सुविधाओं के गुलाम-व्यंग्य


15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ था या एक राष्ट्र के रूप में स्थापना हुई थी। परंतत्र देश स्वतंत्र हुआ पर क्या परतंत्र का मतलब गुलामी होता है। कुछ प्रश्न है जिन पर विचार किया जाना चाहिये। विचार होगा इसकी संभावना बहुत कम लगती है क्योंकि वाद ओर नारों पर चलने वाले भारतीय बुद्धिजीवी समाज की चिंतन करने की अपनी सीमायें हैं और अधिकतर इतिहास में लिखे गये तथ्यों-जिनकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हेाती है- के आधार पर भविष्य की योजनायें बनाते है।

कई ऐसे नारे गढ़े गये हैं जिनको भुलाना आसान नहीं लगता। कोई कहता है कि चार हजार वर्ष तक भारत गुलाम रहा तो कोई दो हजार वर्ष बताकर मन का बोझ हल्का करता है। अगर मन लें वह गुलामी थी तो फिर क्या आज आजादी हैं? अगर यह आजादी है तो यह पहले भी थी। परंतत्रता और गुलामी में अंतर हैं। तंत्र से आशय कि आपके कार्य करने के साधनों से हैं। शासन, परिवार और संस्थाओं का आधार उनके कार्य करने का तंत्र होता है जिसमें मनुष्य और साधन संलिप्त रहकर काम करते हैं। परतंत्रता से आशय यह है कि इन कार्य करने वालों साधनों और लोगों का दूसरे के आदेश पर काम करना। सीधी बात करें तो देश का शासन करने का तंत्र ही आजाद हुआ था पर लोग अपनी मानसिकता को अभी भी गुलामी में रखे हुए हैे। अधिकतर लोगों का मौलिक चिंतन नहीं है और वह इतिहास की बातें कर बताते हैं कि वह ऐसा था और वहां यह था पर भविष्य की कोई योजना किसी के पास नहीं है।
जैसे जैसे प्रचार माध्यमों की शक्ति बढ़ रही है लोग सच से रू-ब-रू हो रहे हैं और वह इस आजादी को ही भ्रम बता रहे हैं। वह अपने विचार आक्रामक ढंग से व्यक्त करते हैं पर फिर गुलामों जैसे ही निष्कर्ष निकालते हैं। बहुत विचार करना और उससे आक्रामक ढंग से व्यक्त करने के बाद अंत में ‘हम क्या कर सकते हैं’ पर उनकी बात समाप्त हो जाती है।
शायद कुछ लोगों को यह लगे कि यह तो विषय से भटकाव है पर अपने समाज के बारे में विचार किये बिना किसी भी प्रकार की आजादी को मतलब समझना कठिन है। आज भी विश्व के पिछड़े समाजों में हमारा समाज माना जाता है। बीजिंग में चल रहे ओलंपिक में एक ही स्वर्ण पदक पर पूरा देश नाच उठा पर 110 करोड़ के इस देश में कम से कम 25 स्वर्ण पदक होता तो मानते कि हमारा तंत्र मजबूत है। जब भी इन खेलों में भारतीय दलों की नाकाम की बात होती है तो तंत्र को ही कोसा जाता है। यानि हमारा तंत्र कहीं से भी इतना प्रभावशाली नहीं है कि वह 25 स्वर्ण पदक जुटा सके। इक्का-दुक्का स्वर्ण पदक आने पर नाचना भी हैरानी की बात है। भारत ने व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार अब यह स्वर्ण पदक जीता जबकि पाकिस्तान का एक मुक्केबाज इस कारनामे को पहले ही अंजाम दे चुका है पर वहां भी एसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। हमारे देश एक स्वर्ण पदक पर इतना उछलना ही इस बात का प्रमाण है कि लोगों के दिल को यह तसल्ली हो गयी कि ‘चलो एक तो स्वर्ण पदक आ गया वरना तो बुरे हाल होते’।

