पुरुष को बैल बनाने में ही देखते नारी की शान-व्यंग्य ग़ज़ल


लोगों में सोच जगाने के लिये चला रहे सभी अभियान।
किताबों के गुलाम मिटाने निकले हैं गुलामी के निशान।।

नारी स्वतंत्रता का नारा लगाते हुए वह मुस्कराते हैं
गृहस्थी में पुरुष को बैल बनाने में ही देखते नारी की शान।।

पूरी जिंदगी दिखाया समाज को उन्होंने नया रास्ता
अपनी सोच से पैदल रहे,पराये ख्याल पर पाया सम्मान।।

मसीहा बनने की चाहत में ओढ़ लिया अपने आगे अंधेरा
अमन में इधर उधर ढूंढते हैं, जमाने में जंग के पैगाम।।

काट कर लोगों को कर दिया पहले अलग अलग
फिर मांगने निकले है लोगों से एकता का दान।।

कहैं दीपक बापू, बड़े बन गये कई छोटी सोच के कई लोग
चेहरे उनके पर्दे पर चमकते दिखते, पर डोलता लगता ईमान।।

………………………………

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फरेबी भी बदनाम होकर नाम तो पा जाते हैं-व्यंग्य कविता


अपनी काबलियत पर न इतना इतराओ
इनाम यहां यूं ही नहीं मिल जाते हैं
भीख मांगने का भी होता है तरीका
लूटने के लिये भी चाहिए सलीका
लोगों की नजरें अब देख नहीं
जब कहीं बवंडर नहीं होता
समंदर भर आंसु बहाकर
जब तक कोई नहीं रोता
काबलियत को कर दो दरकिनार
फरेबी भी बदनाम होकर भी
यहां नाम तो पा जाते हैं
शौहरत होना चाहिये
अच्छा बुरा आदमी भला
लोग कहां देखने आते हैं
अगर नहीं है तुम्हारा झूठ का रास्ता
तो नहीं हो सकता इनाम से वास्ता
अपनी नजरों से न गिरो यह भी कम नहीं
देखने और कहने वालों का क्या
इंसानों की याद्दाश्त होती कमजोर
पल भर को देखकर फिर भूल जाते हैं
भलेमानस इसलिये ही
अपनी राह चले जाते हैं

………………………………………
वह खुद हैं राह में भटके हुए
एक ही ख्याल पर अटके हुए
बताते हैं उन लोगों को रास्ता
हवस के पेड़ पर जो लटके हुए
———————-

पर्दे पर चलचित्र देखकर
ख़्वाबों में न खो जाया करो
जो मरते दिखते हैं
वह फिर जिदा हो जाया करते हैं
जो मर गए
वह भी कभी कभी जिदा
नजर आया करते हैं
माया नगरी में कहीं सत्य नहीं बसता
जेब हो खाली तो
देखने के लिए कुछ नहीं बचता
रंगबिरंगे चेहरों के पीछे हैं
काले चरित्र के व्यक्तित्व का मालिक
देखो तो, दिल बहला लेना उनको देखकर
फिर अपनी असली दुनिया में लौट आया करो

——————————————
वह हमारे दिल से
यूं खेलते रहे जैसे कोई खिलौना हो
हमने पाला था यह भ्रम कि
शायद उनके दिल में हमारे लिये भी कोई कोना हो
मगर कोई उम्मीद नहीं की थी
क्योंकि यह सच भी जानते थे कि
दिखाने के लिये
यहां सभी मोहब्बत करते हैं
अपने मतलब के लिये ही
सब साथ चलते हैं
दिखते हैं कद काठी से कैसे
यह अब सवाल करना है बेकार
पर लगता है जैसे
यहां हर आदमी का चरित्र बौना हो

………………………………….

