कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपना सम्मान बढ़ाने के लिये पाखंड करना अनुचित


         आधुनिक समाज में प्रचार तंत्र का बोलबाला है। फिल्म हो या टीवी इनमें अपना चेहरा देखने और दिखाने के लिये लोगों के मन में भारी इच्छा रहती है।  यही कारण है कि लोग अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये तमाम तरह के पाखंड करते हैं।  हमारे देश में लोग धर्मभीरु हैं इसलिये अनेक पाखंडी धार्मिक पहचान वाले वस्त्र पहनकर उनके मन पर प्रभाव डालते हैं। अनेक गुरु बन गये हैं तो उनके शिष्य भी यही काम कर रहे हैं।  कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसे बिडाल वृत्ति कहा गया है। मूल रूप से धर्म अत्यंत निजी विषय हैं।  दूसरी बात यह है कि सांसरिक विषयों में लिप्त लोगों से यह अपेक्षा तो करना ही नहीं चाहिये कि वह धर्माचरण का उदाहरण प्रस्तुत करें।  सार्वजनिक स्थानों पर धर्म की चर्चा करना एक तरह से उसका बाजारीकरण करना है।  इससे कथित धर्म प्रचारकों को धन तथा प्रतिष्ठा मिलती है।  सच्चा धार्मिक आदमी तो त्यागी होता है। उसकी लिप्पता न धन में होती है न प्रतिष्ठा पाने में उसका मोह होता है।  उसकी प्रमाणिकता उसके मौन में होती है न कि जगह जगह जाकर यह बताने कि वह धर्म का पालन कर रहा है तो दूसरे भी करें।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है
———————
अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविलीतश्च बक्रवतवरो द्विजः।।

         हिन्दी में भावार्थ-उस द्विज को बक वृत्ति का माना गया है जो असत्य भाव तथा अविनीत हो तथा जिसकी नजर हमेशा दूसरों को धन संपत्ति पर लगी रहती हो जो हमेशा बुरे कर्म करता है सदैव अपना ही कल्याण की  सोचता हो और हमेशा अपने स्वार्थ के लिये तत्पर रहता है।

धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाद्मिका  को लोकदम्भका।
बैडालवृत्तिको ज्ञेयो हिंस्त्र सर्वाभिसन्धकः।।

      हिन्दी में भावार्थ-अपनी प्रतिष्ठा के लिये धर्म का पाखंड, दूसरों के धन कर हरण करने की इच्छा हिंसा तथा सदैव दूसरों को भड़काने के काम करने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।

 

         जैसे जैसे विश्व में धन का प्रभाव बढ़ रहा है धर्म के ध्वजवाहकों की सेना भी बढ़ती जा रही है।  इनमें कितने त्यागी और ज्ञानी हैं इसका आंकलन करना जरूरी है।  अध्यात्मिक और धर्म ज्ञानी कभी अपने मुख से ब्रह्म ज्ञान का बखान नहंी करते। उनका आचरण ही ऐसा होता है कि वह समाज के लिये एक उदाहरण बन जाता है।  उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ही धर्म की पोथी का निर्माण करता है।  अगर उनसे आग्रह किया जाये तो वह संक्षिप्त शब्दों में ही अध्यात्मिक ज्ञान बता देते हैं।  जबकि आजकल पेशेवर ज्ञान  प्रवचक घंटों भाषण करने के बादी श्रोताओं को न तो धर्म का अर्थ समझा पाते हैं न उनके शिष्य कभी उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे धर्मोदेशक होते हुए भी हमारा समाज भटकाव की राह पर है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

 

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आस्था और विश्वास-हिन्दी शायरी


आस्था का रूप
कभी बाहर दिखाया नहीं जाता,
विश्वास का दावा
कभी कागज पर लिखाया नहीं जाता।
कहें दीपक बापू
नीयत से हैं जो फरिश्ते
वह कभी
अपने काम का ढिंढोरा नहीं पीटते,
बदनीयत करते इंसान होने का दावा
मगर जज़्बातों को मतलब के लिये पीसते,
जहान को बर्बाद कर
अपने लिये एय्याशी खरीदने वालों को
जिंदगी का कायदा कभी सिखाया नहीं जाता।
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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चमत्कार को नमस्कार-हिन्दी हास्य कविताएँ (chamatkar ko namaskar-hindi hasya kavitaen