तंत्र की नाकामी को सभी जानते हैं। इस पर बहसें भी होती हैं पर निष्कर्ष के रूप में कदम कोई नहीं उठाता। वर्तमान हालतों से सब अंसतुष्ट हैं पर बदलाव की बात कोई सोचता नहीं है। अग्रेज अपनी ऐसाी शैक्षणिक प्रणाली यहां छोड़ गये जिसमें गुलाम पैदा होते हैंं। यह अलग बात है कि बड़ा गुलाम छोटे गुलाम का साहब होता है।

समाज और लोगों की आदतों को ही देख लें वह किस कदर सुविधाओं के गुलाम हो गये है। देश में आयात अधिक है और निर्यात कम। विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता क्या गुलामी नहीं है। जिसे पैट्रोल पर पूरा देश दौड़ रहा है उसका अधिकांश भाग विदेश से आता है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का प्रयास उसका अंग था पर क्या वह आज कोई कर रहा है। पूरा देश गैस, पैट्रोल का गुलाम हो गया है। अगर इनका उत्पादन पूरी तरह देश में होता तो कोई बात नहीं पर अगर किसी कारण वश कोई देश भारत को तेल का निर्यात बंद कर दे या िकसी अन्य कारण से बाधित हो जाये तो फिर इस देश का क्या होगा? पूरा का पूरा समाज अपंग हो जायेगा। अपने शारीरिक तंत्र से लाचार होकर सब देखता रहेगा।

फिर जिन अंग्रेजों को खलनायक मानते थे आज उसकी प्रशंसा करते हैं। उसकी हर बात को बिना किसी प्रतिवाद के मान लेते हैं। हमारे देश के अनेक लोग वहां अपने लिये रोजगार पाने का सपना देखते हैं। वैसी भी अंग्रेजों का रवैया अभी साहबों से कम नहीं है। वैसे पहले तो अपने भाषणों में सभी वक्ता अंग्रेजों को कोसते थे पर अब यह काम किसी के बूते का नहीं है। अमेरिका के मातहत अंग्रेजों से कोई टकरा पाये इसका साहस किसी में नहीं है। फिर उनके द्वारा छोड़ी गयी साहब और गुलाम की व्यवस्था में हम कौनसा बदलाव ला पाये।

फिर अंग्रेजों ने कोई भारत को गुलाम नहीं बनाया था। उन्होंने यहां रियासतों के राजा और महाराजाओं को हटाकर अपना शासन कायम किया था। यही कारण है कि आज भी कई लोग उनको वर्तमान भारत के स्वरूप का निर्माता मानते हैं। अगर देखा जाये तो जिस आम आदमी के आजादी से सांस लेकर जीने का सपना देखा गया वह कभी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तंत्र के संचालक बदले पर तंत्र नहीं। जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो अंग्रेजों की बात करनी पड़ती है पर अगर स्थापना दिवस की बात की जाये तो इस बात को भुलाया जा सकता है कि उनके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था। पिछले दिनों अखबारों में छपा था कि ब्रिटेन में भी सरकारी दफ्तर लालफीताशाही और कागजबाजी के शिकार हैं। वहां भी काम कम होता है। यानि हमारे यहां उनके द्वारा यहां स्थापित तंत्र ही काम रहा है जिसमें कागजों में लिखा पढ़कर फैसला किया जाता है या छोटे से छोटे काम पर चार लोग बैठकार लंबे समय तक विचार कर उसे करने का निर्णय करते हैं। वैसे तो लगता था कि अंग्रेजों ने केवल यहां ही साहब और गुलाम की व्यवस्था रखी पर दरअसल यह तो उनके यहां भी यही तंत्र काम कर रहा है। वहां भी कोई सभी साहब थोड़े ही हैं। वहां भी आम आदमी है और सभी लार्ड नहीं है। भारत से गये कुछ लोग भी वहां लार्ड की उपाधि से नवाजे गये हैं। मतलब यह कि भारतीय भी लार्ड हो सकते हैं यह अब पता चला है। ऐसे में ख्वामख्वाह में अंग्रेजों को महत्व देना। इससे तो अच्छा है कि इसे स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता तो अच्छा था।
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यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान-पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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