चाणक्य नीति-पृथ्वी पर नर्क भोगने से बचें


                     ऐसा नहीं है कि स्वर्ग या नरक की स्थिति केवल मरने के बाद ही दिखाई देती है। अपने पास अगर ज्ञान हो तो इसी पृथ्वी पर स्वर्ग भोग जाता है। आजकल भौतिकवाद के चलते मनुष्यों की अनुभूतियों की शक्तियां कम हो गयी हैं। वह तुच्छ उपलब्धियों पर इतराते हैं तो थोड़ी परेशानियों में भारी तनाव उन पर छा जाता है। आजकल कहा भी जाता है कि इस संसार में कोई सुखी नहीं है। दरअसल लोग सुख का अर्थ नहीं जानते। सुख के साधनों के नाम अपने घर में ही कबाड़ जमा कर रहे हैं। संबंधों के नाम पर स्वार्थ की पूर्ति चाहते हैं। स्वार्थों के लिये संबंध बनाते और बिगाड़ते हैं। क्रोध को शक्ति, कटु वाणी को दृढ़ता और दुःख के नाम पर दूसरे के वैभव से ईर्ष्या पालकर मनुष्य स्वयं ही अपने दैहिक जीवन को नरक बना देता है। किसी को यह बात समझाना कठिन है कि वह अपने जीवन की स्थितियों के लिये स्वयं जिम्मेदार हैं। लोग भाग्यवादी इतने हैं कि अपने ही कर्म को भी उससे प्रेरित मानते है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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                                   अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।
                                  नीचप्रसंङ्गा कुलहीनसेवा चिह्ननि देहे नरकास्थितानाम्।।
               ‘‘अत्यंत क्रोध करना अति कटु कठोर तथा कर्कश वाणीक होना, निर्धनता, अपने ही बंधु बांधवों से बैर करना, नीचों की संगति तथा कुलहीन की सेवा करना यह सभी स्थितियां प्रथ्वी पर ही नरक भोगने का प्रमाण है।’’                       गम्यते यदि मृगेन्द्र-मंदिर लभ्यते करिकपोलमौक्तिम्।
                      जम्बुकाऽऽलयगते च प्राप्यते वत्स-पुच्छ-चर्म-खुडनम्।।
             ‘‘कोई मनुष्य यदि सिंह की गुफा में पहुंच जाये तो यह संभव है कि वहां हाथी के मस्तक का मोती मिल जाये पर अगर वह गीदड़ की गुफा में जायेगा तो वहां उसे बछड़े की पूंछ तथा गधे के चमड़ का टुकड़ा ही मिलता है।’’
                     हमें अपने जीवन को अगर आनंद से बिताना है तो अपने आचरण, विचार तथा व्यवहार पर ध्यान देना चाहिए। कायर, कलुषित व बीमार मानसिकता वाले, व्यसनी तथा लालची लोगों से संबंध रखने से कभी हित नहीं होता है। ऐसे स्थानों पर जाना जहां तनाव के अलावा कुछ नही मिलता हो वर्जित करना ही श्रेयस्कर हैै। जिनका छवि खराब है उनसे मिलना अपने लिये ही संकट बुलाना है। इस संसार में ऐसे पाखंडी लोगों की कमी नहीं है जो अपना काम निकालने के लिये दयनीय चेहरा बना लेते हैं पर समय आने पर सांप की तरह फुंफकारने लगते हैं। इसलिये उत्साही, संघर्षशील तथा अध्यात्मिक रुचि वालों की संगत करना ही जीवन के लिये लाभप्रद है। अच्छे लोगों से संगत करने पर अपने विचार भी शुद्ध होते हैं तो मन के संकल्प भी दृढ़ होते हैंे जो आनंदमय जीवन की पहली और आखिरी शर्त है।

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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’, Gwalior
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भारतीय वेद शास्त्र-वायु भी बीमारी के इलाज के लिये दवा बन सकती है (bhartiya ved shastra-air is a medicin)


