पाप की कमाई होली पर चुराई गयी लकड़ी की तरह शीघ्र नष्ट होती है-हिन्दू धार्मिक विचार (paap ki kamai holi ki lakdi ki tarah-hindu dharmik vichar)


अक्सर लोग शिकायत करते हैं कि‘आजकल समय खराब हो गया है और नयी पीढ़ी व्यसनों का शिकार हो रही है।’
हम समाज के नैतिक और अध्यात्मिक पतन के लिये बढ़ते हुए भौतिकतावद को दोष देते हैं। यह सही है पर इसके लिये मनुष्य के की शारीरिक सुख सुविधा तथा मनोरंजन के लिये बनी वस्तुओं का उपभोग नहीं बल्कि उनको खरीदने की लिये धन का वह स्वरूप है जो अधर्म पर आधारित होता है। सच तो यह है कि जब पहले देश में जब कृषि आधारित व्यवस्था में श्रम की प्रधानता थी तब लोग ईमानदारी और परिश्रम के मार्ग से अपना भौतिक विकास करते थे। यह मार्ग लंबा होता था पर लोग सहजता से जीवन व्यतीत करते थे। विश्व में आर्थिक उदारीकरण की लहर के बाद देश की सामान्य कार्यप्रणाली में परिवर्तन आया है। अब जिसे देखो नौकरी के पीछे भाग रहा है। जिनके पास शिक्षा की उपाधि है उनमें कोई भी व्यवसाय या कृषि को अपना लक्ष्य नहीं बनाता। जल्दी जल्दी धन कमाने के लिये अनेक व्यक्ति अधर्म तथा अपराध का काम करने लगते हैं। ऐसे में उनकी उपभोग की प्रवृत्ति भी वैसी होती जा रही है। शराब, जुआ तथा सट्टा जैसे व्यसनों का प्रकोप बड़ रहा है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार।।
‘‘पाप के धन को नष्ट होने में अधिक समय नहीं लगता। ठीक उसी तरह जैसे होली के अवसर पर कुछ लोग लकड़ी चुराकर लाते हैं और वह जलकर जल्दी नष्ट हो जाती है।’’
पाप का धन होली के लिये चुराई गयी लकड़ी की तरह ही नष्ट होता है। जिन लोगों के पास अधर्म की कमाई है उनका पैसा भी वैसे ही खर्च होता है। किसी को स्वयं ही शराब, जुआ, तथा सट्टे की आदत लग जाती है या फिर उनके परिवार के सदस्य इसका शिकार होते हैं। यह भी नहीं हुआ तो बीमारी अपना रौद्र रूप प्रकट कर पैसा बाहर निकलवाती है। इसलिये जहां तक संभव हो धर्म की कमाई करें क्योंकि शरीर के अच्छ स्वास्थ्य और मन की प्रसन्नता का यही एक उपाय है।

————–

लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,Gwalior

Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

Advertisement

हिन्दू धार्मिक विचार-नाम स्मरण छोड़कर विषयों में लिप्त होना कष्टदायी (hindi dharmik vichar-naam smaran aur vishay-hindu dharmik vichar)


राम नाम को छाड़ि कर, करे और की आस।
कहैं कबीर ता नर को, होय नरक में वास।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जो मनुष्य राम नाम का स्मरण छोड़कर विषय वासना में रत हो जाते हैं उनको नरक में जाकर निवास करना पड़ता है।
मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग।
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग दिन रात भगवान के नाम का जाप करते हैं, साधुओं के पास जाते हैं ऐसे में किसे दोष दें कि उनके जीवन में रंग नहीं चढ़ता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम अपने देश की वर्तमान दशा को देखें तो दुःख होने के साथ कभी कभी हंसी भी आती है।  शायद ही दुनियां में कोई ऐसा देश हो जहां भगवान नाम का स्मरण इतना होता हो पर जितना सामाजिक तथा आर्थिक भ्रष्टाचार है वह भी कहीं नहीं होगा।  लोग एक दूसरे को दिखाने के लिये भगवान का नाम लेने  साथ ही सत्संगों में जाकर साधुओं के प्रवचन सुनते हैं पर घर आकर सभी का व्यवहार मायावी हो जाता है। बड़े शहरों में नित प्रतिदिन धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होने पर वहां लोगों के झुंड के झुंड शामिल होते हैं। कोई प्रवचन सुनता है तो कोई सुनते हुए दूसरे को भी सुनाता है।  कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान की भक्ति लोग केवल दिखावे के लिये करते हैं और उनका लक्ष्य केवल स्वयं को धार्मिक या अध्यात्मिक व्यक्तित्व का स्वामी होने का दिखावा करना होता है।
वैसे हम लोग विषयों के पीछे भागते हैं जबकि सच तो यह है कि वह हमें कभी छोड़ते ही नहीं अलबत्ता हम उनकी सोच को अपने दिमाग में इस तरह बसा लेते हैं कि भगवान का नाम स्मरण करने का विचार ही नहीं आता।  अगर आता भी है तो खाली जुबान से लेते हैं पर उसका स्पंदन हृदय में नहीं पहुंचता क्योंकि बीच रास्ते में विषयों की सोच रूपी पहाड़ उनका मार्ग अवरुद्ध करता है। यही कारण है कि भगवान भक्ति अधिक होने के बावजूद इस देश में नैतिक आचरण गिरता जा रहा है।  बहुत कम लोग ऐसे रह गये हैं जिनमें मानवीय संवेदनायें और सद्भावना बची है।
इस दिखावे का ही परिणाम है कि मायावी समृद्धि की तरफ बढ़ रहे देश में अहंकार, संवेदनहीनता तथा भ्रष्टाचार के कारण नारकीय स्थिति की अनुभूति होती है। जिसके परिणाम स्वरूप हम अपने देश में सामाजिक वैमनस्य की बढ़ती प्रवृत्ति भी देख सकते हैं। ऐसा अध्यात्मिक शिक्षा के प्रति अरुचि के कारण ही हो रहा है यह बात याद रखना चाहिये।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

