन तो सब करना है
फिर कौन पूछेगा कोई कि
हम क्या कर रहे हैं
मजदूर दिवस कोई रोज नहीं आता
जो कोई फिक्र करें कि
उसके बाद भी कुछ करना होगा
फिर तो पूर वर्ष
न नारे होंगे न कोई सभायें
फिर क्यों घबड़ायें
…………………………..

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पत्थर तोडने वाले मजदूर की बेटी से
खेलते हुए दूसरे मजदूर के बेटे ने कहा
‘‘मै तो बड़ा होकर हीरो बनूंगा’
उसने कहा
‘‘अब ठहर गया है जमाना
समय बदलता है यह सत्य है
पर कितना भी बदले
मजदूर का बेटा हीरो नहीं बनता है
सब जगह यही है हाल
यहां आदमी अब मां के पेट से बनता है
मजदूर का बेटा चाहे कितना भी कर ले
वह समाज में हीरो नहीं बनता है
………………………….

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भृतहरि शतकःसज्जन की मित्रता पूर्वाद्ध की छाया के समान


दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर
इसका आशय यह है कि कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी तो साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।

आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्

जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्ध में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सज्जन व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्ध में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है।

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संगीत का लेते नाम, मचाते कोहराम-हास्य कविता



गीत और संगीत से
दिल मिल जाते हैं पर
अब तो उसकी परख के लिये
प्रतियोगितायें को अब वह
महायुद्ध कहकर जमकर प्रचार कराते
वाद्ययंत्र हथियारों की तरह सजाये जाते
जिन सुरों से खिलना चाहिये मन
उससे हमले कराये जाते
मद्धिम संगीत और गीत से
तन्मय होने की चाहत है जिनके ख्याल में
उन पर शोर के बादल बरसाये जाते

कहें महाकवि दीपक बापू
‘अब गीत और संगीत
में लयताल कहां ढूंढे
बाजार में तो ताल ठोंककर बजाये जाते
महफिलें तो बस नाम है
श्रोता तो वहां भाड़े के सैनिक की
तरह सजाये जाते
जो हर लय पर तालियों का शोर मचाते
देखने वाले भी कान बंद कर
आंखों से देखने की बजाय
उससे लेते हैं सुनने का काम
गायकों को सैनिक की तरह लड़ते देख
फिल्म का आनंद उठाये जाते
किसे समझायें कि
भक्ति हो या संगीत
एकांत में ही देते हैं आनंद
शोर में तो अपने लिये ही
जुटाते हैं तनाव
जिनसे बचने के लिये संगीत का जन्म हुआ
क्या उठाओगे गीत और संगीत का आंनद
जैसे हम उठाते
लगाकर रेडियो पर विविध भारती पर
अपनी अंतर्जाल की पत्रिका पर लिखते जाते
यारों, संगीत सुनने की शय है देखने की नहीं
गीत वह जिसके शब्द दिल को भाते हैं
सुरों के महायुद्ध में जीत हार होते ही
सब कुछ खत्म हो जाता है
पर तन्हाई में लेते जब आनंद तब
वह दिल में बस जाते
बाजार में दिल के मजे नहीं बिकते
अकेले में ही उसके सुर पैदा किये जाते

(दीपक भारतदीप, लेखक संपादक)

……………………………..

संत कबीर वाणी:विषयी लोग दीप और संत हीरे समान होते हैं



दीपक सुन्दर देखि करि, जरि जरि मरे पतंग
बड़ी लहर जो विषय की, जरत न मोरे अंग

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जलते हुए दीपक की रौशनी को देखकर पतंगे जल-जल कर मर जाते हैं। उसी प्रकार जब मनुष्य के मन में विषयों की लहर हमेशा उठती है और वह उसमें बहता रहता है-उसे अपने जीवन मरण का विचार ही नहीं रहता।

सहकामी दीपक दसा, सौंखें तेल निवास
कबीर हीरा संत जन, सहजै सदा प्रकाश

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जिसमें कामवासना अधिक होती है उसकी दशा दीपक के समान होती है जो जलते हुए अपने तेल को भी चूस लेता है जबकि वह उसकी ऊजा का स्त्रोत होता है और उसके समाप्त होने पर दीपक स्वयं भी बुझ जाता है। इसके विपरीत संत लोग हीरे के समान होते हैं जिनकी तपस्या का प्रकाश चारों और फैलता है।

