शायद वह लोग सही कहते हैं कि ‘हिंदी सिखाने के लिये रहीम,तुलसी और कबीर की रचनाओं को नहीं पढ़ाना चाहिये।’
लोग उनका विरोध कर रहे हैं पर विरोध करने वाले स्वयं ही किसी वैचारिक धरातल पर नहीं खड़े हैं। अगर हम देखें तो तुलसी, रहीम और कबीर की रचनायें हैं वह शुद्ध हिंदी की नहीं है बल्कि स्थानीय भाषाओं में रची गयी हैं और केवल आधुनिक हिंदी का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति उनकेा बिना अभ्यास के समझ नहीं सकता। अन्य लोगों की तरह इस आलेख के लेखक ने भी तुलसी, रहीम और कबीर की रचनायें शैक्षणिक जीवन में एक विषय होने के कारण पढ़ीं। उस समय यह रचनायें बहुत तकलीफदेह लगती थीं। उस समय ऐसा लगता था कि कबीर दास और रहीम ने रचनायें क्यों लिखी?‘ उनके बारे मं पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देना दुरूह लगता था। सच कहें तो इस लेखक ने अपने बालक सहपाठियों के मूंह से इन रचनाओं को पढ़ने और समझने में जो दुरूहता अनुभव की उससे उपजी निराशा में ऐसे शब्द सुने हैंं जो इन महापुरुषो कें विरोधी भी नहीं कह सकते। हमें आधुनिक हिंदी का ज्ञान तो हो गया था पर भक्तिकाल की रचनाओं के लिये अनुवाद की आवश्यकता होती थी। सच बात तो यह है कि हमने हिंदी सीखी है उसमें रहीम,कबीर,तुलसी,मीरा,सूर, तथा रसखान का कोई येागदान नहीं है पर फिर भी हम उनका सम्मान करते हैं। आप पूछेंगे क्यो?
तय बात है कि भाषा एक अलग विषय है और अध्यात्मिकता और भक्ति एक अलग विषय है। भक्तिकाल को हिंदी भाषा का स्वर्णकाल कहा जाता है पर किस हिंदी का। शायद अध्यात्मिक हिंदी का। कम से कम आज की आधुनिक हिंदी को उससे जोड़ना ही गलत लगता है।
हम संक्षिप्त रूप से हिंदी की चर्चा भी कर लें। हिंदी में कोई माई का लाल यह नहीं कर सकता है कि वह उसका संपूर्ण जानकार है। हिंदी के बारे में बोलते हुए कई विद्वान यही गलती कर रहे हैं वह यह कि वह हिंदी के सर्वज्ञानी होने का भ्रम पाल लेते हैं। सच बात तो यह है कि शुरूआती दौर में हिंदी में उत्तरप्रदेश,बिहार और दिल्ली के विद्वानों का प्रभुत्व था पर राष्ट्रभाषा बनने के बाद यह देश में संवाद की इकलौती भाषा बनने की और अग्रसर है और अब इस समय अंतर्जाल पर करीब करीब सभी प्रदेशों से हिंदी लिखने वाले लेखक हैं देश में जो भौगौलिक विभिन्नता है उसके चलते लोगों के स्वभाव, विचार,भाषा और अभिव्यक्ति के स्वरूप भी अलग है। हिंदी हर पांच कोस पर बदल जाती है पर आदमी का अन्न जल और भौगौलिक परिस्थितियों तो हर एक कोस पर बदलती हैं। जो जिस हाल में रहता है वैसा ही उसका सोच हेाता है। यह भिन्नता लिखने,पढ़ने और समझने में भी परिलक्षित होती है। तब कितना भी बड़ा लेखक (?) हो अगर यह सोचकर अपनी बात दावे से कहता है कि उसका विचार अंतिम है तो वह गलती पर है। अंतर्जाल पर लिखने और पढ़ने की स्वतंत्रता है और अगर आप किसी को बड़ा लेखक या बुद्धिजीवी कर उसके विचार प्रस्तुत करते हैं तो यहां कोई भी लिख सकता है कि ‘अमुक कौन?‘ ऐसे में आपके कपास एक ही मार्ग बचता है कि दूसरे के विचार व्यक्त करने के दरवाजे बंद रखें पर याद रखें वह तीसरे से कुछ लिखवाकर वहां लिख कर अपनी भंड़ास निकालेगा।
बहरहाल अभी तक हिंदी के कुछ बड़े प्रदेशों मध्यप्रदेश,राजस्थान,छत्तीसगढ़,हरियाणा तथा अन्य प्रदेशों के लेखकों और पाठकों को कम ही दृष्टिगत रखा गया है और समय के साथ इन इलाकों के साथ पूरे देश में हिंदी का लेखन और पठनपाठन बढ़ रहा हैं। यहां यह बात याद रखें कि हर प्रदेश की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थतियां अलग अलग हैं और तय बात है कि उनके लेखक और पाठक के स्वभाव और संवेदनाऐं भी वैसे ही हैं। इतना ही नहीं प्रसिद्ध लेखकों के नाम भी अलग हैं। अनेक प्रदेशों के कई ऐसे लेखक हैं जिनको अब अंतर्जाल पर नाम आने से पूरे देश के अंतर्जाल लेखक जान पा रहे हैं।
