लिखते लिखते कविता सड़ जाती है
न लिखो तो दिमाग में जड़ हो जाती है
शब्द बोलो तो कोई सुनता नहीं
कान है यहाँ तो, ख्याल है अन्यत्र कहीं
अपने जुबान से निकले शब्द अर्थहीन लगते हैं
अनसुने होकर अपने को ही ठगते हैं
सडांध लगती हैं अपने आसपास
इसलिए नीयत कविता लिखने को मचल जाती हैं
लिखा हुआ सड़ जाए
या सडा हुआ लिखा जाए
पर लिखा शब्द अपनी अस्मिता नहीं खोता
पढने वाले पढ़ें
न पढने वाले न पढ़े
अर्थ होता है पढने वाले की नीयत जैसा
कविता भी वैसी, कवि भी वैसा
जमाने भर की दुर्गन्ध अपने अन्दर
बनी रहे
उसे अच्छा है शब्दों को फूल की तरह बिखेर दो
शायद फ़ैल जाए उनसे सुगंध
वैसे ही क्या कम है लोगों के मन में दुर्गन्ध
अगर सडा हुआ लिखा गया
या लिखा सड़ गया, क्या फर्क पड़ता है
फ़िर भी कविता में कभी कभी
अपने जीवंत रहने की अनुभूति तो नज़र आती है
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