भृतहरि शतकःसंतोष से अमीर-गरीब समान हो जाते हैं


वयमहि परितृष्टा वल्कलैस्त्वं दृकूलैस्सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवतु यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्र

भावार्थ-इस भौतिक संसार में कोई मनुष्य वृक्ष की छाल के वस्त्र पहनकर ही संतुष्ट होता है तो किसी का मन रेशमी सूत के बने वस्त्र धारण कर ही प्रसन्न होता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। धनी और निर्धन के संतोष में कोई अंतर नही। जिसकी बहुत बड़ी इच्छाएं वह दरिद्र होते हुए भी मन के संतुष्ट हो जाता है तो भला किसे धनी कहा जाये और किसे दरिद्र।

संक्षिप्त व्याख्या-यहां कोई धनी अपने धन पर इतराता है तो कोई अपनी निर्धनता को लेकर त्रस्त रहता है। अपनी देह में विचरने वाले मन की ओर कोई दृष्टिपात नहीं करता। अगर मन में संतोष है तो फिर किस बात की चिंता रह जाती है। कुछ लोग ऐसे है जो अपने पास भौतिक साधनों के अभाव की परवाह न करते हुए भक्ति भाव से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वह परमात्मा द्वारा दिये गये धन से संतुष्ट हो जाते हैं पर कई धनिक हैं जो धन क पीछे सदैव पड़े रहते हैं पर मन की शांति उनसे कोसों दूर रहती है। इतना ही नहीं अपनी कम आवश्यकताओं के कारण संतुष्ट लोगों के मन की शांति उनको नहीं सुहाती और तब वह सोचते हैं कि काश! हमें मन की शांति मिल जाये।

आज का भौतिक संसार तो आपने देखा होगा मनुष्य की अशांति पर ही अधिक चल रहा है। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन आता है जिसमें एक अभिनेता कहता है-‘डोंट बी संतुष्ट‘। मतलब यह कि आज के युग के व्यवसायी अपने हित के लिऐ ऐसे प्रयास करते हैं कि आम आदमी के मन में असंतोष भड़काकर उन्हें माया के ऐसे चक्कर में फंसाया जहां से वह निकल नहीं सके।

अगर आदमी के मन में संतोष है इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह धनी है या निर्धन। हमारा काम कम आवश्यकता से चल जाता है तो उससे संतुष्ट हो जाना चाहिए। संतोष ही सबसे बड़ा धन है।

रहीम के दोहे:शरीर रुपी बाजार में मन बिक गया


यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय
ज्यों जल में छाया परे, काया भीतर नांव
कविवर रहीम कहते हैं की शरीर-रुपी बाजार में मन बिक गया, जैसे पानी में व्यक्ति का प्रतिबिबं पड़ने से जल के अन्दर समाहित व्यक्ति का शरीर वास्तविक नहीं होता. वह केवल परछाईं मात्र होता है,

रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति
कटे चाटै स्वान के, दोउ भांति विपरीति

कविवर रहीम कहते हैं की तुच्छ विचार वाले नीच मनुष्य से प्रेम और द्वेष नहीं करना चाहिए, उससे किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहिऐ.

रहीम के दोहे:अपने मन की वेदना सबके सामने मत प्रगट करो


रहिमन आंसुवा नैन ढरि, जिस दुख प्रगट करेइ
जाहिं निकारो गेह तें, कस न भेद कहिं देइ

कविवर रहीम कहते हैं कि अपने दिल का हाल हर किसी से मत कहो। सबके सामने आपने आंसु गिराने से कोई लाभ नहीं। यहां लोग दूसरे की वेदना का रहस्य सबके सामने कहकर उपहास उड़ाते हैं। अपने दुःख भुलाने के लिये दूसरों की वेदना का मजाक उड़ाने में उनको मजा आता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-समाज सिकुड़ रहा छोटे और विघटित परिवारों तथा अन्यत्र स्थानों पर कार्य करने की वजह से कई लोग अकेलेपन को झेल रहे हैं। ऐसे में जब उनकी पीड़ा असहनीय हो जाती है तब वह अपने आसपास के लोगों को अपना समझकर कहने लगते हैं जबकि वही लोग बाद में उनका उपहास उड़ाते है। उसके बाद होता यह है कि अपनी समरूया का हल तो होता नहीं उल्टे लोग हंसी उड़ाकर तकलीफ और देते हैं। सच बात तो यह है कि सभी लोग अनेक प्रकार के तनाव झेल रहे हैं पर जब कोई उनको तकलीफ सुनाता है तो वह यह सोचकर तसल्ली कर लेते हैं कि चलो दूसरा भी दुःखी है। अपना दर्द पीते हैं फिर कोई अपनी तकलीफ सुना जाये तो सबके सामने उसका मजाक कर अपना मनोरंजन करते हैं। उसके साथ यह हुआ। देखो उसने यह गलती कर डाली।

