मनु स्मृति से संदेश-राज्य के पैसे में हेराफेरी करने वालों को कड़ी सजा देना जरूरी


           प्राचीन समय में भारतवर्ष में राजकोष से हेराफेरी करना एक तरह से राजद्रोह जैसा अपराध माना जाता था।  एक तरह से कहा जाये तो इस संसार में परमात्मा के बाद राजा को इसलिये ही दूसरा स्थान दिया गया था कि वह समाज में सभ्यता, शिक्षा तथा शांति का वातावरण बनाये रखेगा।  इसलिये ही उसे राजस्व वसूल का अधिकार दिया गया।  स्वाभाविक रूप से इसके लिये कर्मचारियों को नियुक्ति करनी होती है।  कर्मचारी भले ही राजा के लिये राजस्व संग्रह करते हैं पर अंततः उसे प्रजा की संपत्ति माना जाता है इसलिये उसमें हेराफेरी के अपराध के लिये कड़े दंड की व्यवस्था की गयी।  आधुनिक मानव सभ्यता में विभिन्न देशों में कथित मानवीय आधार पर अपराधियों को मुलायम सजायें देने की व्यवस्था का निर्माण हुआ है। अब तो यह स्थिति है कि अगर किसी को किसी की हत्या पर मृत्यु दंड दिया जाये तो मानव अधिकार संगठन विलाप करने लग जाते हैं। अनेक लोग तो पाश्चात्य कानून से सीख लेकर भारत में मौत की सजा समाप्त करने की मांग करने लगे हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो केवल हत्या करना ही जघन्य अपराध नहीं है वरन् स्त्री के साथ जबरदस्ती करना, राजकोष की चोरी करना तथा सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुंचाना भी जघन्य अपराध है जिनकी सजा मौत ही होना चाहिए। अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि मृत्युदंड से अपराध होना बंद नहीं होता। यह सत्य है पर इससे अपराध दर अवश्य कम रहती है। जब तक देश में हत्या पर मौत की सजा का भय था तब ऐसा अपराध बहुत कम ही देखने को मिलता था। अब तो गाहे बगाहे हत्या होने की बात सामने आती है। दरअसल अब अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के मन में यह विश्वास घर कर गया है कि वह किसी को मारकर भी बच सकते हैं। सजा हो जाये तो भी जिंदगी बरकरार रह सकती है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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राज्ञः कोषोपहर्तृश्च प्रतिकूलेष च स्थितान्।
घातयेद्विविधैर्दण्डैररीणां चोयजापकान्।।
         ‘‘जो लोग राजकोष का हरण करने के साथ ही राजा की आज्ञा की अवहेलना करते हैं। शत्रु से मिल जाते हैं उनको मृत्युदंड देना ही श्रेयस्कर है।
अग्निदान्भक्तदांश्चैव तथा शस्ववकाशदान्।
सन्निधातृंश्चैव मोषस्य हन्याच्यौरमिवेश्वरः।।
     ‘‘अपराध पर नियंत्रण करने के लिये यह आवश्यक है जो लोग अपराधियों को अग्नि, भोजन, शस्त्र, वस्त्र व आश्रय देते हैं, उन्हें भी अपराधी मानकर मृत्युदंड देना चाहिए।
          आजकल पूरे विश्व में भ्रष्टाचार बढ़ने की बात कही जाती है। दरअसल राज्य के कोष का हरण करना या प्रंजा से उचित काम के पैसे वसूल करना एक सभ्य अपराध मान लेना ही इस भ्रष्टाचार का मूल कारण है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार तो राज्य के कोष से घात करने वाले को मौत की सजा देना चाहिए पर पाश्चात्य आधारों पर बने हमारे कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। इतना ही अपराधों को प्रश्रय देने वाले सफेदपोश तो अपने घरों में सुरक्षित बैठे रहते हैं। इनमे तो कई इतने शक्तिशाली होते हैं कि कोई उनका किसी अपराधी से नाम जोड़ने का साहस तक नहीं कर पाता। यह सब देखते हुए तो लगता है बिना कड़े दंड प्रावधानों के अपराध पर नियंत्रण पाना संभव नहीं है भले ही कोई कितना भी दावा करे।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’, Gwalior
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शक्तिशाली और कुलीन लोग किसी को बेवजह परेशान नहीं करते


