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हास्य-व्यंग्य
अपनी-अपनी सब कहैं-हास्य व्यंग्य कवितायें
किस्से कहें और
क्या कहें
सुनते सभी हैं
पर गुनते नजर नहीं आते
कान से सुनते सभी हैं
पर मन के बहरे सभी हैं
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अपने मन की बात
किसी से कहें तो क्या
पहले तो कान न धरे
और धरे तो बनाए मजाक
कहें दीपक बापू
कान से बहरे तो ठीक
मन के बहरों के आगे
क्या बीन बजाना
दुसरे उडाएं
इससे तो अपने पर ही
हंस कर अपना उडायें मजाक
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मस्तिष्क से विचारों और अंतर्द्वंद्वों
बीच हाथों से रचे जाते शब्द
मेरे मन की पीडा हर जाते हैं
सोचता हूँ
अब आराम से बैठ पाऊँगा
पर ऐसा होता नहीं
पीडाओं के झुंड अपने साथ शब्दों को लेकर
एक-एक कर फिर मस्तिष्क में
तेजी से चलते आते हैं
कई बार सोचता हूँ
लिखना बंद कर दूं
विचारों और अंतर्द्वंदों से
किनारा कर लूं
बोतल से निकलते जिन्न से
फिर दोस्ती कर लूं
मदहोशी में रहना सीख लूं
पर जब गुजरे पल याद आते हैं
पीडा और बढ़ा देते हैं
फिर शब्दों के झुंड चले आते हैं
मेरे हाथ जिन्न की बोतल से दूर
फिर लिखने के लिए बढ जाते हैं
मैं जितना दूर जाना चाहूँ
अपने शब्दों से
उनके पढने वाले
मुझे याद दिलाने चले आते हैं
कहते हैं वह तुम्हारे शब्द
हमारी पीडा हर जाते हैं
क्योंकि वह सत्य के निकट
नजर आते हैं
मैं नहीं जानता कि
यह सच है या झूठ
बस इतना पता है कि
वह मेरी पीडा को हर ले जाते हैं
जब तक नहीं निकलते
मन को बहुत सताते हैं
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लिखते बहुत हैं
अपने लिखे शब्द से पूजते भी बहुत हैं
अपनी नहीं बल्कि परपीडा पर
निरर्थक और अपठनीय लिखकर
स्तुति भी बहुत पाते हैं
पर लेखक की खुद की
पीडा से निकले शब्द
मेरी दृष्टि में साफ नजर आते हैं
पढने को तरसता हैं मन मेरा
पर सुन्दर कागज पर
रंग-बिरंगी स्याही से सजे शब्द
मेरे पठन-पाठन की क्षुधा को
तृप्त नहीं कर पाते हैं
सोचता हूँ कि
क्या लोगों की पीडा कम हो गयी है
पर देखता हूँ अपने आसपास तो
लगता है कि अब लिखते अब वह हैं
जिनके पास आज के युग के
सारे साधन है और वह
संवेंदनहीन होकर दूसरों की पीडा
अपने शब्दों को सजाते हैं
इसीलिये दिल को छू नहीं पाते हैं
हृदय में अच्छा न पढ़ पाने की पीडा
लिखने से दूर कर देती है
सोचता हूँ अपने शब्द-लेखन से
कहीं दूर हो जाऊं
बिना पढे मैं कब तक लिखता जाऊं
पर शब्द और बोतल में बंद जिन्न के
बीच मैं खङा होकर सोचता हूँ
मुझे किसी एक रास्ते पर तो जाना होगा
और शब्द हैं कि झुंड के झुंड
पीडाओं को साथ लिए चले आते हैं
मुझे अपने साथ खींच ले जाते हैं
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पढ़कर कितना समझते-हास्य हिन्दी शायरी
आम इंसानों की तरह
रोज जिंदगी गुजारते हैं
पर आ जाता है
पर सर्वशक्तिमान के दलाल
जब देते हैं संदेश
अपना ईमान बचाने का
तब सब भूल जाते हैं
दिल से इबादत तो
कम ही करते हैं लोग
पर उसके नाम पर
