धर्म क्या है यह समझे बिना उसकी आलोचना करना गलत है। किसी भी धार्मिक विद्वान् ने अपने विचार से धर्म की आज तक कोई एक परिभाषा तय नहीं की , इसका कारण यह है कि जिन लोगों ने बुद्धिमान और शिक्षित होने का ठेका लिया है वह वादों-विवादों में इतना फंस जाते हैं उन्हें पता ही नहीं रहता कि कोई निष्कर्ष क्या निकला? एक तरफ वह लोग हैं जिन्हें धर्म नहीं सुहाता और वह इसे भ्रम घोषित कर देते हैं तो दूसरी तरफ वह हैं जो धर्म के रक्षक और पोषक होने का दावा करते हैं और कर्मकांडों को ही उसका पर्याय घोषित कर देते हैं । यह लेखक कोई बहुत बड़ा विद्धान है या नहीं यह तो पढने वाले लोग ही तय करेंगे, पर यहाँ साफ करना जरूरी है कि मेरे पास अपने धर्म के लिए कोई पदवी नहीं है फिर भी अपने विचार व्यक्त करने से बाज नहीं आऊंगा क्योंकि धर्म के आलोचक और प्रशंसक दोनों के तर्कों से में प्रभावित नहीं हूँ ।
देश के वर्तमान हालत जो हैं उसकी वजह लोगों का अपने धर्म से दूर होना ही है-यह लेखक की स्पष्ट मान्यता है। धर्म को अगर हम कर्मकांडों से जोड़कर ही देखेंगे तो उसके स्वरूप में एक नहीं सेंकड़ों दोष दिखाई देंगे , और केवल अध्यात्म से जोड़ कर देखेंगे तो धर्म अंध समर्थक नहीं मानेंगे । जबकि लेखक मानना है कि धर्म की सबसे बड़ी पहचान अध्यात्म ही है । आध्यात्मिक साधना एकांत में होती है और उसके लिए कोई शोर-शराबा नहीं होता और जो लोग शोर-शराबा कर अपने धार्मिक होने का प्रमाण देते हैं वह दूसरे को कम अपने को ज्यादा धोखा देते हैं। अध्यात्म वह है जो इस शरीर में विद्यमान है और उससे साक्षात्कार किये बिना हम चल रहे हैं तो यह समझ लेना चाहिए कि अज्ञान के उस अँधेरे में हैं जहां हमें दोषों के अलावा कुछ और नहीं दिखाई देगा और उनको देखते हम अपनी पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं ।
आजादी के बाद लार्ड मैकाले की द्वारा रची गयी शिक्षा पध्दति को ही जारी रखा गया जो केवल गुलाम पैदा करती है और नकारात्मक सोच उत्पन्न करती है। हिंदू धर्म के आलोचक ग्रंथों के कुछ ऐसे हिस्सों को पढ़कर सुनते है जो वर्तमान समय में लोगों की दृष्टि में अप्रासगिक हो चुके और धर्मभीरू होने के बावजूद लोग उसे महत्व नहीं देते। इससे फायदा किसे हुआ? इस देश में एक ऐसा वर्ग हमेशा रहा है जो यहां के लोगों के बुद्धि तत्व पर नियंत्रण कर उसका लाभ उठाना चाहते हैं -और इसने धर्म के आलोचक और प्रशंसक दोनों ही शामिल है । इन दोनों ने मिलकर समाज में ऐसे द्वन्द्वों को जन्म दिया जिससे न केवल देश में नैतिक आचरण का पतन हुआ बल्कि समाज में सामाजिक समरसता के भाव का भी क्षरण हुआ। भगवान श्रीराम और श्री कृष्ण जी के चरित्रों को शैक्षिक पाठ्यक्रमों में न रखने से दोनों वर्गों को लाभ हुआ। धर्म के प्रशंसकों को अपने ढंग से व्याख्या कर धन और प्रतिष्ठा अर्जित करने का स्वर्णिम अवसर मिला तो आलोचकों को नये भगवान् गड़कर स्वयं को विद्धान साबित कराने का अवसर मिला।
अगर श्रीराम और श्री कृष्ण आज भी देश के आराध्य होते तो बाल्मीकि, तुलसी और वेदव्यास का नाम होता और नये भगवानों को गढ़ने वाले को लेखक और विद्वान् होने का गौरव कहॉ मिलता? धर्म प्रशंसक भी कम नहीं है उन्होने भी नये भगवान् भले नहीं बनाए पर उनका नाम लेकर भक्तों को भ्रमित कम नहीं किया। कई संत और साधू तो ऐसे हैं कि अपने पीछे भगवन की तस्वीर रखकर आरती करवाते हैं जो भगवान् की भी लगे तो उनकी भी। यानी आलोचकों को यह न लगे कि वह अपनी आरती करवा रहे हैं तो भक्त को यह लगे के उनकी आरती हो रही हैं।
धर्म प्रचारक नहीं होने के बावजूद लेखक इस बात को ख़ूब समझता है कि धर्म और अध्यात्म एकांत साधना है और अंतर्मन की शुध्दी के लिए हमें यह करना भी चाहिए । लेखक आधुनिक शिक्षा का विरोधी नहीं है क्योंकि अपने धर्म ग्रंथों के अध्ययन से ही यह ज्ञान पाया है कि आदमी को विज्ञान के साथ ज्ञान भी होना चाहिए। मैं यह पंक्तिया लिख रहा हूँ यह मेरी इसी शिक्षा का परिणाम है । हाँ जो मुझे अध्यात्म की शिक्षा अपने माता-पिता से मिली है उसकी चर्चा भी जरूर करना चाहूँगा जो अब बहुत कम लोगों को मिल रही है। अगर वह शिक्षा मेरे पास नहीं होती तो इतनी मेहनत से यह ब्लोग नहीं लिख रहा होता। कुछ काम ऐसे भी करना चाहिए जिससे लोगों को प्रसन्नता और ज्ञान मिले। मैं इस ज्ञान चर्चा को सत्संग का हिस्सा मानता हूँ जिसे अंतर्मन में शुद्धता और स्फूर्ति आती है, और कोई आपकी बुद्धि का हरण कर आपको भटका नहीं सकता , जैसा कि आजकल लोगों के साथ हो रहा है। आपने देखा ही होगा कि किस तरह जाति, धर्म, पंथ, भाषा और वर्ग के नाम पर लोगों को बरगलाकर देश में हिंसा और अशांति का माहौल बनाया जा रहा है। अगर लोगों के पास अपने धर्म और आध्यात्म की शिक्षा होती तो ऐस नहीं होता क्योंकि तब उनके पास अपना ज्ञान होता और किसी के बरगलाने में वह नहीं आते । शेष अगले अंक में (यह चर्चा इसी ब्लोग पर जारी रहेगी)
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