कबीर वाणी-प्यार को सही ढंग से कोई नहीं समझता(kabir vani-pyar ka gyan)



प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।

गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में आजकल प्रेम पर बहुत कुछ दिखाया और लिखा जाता है। यह प्रेम केवल स्त्री पुरुष के निजी संबंध को ही प्रोत्सािहत करता है। हालत यह हो गयी है कि अप्रत्यक्ष रूप से विवाहेत्तर या विवाह पूर्व संबंधों का समर्थन किया जाने लगा है। यह क्षणिक प्रेम एक तरह से वासनामय है मगर आजकल के अंग्रेजी संस्कृति प्रेमी और नारी स्वतंत्रता के समर्थक विद्वान इसी प्रेम मेंें शाश्वत जीवन की तलाश कर हास्यास्पद दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक मजे की बात यह है कि एक तरफ सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन करने की प्रवृति को स्वतंत्रता के नाम पर प्रेमियों की रक्षा की बात की जाती है दूसरी तरफ प्रेम को निजी मामला बताया जाता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सब धर्मों से प्रीति का धर्म बड़ा है। अब अगर उनसे पूछा जाये कि इसका स्वरूप क्या है तो कोई बता नहीं पायेगा। इस नश्वर शरीर का आकर्षण धीमे धीमे कम होता जाता है और उसके साथ ही दैहिक प्रेम की आंच भी धीमी हो जाती है।

वैसे सच बात तो यह है कि प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है क्योंकि वह अनश्वर है। हमारी आत्मा भी अनश्वर है और उसका प्रेम उसी से ही संभव है। परमात्मा से प्रेम करने पर कभी भी निराशा हाथ नहीं आती जबकि दैहिक प्रेम का आकर्षण जल्दी घटने लगता है। जिस आदमी का मन भगवान की भक्ति में रम जाता है वह फिर कभी उससे विरक्त नहीं होता जबकि दैहिक प्रेम वालों में कभी न कभी विरक्ति हो जाती है और कहीं तो यह कथित प्रेम बहुत बड़ी घृणा में बदल जाता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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रहीम के दोहेःईश्वर का वर्णन कोई नहीं कर सकता


रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं
जो जानत सो कहत नहिं, कहत त जानत नाहिं

कविवर रहीम कहते हैं कि परमात्मा का वर्णन करना कठिन है। उसका स्वरूप अगम्य है और कहना सुनना कठिन है जो जानते हैं वह कहते नहीं हैं जो कहते हैं वह जानते नहीं।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सच तो यह है कि परमात्मा के स्वरूप कोई समझ नहीं सकता । उसकी व्याख्या हर कोई अपने अनुसार हर कोई करता है पर वास्तविकता का वर्णन करना कठिन है। अनेक लोग अपने अनुसार भगवान के स्वरूप की व्याख्या करते है। पर सच तो यह है कि उनके स्वरूप का वर्णन कहना और सुनना कठिन है। उनको तो केवल भक्ति से ही धारण किया जा सकता है। परमात्मा का चरित्र वर्णनातीत है और सच्चे भक्त इस बात को जानते हैं पर कहते नहीं है और जो कहते हैं वह जानते नहीं है। अनेक लोग परमात्मा के अनेक स्वरूपों में से हरेक के जीवन चरित्र पर व्याख्या करते हुए अपना ज्ञान बघारते हैं पर सच तो यह है कि यह उनका व्यवसाय है और वह उसके बारे में कुछ नहीं जानते हैं। उनके वास्तविक स्वरूप को सच्चे भक्त ही जानते हैं पर वह उसका बखान कर अपने अहंकार का प्रदर्शन नहीं करते। अनेक लोग तमाम तरह की खोज का दावा करते हैं तो कुछ लोग कहीं एकांत में तपस्या कर सिद्धि प्राप्त कर फिर समाज में अपना अध्यात्मिक सम्राज्य कायम करने के लिये जुट जाते हैं। ऐसे ढोंगी लोग परमात्मा के स्वरूप का उतना ही बखान करते है जितने से उनका हित और आय का साधन बनता हो।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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