ऋग्वेद के आधार पर एकल प्रायोगिक आध्यात्मिक चर्चा
अध्यात्मिक चर्चा का यह एक अव्यवसायिक प्रयास है|: http://youtu.be/ZINjpehxBhw
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द्वाविमौ कपटकी तीक्ष्णौ शरीरपरिशोधिणौ।
यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यस्यनीश्वरः।।
‘‘गरीब मनुष्य जब अपने पास उपलब्ध धन से अधिक मूल्यवान वस्तु की कामना करता है और अस्वस्थ या कमजोर होने पर क्रोध की शरण लेता है तब वह अपने ही शरीर को सुखाने का काम करता है।’’
द्वावम्भसि निचेष्टच्यौ गलै बध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्र चापस्विनम्।।
‘‘मनुष्य धन होने पर दान न करे और गरीब होने पर कष्ट सहन न कर सके उसे गले में पत्थर मजबूत पत्थर बांधकर पानी में डुबा देना चाहिए।’’
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एक बात निश्चित है कि जैसा आदमी अपना संकल्प धारण करता है उतनी ही उसकी देह और और मन में शक्ति का निर्माण होता है। जब कोई आदमी केवल अपने परिवार तथा स्वयं के पालन पोषण तक ही अपने जीवन का ध्येय रखता है तब उसकी क्षमता सीमित रह जाती है पर जब आदमी सामूहिक हित में चिंत्तन करता है तब उसकी शक्ति का विस्तार भी होता है। शक्तिशाली व्यक्ति वह है जो दूसरे के अहंकार को सहन न कर उसकी उपेक्षा करने के साथ दमन भी करता है। समाज को कष्ट देने वालों का दंडित कर व्यवस्था कायम करता है। ऐसी मनुष्य स्वयं ही देवराज इंद्र की तरह है जो समाज के लिये काम करता है। शक्तिशाली मनुष्य होने का प्रमाण यही है कि आप दूसरे की रक्षा किस हद तक कर सकते हैं।
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यह आश्चर्य की बात है कि प्रकृति ने मनुष्य को देह, बुद्धि और मन की दृष्टि से अन्य जीवों की अपेक्षा सर्वाधिक शक्तिशाली जीव बनाया है तो सबसे अधिक आलसी भाव भी प्रदान किया। अधिकतर लोग लोग अपने तथा परिवार के स्वार्थ सिद्ध करने के बाद आराम करना चाहते है और परमार्थ उनको निरर्थक विषय लगता है जबकि पुरुषार्थ का भाव निष्काम कर्म से ही प्रमाणित होता है। उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस देह से मनुष्य संसार का उपभोग करता है उसका ही महत्व नहीं समझता और भोगों में उसका नाश करता है। जिससे अंत समय में रोग उसके अंतिम सहयात्री बन जाते हैं और मृत्यु तक साथ रहते हैं।
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जाति का गरबु न करि मूरख गवारा।
इस गरब ते चलहि बहुतु विकारा।।
हिन्दी में भावार्थ-गुरुवाणी में मनुष्यों को संबोधित करते हुए कहा गया है कि ‘हे मूर्ख जाति पर गर्व न कर, इसके चलते बहुत सारे विकार पैदा होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-प्राचीनकाल में भारत में जाति पाति व्यवस्था थी पर उसकी वजह से समाज में कभी विघटन का वातावरण नहीं बनता था। कालांतर में विदेशी शासकों का आगमन हुआ तो उनके बौद्धिक रणनीतिकारों ने यहां फूट डालने के लिये इस जाति पाति की व्यवस्था को उभारा। इसके बाद मुगलकाल में जब विदेशी विचारधाराओं का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था तब सभी समाज अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये संगठित होते गये जिसकी वजह से उनमें रूढ़ता का भाव आया और जातीय समुदायों में आपसी वैमनस्य बढ़ा जिसकी वजह से मुगलकाल लंबे समय तक भारत में जमा रहा। अंग्रेजों के समय तो फूट डालो राज करो की स्पष्ट नीति बनी और बाद में उनके अनुज देसी वंशज इसी राह पर चले। यही कारण है कि देश में शिक्षा बढ़ने के साथ ही जाति पाति का भाव भी तेजी से बढ़ा है। जातीय समुदायों की आपसी लड़ाई का लाभ उठाकर अनेक लोग आर्थिक, सामजिक तथा धार्मिक शिखरों पर पहुंच जाते है। यह लोग बात तो जाति पाति मिटाने की करते हैं पर इसके साथ ही कथित रूप से जातियों के विकास की बात कर आपसी वैमनस्य भी बढ़ाते है।