यह लेखक स्वयं मध्यप्रदेश का है हिंदी में बड़े लेखक जब अपने विचार भाषा और उसके साहित्य पर व्यक्त करते हैं पर तब कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि उनको देश की विविधताओं का आभास नहीं है जिसमें हिंदी भाषा का स्वरूप भी शामिल है। उनकी मानसिकता अभी भी तीन चार प्रदेशों के इर्दगिर्द ही घूम रही है जबकि हिंदी पूरे देश में अपने पांव फैला रही हे पर स्थानीय भाषा के भाव और संवदेनाओं को संजोते हुए। आशय यह है कि हिंदी में सर्वज्ञानी होने का भ्रम तो किसी को नहीं रखना चाहिये। अगर आप हिंदी के विषय में कोई बात कह रहे हैं तो पहले आपको उसकी विविधता का भी ज्ञान होना चाहिये। इस देश में अभी तो कोई ऐसा भाषा ज्ञानी दिख नहीं रहा जिसे विविध हिंदी का ज्ञान हो इसलिये किसी एक की बात को मान लेना गलती करना ही है।
वैसे जो लोग रहीम,कबीर,मीरा,रसखान,सूर तथा भक्तिकाल के अन्य रचयिताओं को हिंदी में पढ़ाये जाने का विरोध कर रहे हैं उनका भाषा के प्रति रुझान कम उनके अध्यामिक और भक्ति से ओतप्रोत समाज को उससे दूर ले जाने में अधिक है। हां, यह सच है कि हिंदी भाषा की दृष्टि से भक्तिकाल अब अधिक प्रासंगिक नहीं है और अगर अब आधुनिक हिंदी का स्थापित करना चाहते हैं तो उसकी रचनाओं को ही प्रोत्साहन देना होगा। जहां तक भक्ति या स्वर्ण काल की रचनाओं से लोगों को जोड़े रखने का प्रश्न है तो उसके लिये एक अध्यात्मिक हिंदी का विषय सभी जगह पढ़ाया जाना चाहिये। शायद स्वतंत्रता के बाद हिंदी के विद्वान यही करते पर जिस तरह कुछ लोगों ने भारतीय अध्यात्म को लोगों से दूर करने की मांग की होगी तो भक्तिकाल की रचनाओं को हिंदी से जोड़ा गया। एक बात तय है कि उनकी रचनाओं को शैक्षणिक काल में ही पढ़ाया जाना चाहिये चाहे किसी भी रूप में भले ही हिंदी के विषय के रूप में नहीं।
वैसे कुछ लोग जो समाज, संस्कृति, और समाज की रक्षा को लेकर चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। संभव है कालांतर में इनको हिंदी में क्या किसी विषय में नहीं पढ़ाया जाये पर भारतीय समाज से भक्ति काल के रचयिताओं के अघ्यात्म ज्ञान और भक्ति से परिपूर्ण रचनाओं को दूर नहीं किया जा सकता। क्या संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण,महाभारत,श्रीमद्भागवत तथा वेदों को भारतीय समाज से दूर किया जा सका भले ही उनको शैक्षणिक विषयों के रूप में पढ़ाया नहीं जाता। हालांकि भक्तिकाल की रचनाओं में जो रस है उससे भारतीय समाज को अब दूर करना उसके साथ अन्याय होगा। जहां तक उनके विरोध का सवाल है तो वह कभी खत्म नहीं होगा क्योंकि देश की संपूर्ण क्षेत्रों में उनका समान प्रभाव है क्योंकि उनमें जीवन और प्राकृतिक रहस्यों को बहुत सहजता से प्रस्तुत किया गया है। भक्तिकाल के रचयिताओं का भाषा की दृष्टि से कम बल्कि अध्यात्मिक दृष्टि से अधिक योगदान है। उससे भाषा के विस्तार में कम आधुनिक और आत्मविश्वासी समाज के निर्माण में अधिक मदद मिली और इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिये। भक्तिकाल के रचयिताओं के प्रति लेखक के हृदय में सम्मान भाषा के कारण नहीं बल्कि उनकी विषय सामग्री के कारण है।
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