पहुंचे लोगों के चमत्कारों से
मुर्दों में जान फूंकने के किस्से
बहुत सुने हैं
पर देखा एक भी नहीं हैं,
जमाने में फरिश्ते की तरह पुज रहे
कई शातिर लोग बरसों से
मगर कोई मुर्दा उनके सच का
सबूत देने आते देखा नहीं है।
अक्ल इंसानों में ज्यादा है
फिर भी फँसता है वहमों के जाल में
जहां देखता है फायदे का दाव
सोचना बंद कर
झूठे ख्वाब सजाता वहीं है।
————–
एक सिद्ध के दरवाजे कुत्ता खड़ा था
शागिर्द ने उसे पत्थर मारकर भगा दिया।
तब सिद्ध ने उससे कहा
“तुमने अच्छा किया
कुत्ते को हटाकर
क्योंकि कोई भी जानवर
चमत्कारों पर यकीन नहीं करता,
इसलिए फिर ज़िंदा नहीं होता
अगर एक बार मरता,
उनमें अक्ल नहीं होती
जिससे हम उसे बहका सकें,
उसकी आँखों के सामने
पर्दे के पीछे सच को ढँक सकें,
सर्वशक्तिमान भी सोचता होगा
मैंने जानवरों को इंसानों से कमतर क्यों किया,
अक्ल देते समय उनका हिस्सा इंसान को दिया।
——————
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 
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अमन और खूनखराबा-हिन्दी शायरी (amana aur khoonkharaba-hindi shayari)


वह बम फटाखे की तरह
और बंदूक फुलझड़ी जैसे जलाएँ,
हम श्रद्धांजलि के लिए मोमबती जलाकर
सहानुभूति के रोते हुए गीत गायें।
इस जहाँ में खून खराबे के
सौदागरों के बाज़ार भी सजाते हैं,
उनके कारिंदे भी अमन के चमन में
फूलों की तरह सजते हैं,
हालात ऐसे हैं कि
हम इधर रह नहीं सकते
लाचारी हैं कि उधर जाएँ।
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जिम्मेदारी में कमीशन-हिन्दी कविता (jimmedar aur commision-hindi kavita)


जिम्मेदारी वह सारे समाज की यू ही नहीं उठाते,
मिलता कमीशन, खरीदकर घर का सामान जुटाते।
बह रही  दौलत की नदियां, उनके घर की ओर,
दरियादिल दिखने के लिये, वह कुछ बूंदें भी लुटाते।
न कहीं शिकायत होती, न करता कोई फरियाद
भाग्य का तोहफा समझ सभी अपने हिस्से उठाते।
लग चुकी है ज़ंग लोगों के सोचने के औजारों में
तयशुदा लड़ाई है, खड़े यूं ही हाथ में तलवार घुमाते।

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हिन्दी शायरी-ताज और दौलत (hindi shayari-taj aur daulat)


जिनको पहनाया ताज़
वही दौलत के गुलाम हो गये,
जिन ठिकानों पर यकीन रखा
वही बेवफाई की दुकान हो गये।
किसे ठहरायें अपनी बेहाली का जिम्मेदार
दूसरों की कारिस्तानियों से मिली जिंदगी में ऐसी हार
कि अपनी ही सोच पर
ढेर सारे शक और
मुंह से निकलते नहीं लफ्ज़
जैसे कि हम बेजुबान हो गये।
———-
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उनको सलाम नहीं किया था-हिन्दी शायरी (unko salam nahin kiya tha-hindi shayri)


यूं तो उठाया था बोझ हमने भी
उनका सामान घर तक पहुंचाने का
मगर उन्होंने दाम नहीं दिया था,
उनकी नज़रें इनायत रही चमचों पर
हमने पाई बेकद्री
क्योंकि उनको सलाम नहीं किया था।
————
कौन कहता है कि
प्यार करने से पत्थर भी पिघल जाता है,
सच तो यह है कि
कितना भी पुचकारो
पर मतलब न निकले तो
इंसान पत्थर हो जाता है।
————–

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आज़ादी का दिन और स्वयं का तंत्र-व्यंग्य कविता (azadi ka ek din-satire poem in hindi)


फिर एक दिन बीत जायेगा,
साल भर तो गुलामों की तरह गुजारना है,
में आह्लाद पैदा होने की बजाय
खून खौलता है
जब कोई आज़ादी का मतलब नहीं समझा पाता।
एक शब्द बन गया है
जिसे आज़ादी कहते हैं,
उसके न होने की रोज होती है अनुभूति,
खत्म कर देती है
शहीदों के प्रति हृदय की सहानुभूति,
फड़क उठते हैं हाथ जंग के लिए हाथ
जो फिर अपनी कामनाओं के समक्ष लाचार हो जाते हैं,
जब स्वयं का तंत्र ही ज़ल्लादों के हाथ में
फांसी की तरह लटका नज़र आता है।
————
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आदमी स्वयं भ्रम में फंसा नजर आता-हिन्दी कविता


यूं तो वक्त गुजरता चला जाता
पर आदमी साथ चलते पलों को ही
अपना जीवन समझ पाता
गुजरे पल हो जाते विस्मृत
नहीं हिसाब वह रख पाता

कभी दुःख तो कभी होता सुख
कभी कमाना तो कभी लुट जाना
अपनी ही कहानियां मस्तिष्क से
निकल जातीं
जिसमें जी रहा है
वही केवल सत्य नजर आती
जो गुजरा आदमी को याद नहीं रहता
अपनी वर्तमान हकीकतों से ही
अपने को लड़ता पाता

हमेशा हानि-लाभ का भय साथ लिये
अपनों के पराये हो जाने के दर्द के साथ जिये
प्रकाश में रहते हुए अंधेरे के हो जाने की आशंका
मिल जाता है कहीं चांदी का ढेर
तो मन में आती पाने की ख्वाहिश सोने की लंका
कभी आदमी का मन अपने ही बोझ से टूटता
तो कभी कुछ पाकर बहकता
कभी स्वतंत्र होकर चल नहीं पाता

तन से आजाद तो सभी दिखाई देते हैं
पर मन की गुलामी से कोई कोई ही
मुक्त नजर आता
सत्य से परे पकड़े हुए है गर्दन भौतिक माया
चलाती है वह चारों तरफ
आदमी स्वयं के चलने के भ्रम में फंसा नजर आता
……………………………….

लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

यह कवितापाठ मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की अनुभूति पत्रिका’ पर लिखा गया है। इस पर कोई विज्ञापन नहीं है। न ही यह किसी वेबसाइट पर प्रकाशन के लिये इसकी अनुमति दी गयी है।
इस लेख के अन्य बेवपत्रक/पत्रिकाएं नीचे लिखी हुईं हैं
1. अनंत शब्दयोग
2.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की हिंदी पत्रिका
कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

वेलेंटाइन डे और भारतीय संस्कृति-हिन्दी लेख (hindi article on valentain day)


कल एक टीवी चैनल पर प्रसारित खबर एक खबर के अनुसार सऊदी अरब में वेलेंटाइन डे पर उसे मनाने से रोकने के लिए कड़े प्रतिबन्ध लगाए गए-गुलाब के फूलों की बिक्री रोकी गयी और लाल रंग के कागज़ के रैपर में उपहार बेचने पर पाबंदी लगाई गयी. हमारे देश में भी कई लोग इसका विरोध करते हैं और उसे रोकने के लिए वह उपाय करते हैं जो मेरे विचार से अनुचित है. वेलेंटाइन डे पर कल मैंने दो हास्य कवितायेँ लिखीं थी और मैं इसका विरोध या समर्थन करने की बजाय इसकी उपेक्षा करने का पक्षधर रहा हूँ. मेरे लिए इसे मनाने वाले हंसी के पात्र हैं एक तरह से प्यार का ऐसा नाटक करते हैं जिसके बारे में वह खुद नहीं जानते.

मैं इस बात के विरुद्ध हूँ कि किसी को ऐसे कार्य से जबरदस्ती रोका जाये जिससे किसी दूसरे को कोई हानि होती है. स्पष्टत: मैं वेलेंटाइन डे का पक्षधर नहीं हूँ और कभी-कभी तो लगता है कि इसके विरोधियों ने ही इसको प्रोत्साहन दिया है. यह पांचवां वर्ष है जब इसे इतने जोश-खरोश से मनाया गया. इससे पहले क्यों नहीं मनाया जाता था? साफ है कि इलेक्ट्रोनिक प्रचार माध्यमों को रोज कुछ न कुछ कुछ चाहिए और वह इस तरह के प्रचार करते हैं. होटलों और अन्य व्यवसायिक स्थानों पर युवा-युवतियों की भीड़ जाती है. पार्क और अन्य एकांत स्थान पर जब खतरे की आशंका देखते हैं तो वह पैसा खर्च करते हैं. आखिर उसका फायदा किसे होता है?
हमारे में से कई ऐसे लोग होंगे जिन्होंने आज से दस वर्ष पूर्व वेलेंटाइन डे का नाम भी सुना हो. अब उसका समर्थन और विरोध अजीब लगता है. जहाँ तक देश की संस्कृति और संस्कार बचाने का सवाल है तो मुझे जबरन विरोध कोई तरीका नजर नहीं आता. इससे तो उसे प्रचार ही मिलता है. फिर आम आदमी जो इसे नहीं जानता वह भी इसका नाम लेता है. कई लोगों ने इसका आपसी चर्चा में जिक्र किया और मैंने सुना. मुझे लगता है कि इस तरह इसे और प्रचार मिला.

जहाँ तक संस्कृति और संस्कार बचाने का सवाल है तो मैं इसे भी वाद और नारों में लिपटे शब्दों की तरह देखता हूँ. आप यह कह सकते हैं कि मैं हर विषय पर वाद और नारों से जुडे होने की बात क्यों लिखता हूँ. तो जनाब आप बताईये कि बच्चों को संस्कार और संस्कृति से जोड़ने का काम किसे करना चाहिऐ-माता-पिता को ही न! इस तरह जबरन विरोध कर आप यह स्वीकार कर रहे हैं कि कुछ लोग हैं जो इस काम में नाकाम रहे हैं. दूसरी बात आखिर संस्कारों और संस्कृति का व्यापक रूप लोगों के दिमाग में क्या है यह आज तक कोई नहीं बताया. बस बचाना है और शुरू हो जाते हैं. आखिर इसकी उपेक्षा क्यों नहीं कर देते. एक दिन के विरोध से क्या हम समाज में जो नैतिकता का पतन हुआ है उसे बचा सकते हैं? कतई नहीं, क्योंकि हम अपने समाज के उस खोखलेपन को नहीं देख रहे जो इसे ध्वस्त किये दे रहा है. देश में कन्या के भ्रूण हत्या रोकने के लिए कई अभियान चल रहे हैं पर उसमें कामयाबी नहीं मिल रही है. जिस दहेज़ प्रथा को हम सामान्य मानते हैं उससे जो विकृति आई है उस पर कभी किसी ने सोचा है?इसने समाज को बहुत बुरी तरह खोखला कर दिया है.

हम सऊदी अरब द्वारा लगाए प्रतिबन्ध की बात करें. वहाँ कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं है वहाँ भी इस बीमारी ने अपने कदम रखे हैं तो इसका सीधा मतलब यही है कि बाजार एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पूंजीवर्ग के सदस्य ही विजय श्री प्राप्त करते है. इस प्रसंग में एक बात जो महत्वपूर्ण बात यह है कि सऊदी अरब में एक धार्मिक राज्य होते हुए भी वहाँ क्यों लोग इसके प्रति आकर्षित हुए? विश्व में उदारीकरण के नाम पर बाजार के ताकतवर लोगों के द्वार सब जगह खुले हैं पर आम आदमी के लिए नहीं. इसलिए बाजार की व्यवस्था वह सब परंपराएं और विचार लेकर आगे बढ़ रही है जो उसके लिए आय के स्त्रोत बना सकते हैं.
इसका मुकाबला करना है तो उसके लिए उन लोगों को खुद दृढ़ हो होना पडेगा जिन पर अपने बच्चों पर संस्कार डालने की जिम्मेदारी है. अपने घर और बाहर अपने बच्चों को अपने आध्यात्म से अवगत कराये बिना उनको ऐसे हास्यास्पद काम से दूर नहीं रखा जा सकता. सुबह और शाम आरती जो लोग पहले करते थे उसे फिजूल मानकर अब छोड़ दिया गया है पर आदमी के मन में संस्कार भरने का काम उसके द्वारा किया जाता था वह अनमोल था. कभी बच्चे को मंदिर ले जाया जाता था तो कभी तीज-त्यौहार पर बडों के चरण स्पर्श कराये जाते थे. अब सब बातें छोड़ उसे अपना काम सिद्ध करने का ज्ञान दिया जाता है और फिर जब वह छोड़ कर बाहर चला जाता है तो अकेलेपन के साथ केवल उसकी यादें रह जातीं हैं.

संस्कारों और संस्कृति के नाम पर वह फसल हम लहलहाते देखना चाहते हैं जिसके बीज हमें बोये ही नहीं. आखिर हमारे संस्कारों और संस्कृति की कौनसी ऐसी फसल खड़ी है जिसे बचाने के लिए हम हवा में लट्ठ घुमा रहे हैं. अपने आध्यात्म से परे होकर हमें ऐसी आशा नहीं करना चाहिए. याद रखना पूरी दुनिया भारत की आध्यात्मिक शक्ति का लोहा मानती है पर अपने देश में कितने लोग उससे परिचित हैं इस पर विचार करना चाहिए.