ऐसे में अच्छा यही है कि अपनी पीड़ा आप झेलते रहो। समय कभी एक जैसा नहीं रहता। अच्छा समय निकल गया तो बुरा भी निकल जायेगा-यही सोचकर दिल को तसल्ली देना ठीक है। अगर कोई सोचता है कि दिल का हाल सुनाकर तसल्ली हो जाये तो वह संभव नहीं है। हां, अगर यह विश्वास हो जाये कि कोई व्यक्ति वाकई समस्या का हल कर देगा तो फिर उसे सच बता देना चाहिए।

संत कबीर वाणी:प्रपंची गुरूओं से कोई लाभ नहीं


शब्द कहै सौ कीजिये, बहुतक गुरु लबार
अपने अपने लाभ को, ठौर ठौर बटपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो सत्य का शब्द हो उसी के अनुसार कार्य करो। इस संसार में कई ऐसे गुरू हैं जो पांखडी और प्रपंची होते हैं। वह अपने स्वार्थ के अनुसार कार्य करते हुए उपदेश देते हैं और उनसे कोई लाभ नहीं होता।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संबंध में मेरे द्वारा एक आलेख अन्य ब्लाग पर लिखा गया था जो यहां प्रस्तुत है।

आज के कथित संत और भक्त प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का प्रतीक नहीं
भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की और एक बार वहाँ से निकले तो फिर चल पड़े अपने जीवन पथ पर। फिर विश्वामित्र का सानिध्य प्राप्त किया और उनसे अनेक प्रकार का ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्होने अपना जीवन समाज के हित में लगा दिया न कि केवल गुरु के आश्रमों के चक्कर काटकर उसे व्यर्थ किया। भगवान श्री कृष्ण ने भी महर्षि संदीपनि से शिक्षा पाई और फिर धर्म की स्थापना के लिए उतरे तो वह कर दिखाया। न गुरु ने उन्हें अपने पास बाँध कर रखा न ही उन्होने हर ख़ास अवसर पर जाकर उनंके आश्रम पर कोई पिकनिक नहीं मनाई। अर्जुन ने अपने गुरु से शिक्षा पाई और अवसर आने पर अपने ही गुरु को परास्त भी किया। आशय यह है कि इस देश में गुरु-शिष्य की परंपरा ऐसी है जिसमें गुरु अपने शिष्य को अपना ज्ञान देकर विदा करता है और जब तक शिष्य उसके सानिध्य में है उसकी सेवा करता है। उसके बाद चल पड्ता है अपने जीवन पथ पर और अपने गुरु का नाम रोशन करता है।

भारत की इसी प्राचीनतम गुरु-शिष्य परंपरा का बखान करने वाले गुरु आज अपने शिष्यों को उस समय गुरु दीक्षा देते हैं जब उसकी शिक्षा प्राप्त करने की आयु निकल चुकी होती है और फिर उसे हर ख़ास मौके पर अपने दर्शन करने के लिए प्रेरित करते हैं। कई तथाकथित गुरु पूरे साल भर तमाम तरह के पर्वों के साथ अपने जन्मदिन भी मनाते हैं और उस पर अपने इर्द-गिर्द शिष्यों की भीड़ जमा कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन करते हैं. यहाँ इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा की भारतीय जीवन दर्शन में जन्मदिन मनाने की कोई ऐसी परंपरा नहीं है जिसका पालन यह लोग कर रहे हैं.