संकलक लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’, Gwalior
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धातोश्चामीकरमिव सर्पिनिर्मथनादिव।
बुद्धिप्रयत्नोपगताध्यवसायाद्ध्रवं फलम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह अनेक धातुओं में मिला होने पर भी गलाने से प्रकट होता है तथा दही मथने से घृत प्रगट होता है वैसे बुद्धि और उद्योग से के संयुक्त उद्यम से फल की प्राप्ति भी होती है।
सूक्ष्मा सत्तवप्रयत्नाभ्यां दृढ़ा बुद्धिरधिष्ठिता।
प्रसूते हि फलं श्रीमदरणीय हुताशनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जो बुद्धि सूक्ष्म तत्त्वगुण का ज्ञान होने से दृढ़ स्थिति में है वह धन रूपी फल को उत्पन्न करती है जिस प्रकार अरणी काष्ट अग्नि को प्रकट करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीगीता में वर्णित ज्ञान की लोग यह सोचकर उपेक्षा करते हैं कि वह तो सांसरिक कार्य से विरक्ति की ओर प्रेरित कर सन्यास मार्ग की ओर ले जाता है। यह अल्पज्ञान का प्रंमाण है। सच तो यह है कि उसमें वर्णित तत्व ज्ञान को जिसने भी धारण कर लिया उसकी बुद्धि दृढ़ मार्ग पर चल देती है। वह छोटी मोटी बातों पर न ध्यान देता है न उसे मान अपमान की चिंता रहती है। जिनसे मनुष्य को विचलित किया जा सकता है वह मायावी प्रयास उसे अपने मार्ग से डिगा नहीं सकते। यही कारण है कि अपने बौद्धिक संतुलन और एकाग्रता से अन्य के मुकाबले तत्वज्ञानी अधिक सफल रहता है। निष्काम भाव से उद्योग करने का आशय यह कतई नहीं है कि सारे संसार के काम को तिलांजलि देकर बैठा जाये बल्कि उपलब्धि प्राप्त होने पर हर्षित होकर चुप न बैठें और न नाकामी होने पर हताश हों, यही उसका आशय है।
तत्वज्ञान का आशय यह भी है कि जीवन पथ पर उत्साह के साथ बढ़ें। समय के साथ मनुष्य को भी बदलना पड़ता है। अच्छे, बुरे, मूर्ख और चतुर व्यक्तियों से उसका संपर्क होता है, उनसे व्यवहार करने का तरीका केवल तत्वज्ञानी ही जानते हैं। तत्व ज्ञान से जो बुद्धि में स्थिरता आती है उससे दूसरे लोग अपने छल, चालाकियों तथा मिथ्या ज्ञान से विचलित नहीं कर सकते। वर्तमान में हम देखें तो विश्व आर्थिक शिखर पर बैठे लोगों का सारा ढांचा ही मिथ्या ज्ञान तथा काल्पनिक स्वर्ग बेचने पर आधारित है। अगर लोगों में तत्व ज्ञान हो तो शायद ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलें जिसमें लोगों को जीते जी जमीन पर मरने पर आसमान में स्वर्ग खरीदते हुए अपना धन तथा समय बरबाद करते हैं। इस दुनियां में अनेक लोगों का व्यापार तो केवल इसलिये ही चल रहा है कि लोगों को अध्यात्म का ज्ञान नहीं है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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संकलक, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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अपने अनुभव के आधार पर भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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