————————-
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

हिन्दू धर्म संदेश-मज़दूर का हाथ सदा पवित्र हो्ता है (mazdoor ka hath sada pavitra-hindu dharma sandesh)


मनुस्मृति के अनुसार
—————
नित्यमास्यं शुचिः स्त्रीणां शकुनि फलपातने।
प्रस्त्रवे च शुचर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
नारियों का मुख, फल गिराने के लिये उपयोग  में लाया गया पक्षी, दुग्ध दोहन के समय बछड़ा तथा शिकार पकड़ने के लिये उपयोग में लाया गया कुत्ता पवित्र है।
नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम्।
ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यमिति स्थितिः।
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्रों के अनुसार कारीगर का हाथ, बाजार में बेचने के लिये रखी गयी वस्तु तथा ब्रह्मचार को दी गयी भिक्षा सदा ही शुद्ध है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में पाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण ने लोगों के दिमाग में श्रम की मर्यादा को कम किया है। आधुनिक सुख सुविधाओं के उपभोग करने वाले धनपति मजदूरों और कारीगरों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनके श्रम का मूल्य चुकाते हुए अनेक धनपतियों का मुख सूखने लगता है। जबकि हमारे मनु महाराज के अनुसार कारीगर का हाथ हमेशा ही शुद्ध रहता है। इसका कारण यह है कि वह अपना काम हृदय लगाकर करता है। उसके मन में कोई विकार या तनाव नहीं होता। यह शुद्ध भाव उसके हाथ को हमेशा पवित्र तथा शुद्ध करता रहता है। भले ही सिर पर रेत, सीमेंट या ईंटों को ढोते हुए कोई मजदूर पूरी तरह मिट्टी से ढंक जाता है पर फिर भी वह पवित्र है। उसी तरह मैला ढोले वालों का भले ही कोई अछूत कहे पर यह उनका नजरिया गलत है। मैला ढोले वाले के हाथ भले ही गंदे हो जाते हैं पर उसके हृदय की पवित्रता उनको शुद्ध रखती है।
जो लोग मजदूरों, कारीगरों या मैला ढोले वालों को अशुद्ध समझते है वह बुद्धिहीन है क्योंकि श्रमसाध्य कार्य करना एक तो हरेक के बूते का नहीं होता दूसरे उनको करने वाले अत्यंत पवित्र उद्देश्य से यह करते हैं इसलिये उनके हाथों को अशुद्ध मानना या उनकी देह को अछूत समझना अज्ञानता का प्रमाण है।
यहां बाजार में रखी वस्तु के शुद्ध होने से आशय यह कतई न लें कि हम चाहे जो भी वस्तु रखें वह पवित्र ही होगी। दरअसल इसका यह भी एक आशय है कि आप जो चीज बेचने के लिये रखें वह पवित्र और शुद्ध होना चाहिये। इसके अलावा इस बात का ध्यान रखें कि जो लोग अपने हाथों से कुशल या अकुशल श्रम करते हैं उनको हेय दृष्टि से न देखों तथा उनके परिश्रम का उचित मूल्य चुकायें।

——————————-
लेखक,संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
————————