भारत में गुरु शिष्य की परंपरा एक बहुत रोमांचित करने वाली बात है, पूरे विश्व में इसकी गाथा गाई जाती है पर आजकल इसका दोहन कुछ धर्मचार्य अपने भक्तो का भावनात्मक शोषण कर रहे हैं वह उसका प्रतीक बिल्कुल नहीं है। हर व्यक्ति को जीवन में गुरु की आवश्यकता होती है और खासतौर से उस समय जब जीवन के शुरूआती दौर में एक छात्र होता है। अब गुरुकुल तो हैं नहीं और अँग्रेज़ी पद्धति पर आधारित शिक्षा में गुरु की शिक्षा केवल एक ही विषय तक सीमित रह गयी है-जैसे हिन्दी अँग्रेज़ी, इतिहास, भूगोल, विज्ञानआदि। शिक्षा के समय ही आदमी को चरित्र और जीवन के गूढ रहस्यों का ज्ञान दिया जाना चाहिए। यह देश के लोगों के खून में ही है कि आज के कुछ शिक्षक इसके बावजूद अपने विषयों से हटकर शिष्यों को गाहे-बगाहे अपनी तरफ से कई बार जीवन के संबंध में ज्ञान देते हैं पर उसे औपचारिक मान कर अनेक छात्र अनदेखा करते हैं पर कुछ समझदार छात्र उसे धारण भी करते हैं.

यही कारण है कि आज अपने विषयक ज्ञान में प्रवीण तो बहुत लोग हैं पर आचरण, नैतिकता और अध्यात्म ज्ञान की लोगों में कमी पाई जाती है। इस वजह से लोगों के दिमाग में तनाव होता है और उसको उससे मुक्ति दिलाने के लिए धर्मगुरू आगे आ जाते हैं। आज इस समय देश में धर्म गुरु कितने हैं और उनकी शक्ति किस तरह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में फैली है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। तमाम तरह के आयोजनों में आप भीड़ देखिए। कितनी भारी संख्या में लोग जाते हैं। इस पर एक प्रख्यात लेखक जो बहुत समय तक प्रगतिशील विचारधारा से जुडे थे का मैने एक लेख पढ़ा था तो उसमें उन्होने कहा था की ”हम इन धर्म गुरुओं की कितनी भी आलोचना करें पर यह एक वास्तविकता है कि वह कुछ देर के लिए अपने प्रवचनों से तनाव झेल रहे लोगों को मुक्त कर देते हैं।”

मतलब किसी धार्मिक विचारधारा के एकदम विरोधी उन जैसे लेखक को भी इनमें एक गुण नज़र आया। यह आज से पाँच छ: वर्ष पूर्व मैने आलेख पढ़ा था और मुझे ताज्जुब हुआ-मेरा मानना था कि उन लेखक महोदय ने अगर भारतीय आध्यात्म का अध्ययन किया होता तो उनको पता लगता कि भारतीय आध्यात्म में वह अद्वितीय शक्ति है जिसके थोड़े से स्पर्श में ही आदमी का मन प्रूफुल्लित हो जाता है। मगर वह कुछ देर के लिए ही फिर निरंतर अभ्यास नो होने से फिर तनाव में आ जाते हैं।

एक बात बिल्कुल दावे के साथ मैं कहता हूँ कि अगर किसी व्यक्ति में बचपन से ही आध्यात्म के बीज नहीं बोए गये तो उमरभर उसमें आ नहीं सकते और जिसमें आ गये उसका कोई धर्म के नाम पर शोषण नहीं कर सकता।

चाणक्य नीति:शास्त्रों की निंदा करने वाले अल्पज्ञानी


1.आकाश में बैठकर किसी से वार्तालाप नहीं हो सकता, वहां कोई किसी का संदेश वाहक न जा सकता है और न वहां से आ सकता है जिससे कि एक दूसरे के यहां के रहस्यों जाना जा सकें। अंतरिक्ष के बारे में सामान्य मनुष्यों को कोई ज्ञान नहंी रहता पर फिर भी विद्वान लोगों ने सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के बारे में ज्ञान कर लिया। ऐसे विद्वान प्रतिभाशाली और दिव्य दृष्टि वाले होते हैं।

2.वेद के ज्ञान की गहराई न समझकर वेद की निंदा करने वाले वेद की महानता को कम नहीं कर सकते। शस्त्र निहित आचार-व्यवहार को कार्य बताने वाले अल्पज्ञ लोग शास्त्रों की मर्यादा को नष्ट नहीं कर सकते।

3.बुद्धिमान मनुष्य को कौवे से पांच बातें सीखनी चाहिए। छिपकर मैथुन करना, चारों और दृष्टि रखना अर्थात चैकन्ना रहना, कभी आलस्य न करना, तथा किसी पर विश्वास न करना।

संपादकीय व्याख्या-कई लोग भारतीय वेद शास्त्रों के बारे में दुष्प्रचार में लगे हैं। इनमें तो कई अन्य धर्मों के विद्वान भी हैं। उन्होंने इधर-उधर से कुछ श्लोक सुन लिये और अब वेदों के विरुद्ध विषवमन करते हैं। उनके बारे में वह कुछ नहीं जानते। लाखों श्लोकों में से दो चार श्लोक पढ़कर उन पर टिप्पणियां करना अल्पज्ञान का ही प्रतीक है। इन वेदों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि आज अप्रासंगिक लगने वाले कुछ संदेश अपने समय में उपयुक्त रहे होंगे। भारतीय वेदों ने ही इस विश्व में सभ्यता स्थापित की है। वेदों मेें यह कहीं नहीं लिखा हुआ है कि समय के साथ अपने अंदर परिवर्तन नहीं लाओ।

आधुनिक विज्ञान में पश्चिम का गुणगान करने वालों को यह पता होना चहिए कि सूर्य ग्रहण और चंद्रग्रहण के बारे मेें भारतीय विद्वान बहुत पहले से ही जानते थे। भारत के अनेक पश्चिम को ही आधुनिक विज्ञान को सर्वोपरि मानता है जो आज भी पूर्ण नहीं है और प्रयोगों के दौर से गुजर रहा है।

समाज के साथ होने का भ्रम पालना व्यर्थ-चिंतन


समाज को बांटकर विकास करने का सिद्धांत मुझे कभी नहीं सुहाता। मुझे उकताहट होती है जब कोई आदमी अपनी जाति, भाषा, धर्म, प्रदेश और या कुल के नाम अपना परिचय देकर अहंकार या कुंठा प्रदर्शित करता  हैं। मेरा मानना है कि यह सब उन लोगों को कहना पड़ता है जो अपने अंदर केवल कमाने और खाने के अलावा कोई योग्यता नहीं रखते। वैसे कोई आदमी किसी का सगा नहीं होता। यहां तक कि जब अपने परिवार पर संकट होता है तो आदमी पहले अपने को बचाने का प्रयास करता है। अगर वह किसी समूह या वर्ग के होने का दावा करता है तो इसका आशय यह है कि उसका  लाभ उठाना चाहता है अगर कहीं से उसे लगता है कि उसके वर्ग या समूह की हानि से उसे भी परेशानी होगी तो वह उसके साथ हो जाता है। इसके विपरीत अगर उसे लगता है कि  मदद नहीं  करने से व्यक्तिगत हानि होगी तो वह दूर भागता है और अगर हानि लाभ की संभावना से परे हो तो वह मूंह भी फेर लेता है।

                     मतलब यह कि व्यक्तियों द्वारा  समूहों और वर्गों के जुड़े होना भी एक भ्रम है। मै किसी प्रकार के नारों और वाद पर चर्चा नहीं करता क्योंकि उनमें कोई को गहन विचार नहीं होता। कुछ अनुमान और कल्पनाएं दिखाकर ऐसे नारे और वाद प्रतिपादित किये जाते हैं जिनका प्रयोजन उन समूहों और वर्गो के लोगों को  एकत्रित कर अपने लिये आर्थिक और सामाजिक श्रीवृद्धि के साधन जुटायें जायें। हर समूह या वर्ग के शीर्षस्थ लोग कथित रूप से बड़े होने का स्वांग कर कल्याण और विकास का नारा देते हैं। मैंने कई बार देखा है और कई बार ठगा जाता हूं। कई बार तो ऐसा भी लगा है कि जिस समूह या वर्ग से जुड़ा बताकर कोई बड़ा आदमी मेरे कल्याण की बात कर मुझे अपने साथ जुड़ने को प्रेरित कर रहा है तो यह जानते हुए भी कि वह ढोंग कर रहा है तब भी उसकी बात दिखाने के लिये मान लेता हूं। सोचता हूं कि यार, आदमी को समूह या वर्ग से जुड़ा होना चाहिए क्योंकि सब लोग एसा ही करते हैं। मनुष्य ही सामजिक प्राणी है और असामाजिक भी। ऐसे में अपने समूह या वर्ग से अलग किसी समूह या वर्ग के व्यक्ति से कोई वाद-विवाद हुआ तो उसमें मेरे लोग ही मेरे काम आयेंगे-यही भ्रम पालकर  खामोश हो जाता हूं। भरोसा नहीं है कि मेरे समूह या वर्ग के बड़े लोग मेरे किसी काम आयेंगे इसलिये किसी से वाद-विवाद भी नही करता पर फिर भी सच नहीं कहता और भीड़ में भेड़ की तरह शामिल हो जाता हूं।

यह मेरा अकेले का सच नहीं है बल्कि सब लोग यही कर रहे हैं। अपने अंदर एक अनजाना खौफ है जो शुरू से आदमी में जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र के नाम पर बने समूहों और वर्गों में उसे बने रहने के लिये प्रेरित करता है जो सामान्य लोगों के सहयोग से कुछ कथित लोगों को बड़ा आदमी बना देते हैं और उनका  जीवन भर उनका शोषण करते हैं। इस देश में पहले भी ऐसा ही हुआ अब भी हो रहा है। सत्य सब जानते हैं कि कोई भी किसी का नहीं है पर फिर भी भ्रम का साथ देते हैं।

अपना ज्ञान बघारते हुए-हिन्दी कहानी


वह ज्ञानी थे और अभी प्रवचन कार्यक्रम कर लौटे थे। मेरे से उनकी मुलाकात उनके यजमान के घर पर जो कि मेरे मित्र थे के घर पर हुई जहां मै किसी काम से गया था।

मित्र ने मुझसे कहा कि ‘‘तुम प्रवचन कार्यक्रम में क्यों नहीं आये? आना चाहिए भई। यह ठीक है कि तुम आजकल योग साधना कर रहे हो पर कभी-कभी सत्संग भी सुना करो।’’

वह प्रवचनकर्ता कोई साधु संत नहीं थे बल्कि गृहस्थ थे पर ऐसे ही उनका नाम हो गया था तो लोग समय पास करने के लिये उनका बुला लेते थे। मैं मित्र की बात सुनकर हंस पड़ा तो वह सज्जन बोले-‘‘हां इस दुनियां में सुबह बहुत तेजी से सांस लेने वाले भी कई योगी न रहे। कबीरदास जी यही कहते हैं इसलिये भगवान भजन में मन लगाना चाहिये। योग साधना से क्या होता है।’’

मैं थोड़ा जोर से हंसा तो वह बोले-‘‘आप इसे मजाक मत समझिये मैं आपको सही ज्ञान की बात बता रहा हूं।’’

इसी बीच मेरे मित्र की पत्नी भी एक थाली में फल और मिठाई रखकर आ गयी तो वह उसे देखते हुए बोले-‘‘मिठाई तो अभी नहीं खाउंगा। एक सेव अभी खा लेता हूं बाकी थैले में रख दो घर ले जाता हूं।

मैं भी मुस्कराते हुए उन्हें देख रहा था। मेरा मित्र होम्योपैथी का डाक्टर था और अधिक प्रसिद्ध न होने के बावजूद उसका काम ठीक चल रहा था और अपने मोहल्ले की तरफ के वह इस कार्यक्रम का मुख्य कर्ताधर्ता था।

वह सेव खाते हुए उससे बोले-‘भाई, हमें कम से कम महीने भर की दवाई दे दो ताकि हमारी और पत्नी की डायबिटीज कंट्रोल में रहे।’’

मेरा मित्र दवाई लेने चला गया तो उसकी पत्नी भी वहं से चली गयी। तब वह मुझसे बोले-योगसाधना से कोई सिद्ध नही होता। यह कहने की बात है। इसलिये आप भगवान में मन लगाया करो। उनकी भक्ति से सब ठीक हो जाता है।’’
मैने उनसे कहा-‘यह मेरा मित्र डाक्टर है और पांच  वर्ष पूर्व उच्च रक्तचाप की शिकायत के कारण इलाज कराने आया था । तब इसने मुझे खूब डांटा था। इसके पास अब कभी मरीज का तरह दवाई नहीं लेने न आना पड़े इसलिये ही योगसाधना करता हूं। यकीन करिये केवल उसके बाद दो वर्ष पहले बुखार की शिकायत लेकर आया था यह अलग बात है कि यह उस दिन घर पर नहीं था तो इसके पोर्च में पलंग पर सो गया और मेरा बुखार चला गया। इससे बचने के लिये ही मैं योगसाधना, ध्यान और मंत्रजाप करता हूं।’’

तब तक मेरा मित्र कमरे के अंदर आ गया था और मैने उसके सामने ही कहा-‘‘एक डाक्टर के रूप में मुझे इसकी शक्ल पसंद नहीं है।’’

उनका मूंह उतरा हूआ था। उन्होंने अपना मिठाई और फल को थैला उठाया और वहां से चले गये। जाते वक्त उन्होंने मेरे मित्र और उसकी पत्नी से बात की पर मेरी तरफ देखा भी नहीं। उनके जाने के बाद मैने अपने मित्र से पूछा-‘‘कौन सज्जन थे ये?’’

वह बोला-‘‘कोई अधिक प्रसिद्ध तो नहीं है मेरे मरीज है और मोहल्ले के लोगों ने कहा कि सत्संग कराना है। सो बुलवा लिया। वैसे बहुत ज्ञानी हैं।तुम्हें कैसे लगे?’
मैंने कहा-^मैं क्या कह सकता हूँ. अगर तुम कहते हो तो ज्ञानी ही होंगें. बाकी मैं ऐसे सामान्य लोगों पर अपनी टिप्पणी नहीं करता.”
मित्र और मेरे बीच अनेक बार अध्यात्म पर जोरदार बहसें सुन चुकी उसकी पत्नी को मेरे से इस उत्तर की आशा नहीं थी। इसलिये उसने हंसते हुए पूछा-‘‘क्या सोच बोल रहे हैं या हमारा मन रख रहे हैं।’’

वह गलत नहीं थी पर मैं मित्र द्वारा दिये गये महत्वपूर्ण कागज के लिफाफे को लेकर वहां से बाहर निकल गया। पीछे से मेरा मित्र मुझसे कह रहा था-सच बोलना। क्या तुंम हमारा दिल रखने के लिये मान रहे हो कि वह वास्तव में ज्ञानी हैं।’’

मैने पलटकर उसे मुस्कराते हुए देखा  और वहां से बिना उत्तर दिये चला आया।

 

कठपुतली का खेल तो अब भी चल रहा है (हास्य-व्यंग्य)


हम घर से बाहर निकल कर जैसे सायकल से सड़क पर आये तो  एक सज्जन मिल गये और  हमसे बोले-‘कहां जा रहे हो।’

हमने कहा-‘पुतले और पुतली का खेल देखने जा रहे हैं।’
वह बोले-‘‘कहां जा रहे हो? हमें भी बताओ। अरसा हो गया कठपुतली का खेल देखे। हमें भी बताओं तो हम भी अपनी कार से वहां पहुंच रहे हैं।’’
हमने कहा-‘नही, दरअसल हमारे एक मित्र ने हमसे कहा कि आओ पोल खोल देखेंगे। उसी के आग्रह पर उसके घर जा रहे हैं।’

वह बोले-‘‘अरे, वह तो फिल्म का नाम है। उसमें तो मशहूर हीरो  और हीरोइन ने एक्टिंग की है। तुंम उसे पुतले-पुतली का खेल कह रहे हो।’’

हमने कहा-‘मगर फिल्म और कठपुतली के खेल में फर्क क्या हैं?
वह बोला-‘‘कमाल करते हो यार? मैने सुना तुमने पीना छोड़ दी है। लगता है आज सुबह ही पीकर निकले हो। उसमें तो असली हीरो-हीरोइन ने काम किया है।’’

हमने उत्तर दिया कि-‘‘ कब कहा कि नकली ने काम किया है। मगर काम तो वही किया है जो काठ के बने पुतले-पुतली ही करते हैं। उनको जो डायरेक्ट कहता है वैसा ही अभिनय करते हैं। नृत्य निदेशक जैसा कहता है वैसा ही नाचते हैं ओर संवाद लेखक जैसा लिखकर देता है वैसा ही बोलते हैं। बस बोलते खुद है, चलती उनकी टांगे ही है और बोलती उनकी जुबान है। कोई प्रत्यक्ष कोई डोर पकड़े नहीं रहता। अप्रत्यक्ष रूप से तो कोई न कोई पकड़े रहता ही है फिर हुए तो वह भी पुतले-पुतली ही न!’’

वह बातचीत का विषय बदलते हुए बोले-‘छोड़ो यार, कल तुमने क्रिकेट मैच देखा। क्या जोरदार मैच हुआ?’

अमने च ौंककर पूछा-‘‘क्या भारत की टीम का कोई क्रिकेट मैच हो रहा है?’

‘नही यार,‘‘वह बोले-‘वह ट्वंटी-ट्वंटी के मैच हो रहे हैं। क्या जोरदार मैच हो रहे हैं? तुम तो क्रिकेट के शौकीन हो तुम्हें यह मैच देखना चाहिए।

हम बुद्धुओं की तरह खड़े रहे फिर पूछा-‘‘पर मैच किस देश से हो रहा है?
वह झल्लाकर बोले-‘तुमसे बात करना बेकार है। बहस पर बहस करते हो। अरे किसी देश की टीम से नहीं बल्कि ऐसे ही कुछ टीमें हैं उनके मैच हो रहे हैं।’’

हमने बनते हुए कहा-‘‘अच्छा! तुम उन मैचों की बात कर रहे हो। हमने टीवी पर सुना था कि कुछ उस पर बीस हजार करोड़ रुपये का दांव लग रहा है। अब जब दांव लगेगा तो फिर कहीं यह भी कठपुतली के नाच की तरह तो नहीं है।’ जब इतने बड़े मैचों पर जिनमें देश का नाम दांव पर लगा होता है तब ऐसी ही बातें होतीं हैं कि अमुक ने मैचा फिक्स कर लिया  और अमुक ने अपना प्रदर्शन क्षमता से कम किया उसमें सच्चाई न भी होत तो इनमें तो ऐसा हो सकता है क्योंकि इसमें किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है।
वह बोले-‘‘अपने का इन चीजों से क्या लेना देना? अपने को तो मैच देखना है।’

हमने शुष्क स्वर में कहा-‘इनसे कोई लेना देना नहीं है इसलिये तो वह मैच नहीं देख रहे। डांस  चाहे इसमे देखें या उसमें है तो डांस ही।  
वह बोले-‘‘तुमसे अब बहस करना बेकार है। मनोरंजन का मतलब ही नहीं समझते।’
हमने कहा-‘‘नहीं समझते तो दोस्त के आमंत्रण पर उसके घर क्यों जा रहे हैं? बस फर्क यह है कि तुम फिल्म कहते हो हम पुतले-पुतली का नाच कहते हैं।

वह सज्जन झल्लाकर चले गये। हमने अपनी राह ली। हम भी सोच रहे थे कि सुबह-सुबह क्योंे पंगा लिया।

दरअसल पहले लोग अपनी शक्ल ही आइने में देख पाते थे और फिर अपने सामने चलते फिरते लोगोंे से मजा किसको आता है। इसलिये कठपुतली के अभिनय को देखकर उनको मजा आता है। अब आ गये हैं कैमरे। उसमें तो हाड़मांस के पुतले काम करते हैं तो हम कह देते है। कि हीरो-हीरोइन हैं। काम तो वह वैसा ही कर रहेे हैं सच तो यह कि हर कोई हीरो-हीरोइन बनने के सपने देखने का आदी है इसलिये कठपुतली कहने से झिझकता है। यह भी हो सकता है कि कठपुतली का खेल कहने से लोगों को अपने गंवार होने का अहसास होता हो क्योंकि आजकल तो हर कोई माडर्न बनकर रहना चाहता है। उन हांड़मांस के पुंतलों में अपने को देखता है इसलिये ही कहता है कि हीरो-हीरोइन है।  हम भी पहले ऐसे ही देखते थे। इधर जब से ज्ञान और ध्यान में घुसे हैं तब से र्थोड़ा देखने का नजरिया बदला है। क्रिकेट खेल देखकर हमने अपना जीवन बरबाद कर लिया और अगर वह वक्त हमने कहीं अगर और लगाया होता तो आज क्या होते? उसक मलाल अब दूर हो गया है जब से इस ब्लाग विधा में घुसे हैं। हम अपने को पुतला नहीं कहते क्योंकि स्वयं ही विचार कर लिखते हैं। हम तो उसे ही मनुष्य की तरह कर्म करने वाला मानते हैं जो अपनी बुद्धि से चलता है न कि दूसरे की बुद्धि से। कहने को खिलाड़ी और अभिनेता भी अपनी बुद्धि से चलते हैं और हम उन्हें अपने जैसा मानते है पर उनकी फिल्म और ऐसे छोटे मैचों में उनकी सक्रियता को ही पुंतलों जैसा मानते हैं। आखिर हमारी इस राय में क्या कमी है?