जंग करने उतर आते हैं
कौन कहता है कि
दुनियां के सारे धर्म
इंसान को इंसान की
तरह रहना सिखाते
ढेर सारी किताबों को
दिल से इज्जत देने की बात तो
सभी यहां करते हैं
पर उनमें लिखे शब्द कितना पढ़ पाते हैं
पढ़कर कितना समझते
इस पर बहस कौन करता है
दूसरों की बात पर लोग
एक दूसरे पर फब्तियां कसने लग जाते हैं।
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हमदर्दी जताने का ख्याल-हिन्दी शायरी
अपनों में गैर
और गैरों में अजनबी हो जाना
कितना सताता है
जब आदमी अपने को अकेला पाता है
भरी दोपहर में
शरीर से बहता पसीना
चलते जा रहे पांव
चंद पलों के मन के सुख की खातिर
जिस घर के अंदर झांका
वहीं जंग का मैदान पाता है
मांगने पर थोड़ा प्यार
इतराने लगते हैं लोग
देते हैं नसीहतें तमाम
पर चंद प्यार के लफ्ज बोलकर
हमदर्दी जताने का ख्याल
किसी को नहीं आता है
ऊपर से बरसाता आग सूरज
नीचे जलती धरती
नंगे पांव चलता आदमी
ढूंढता है सभी जगह मन की शीतलता
पर भी नजर डाले
लोगों का मन छल से भरा
स्वयं को ही धोखा देता नजर आता है
कुछ पल प्यार की चाह
जलते पांव के लिये शीतलता की राह
मांग कर अपने आपको
शर्मिंदा करने से तो
जलती आग मे चलते रहना ही भाता है
भला आदमी भी कभी आदमी को
सुख के पल दे पाता है
…………………………….
उस महफिल में चंद पल सुकून से
बिताने की खातिर रखा था कदम
हमें मालुम नहीं था दिलजलों ने
अपने लिये उसे सजाया हैं
उनके मसले देखकर ख्याल आया कि
इससे तो घर ही अच्छे थे हम
पहले भी कम नहीं थे साथ हमारे
वहां से बेआबरू होने का लेकर लौटे गम
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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2.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
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4.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप
आदमी स्वयं भ्रम में फंसा नजर आता-हिन्दी कविता
यूं तो वक्त गुजरता चला जाता
पर आदमी साथ चलते पलों को ही
अपना जीवन समझ पाता
गुजरे पल हो जाते विस्मृत
नहीं हिसाब वह रख पाता
कभी दुःख तो कभी होता सुख
कभी कमाना तो कभी लुट जाना
अपनी ही कहानियां मस्तिष्क से
निकल जातीं
जिसमें जी रहा है
वही केवल सत्य नजर आती
जो गुजरा आदमी को याद नहीं रहता
अपनी वर्तमान हकीकतों से ही
अपने को लड़ता पाता
हमेशा हानि-लाभ का भय साथ लिये
अपनों के पराये हो जाने के दर्द के साथ जिये
प्रकाश में रहते हुए अंधेरे के हो जाने की आशंका
मिल जाता है कहीं चांदी का ढेर
तो मन में आती पाने की ख्वाहिश सोने की लंका
कभी आदमी का मन अपने ही बोझ से टूटता
तो कभी कुछ पाकर बहकता
कभी स्वतंत्र होकर चल नहीं पाता
तन से आजाद तो सभी दिखाई देते हैं
पर मन की गुलामी से कोई कोई ही
मुक्त नजर आता
सत्य से परे पकड़े हुए है गर्दन भौतिक माया
चलाती है वह चारों तरफ
आदमी स्वयं के चलने के भ्रम में फंसा नजर आता
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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