तुलसीदास का दर्शन-दुष्ट को विष और सज्जन को अमृत पसंद आता है


     पता नहीं हमारे देश में मानवता के नाम पर कितनी विचाराधारायें विदेश से आयातित  गयी हैं।  देखा जाये तो यह विचाराधारायें धरती पर स्वर्ग की कल्पना करती है। सभी मनुष्यों में देवत्व ढूंढने का प्रयास करती हैं।  इसमें अपराधियों का हृदय परिवर्तन कर उन्हें सामाजिक विकास की कथित मुख्यधारा से जोड़ने का  प्रयास करती हैं। अनेक लोग तो ऐसे हैं जो खुल्लम खुल्ला अपराधियों की गरीबी, लाचारी और बेबसी का उल्लेख करते हुए उनसे सुधरने का अवसर देने की मांग करते हैं।  हमारे देश में अनेक मानवाधिकार संगठन सक्रिय हैं जो केवल अपराधियों के हकों की लड़ाई यह कहते हुए लड़ते हैं कि उनका अपराध अभी प्रमाणित नहीं हुआ है।  इतना ही नहीं कुछ तो आतंकवादियों को भी  निर्दोष होने का प्रमाण खुद देते हैं और अपने दावे के पक्ष में न्यायालय में चल रहे मुकदमों के निर्णय न होने का तर्क रखते हैं। जांच एजेंसियों के दावों को लगते वह उनके आरोपों को प्रमाण तो स्वीकार नहीं करते पर अपने दावों को प्रमाणपत्र मानते हैं।

      यह मानवाधिकार कार्यकर्ता और नेता हमेशा ही भारतीय जांच एजेंसियों पर आक्षेप करते हैं।  कहीं कहीं आतंकवाद अधिक होने पर उस क्षेत्र की गरीबी और भुखमरी की समस्या का हल करने की मांग करते हुए यह तर्क भी देते हैं कि भूखा आदमी बंदूक नहीं उठायेगा तो क्या करेगा?

  जिसके पास रोटी खरीदने को पैसा नहंीं है वह बंदूक और गोलियां खरीद सकता है यह हास्याप्रद तर्क इन कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के श्रीमुख से हमारे प्रचार माध्यमों में खूब सुना जा सकता है।  अधिकतर मानवाधिकार संगठन पश्चिमी विचारधाराओं के पोषक हैं जो राक्षस या शैतान को असांसरिक जीव मानती हैं। इसके विपरीत हमारा दर्शन मानता है कि सुर और असुर दोनों ही इस संसार में समान रूप से विचरते ही  रहेंगे। श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस संसार में सुर तथा असुर प्रवृत्तियां दोनों प्रकार के लोग होते हैं।  इसलिये ज्ञान प्राप्त कर अपने अंदर सुर प्रकृति को जीवंत बनाये रखने के साथ आसुरी प्रकृति के लोगों से दूर रहना चाहिये।  उनसे सुधरने की आशा करना व्यर्थ है।

संत तुलसीदास ने कहा है कि

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भलो भलाहहि पै लहई, लहई निचाइहि नीचु।

सुधा सराहिअ अमरतां, गरल सराहिअ मीचु।।

      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-भले मनुष्य को भलाई तथा नीच व्यक्ति को नीचता ही पसंद आती है। अमरता चाहने वाले अमृत की और मरने मारने के लिये उत्सुक आदमी विष की प्रशंसा करता है।

मिथ्या माहुर सज्जनहि, खालहि गरल सम सांच।

तुलसीछुवत पराई ज्यों, पारद पावक आंच।।

         सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-सज्जन पुरुष के लिये असत्य  तो दुर्जन के लिये  सत्य विष की तरह होता है। सज्जन असत्य तथा तथा तथा दुर्जन सत्य से वैसे ही भागते हैं जैसे अग्नि की आंच से पारा उड़ जाता है।

   जिनके अंदर आसुरी प्रकृत्तियां हैं उन्हें ज्ञान देकर उन्हें सुधारने की आशा करना व्यर्थ है।  फिर गुण ही गुणों को बरतते का सिद्धांत भी समझना चाहिये। जिनके हाथ में हथियार हैं उनमें क्रूरता का भाव स्वाभाविक रूप से आयेगा यह बात समझना चाहिये। इस मामले में नारियों में श्रेष्ठ सीता ने वनवास के दौरान अपने पति श्रीराम को यही समझाया था कि अगर आप इस तरह अस्त्र शस्त्र अपने पास रखेंगे तो आपके हाथ से जीव हत्या होती ही रहेगी।  तब श्रीराम ने यह कहते हुए अस्त्र शस्त्र त्यागने से इंकार किया कि इससे वह समाज के लिये हिंसक जीवों का वध करने के लिये ही धारण किये हुए हैं। सीता जी ने एक कथा भी श्री राम को सुनाई थी।  उनके अनुसार एक ऋषि की तपस्या से देवराज इंद्र विचलित हुए। उन्होंने उनको अपनी तपस्या के मार्ग से हटाने का मार्ग यह निकाला कि उसे अपना एक फरसा धरोहर के रूप में रखने का आग्रह किया। वह  ऋषि रोज उस फरसे को देखते थे। धीरे वह उसमें इतना लिप्त हो गये कि उसी फरसे से हिंसा करने लगे।  वह देवत्व से राक्षसत्व को प्राप्त हो गये।

        कहने का अभिप्राय है कि जिनके अंदर दुष्टता का भाव है उनसे सुधरने की आशा करना बेकार है।  दुष्ट लोग सत्य से बिदकते हैं।  वह दूसरों को अमृत बांटने की बजाय विष देने के लिये अधिक तत्पर रहते हैं।  ऐसे लोगों से सुधारने के प्रयास की बजाय उनसे दूर रहने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है। यदि वह लोगा आक्रामक हों तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने के लिये तत्पर भी होना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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मनु स्मृति-राज्य व्यवस्था में पंचायत प्रणाली अपनाई जानी चाहिए


         भारत में गांवों  की बदहाल स्थितियां किसी से छिपी नहीं है। आधुनिक व्यवस्था में गांवों के विकास की बात तो बहुत कही जाती है पर देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण गांवों में आज भी पेयजल, स्वास्थ्य तथा शिक्षा की स्थिति बद से बदतर ही होती जा रही हैं।  भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों को एकदम विस्मृत कर पश्चिमी विचाराधाराओं का अनुकरण तो किया गया है पर उन्हें भी व्यवहार में नहीं लाया जा रहा।  गरीब और गांवों के विकास के नारे भी खूब लगते है।  हैरानी तब आती है जब गांवों के विकास तथा पंचायती राज की कल्पना के लिये हर कोई श्रेय लेना चाहता है। सच बात तो यह है कि मनृस्मृति में पहले से ही पंचायती राज का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। यह सिद्धांत कोई प्रचलित सामाजिक पंचायतों के रूप में नहीं वरन् प्रशासनिक व्यवस्था के लिये बनाया गया है। अक्सर कहा जाता है कि भारत में पंचायत प्रणाली केवल सामाजिक उद्देश्यों के लिये थी। यह सोच गलत है क्योंकि मनु महाराज जिन पंचायतों की बात करते हैं उनका स्वरूप प्रशासनिक है।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

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ग्रामस्याधिपतिं कुर्याद्दशग्रामपतिं तथा।

विंशतीशं शतेशं च सहस़्पतिमेव च।।

    हिन्दी में भावार्थ-प्रत्येक गांव में एक मुखिया नियुक्त करना चाहिये। दस गांवों को मिलाकर बीस गांवों का और बीस बीस गांवों के पांच समूहों को मिलाकर सौ गांवों का तथा सौ गावों के दस वर्गों का एक समूह बनाकर उनकी देखभाल करने हेतु एक मुखिया नियुक्त कराना चाहिये।

तेषां ग्राम्याणि कार्याणि पृथक कार्याणिं चैव हि।

राज्ञोऽन्यः सचिवः स्निग्धस्तानि पश्चवैदतन्द्रितः।।

     हिन्दी भाषा में भावार्थ-सभी गांवों  के काम की देखभाल करने के लिये सचिवों की नियुक्ति करते उसे उसे सभी गावों के अधिपतियों पर दृष्टि बनाये रखने का आदेश देना चाहिये।