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पढ़कर कितना समझते-हास्य हिन्दी शायरी


आम इंसानों की तरह
रोज जिंदगी गुजारते हैं
पर आ जाता है
पर सर्वशक्तिमान के दलाल
जब देते हैं संदेश
अपना ईमान बचाने का
तब सब भूल जाते हैं
दिल से इबादत तो
कम ही करते हैं लोग
पर उसके नाम पर
जंग करने उतर आते हैं
कौन कहता है कि
दुनियां के सारे धर्म
इंसान को इंसान की
तरह रहना सिखाते
ढेर सारी किताबों को
दिल से इज्जत देने की बात तो
सभी यहां करते हैं
पर उनमें लिखे शब्द कितना पढ़ पाते हैं
पढ़कर कितना समझते
इस पर बहस कौन करता है
दूसरों की बात पर लोग
एक दूसरे पर फब्तियां कसने लग जाते हैं।
…………………………………

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हमदर्दी जताने का ख्याल-हिन्दी शायरी


अपनों में गैर
और गैरों में अजनबी हो जाना
कितना सताता है
जब आदमी अपने को अकेला पाता है

भरी दोपहर में
शरीर से बहता पसीना
चलते जा रहे पांव
चंद पलों के मन के सुख की खातिर
जिस घर के अंदर झांका
वहीं जंग का मैदान पाता है

मांगने पर थोड़ा प्यार
इतराने लगते हैं लोग
देते हैं नसीहतें तमाम
पर चंद प्यार के लफ्ज बोलकर
हमदर्दी जताने का ख्याल
किसी को नहीं आता है

ऊपर से बरसाता आग सूरज
नीचे जलती धरती
नंगे पांव चलता आदमी
ढूंढता है सभी जगह मन की शीतलता
पर भी नजर डाले
लोगों का मन छल से भरा
स्वयं को ही धोखा देता नजर आता है

कुछ पल प्यार की चाह
जलते पांव के लिये शीतलता की राह
मांग कर अपने आपको
शर्मिंदा करने से तो
जलती आग मे चलते रहना ही भाता है
भला आदमी भी कभी आदमी को
सुख के पल दे पाता है
…………………………….
उस महफिल में चंद पल सुकून से
बिताने की खातिर रखा था कदम
हमें मालुम नहीं था दिलजलों ने
अपने लिये उसे सजाया हैं
उनके मसले देखकर ख्याल आया कि
इससे तो घर ही अच्छे थे हम
पहले भी कम नहीं थे साथ हमारे
वहां से बेआबरू होने का लेकर लौटे गम
………………………………..

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सच को छिपाना कठिन-हिंदी शायरी


सत्य से जितनी दूर जाओगे
भ्रम को उतना ही करीब पाओगे
खवाब भले ही हकीकत होने लगें
सपने चाहे सामने चमकने लगें
उम्मीदें भी आसमान में उड़ने लगें
पर तुम अपने पाँव हमेशा
जमीन पर ही रख पाओगे

झूठ को सच साबित करने के लिए
हजार बहानों की बैसाखियों की
जरूरत होती है
सच का कोई श्रृंगार नहीं होता
कटु होते हुए भी
उसकी संगत में सुखद अनुभूति होती हैं
कब तक उससे आंखें छिपाओगे
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समाज की इमारत में आदमी पत्थर की तरह लग जाते-कविता साहित्य


हर पल लोगों के सामने
अपना कद बढाने की कोशिश
हर बार समाज में
सम्मान पाने की कोशिश
आदमी को बांधे रहती है
ऐसे बंधनों में जो उसे लाचार बनाते

ऐसे कायदों पर चलने की कोशिश जो
सर्वशक्तिमान के बनाए बताये जाते
कई किताबों के झुंड में से
छांटकर लोगों को सुनाये जाते
झूठ भी सच के तरह बताते

सब जानते हैं कि भ्रम रचे गए
आदमी को पालतू बनाने के लिए
उड़ न सके कभी आजाद पंछी की तरह
फिर भी कोई नहीं चाहता
अपने बनाए रास्ते पर चलना
क्योंकि जहाँ तकलीफ हो वहाँ चिल्लाते
जहाँ फायदा हो वहाँ हाथ फैलाकर खडे हो जाते
समाज कोई इमारत नहीं है
पर आदमी इसमें पत्थर की तरह लग जाते

आदमी अकेला आया है
और अकेला ही जाता भी
पर ताउम्र उठाता है ऐसे भ्रमों का बोझ
जो कभी सच होते नहीं दिख पाते
लोग पंछियों की तरह उड़ने की चाहत लिए
इस दुनिया से विदा हो जाते

—————————–

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क्यों नहीं देते सुखद अहसास

हाथ के स्पर्श से किसी के बदन को
तसल्ली मिलती है तो
उसे छूकर क्यों नहीं देते सुखद अहसास
चंद अल्फाजों से किसी के दिल को
हमदर्दी मिल जाती है
तो अपनी जुबान से बोलकर
क्यों नहीं देते किसी को सुखद अहसास
अपने देखने से किसी को
अच्छा लगता है
तो क्यों नहीं अपनी नजरें इनायत कर
किसी को क्यों नहीं देते अहसास
क्या डरते हैं
अपने से लड़ते हैं
सोचते हैं
किसी को सुखी देख
परेशान होगा मन
ए जिन्दगी को आकाश वाले का तोहफा
माननी वालों
दुख से सजा है यह उसका तोहफा
इसे मिलजुलकर सुख बना दो
इसलिए अक्ल दी है
बांटकर एक दूसरे का दुख-दर्द
क्यों नहीं देते एक दूसरे को सुख का अहसास

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कहने वाले का कहना ही है व्यापार-व्यंग्य कविता


एक सपना लेकर
सभी लोग आते हैं सामने
दूर कहीं दिखाते हैं सोने-चांदी से बना सिंहासन

कहते हैं
‘तुम उस पर बैठ सकते हो
और कर सकते हो दुनियां पर शासन

उठाकर देखता हूं दृष्टि
दिखती है सुनसान सारी सृष्टि
न कहीं सिंहासन दिखता है
न शासन होने के आसार
कहने वाले का कहना ही है व्यापार
वह दिखाते हैं एक सपना
‘तुम हमारी बात मान लो
हमार उद्देश्य पूरा करने का ठान लो
देखो वह जगह जहां हम तुम्हें बिठायेंगे
वह बना है सोने चांदी का सिंहासन’

उनको देता हूं अपने पसीने का दान
उनके दिखाये भ्रमों का नहीं
रहने देता अपने मन में निशान
मतलब निकल जाने के बाद
वह मुझसे नजरें फेरें
मैं पहले ही पीठ दिखा देता हूं
मुझे पता है
अब नहीं दिखाई देगा भ्रम का सिंहासन
जिस पर बैठा हूं वही रहेगा मेरा आसन

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जिस घर के अंदर झांका वहीं जंग का मैदान पाता

अपनों में गैर
और गैरों में अजनबी हो जाना
कितना सताता है
जब आदमी अपने को अकेला पाता है

भरी दोपहर में
शरीर से बहता पसीना
चलते जा रहे पांव
चंद पलों के मन के सुख की खातिर
जिस घर के अंदर झांका
वहीं जंग का मैदान पाता है

मांगने पर थोड़ा प्यार
इतराने लगते हैं लोग
देते हैं नसीहतें तमाम
पर चंद प्यार के लफ्ज बोलकर
हमदर्दी जताने का ख्याल
किसी को नहीं आता है

ऊपर से बरसाता आग सूरज
नीचे जलती धरती
नंगे पांव चलता आदमी
ढूंढता है सभी जगह मन की शीतलता
पर भी नजर डाले
लोगों का मन छल से भरा
स्वयं को ही धोखा देता नजर आता है

कुछ पल प्यार की चाह
जलते पांव के लिये शीतलता की राह
मांग कर अपने आपको
शर्मिंदा करने से तो
जलती आग मे चलते रहना ही भाता है
भला आदमी भी कभी आदमी को
सुख के पल दे पाता है
…………………………….
उस महफिल में चंद पल सुकून से
बिताने की खातिर रखा था कदम
हमें मालुम नहीं था दिलजलों ने
अपने लिये उसे सजाया हैं
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श्रमिक पुत्र कभी अभिनेता नहीं बनता-हास्य कविता-व्यंग्य कविता



आज मजदूर दिवस है
आओ सब मिलकर नारे लगायें
जो गरीबों और मजदूरों को भायें
जन कल्याण और न्याय के लिये
जोर से आवाज उठायें
फिर भूल चाहे भूल जायें
एक ही दिन तो सब करना है
फिर कौन पूछेगा कोई कि
हम क्या कर रहे हैं
मजदूर दिवस कोई रोज नहीं आता
जो कोई फिक्र करें कि
उसके बाद भी कुछ करना होगा
फिर तो पूर वर्ष
न नारे होंगे न कोई सभायें
फिर क्यों घबड़ायें
…………………………..

