कबीर के दोहे-अपनी सराहना स्वयं न करें (kabir darshan-dosron ke dosh)


आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
दोष पराया देखि करि, चले हसन्त हसन्त।
अपना याद आवई, जाका आदि न अन्त।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि दूसरों के दोष देखकर सभी हंसते हैं पर उनको अपनी देह के स्थाई दोष न तो याद आते हैं न दिखाई देते हैं जिनका कभी अंत ही नहीं है।
आपन को न सराहिये, पर निन्दिये न नहिं कोय।
चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मूंह से कभी आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा न करें। क्योंकि कभी आचरण की ऊंचाई पर हमारे व्यकितत्व और कृतित्व को नापा गया तो तो पता नहीं क्या होगा?
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने मूंह से आत्मप्रवंचना और दूसरे की निंदा करना मानवीय स्वभाव है। अपने में कोई गुण न हो पर उसे प्रचारित करना और दूसरे के गुण की जगह उसके दुर्गुण की चर्चा करने में सभी को आनंद आता है पर किसी को अपने दोष नहीं दिखते। जितनी संख्या में लोग परमार्थ करने वाले नहीं है उससे अधिक तो उसका दावा करने वाले मिल जायेंगे। हम अपनी देह में अपने उपरी अंग ही देखते हैं पर नीचे के अंग नहीं दिखाई देते जो गंदगी से भरे रहते हैं चाणक्य महाराज के अनुसार उनको कभी पूरी तरह साफ भी नहीं रखा जा सकता। तात्पर्य यह है कि हम अपने दैहिक और मानसिक दुर्गंण भूल जाते हैं। संत कबीरदास जी कहते हैं कि अपने बारे में अधिक दावे मत करो अगर किसी ने उनका प्रमाण ढूंढना चाहा तो पूरी पोल खुल जायेगी।
उसी तरह दूसरे की निंदा करने की बजाय अपने गुणों की सहायता से भले काम करने का प्रयास करें यही अच्छा रहेगा। आत्मप्रवंचना कभी विकास नहीं करती और परनिंदा कभी पुरस्कार नहीं दिलाती। यह हमेशा याद रखना चाहिये।
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कबीर वाणी-प्यार को सही ढंग से कोई नहीं समझता(kabir vani-pyar ka gyan)



प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।

गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में आजकल प्रेम पर बहुत कुछ दिखाया और लिखा जाता है। यह प्रेम केवल स्त्री पुरुष के निजी संबंध को ही प्रोत्सािहत करता है। हालत यह हो गयी है कि अप्रत्यक्ष रूप से विवाहेत्तर या विवाह पूर्व संबंधों का समर्थन किया जाने लगा है। यह क्षणिक प्रेम एक तरह से वासनामय है मगर आजकल के अंग्रेजी संस्कृति प्रेमी और नारी स्वतंत्रता के समर्थक विद्वान इसी प्रेम मेंें शाश्वत जीवन की तलाश कर हास्यास्पद दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक मजे की बात यह है कि एक तरफ सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन करने की प्रवृति को स्वतंत्रता के नाम पर प्रेमियों की रक्षा की बात की जाती है दूसरी तरफ प्रेम को निजी मामला बताया जाता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सब धर्मों से प्रीति का धर्म बड़ा है। अब अगर उनसे पूछा जाये कि इसका स्वरूप क्या है तो कोई बता नहीं पायेगा। इस नश्वर शरीर का आकर्षण धीमे धीमे कम होता जाता है और उसके साथ ही दैहिक प्रेम की आंच भी धीमी हो जाती है।

वैसे सच बात तो यह है कि प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है क्योंकि वह अनश्वर है। हमारी आत्मा भी अनश्वर है और उसका प्रेम उसी से ही संभव है। परमात्मा से प्रेम करने पर कभी भी निराशा हाथ नहीं आती जबकि दैहिक प्रेम का आकर्षण जल्दी घटने लगता है। जिस आदमी का मन भगवान की भक्ति में रम जाता है वह फिर कभी उससे विरक्त नहीं होता जबकि दैहिक प्रेम वालों में कभी न कभी विरक्ति हो जाती है और कहीं तो यह कथित प्रेम बहुत बड़ी घृणा में बदल जाता है।
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संत कबीर के-रात के सपने निराशा का भाव पैदा करते हैं (sant kabir-rat ke sapne aur nirasha)


कबीर सपनें रैन के, ऊपरी आये नैन
जीव परा बहू लूट में, जागूं लेन न देन

संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि रात में सपना देखते देखते हुए अचानक आंखें खुल जाती है तो प्रतीत होता है कि हम तो व्यर्थ के ही आनंद या दुःख में पड़े थे। जागने पर पता लगता है कि उस सपने में जो घट रहा था उससे हमारा कोई लेना देना नहीं था।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सपनों का एक अलग संसार है। अनेक बार हमें ऐसे सपने आते हैं जिनसे कोई लेना देना नहीं होता। कई बार अपने सपने में भयानक संकट देखते हैं जिसमें कोई हमारा गला दबा रहा है या हम कहीं ऐसी जगह फंस गये हैं जहां से निकलना कठिन है। तब इतना डर जाते हैं कि हमारी देह अचानक सक्रिय हो उठती है और नींद टूट जाती है। बहुत देर तक तो हम घबड़ाते हैं जब थोड़ा संभलते हैं तो पता लगता है कि हम तो व्यर्थ ही संकट झेल रहे थे।

कई बार सपनों में ऐसी खुशियां देखते हैं जिनकी कल्पना हमने दिन में जागते हुए नहीं की होती । ऐसे लोगों से संपर्क होता है जिनके पास जाने की हम सोच भी नहीं सकते। जागते हुए पुरानी साइकिल पर चलते हों पर सपने में किसी बड़ी गाड़ी पर घूमते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में जब खुशी चरम पर होती है और सपना टूट जाता है। आंखें खुलने पर भी ऐसा लगता है कि जैसे हम खुशियों के समंदर में गोता लगा रहे थे पर फिर जैसे धीरे धीरे होश आता है तो पता लगता है कि वह तो एक सपना था।

आशय यह है कि यह जीवन भी एक तरह से सपना ही है। इसमें दुःख और सुख भी एक भ्रम हैं। मनुष्य को यह देह इस संसार का आनंद लेने के लिये मिली है जिसके लिये यह जरूरी है कि भगवान भक्ति और ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया जाये न कि विषयों में लिप्त होकर अपने को दुःख की अनुभूति कराई जाये। जीवन में कर्म सभी करते हैं पर ज्ञानी और भक्त लोग उसके फल में आसक्त नहीं होते इसलिये कभी निराशा उनके मन में घर नहीं करती। ऐसे ज्ञानी और भक्तजन दुःख और सुख के दिन और रात में दिखने वाले सपने से परे होकर शांति और परम आनंद के साथ जीवन व्यतीत करते हैं।
अगर हम भारतीय अध्यात्म संदेशों का अर्थ समझें तो दुःख और सुख जीवन में बर्फ में पानी के सदृश हैं। अर्थात दोनों की अनूभूतियां हैं बस और कुछ नहीं है। जिस तरह बर्फ दिखती है पर होता तो वह पानी ही है। उसी दुःख और सुख बस एक सपने की तरह है। जो इस तत्व ज्ञान को समझ लेना वह जीवन को आनंद के साथ जी सकता है।
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संत कबीर वाणी-मूर्ख लोग सभी की पीड़ा एक समान नहीं मानते


पीर सबन की एकसी, मूरख जाने नांहि
अपना गला कटाक्ष के , भिस्त बसै क्यौं नांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सभी जीवों की पीड़ा एक जैसी होती है पर मूर्ख लोग इसे नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी और हिंसक लोग अपना गला कटाकर स्वर्ग में क्यों नहीं बस जाते।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस दोहे में अज्ञानता और हिंसा की प्रवृत्ति वाले लोगों के बारे में बताया गया है कि अगर किसी दूसरे को पीड़ा होती है तो अहसास नहीं होता और जब अपने को होती है तो फिर दूसरे भी वैसी ही संवेदनहीनता प्रदर्शित करते हैं। अनेक लोग अपने शौक और भोजन के लिये पशुओं पक्षियों की हिंसा करते हैं। उन अज्ञानियों को यह पता नहीं कि जैसा जीवात्मा हमारे अंदर वैसा ही उन पशु पक्षियों के अंदर होता है। जब वह शिकार होते हैं तो उनके प्रियजनों को भी वैसा ही दर्द होता है जैसा मनुष्यों के हृदय में होता है। बकरी हो या मुर्गा या शेर उनमें भी मनुष्य जैसा जीवात्मा है और उनको मारने पर वैसा ही पाप लगता है जैसा मनुष्य के मारने पर होता है। यह अलग बात है कि मनुष्य समुदाय के बनाये कानून में के उसकी हत्या पर ही कठोर कानून लागू होता है पर परमात्मा के दरबार में सभी हत्याओं के लिऐ एक बराबर सजा है यह बात केवल ज्ञानी ही मानते हैं और अज्ञानी तो कुतर्क देते हैं कि अगर इन जीवो की हत्या न की जाये तो वह मनुष्य से संख्या से अधिक हो जायेंगे।

आजकल मांसाहार की प्रवृत्तियां लोगों में बढ़ रही है और यही कारण है कि संवदेनहीनता भी बढ़ रही है। किसी को किसी के प्रति हमदर्दी नहीं हैं। लोग स्वयं ही पीड़ा झेल रहे हैं पर न तो कोई उनके साथ होता है न वह कभी किसी के साथ होते हैं। इस अज्ञानता के विरुद्ध विचार करना चाहिये । आजकल विश्व में अहिंसा का आशय केवल ; मनुष्यों के प्रति हिंसा निषिद्ध करने से लिया जाता है जबकि अहिंसा का वास्तविक आशय समस्त जीवों के प्रति हिंसा न करने से है।
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संत कबीर वाणी: राम में सच्ची श्रद्धा तनाव से मुक्त करती है


दुखिया भूखा दुख कीं, सुखिया सुख कौं झूरि
सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भूख के कष्ट के कारण दुखी आदमी मर रहा है तो ढेर सारे सुख के कारण सुखी भी कष्ट उठा रहा है किंतु राम के भक्त तो हर हाल में में मजे से रहते हैं क्योंकि वह दुःख सुख के भाव से परे हो गये हैं।

हैवर गैवर सघन धन, छन्नपती की नारि
तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान की भक्ति करने वाली गरीब नारी की बराबरी महलों में रहने वाली रानी भी नहीं कर सकती भले ही उसके राजा पति के पास हाथियों और घोड़ो का झुंड और बहुत सारी धन संपदा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दुनियां में तीन तरह के लोग होते हैं-दुःखी,सुखी और भक्त। अभाव और निराशा के कारण दुःखी आदमी हमेशा परेशान रहता है तो सुखी आदमी अपने सुख से उकता जाता है और वह हर ‘मन मांगे मोर’ की धारा में बहता रहता है। विश्व के संपन्न राष्ट्रों के देश भारत के अध्यात्मिक ज्ञान की तरफ आकर्षित होते हैं तो भारत के लोग उनकी भौतिक संपन्नता प्रभावित होते हैं। पश्चिम में तनाव है तो पूर्व वाले भी सुखी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि लोग इस मायावी संसार में केवल दैहिक सुख सुविधाओं के पीछे भागते हैं। जिसके भौतिक साधन नहीं है वह कर्ज वगैरह लेता है और फिर उसे चुकाते हुए तकलीफ उठाता है और अगर वह चीजें नहीं खरीदे तो परिवार के लोग उसका जीना हराम किये देता है। सुख सुविधा का सामान खरीद लिया तो फिर दैहिक श्रम से स्त्री पुरुष विरक्त हो जाते हैं और इस कारण स्वास्थ बिगड़ने लगता है।

जिन लोगों ने अध्यात्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह जीवन को दृष्टा की तरह जीते हैं और भौतिकता के प्रति उनका आकर्षण केवल उतना ही रहता है जिससे देह का पालन पोषण सामान्य ढंग से हो सके। वह भौतिकता की चकाचैंध मेंे आकर अपना हृदय मलिन नहीं करते और किसी चीज के अभाव में उसकी चिंता नहीं करते। ऐसे ही लोग वास्तविक राजा है। जीवन का सबसे बड़ा सुख मन की शांति हैं और किसी चीज का अभाव खलता है तो इसका आशय यह है कि हमारे मन में लालच का भाव है और कहीं अपने आलीशान महल में भी बैचेनी होती है तो यह समझ लेना चाहिये कि हमारे अंदर ही खालीपन है। दुःख और सुख से परे आदमी तभी हो सकता है जब वह निष्काम भक्ति करे।
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