            कहा जाता है कि महात्मा गांधी मानते थे कि असली भारत गांवों में रहता है जबकि मनुस्मृति में तो गांवों को ही बड़े राष्ट्र का आधार माना गया है। इतना ही नहंी नगरों के साथ गांवों की देखभाल पर जोर दिया गया है। हम यह भी कह सकते हैं कि पंचायती राज्य की कल्पना का श्रेय आधुनिक समय के कथित विद्वानों को नहीं दिया जा सकता। मनुस्मृति में यह कल्पना पहले ही प्रस्तुत की गयी है। इतना ही प्राचीन काल की व्यवस्था में इसे अपनाया भी गया था। इसी कारण हमारे यहां अनुशासन तथा व्यवस्था बनी हुई थी।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-गरीब के गुणों से धनी अपनी तुलना न करें


         मनुष्य में यह प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से दूसरों के साथ होड़ करने की प्रवृत्त् िहोती है। यही उसके दुःख का मूल कारण भी है।  सच बात तो यह है कि आज कोई भी सुखी नहीं है।  इसका कारण यह कतई नहीं है कि माया की कृपा का लोगों के  पास अभाव है वरन् वह दूसरों पर भी कृपा करती है इसको लेकर सभी लोग परेशान रहते हैं।  सभी लोग:तेरी कमीज  मेरी कमीज से सफेद कैसेकी तर्ज पर जीवन पथ पर चलते हुए चिंतायें पाल रहे हैं।  अनेक लोगों के पास बहुत सारी भौतिक सुविधायें हैं इससे उनको सुख नहीं मिलता बल्कि दूसरे के पास भी वैसे ही साधन हैं यह चीज सभी को परेशान करती है।

           उससे भी बड़ी समस्या यह है कि आधुनिक समय में ढेर सारे सुख सभी के पास हैं। कोई किसी से कम नहंी है इसलिये एक दूसरे की प्रशंसा करने का समय किसी के पास नहीं है।  न ही शब्द है न अभ्यास कि दूसरे की प्रशंसा कर उसका मनोबल बढ़ाया जाये।  इसके विपरीत सभी एक दूसरे को नीचा दिखाकर मनोबल गिराने का प्रयास करते हैं। जिनके पास धन, पद और प्रतिष्ठा है उनका अनुकरण वह लोग भी करना चाहते हैं जिनके पास अधिक धन, उच्च पद और प्रतिष्ठा का अभाव है।  परिणाम यह है कि समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता की बजाय ईर्ष्या, वैमनस्य और घ्णा का वातावरण बन गया है।  उस पर प्रचार माध्यम भी क्रिकेट, फिल्म तथा राजनीति के शिखर पृरुषों का प्रचार इस तरह करते हैं कि वह समाज के प्रेरक बन जायें।  तय बात है कि उन जैसा स्तर आम आदमी के भाग्य मे नहीं होता पर सपने पालने के कारण वह तनाव झेलता है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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वेषभाषा अनुकरणं न कुर्य्यात्प्थ्विीपतैः।

         सम्पन्नोऽपि हि मेघावी स्पर्द्धेत न च सद्गुणे।।

      हिन्दी में भावार्थ-राजा  के वेष तथा वार्तालाप की नकल नहीं करना चाहिये। उसी तरह स्वयं भले ही धनी हों पर कभी बुद्धिमान के गुणों से स्पर्धा न करें।

      नीति विशारद चाणक्य यह स्पष्ट रूप से मानते  हैं कि धनी का पूरा समाज सम्मान करता है। यह बात स्वाभाविक है क्योंकि आपत्ति विपत्ति में कोई भी रुपये पैसे के लिये धनी से ही आशा करता है। भले ही कोई धनी पूरे समाज के निर्धनों को उधार या सहायता नहीं देता पर स्वभाविक रूप से  एक आशा तो सभी को बंधी रहती है। इससे अनेक धनी लोग अपने को देवता या भगवान समझते हुए अल्पधनी बुद्धिमान को भी हेय समझने लगते हैं।  वह मानते हैं कि उनके अंदर बुद्धिमानी के गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं।  यह उनका भ्रम है।  जिस तरह बुद्धिमान व्यक्ति अपने पास अधिक धन न होने पर धनिकों की होड़ नहीं करते उसी तरह धनवानों को भी चाहिये कि वह बुद्धिमानों की होड़ करते हुए ऐसे काम न करे जिससे उनका धन जाता रहे। हो सके तो बुद्धिमानों से अपनी स्थिति पर चर्चा करते हुए उनसे सलाह  भी लेते रहना चाहिये।                      

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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