दूसरों के अहित का विचार न करें-हिन्दी धार्मिक आलेख


‘गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ।
त के मूलि न लगीअै पाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
श्री गुरुग्रंथ साहिब की वाणी के अनुसार कुछ लोग अपने को गुरु और पीर कहते हुए अपने भक्तों से धन आदि की याचना करते हैं ऐसे लोगों के पांव कभी नहीं छूना चाहिये।


‘पर का बुरा न राखहु चीत।
तम कउ दुखु नहीं भाई मीत।
हिन्दी में भावार्थ-
दूसरे के अहित का विचार मन में भी नहीं रखना चाहिये। दूसरे के हित का भाव रखने वाले मनुष्य के पास कभी दुःख नहीं फटकता।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- महान संत भगवान श्री गुरुनानक देव जी ने अपने समय में देश में व्याप्त अंधविश्वास और रूढ़िवादिता पर जमकर प्रहार कर केवल अध्यात्मिक ज्ञान की स्थापना का प्रयास किया। उनके समकालीन तथा उनके बाद भी अनेक संत और कवियों ने धर्म के नाम पर पाखंड का जमकर प्रतिकार किया पर दुर्भाग्यवश इसके बावजूद भी हमारे देश में अंधविश्वास का अब भी बोलाबाला है। इतना ही अनेक संत कथित रूप से गुरु या पीर बनकर अपने भक्तों का दोहन करते हैं। हैरानी की बात यह है कि आजकल उनके जाल में अनपढ़ या ग्रामीण परिवेश के काम बल्कि शिक्षित लोग अधिक फंसते हैं। आज से सौ वर्ष पूर्व तक तो अंधविश्वास तथा रूढ़िवादिता के लिये देश की अशिक्षा तथा गरीबी को बताया जाता था मगर आजकल तो धनी और शिक्षित वर्ग अधिक जाल में फंसता है और हम जिनको अनपढ़, अनगढ़ और गंवार कहते हैं वही समझदार दिखते हैं।

आधुनिक शिक्षा में अध्यात्मिक ज्ञान को स्थान नहीं मिलता। लोग तकनीकी तथा उच्च शिक्षा को सर्वोपरि मानते हैं पर मन की शांति और अध्यात्मिक ज्ञान के लिये वह ऐसे अनेक ढोंगियों महात्माओं और संतों के जाल में फंस जाते हैं जो खुलेआम पैसा मांगने के साथ ही धर्म का खुलेआम व्यापार करते हैं। आश्चर्य तब होता है जब उच्च शिक्षा प्राप्त और धनीवर्ग उनके चरण स्पर्श करने के लिये भागता नज़र आता है।
जीवन में खुश रहने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि सबके हित की कामना करें। किसी के लिये बुरा विचार मन में न लायें। कभी कभी तो यह भी होता है कि जैसा अब दूसरे के लिये बुरा सोचते हैं वैसा ही अपने साथ ही हो जाता है। अतः सभी के लिये अच्छा सोचा जाये ताकि अपने साथ भी अच्छा हो।
आजकल अनेक ऐसे गुरु हैं जो खुलेआम अपने शिष्यों से आर्थिक भेंट मांगते हैं। इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो धन से ही धर्म की रक्षा का नारा देकर भक्तों के अंदर दान की भावना पैदा कर उसका दोहन करते हैं। सच बात तो यह है कि आदमी धर्म की रक्षा तभी कर सकता है जब उसके पास ज्ञान हो और उसके लिये जरूरी है कि स्वयं ही धार्मिक पुस्तको का एकांत में चिंतन कर ज्ञान प्राप्त किया किये जाये। भेंट या दक्षिण मांगने वाले गुरु कुछ देर तक हृदय में मनारंजन का भाव पैदा कर सकते हैं पर उससे मनुष्य के मन में स्थिरता नहीं आती। जब मन अस्थिर होता है तब मनुष्य अपने ही कार्यों से ताने में फंसता जाता है। इतना ही नहीं तब वह दूसरों के अहित की कामना करता है जो कि अंतत: उसके लिए ही कष्टदायक होता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुरेजा  “भारतदीप”,ग्वालियर
http://deepkraj.blogspot.com

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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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