यूं तो वक्त गुजरता चला जाता
पर आदमी साथ चलते पलों को ही
अपना जीवन समझ पाता
गुजरे पल हो जाते विस्मृत
नहीं हिसाब वह रख पाता
कभी दुःख तो कभी होता सुख
कभी कमाना तो कभी लुट जाना
अपनी ही कहानियां मस्तिष्क से
निकल जातीं
जिसमें जी रहा है
वही केवल सत्य नजर आती
जो गुजरा आदमी को याद नहीं रहता
अपनी वर्तमान हकीकतों से ही
अपने को लड़ता पाता
हमेशा हानि-लाभ का भय साथ लिये
अपनों के पराये हो जाने के दर्द के साथ जिये
प्रकाश में रहते हुए अंधेरे के हो जाने की आशंका
मिल जाता है कहीं चांदी का ढेर
तो मन में आती पाने की ख्वाहिश सोने की लंका
कभी आदमी का मन अपने ही बोझ से टूटता
तो कभी कुछ पाकर बहकता
कभी स्वतंत्र होकर चल नहीं पाता
तन से आजाद तो सभी दिखाई देते हैं
पर मन की गुलामी से कोई कोई ही
मुक्त नजर आता
सत्य से परे पकड़े हुए है गर्दन भौतिक माया
चलाती है वह चारों तरफ
आदमी स्वयं के चलने के भ्रम में फंसा नजर आता
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप