श्रीगुरुग्रंथ साहिब से-सच्चे भक्त का व्यवहार भी मधुर होता है (shri gurugrantha sahbis se-sachche bhakt ka vyavahar)


‘भगता की चाल निराली। चाला निराली भगताह केरी, विखम मारगि चलणा। लबु लोभु अहंकारु तजि तृस्ना, बहुतु नाही बोलणा।।
          हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार भगवान के भक्त की चाल निराली होती है। सद्गुरु के प्रति उसकी यह अनन्य भक्ति उसे ऐसे विषम मार्ग पर चलने में भी सहायता करती है जो आम इंसान के लिए असहज होते हैं। वह लोभ, अहंकार तथा कामनाओं का त्याग कर देता है। कभी अधिक नहीं बोलता।
‘जै को सिखु, गुरु सेती सनमुखु हौवे। होवै त सनमुखु सिखु कोई, जीअहु रहै गुरु नालै।।
     हिन्दी में भावार्थ-
श्रीगुरुवाणी के अनुसार जो सिख गुरु के समक्ष उपस्थित होता है और चाहता है कि उनके समक्ष कभी शर्मिंदा न होना पड़े तो तो उसके लिये यह आवश्यक है कि गुरु को हमेशा प्रणाम कर सत्कर्म करता रहे।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो सभी लोग भक्ति करते हैं पर जिनके मन में ईश्वर के प्रति अगाध निष्ठा है उनकी चाल आम इंसानों से अलग हो जाती है। वह दुःख सुख और मान अपमान में सम रहते हैं। वह अपने जीवन में अनेक ऐसे कष्टों का सहजता से समाना कर लेते हैं जो सामान्य इंसान के लिये कठिन काम होता है। इसलिये कहा जाता है कि भक्ति में शक्ति होती है। जब तक यह देह है तब तक सांसरिक संकट तो आते ही रहेंगे। उसके साथ ही सुख के पल भी आते हैं पर सामान्य मनुष्य केवल उनको ही चाहता है। मगर संसार का नियम है। सूरज डूबता है तो अंधेरा होता है और वह फिर सुबह होती है। संसार का यह निमय मनुष्य की देह पर भी लागू होता है। यह सत्य भक्त जान लेते हैं। उनको पता होता है कि अगर अच्छा वक्त नहीं रहा तो यह खराब भी नहीं रहेगा। इसलिये वह सहज हो जाते हैं। इसके विपरीत जो भक्ति और प्रार्थना से दूर रहते हैं वह अध्यात्मिक ज्ञान नहीं समझ पाते इसलिये थोड़े कष्ट या बीमारा में हाहाकार मचा देते हैं जो अंततः मानसिक रूप से तोड़ देता है। इसके विपरीत भक्त लोग हमेशा ही अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर  athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior http://zeedipak.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग 1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका 2.शब्दलेख सारथि 3.दीपक भारतदीप का चिंतन

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