        वर्षा के मौसम में अक्सर अनेक प्रकार की बीमारियां फैलती हैं। इसका कारण यह है कि इस मौसम मेंएक तो मनुष्य की पाचन क्रिया इस समय अत्यंत मंद पड़ जाती है जबकि जीभ स्वादिष्ट मौसम के लिये लालायित हो उठती है। दूसरा यह है कि जल में अनेक प्रकार के विषाणु अपना निवास बना लेते हैं। इस तरह स्वाभाविक रूप से इस समय बीमारी का प्रकोप यत्र तत्र और सर्वत्र प्रकट होता है। बरसात के मौसम में जहां चिकित्सकों के द्वार पर भीड़ लगती है वहीं योग साधक अधिक सतर्कता पूर्वक प्राणायाम करने लगते हैं ताकि वह बीमारियों से बचे रहें।
            जल और वायु न केवल जीवन प्रवाह में सहायक होती है बल्कि रोगनिदान में औषधि के रूप में इनसे सहायता मिलती है। वर्षा ऋतु में दोनों का प्रवाह बाधक होता है पर नियम, समय और प्राणयाम के माध्यम से अपनी देह को उन विकारों से बचाया जा सकता है जो इस मौसम में होती है।
वेद शास्त्रों में कहा गया है कि
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वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हितः।
ततो नो देहि जीवसे।।
           ‘‘इस वायु के गृह में यह अमरत्व की धरोहर स्थापित है जो हमारे जीवन के लिये आवश्यक है।’’
अ त्वागमं शन्तातिभिरथे अरिष्टतातिभिः दक्षं ते भद्रमाभार्ष परा यक्ष्मं सुवामित ते।।
        ऋग्वेद की इस ऋचा अनुसार वायु देवता कहते हैं कि ‘‘हे रोगी मनुष्य! मैं वैद्य तेरे पास सुखदायक और अहिंसाकर रक्षण लेकर आया हूं। तेरे लिये कल्याणकारी बल को शुद्ध वायु के माध्यम से लाता हूँ  और तेरे रोग दूर करता हूं।’’
वातु आ वातु भेषजं शंभु मयोभु नो हृदे।
प्र ण आयूँरिर तारिषत्।।
             ‘‘याद रखें कि शुद्ध ताजी वायु अमूल्य औषधि है जो हमारे हृदय के लिये दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह आनंद प्राप्त करने के साथ ही आयु को बढ़ाता है।
          हमने देखा होगा कि जब कोई मरीज नाजुक हालत में अस्पताल पहुंचता है तो सबसे पहले चिकित्सक उसकी नाक में आक्सीजन का प्रवाह प्रारंभ करते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सबसे प्रथम दवा तो वायु ही होती है। इसके अलावा जो दवायें मिलती हैं उनके जल का मिश्रण होता है या फिर उनका जल से सेवन करने की राय दी जाती है। हम यहां वायु के महत्व को समझें। हमने देखा होगा जहां जहां घनी आबादी हो गयी है वहां अधिकतर लोग चिढ़चिढ़े, तनाव ग्रस्त और हताशा जनक स्थिति में दिखते हैं। अनेक लोग घनी आबादी में इसलिये रहना चाहते हैं कि उनको वहां सुरक्षा मिलेगी दूसरा यह कि अपने लोग वहीं है पर इससे जीवन का बाकी आनंद कम हो जाता है उसका आभास नहीं होता।
        श्रीमद्भागवत गीता में ‘गुणों के गुणों में ही बरतने’ और ‘इंद्रियों के इंद्रियों मे बरतने’ का जो वैज्ञानिक सिद्धांत दिया गया है उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहां प्राणवायु विषाक्त है या जहां उसकी कमी है वहां के लोगों के मानसिक रूप से स्वस्थ या सामान्य रहने की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है। आमतौर से सामान्य बातचीत में इसका आभास नहीं होता पर विशेषज्ञ इस बात को जानते हैं कि शुद्ध और अधिक वायु के प्रवाह में रहने वाले तथा इसके विपरीत वातावरण में रहने वाले लोगों की मानसिकता में अंतर होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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