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पत्थर तोडने वाले मजदूर की बेटी से
खेलते हुए दूसरे मजदूर के बेटे ने कहा
‘‘मै तो बड़ा होकर हीरो बनूंगा’
उसने कहा
‘‘अब ठहर गया है जमाना
समय बदलता है यह सत्य है
पर कितना भी बदले
मजदूर का बेटा हीरो नहीं बनता है
सब जगह यही है हाल
यहां आदमी अब मां के पेट से बनता है
मजदूर का बेटा चाहे कितना भी कर ले
वह समाज में हीरो नहीं बनता है
………………………….

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जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी उड़ा ले जाते हैं-हिन्दी शायरी


मोहब्बत में साथ चलते हुए
सफर हो जाते आसान
नहीं होता पांव में पड़े
छालों के दर्द का भान
पर समय भी होता है बलवान
दिल के मचे तूफानों का
कौन पता लगा सकता है
जो वहां रखी हमदर्द की तस्वीर भी
उड़ा ले जाते हैं
खाली पड़ी जगह पर जवाब नहीं होते
जो सवालों को दिये जायें
वहां रह जाते हैं बस जख्मों के निशान
……………………………
जब तक प्यार नहीं था
उनसे हम अनजान थे
जो किया तो जाना
वह कई दर्द साथ लेकर आये
जो अब हमारी बने पहचान थे

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रिश्तों के कभी नाम नहीं बदलते-हिन्दी ग़ज़ल

दुनियां में रिश्तों के तो बदलते नहीं कभी नाम
ठहराव का समय आता है जब, हो जाते अनाम
कुछ दिल में बसते हैं, पर कभी जुबां पर नहीं आते
उनके गीत गाते हैं, जिनसे निकलता है अपना काम
जो प्यार के होते हैं, उनको कभी गाकर नहीं सुनाते
ख्यालों मे घूमते रहते हैं, वह तो हमेशा सुबह शाम
रूह के रिश्ते हैं, वह भला लफ्जों में कब बयां होते
घी के ‘दीपक’ जलाकर, दिखाने का नहीं होता काम

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पैसा लेकर दिल बहलाने के लिए-hindi poem


मनोरंजन के लिए किसी
दृश्य, वस्तु या आदमी की चाहत
इन्सान को मजबूर करती है
इधर-उधर जाने के लिए
बाजार में कई बुत खडे है
पैसा लेकर दिल बहलाने के लिए

भटकते मन को चैन और खुशी
चंद सिक्के दिला देते हैं
जब ऊब जाये हंसने से
मनोरंजन के लिए दहला भी देते हैं
बिकता है मनोरंजन भी
पैसा लेकर दिल बहलाने के लिए

पर कोई ऐसी चीज नहीं मिलती जो
हर पल मन बहला सके
रोज पनपते दर्द को सहला सके
हालत यह होती की
जितने दर्द हल्का कर पाते
वह नये दर्द में जुड़कर चले आते
फिर चले जाते उन ठिकानों पर
जहाँ सजे हैं बाजार
पैसा लेकर दिल बहलाने के लिए

क्यों नहीं तलाशते
अपने मन में ही मनोरंजन
क्यों जाते उन लोगों के पास
जो बेचते नकली दवा दिल की
फिक्र उनको आदमी की नहीं
होती केवल अपने बिल की
कभी गानों की सजाते झूठी महफ़िल
कभी डर की रचना से बहलाते दिल
पूरी जिन्दगी गुजारते हैं
पैसा लेकर दिल बहलाने के लिए
—————————————

हिन्दी के ठेकेदार- हास्य-व्यंग्य कविता


अंतर्जाल पर एकछत्र राज्य की
कोशिश ने कुछ लोगों को अंधा बना दिया
अपने दोस्त लेखकों की भीड़ जुटाकर
सम्मान की एक दुकान को सजा दिया

एक लेखकनुमा ब्लोगर जो
लिख नहीं पाता था कविता
पसंद भी नहीं था पढ़ना
चुन लाया कहीं से तीन सर्वश्रेष्ठ
और अपना फैसला सुना दिया
कवियों के ब्लोग दूर ही रखे गए
तकनीकी वाले जरूरी थे सो पढे गए
लो मैंने अपना फैसला सुना दिया

मच गया शोर
बरसी कहीं से हास्य कवितायेँ
उसके इस काम पर
आ गया वह बचाव पर
देने लगा पुराने वाद और नारे पर बयान
कर रहा था मैं भी वर्ग में बांटकर
ब्लोग लेखकों का सम्मान
पर लोगों ने अनसुना कर दिया

अब आया एक नेतानुमा ब्लोगर
कर लाया कहीं से बीस का जुगाड़
पुराने दोस्तों को सजाया थाली में
जैसे कोई पकवान
इनके लायक ही है सर्वश्रेष्ठ का सम्मान
लोकतंत्र है सो करो मतदान
मैंने तो बीस का थाल सजा दिया

कहैं दीपक बापू
अभी शुरू भी नहीं हुई
इंटरनेट पर हिन्दी के आने की प्रक्रिया
पहुंच गए हैं धंधेबाज पहले ही
और अपना दुकान सजा दिया
हैरान है लोग
जो हिन्दी की ठेकेदार
हर जगह हैं
सन्देश देते हैं
यहाँ हिन्दी का अपमान हुआ है इस पर लिखो
जमकर विरोध करते दिखो
तुम लिखो जैसा हमने सन्देश दिया

क्या ब्लोग तुम्हारी जागीर है
जो थाल सजाये घूम रहे हो
अपनी वीरों को ही क्यों नहीं झोंकते
तुम्हारी फौज में दम नहीं है
जो हिन्दी का अपमान नहीं रोकते
फिर काहे उनको सम्मान दिया
ग़लतफ़हमी मत पालो
नारों और वाद पर हम नहीं भड़कते
लिखते हैं अपने ख्याल खुद
तुम तो पूजते हो
अपने महल सजाते हो दूसरों के सम्मान से
हिन्दी की दुर्दशा पर रोने वालों
लिखने वालों तो जीते हैं अपमान से
फिर भी दमदार लिखते हैं
वह और होंगे जो तुम्हारे सम्मान पर बिकते हैं
हिन्दी लिखने वाले तो दिल से लिखते हैं
उन्हें परवाह नहीं सम्मान तुमने
दिया कि नहीं दिया
—————————

सपने सिर्फ सपने होते-हिन्दी साहित्य कविता


सपने में जब खोये रह्ते
कभी पूरी होंगे यही सोचकर
बहुत कुछ सहते
जब होता है हकीकतों की तपिश से सामना
तब सबके जिस्म जलने लगते

पूरे भी हो जाएं तो भी
सपने वैसे ही नहीं लगते
जिन्हें पालते-पोसते हैं बडे चाव से दिल में
कभी भी वह सपने सच होकर भी
अपनी नहीं लगते
हकीकतों से कब तक मुहँ मोड़ सकता है कोई
पर सपने भी कब पीछा छोड़ते
कभी-कभी जिंदा रहने का बहाना बनते हैं

जब जला देती हैं हकीकतें बदन
तब सपने देखकर ही की जा सकती है तसल्ली
पर उन पर फ़िदा होकर रोना ठीक नहीं
सपने सिर्फ सपने होते हैं
सच हो जाएं तो अपने नसीब होते
नहीं तो पराये लगते
——————————————

सत्य से जितनी दूर जाओगे-हास्य कविता


सत्य से जितनी दूर जाओगे
भ्रम को उतना ही करीब पाओगे
खवाब भले ही हकीकत होने लगें
सपने चाहे सामने चमकने लगें
उम्मीदें भी आसमान में उड़ने लगें
पर तुम अपने पाँव हमेशा
जमीन से ऊपर नहीं उठा पाओगे

झूठ को सच साबित करने के लिए
हजार बहानों की बैसाखियों की
जरूरत होती है
सच का कोई श्रृंगार नहीं होता
कटु होते हुए भी
उसकी संगत में सुखद अनुभूति होती हैं
कब तक उससे आंखें छिपाओगे
————————————

प्यार सच है
पर कभी दिखता नहीं है
जो दिख रहा है
वह केवल एक पल का सपना है
जिसमें होती है यह गलतफहमी कि
जो सामने वह अपना है
इस झूठ में बह गए कई लोग
अपनी हंसती-खेलती जिन्दगी
उनको चलता फिरता मुर्दा दिखता है
पराये को भी जबरदस्ती
पड़ता समझना अपना है
———————————
नोट-यह पत्रिका-ब्लोग कहीं भी लिंक नहीं है और न ही इसे पूर्व अनुमति के लिंक किया जाये. इसको लिंक करने के लिए पहले भुगतान आवश्यक है. इसकी रचनाओं के पूर्व प्रकाशन के के लिए भी अनुमति लेना जरूरी है-दीपक भारतदीप