             दैहिक रूप से मनुष्य सभी एक जैसे होते हैं। उनमें भी कोई गेहुए तो कोई काले या कोई गोरे रंग का होता है। इससे उसकी पहचान नहीं होती वरन् उसका आचरण, व्यवहार और विचार ही उसके आंतरिक रूप का प्रमाण होते है। सभी गोरे अच्छे हों यह जरूरी नहीं उसी तरह सभी काले बुरे हों यह समझना भी बेकार है। गेहुए रंग के लोग भी सामान्य स्वभाव के हों यह भी आवश्यक नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य की जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा भाषा के आधार पर उसकी पहचान स्थाई नही होती। मनुष्यों में भी कुछ पशु हैं तो कुछ तामसी प्रवृत्ति के हैं। कुल, पद, धन और बाहुबल के दम पर अनेक लोग आमजन के साथ हिंसा कर अपनी शक्ति को प्रमाणित करते हैं। उन्हें इस बात से संतोष नहीं होता कि वह शक्तिशाली वर्ग के हैं वरन् कमजोर पर अनाचार कर वह संतोष प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग नीच होते हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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नहि स्वसुखमन्विच्छन् पीडयेत् कृपणं नृपः।
कृषणः पीडयमानोहि मन्युना हन्ति पार्थिवम्।।
        ‘‘राज्य प्रमुख अथवा राजा को चाहिए कि वह अपने सुख के लिये कभी प्रजाजन को पीड़ा न दे। पीड़ित हुआ आम जन राजा को भी नष्ट कर सकता है।’’
कोहि नाम कुले जातः सुखलेशेन लोभितः।’’
अल्पसाराणि भूतानि पीडयेदिविचारम्।।
        बलशाली और कुलीन पुरुष कभी भी अपने से अल्प बलवान पुरुष को बिना विचारे कभी पीड़ित नहीं करते। ऐसा करने वाला निश्चय ही अधम होता है।’’
          जिन लोगों के पास राजपद, धन और शक्ति है उनको यह समझना चाहिए कि परमात्मा ने उनको यह वैभव आमजन की सेवा के लिये दिया है। प्राचीन समय में अनेक राजा लोगों ने प्रजाजनों के हित के लिये इसी विचार को ध्यान में रखकर काम किया। जहां तक हो सकता था अनेक महान राजा प्रजाजनों के हित के लिये काम किया और प्रसिद्धि पाई इसलिये भगवान के बाद दूसरा दर्जा दिया गया। इतिहास में अनेक महान राजाओं के नाम दर्ज हैं। मगर अब जिस तरह पूरे विश्व में हालात हैं उसे देखकर तो ऐसा लगता है कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीति, तथा धार्मिक क्षेत्रों में तामस प्रवृत्तियों वाले लोग हावी हैं। यही कारण है कि प्रजाजनों का ख्याल कम रखा जाता है। सच बात तो यह है कि राजनीतिक कर्म ऐसा माना गया है जिसे करने के लिये उसके शास्त्र का अध्ययन करना अनिवार्य नहीं है। यही कारण है कि राजपद पाने का लक्ष्य रखकर अनेक लोग राजनीति में आते हैं पर प्रजाजनों के हित की बात सोचते नहीं है। उनको लगता है कि राजपद पाना ही राजनीति शास्त्र का लक्ष्य है तब क्यों उसका अध्ययन किया जाये।
           यही कारण है कि हम आज पूरे विश्व में जनअसंतोष के स्वर उठते देख रहे हैं। अनेक देशों हिंसा हो रही है। आतंकवाद बढ़ रहा है। अपराधियों और पूंजीपतियों का गठजोड राजपद पर बैठे लोगों पर हावी हो गया है। राजपद पर बैठे लोग भले ही प्रजाजनों के हित की सोचें पर कर नहीं सकते क्योंकि उनको राजनीति शास्त्र का ज्ञान नहीं होता जिससे कोई काम नहीं कर पाते। राजपदों पर बैठे लोग और उनके परिवार के सदस्य अपनी सुविधा के लिये प्रजाजनों को आहत करने के किसी भी हद तक चले जाते हैं। बात भले ही धर्म करें पर उनकी गति अधम की ही होती है। अतः वर्तमान युवा पीढ़ी के जो लोग राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं उनको कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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भगवान श्रीविष्णु कर्म के प्रेरणा स्तोत्र-सामवेद से संदेश


             भगवान विष्णु कर्म और फल के प्रतीक भगवान माने जाते हैं। यही कारण है कि भगवान विष्णु तथा लक्ष्मी के अनेक अवतार समय समय पर हुए है। ब्रह्मा संसार के रचियता तो भगवार शिव संहारक और उद्धारकर्ता कहे गये हैं और भगवान नारायण को पालनहार माना गया है। ब्रह्मा और शिव का कोई अवतार नहीं होता जबकि भगवान नारायण अवतार लेकर अपनी सक्रियता से भक्तों की रक्षा करते है-यह आम धारण हमारे देश के धर्मभीरु लोगों की रही है।  ऐसे में वह संसार में सक्रियतापूर्ण जीवन जीने वालों के प्रेरक भी है।

यह आश्चर्य की बात है कि प्रकृति ने मनुष्य को देह, बुद्धि और मन की दृष्टि से अन्य जीवों की अपेक्षा सर्वाधिक शक्तिशाली जीव बनाया है तो सबसे अधिक आलसी भाव भी प्रदान किया। अधिकतर लोग लोग अपने तथा परिवार के स्वार्थ सिद्ध करने के बाद आराम करना चाहते है और परमार्थ उनको निरर्थक विषय लगता है जबकि पुरुषार्थ का भाव निष्काम कर्म से ही प्रमाणित होता है। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस देह से मनुष्य संसार का उपभोग करता है उसका ही महत्व नहीं समझता और भोगों में उसका नाश करता है। जिससे अंत समय में रोग उसके अंतिम सहयात्री बन जाते हैं और मृत्यु तक साथ रहते हैं।

      योग साधना, ध्यान, भजन और उद्यानों की सैर करने से जो देह के साथ मन को भी जो नवीनता मिलती है उसका ज्ञान अधिकतर मनुष्यों को नहीं रहता। सच बात तो यह है कि शरीर और मन को प्रत्यक्ष रूप से प्रसन्न करने वाले विषय मनुष्य को आकर्षित करते है और वह इसमें सक्रिय होकर जीवन भर प्रसन्न रहने का निरर्थक प्रयास करत है। वह अपनी इसी सक्रियता को पुरुषार्थ समझता है जबकि अप्रत्यक्ष लाभ देने वाले योगासन, ध्यान, भजन तथा प्रातः उद्यानों में विचरण करना उसे एक निरर्थक क्रिया लगती है। सीधी बात कहें तो इस अप्रत्यक्ष लाभ के लिये निष्काम भाव से इन कर्मो में लगना ही पुरुषार्थ कहा जा सकता है।
           हमारे पावन ग्रंथ सामवेद में कहा गया है कि
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           विष्णोः कर्माणि पश्चत यतो व्रतानि पस्पशे।
          ‘‘भगवान विष्णु के पुरुषार्थों को देखो और उनका स्मरण करते हुए अनुसरण करो।’
         ऋतस्य पथ्या अनु।
        ‘‘ज्ञानी सत्य मार्ग का अनुसरण करते हैं।’’
        ‘प्रेता जयता नर।’
        आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो।’’
      पुरुषार्थ करना मनुष्य का धर्म है और इसके लिये जरूरी है कि सत्य को मार्ग का अनुसरण किया जाये। आजकल जल्दी धनवान बनने के लिये असत्य मार्ग को भी अपनाने लगते हैं और उनको कामयाबी भी मिल जाती है पर जब उनको इसका दुष्परिणाम भी भोगना पड़ता है। यही कारण है कि ज्ञानी लोग कभी भी ऐसे गलत कार्य में अपना मन नहीं लगाते जिसका कालांतर में दुष्परिणाम भोगना पड़े।
     कर्म और पुरुषार्थ के विषय में भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए। वह संसार के पालनहार माने जाते हैं। ऐसा महान केवल पुरुषार्थ करने वालों को ही मिल सकता है। भगवान विष्णु के चौदह अवतार माने जाते हैं और हर अवतार में कहीं न कहीं उनका पुरुषार्थ प्रकट होता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,Gwalior

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श्रीगुरुवाणी-किसी से जाति या जन्म के बारे में न पूछें


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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‘जाति जनमु नह पूछीअै, सच घर लेहु बताई।

सा जाति सा पति है, जेहे करम होई।।’

हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार किसी की जाति या जन्म के बारे में न पूछें। सभी एक ही सर्वशक्तिमान के घर से जुड़े हुए हैं।  आदमी की जाति और समाज (पति) वही है जैसे  उसका कर्म है।

‘नीचा अंदरि नीच जाति, नीची हू अति नीचु।

नानक तिल कै संगि साथि, वडिआ सिउ किआ रीस।

जिथै नीच समालिअन, तिथे नदर तेरी बख्सीस।

हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुनानकदेव कहते हैं जे नीच से भी नीच जाति का है हम उसके साथ हैं। बड़ी जाति वालों से होड़ करना व्यर्थ है बल्कि जहां गरीब, पीड़ित और निचले वर्ग के व्यक्ति की सहायता की जाती है वहीं सर्वशक्तिमान की कृपा बरसती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति को निम्न जाति का मानकर उसकी अवहेलना करना बहुत बड़ा अपराध है। आज के समय में तो यह हास्यास्पद लगता है।  दरअसल पहले व्यवसायों के आधार पर जातियों का वर्गीकरण एक तरह से तर्कपूर्ण भी लगता था पर आजकल तो लोगों ने अपने परंपरागत पारिवारिक व्यवसाय ही त्याग दिये हैं पर फिर भी वह पुरानी जातिप्रथाओं के आधार पर अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को नीच बताते हैं।  न केवल लोगों ने अपने व्यवसाय बदले हैं बल्कि उनका आचरण भी बदल गया है। भ्रष्टाचार और अहंकार में डूबे लोग अर्थ के आधार पर सभी का आंकलन करते हैं मगर जब किसी की निंदा करनी हो तो उसकी जाति की निंदा करते हैं।

फिर आजकल पाश्चात्य जीवन शैली अपनाने की वजह से पुराने सामाजिक आधार ध्वस्त हो गये हैं।  आप किसी भी शहर में नये बने बाजार या कालोनियों में चले जायें वहां के कारोबारी और रहवासी विभिन्न संप्रदायों के होते हैं।  उनके दुकान और मकान जितने बड़े और आकर्षक होते हैं उतना ही समाज उनका सम्मान करता है।  हर कोई अपनी आर्थिक श्रेणी के अनुसार एक दूसरे से संपर्क रखता है। इतना ही नहीं अगर जाति में अपनी श्रेणी के समकक्ष अपनी संतान का रिश्ता मिल गया तो ठीक नहीं तो दूसरी जाति में भी विवाह करने को लोग अब तैयार होने लगे हैं।  कहने का तात्पर्य यह है कि धनवानों को ही समाज बड़ा मानता है पर वह अपने समाज की चिंता नहीं करते।  सच बात तो यह है कि धर्म, जाति, और भाषाओं की सेवा जितने गरीब और निम्न वर्ग के लोग करते हैं उतना अमीर और बड़े वर्ग के नहीं करते।  भारतीय समाजों का मजबूत ढांचा अगर ध्यान से देखें तो हमें यह साफ लगेगा कि भारतीय संस्कृति, संस्कारों, भाषाओं तथा नैतिक मूल्यों की रक्षा निचले तबके के लोगों ने अधिक की है।  यही कारण कि देश के सभी महापुरुष गरीब की सेवा को सर्वाधिक महत्व देते हैं।  

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