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

रहीम के दोहे-प्यार के दुर्गम मार्ग पर सभी नहीं चल सकते


प्रेम पंथ ऐसी कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं
रहिमन मैन-तुरगि बढि, चलियो पावक माहिं
कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम का मार्ग ऐसा दुर्गम हे कि सब लोग इस पर नहीं चल सकते। इसमें वासना के घोड़े पर सवाल होकर आग के बीच से गुजरना होता है।
फरजी सह न ह्म सकै गति टेढ़ी तासीर
रहिमन सीधे चालसौं, प्यादा होत वजीर
कविवर रहीम कहते हैं कि प्रेम में कभी भी टेढ़ी चाल नहीं चली जाती। जिस तरह शतरंज के खेल में पैदल सीधी चलकर वजीर बन जाता है वैसे ही अगर किसी व्यक्ति से सीधा और सरल व्यवहार किया जाये तो उसका दिल जीता जा सकता है।
आज के संदर्भ में व्याख्या-आजकल जिस तरह सब जगह प्रेम का गुणगान होता है वह केवल बाजार की ही देन है जो युवक-युवतियों को आकर्षित करने तक ही केंद्रित है। उसे प्रेम में केवल वासना है और कुछ नहीं है। सच्चा प्रेम किसी से कुछ मांगता नहीं है बल्कि उसमें त्याग किया जाता है। सच्चे प्रेम पर चलना हर किसी के बस की बात नहीं है। प्रेम में कुछ पाने का आकर्षण होतो वह प्रेम कहां रह जाता है। सच तो यह है कि लोग प्रेम का दिखावा करते हैं पर उनके मन में लालच और लोभ भरा रहता है। लोग दूसरे का प्यार पाने के लिये चालाकियां करते हैं जो कि एक धोखा होता है।
आजकल हम देख रहे हैं कि प्रेम के नाम पर अनेक लोग धोखे का शिकार हो रहे हैं। दरअसल फिल्म और टीवी चैनलों पर आज के युवक और युवतियों की यौन भावनाओं को भड़काया जा रहा है। अनेक ऐसी बेसिर पैर की कहानियां दिखाई जाती हैं जिनका यथार्थ के धरातल पर कोई आधार नहीं मिलता। केवल शादी तक तक ही लिखी गयी कहानियां गृहस्थी के यथार्थो का विस्तार नहीं दिखाती। इनको देखकर युवक युवतियां प्यार की कल्पना तो करते हैं पर उसके बाद का सच उनके सामने तभी आता है जब वह गल्तियां कर चुके होते हैं।
इतना ही नहीं कई प्रेम कहानियों में तो लड़कों को छल कपट से लड़कियों को अपने प्यार के जाल मेें फंसाते हुए दिखाया जाता है। इन कहानियों के दृश्य देखकर अनेक युवक युवतियां भ्रमित होकर उसी राह पर चलते है। इस तरह के प्रचार को समझने की जरूरत है।

________________
संकलक, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://dpkraj.blogspot.com

कौटिल्य दर्शन-अपनी गलत आदतों की उपेक्षा न करें


प्रकृतिव्यवसननि भूतिकामः समुपेक्षेत नहि प्रमाददर्पात्।
प्रकृत्तिवयवसनान्यूपेक्षते यो न चिरात्तं रिपवःपराभवन्ति।।
हिंदी में भावार्थ-
विभूति की इच्छा से उत्पन्न प्रमाद या अहंकार की प्रकृत्ति से उत्पन्न व्यसनों की उपेक्षा न करें। प्रकृत्ति के व्यसनों की उपेक्षा करने वाले को शत्रु शीघ्र नष्ट कर डालते हैं।

इत्यादि सर्व प्रकृति तथावद्बुध्यत राजा व्यसनं प्रयत्नात्।
बुद्धया च शक्त्वा व्यसनस्य कुर्याकालहीन व्यवरोपर्णहि।।
हिंदी में भावार्थ-
राज प्रमुख विधिपूर्वक सबके व्यसनों को जाने तथा अपनी बुद्धि तथा शक्ति से अपने अंदर स्थित व्यसनों को अधूरेपन में ही नष्ट कर दे क्योंकि विपत्ति होने पर हीन वस्तु और व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य के व्यसन उसको कमजोर करते हैं। शराब, तंबाकू तथा अन्य कोई भी बुरी आदत पालना ठीक नहीं होती। व्यसनों से न केवल देह की रोगों से लड़ने के लिये प्रतिरोधक क्षमता का क्षरण होता है बल्कि मानसिक रूप से भी मनुष्य कमजोर होता है। इतना ही नहीं व्यसनी मित्रों के साथ रहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वह उनके वशीभूत होते हैं और किसी भी समय संकट का कारण बन सकते हैं। कहने का आशय यह है कि व्यवसनी का मन अपने वश में नहीं रहता इसलिये वह अपनी अन्मयस्कता की वजह से विश्वास योग्य नहीं होता। अपने अंदर कोई व्यसन हो और लगे कि उसे छोड़ना ही हितकर है तो बिना विलंब किये उससे परे हो जाना चाहिये।
उसी तरह मौसम के अनुसार ही भोजनादि ग्रहण करना चाहिये क्योंकि प्रकृत्ति के अनुसार न चलने पर भी भारी परेशानी उठानी पड़ती है। उसके विपरीत चलने का व्यसन बहुत हानिकारक होता है। व्यसन किसी भी प्रकार से मनुष्य को हानि पहुंचा सकते हैं चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक।
………………………….

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप